यू सूफ अल-फाख़री की आयु तब तीस वर्ष की थी , ...
यूसूफ अल-फाख़री की आयु तब तीस वर्ष की थी, जब उन्होंने संसार को त्याग दिया और उत्तरी लेबनान में वह कदेसा की घाटी के समीप एक एकांत आश्रम में रहने लगे। आसपास के देहातों में यूसुफ के बारे में तरह-तरह की किवदन्तियाँ सुनने में आती थीं। कइयों का कहना था कि वे एक धनी-मानी परिवार के थे और किसी स्त्री से प्रेम करने लगे थे, जिसने उनके साथ विश्वासघात किया। अत: (जीवन से) निराश हो उन्होंने एकान्तवास ग्रहण कर लिया। कुछ लोगों का कहना था कि वे एक कवि थे और कोलाहलपूर्ण नगर को त्यागकर वे इस आश्रम में इसलिए रहने लगे कि यहाँ (एकान्त में) अपने विचारों को संकलित कर सकें और अपनी ईश्वरीय प्रेरणाओं को छन्दोबद्ध कर सकें। परन्तु कइयों का यह विश्वास था कि वे एक रहस्यमय व्यक्ति थे और उन्हें अध्यात्म में ही संतोष मिलता था, यद्यपि अधिकांश लोगों क यह मत था कि वे पागल थे।
जहाँ तक मेरा सम्बन्ध है, इस मनुष्य के बारे में मैं किसी निश्चय पर न पहुँच पाया, क्योंकि मैं जानता था कि उसके हृदय में कोई गहरा रहस्य छिपा है, जिसके ज्ञान कल्पना-मात्र से प्राप्त नहीं किया जा सकता। एक अरसे से मैं इस अनोखे मनुष्य से भेंट करने की सोच रहा था। मैंने अनेक प्रकार से इनसे मित्रता स्थापित करने का प्रयास किया; इसलिए कि मैं इनकी वास्तविकता को जान सकूँ और यह पूछकर कि इनके जीवन का क्या ध्येय है, इनकी कहानी को जान लूँ। किन्तु मेरे सभी प्रयास विफल रहे। जब मैं प्रथम बार उनसे मिलने गया तो वे लेबनान के पवित्र देवदारों के जंगल में घूस रहे थे। मैंने उन्हें चुने हुए शब्दों की सुन्दरतम भाषा में उनका अभिवादन किया, किन्तु उन्होंने उत्तर में ज़रा-सा सिर झुकाया और लम्बे डग भरते हुए आगे निकल गये।
दूसरी बार मैंने उन्हें आश्रम के एक छोटे-से अंगूरों के बगीचे के बीच में खड़े देखा। मैं फिर उनके निकट गया। और इस प्रकार कहते हुए उनका अभिनन्दन किया, "देहात के लोग कहा करते हैं कि इस आश्रम का निर्माण चौदहवीं में सीरिया-निवासियों के एक सम्प्रदाय ने किया था। क्या आप इसके इतिहास के बारे में कुछ जानते है?"
उन्होंने उदासीन भाव में उत्तर दिया, "मैं नहीं जानता कि उस आश्रम को किसने बनवाया और सन ही मुझे यह जानने की परवा है।" उन्होंने मेरी ओर से पीठ फेर जली और बोले, "तुम अपने बाप-दादों से क्यों नहीं पूछते, जो मुझसे अधिक बूढ़े हैं और जो इन घाटियों के इतिहास से मुझसे कहीं अधिक परिचित हैं?"
अपने प्रयास को बिल्कुल ही व्यर्थ समझकर मैं लौट आया। इस प्रकार दो वर्ष व्यतीत हो गये। उस निराले मनुष्य की झक्की ज़िंदगी ने मेरे मस्तिष्क में घर कर लिया और वह बार-बार मेरे सपनों में आ-आकर मुझे तंग करने लगा।
शरद् ऋतु में एक दिन, जब मैं यूसुफ-अल फ़ाखरी के आश्रम के पास की पहाड़ियों तथा घाटियों में घूमता फिर रहा था, अचानक एक प्रचण्ड आँधी और मूसलाधार वर्षा ने मुझे घेर लिया और तूफ़ान मुझे एक ऐसी नाव की भाँति इधर-से-उधर भटकाने लगा, जिसकी पतवार टूट गई हो और जिसका मस्तूल सागर के तूफानी झकोरों से छिन्न-भिन्न हो गया हो। बड़ी कठिनाई से मैंने अपने पैरों को यूसुफ साहब के आश्रम की ओर बढ़ाया और मन-ही-मन सोचने लगा, "बड़े दिनों की प्रतीक्षा के बाद यह एक अवसर हाथ लगा है। मेरे वहाँ घुसने के लिए तूफ़ान एक बहाना बन जायगा और अपने भीगे हुए वस्त्रों के कारण मैं वहाँ काफी समय तक टिक सकूँगा।"
जब मैं आश्रम में पहुंचा तो मेरी स्थिति अत्यन्त ही दयनीय हो गई थी। मैंने आश्रम के द्वार को खटखटाया तो जिनकी खोज में मैं था, उन्होंने ही द्वार खोला। अपने एक हाथ में वह ऐसे मरणसन्न पक्षी को लिये हुए थे, जिसके सिर में चोट आई थी और पँख कट गये थे। मैंने यह कहकर उनकी अभ्यर्थना की, "कृपया मेरे इस बिना आज्ञा के प्रवेश और कष्ट के लिए क्षमा करें। अपने घर से बहुत दूर तूफ़ान में मैं बुरी तरह फँस गया था।"
त्यौरी चढ़ाकर उन्होंने कहा, " इस निर्जन वन में अनेक गुफाएँ हैं, जहाँ तुम शरण ले सकते थे।" किन्तु जो भी हो, उन्होंने द्वार बन्द नहीं किया। मेरे हृदय की धड़कन पहले से ही बढ़ने लगी; क्योंकि शीघ्र ही मेरी सबसे बड़ी तमन्ना पूर्ण होने जा रही थी। उन्होंने पक्षी के सिर को अत्यन्त ही सावधानी से सहलाना शुरु किया और इस प्रकार अपने एक ऐसे गुण को प्रकट करने लगे, जो मुझे अति प्रिय था। मुझे इस मनुष्य के दो प्रकार के परस्पर विरोधी गुण-दया और निष्ठुरता-को एक साथ देखकर आश्चर्य हो रहा था। हमें ज्ञात हुआ कि हम गहरी निस्तब्धता के बीच खड़े है। उन्हें मेरी उपस्थिति पर क्रोध आ रहा था और मैं वहाँ ठहरे रहना चाहता था।
ऐसा प्रतीत होता है कि उन्होंने मेरे विचारों को भाँप लिया, क्योंकि उन्होंने ऊपर (आकाश) की ओर देखा और कहा, "तूफ़ान साफ है और खट्टा (बुरे मनुष्य का) मांस खाना नहीं चाहता। तुम इससे बचना क्यों चाहते हो?"
कुछ व्यंग्य से मैंने कहा, "हो सकता है, तूफ़ान खट्टी और नमकीन वस्तुएँ न खाना चाहता हो, किन्तु प्रत्येक पदार्थ को वह ठण्ड़ा तथा शक्तिहीन बना देने पर तुला है और निस्संदेह यह वह मुझे फिर से पकड़ लेगा तो अपने में समाये बिना न छोड़ेगा।"
उनके चेहरे का भाव यह कहते-कहते अत्यन्त कठोर हो गया, "यदि तूफ़ान ने तुम्हें निगल लिया होता तो तुम्हारा बड़ा सम्मान किया होता, जिसके तुम योग्य भी नहीं हो।"
मैंने स्वीकारते हुए कहा, "हाँ श्रीमान ! मैं इसीलिए तूफ़ान से छिप गया कि कहीं ऐसा सम्मान न पा जाऊं, जिसके कि मैं योग्य ही नहीं हूँ ।"
इस चेष्टा में कि वे अपने चेहरे पर की मुस्कान मुझसे छिपा सकें, उन्होंने अपना मुंह फेर लिया। तब वे अंगीठी के पास रखी हुई एक लकड़ी की बेंच की ओर बढ़े और मुझसे कहा कि मैं विश्राम करूँ और अपने वस्त्रों को सूखा लूँ । अपने उल्लास को मैं बड़ी कठिनाई से छिपा सका।
मैंने उन्हें धन्यवाद दिया और स्थान ग्रहण किया। वे भी मेरे सामने ही एक बेंच पर, जो पत्थर को काटकर बनाई गई थी, बैठ गये। वे अपनी उँगलियों को एक मिट्टी के बरतन में, जिसमें एक प्रकार का तेल रखा हुआ था, बार-बार डुबोने लगे और उस पक्षी के सिर तथा पँखों पर मलने लगे।
बिना ऊपर को देखे ही बोले, "शक्तिशाली वायु ने इस पक्षी को जीवन-मृत्यु के बीच पत्थरों पर दे मारा था।",
तुलना-सी करते हुए मैंने उत्तर दिया, "और भयानक तुफान ने इससे पहले कि मेरा सिर चकनाचूर हो जाय और मेरे पैर टूट जायं मुझे भटकाकर आपके द्वार पर भेज दिया।" गम्भीरतापूर्वक उन्होंने मेरी ओर देखा और बोले, "मेरी तो यही चाह है कि मनुष्य पक्षियों का स्वभाव अपनाये और तूफ़ान मनुष्य के पैर तोड़ डाले; मनुष्य का झुकाव भय और कायरता की ओर है और जैसे ही वह अनुभव करता है कि तूफ़ान जाग गया है, यह रेगते-रेंगते गुफाओं और खाइयों में घुस जाता है। अपने को छिपा लेता हैं।"
मेरा उद्देश्य था कि उनके स्वत: स्वीकृत एकान्तवास की कहानी जान लूँ । इसीलिए मैंने उन्हें यह कहकर उत्तेजित किया, "हाँ ! पक्षी के पास ऐसा सम्मान और साहस है, जो मनुष्य के पास नहीं। मनुष्य विधान तथा सामाजिक आचारों के साये में वास करता है, जो उसने अपने लिए स्वयं बनाये हैं: किन्तु पक्षी उसी स्वतन्त्र-शाश्वत विधान के अधीन रहते हैं, जिसके कारण पृथ्वी सूर्य के चारों ओर रास्ते पर निरन्तर घूमती रहती है।"
उनके नेत्र और चेहरा चमकने लगे, मानों मुझसे उन्होंने एक समझदार शिष्य को पा लिया हो। वे बोले, "अति सुन्दर! यदि तुम्हे स्वयं अपने शब्दों पर विश्वास है तो तुम्हें सभ्यता और उसके दूषित विधान तथा अति प्राचीन परम्पराओं को तुरन्त ही त्याग देना चाहिए और पक्षियों की तरह ऐसे शून्य स्थान में रहना चाहिए, जहाँ आकाश और पृथ्वी के महान विधान के अतिरिक्त कुछ भी न हो।
"विश्वास रखना एक सुन्दर बात है; किन्तु उस विश्वास को प्रयोग में लाना साहस का काम है। अनेक मनुष्य ऐसे हैं, जो सागर की गर्जन के समान चीखते रहते हैं, किन्तु उनका जीवन खोखला और प्रवाहहीन होता है जैसे कि सड़ती हुई दल-दल, और अनेक ऐसे हैं, जो अपने सिरों को पर्वत की चोटी से भी ऊपर उठाये चलते हैं, किन्तु उनकी आत्माएं कन्दराओं के अन्धकार में सोती पड़ी रहती हैं।"
वे काँपते हुए अपनी जगह से उठे और पक्षी को खिड़की के ऊपर एक तह किये हुए कपड़े पर रख आये। तब उन्होंने कुछ सूखी लकड़ियाँ अँगीठी में डाल दीं। और बोले, "अपने जूतों को उतार दो और अपने पैरों को सेंक लो, क्योंकि भीगे रहना आदमी के स्वास्थय के लिए हानिकारक है। तुम अपने वस्त्रों को ठीक से सूखा लो और आराम से बैठो।"
यूसुफ साहब के इस निरन्तर आतिथ्य ने मेरी आशाओं को उभार दिया। मैं आग के और समीप खिसक गया और मेरे भीगे कुरते से पानी भाप बनकर उड़ने लगा। जब वह भूरे आकाश को निहारते हुए ड्योढ़ी पर खड़े रहे मेरा मस्तिष्क उनके आन्तरिक रहस्यों को खोजता दौड़ रहा था। मैंने एक अनजान की तरह उनसे पूछा, "क्या आप बहुत दिनों से यहाँ रह रहे है?"
मेरी ओर देखे बिना ही उन्होंने शान्त स्वर में कहा, "मैं इस स्थान पर तब आया था, जब यह पृथ्वी निराकार तथा शून्य थी, जब इसके रहस्यों पर अन्धकार छाया हुआ था, और ईश्वर की आत्मा पानी की संतह पर तैरती थी।"
यह सूनकर मैं अवाक् रह गया। क्षुब्ध और अस्त-व्यस्त ज्ञान को समेटने का संघर्ष करते हुए मन-ही-मन मैं बोला, "कितने अजीब व्यक्ति हैं ये और कितना कठिन है इनके वास्तविकता को पाना ! किन्तु मुझे सावधानी के साथ, धीरे-धीरे और संतोष रखकर तबतक चोट करनी होगी, जबतक इनकी मूकता बातचीत में न बदल जाय और इनके विचित्रता समझ में न आ जाय!"
रात्रि अपनी अन्धकार की चादर उन घाटियों पर फैला रही थी। मतवाला तूफ़ान चिंघाड़ रहा था और वर्षा बढ़ती ही जा रही थीं। मैं सोचने लगा कि बाइबिल वाली बाढ़ चैतन्य को नष्ट करने और ईश्चर की धरती पर से मनुष्य की गंदगी को धोने के लिए फिर से आ रही है।
ऐसा प्रतीत होने लगा कि तत्वों की क्रान्ति ने यूसुफ साहब के हृदय में एक ऐसी शान्ति उत्पन्न की है, जो प्राय: स्वभाव पर अपना असर छोड़ जाती है और एकान्तता को प्रसन्नता से प्रतिबिम्बित कर जाती है। उन्होंने दो मोमबत्तियाँ सुलगायीं और तब मेरे सम्मुख शराब की एक सुराही और एक बड़ी तश्तरी में रोटी मक्खन, जैतून के फल, मधु और कुछ सूखे मेवे लाकर रक्खे। तब वह मेरे पास बैठ गये और खाने की थोड़ी मात्रा के लिए-उसकी सादगी के लिए नहीं - क्षमा माँग कर, उन्होंने मुझसे भोजन करने को कहा।
हम उस समझी-बूझी निस्तब्धता में हवा के विलाप तथा वर्षा के चीत्कार को सुनते हुए साथ-साथ भोजन करने लगे। साथ ही मैं उनके चेहने को घूरता रहा और उनके हृदय के रहस्यों को कुरेद-कुरेदकर निकालने का प्रयास करता रहा। उनके असाधारण अस्तित्व के सम्भव कारण को भी सोचता रहा। भोजन समाप्त करके उन्होंने अँगीठी पर से एक पीतल की केतली उठाई और उसमें से शुद्ध सुगन्धित कॉफी दो प्यालों में उड़ेल दी। तब उन्होंने एक छोटे-से लड़की के बक्स को खोला और ‘भाई’ शब्द से सम्बोधित कर, उसमे से एक सिगरेट भेंट की। कॉफी पीते हुए मैंने सिगरेट ले ली, किन्तु जो कुछ भी मेरी आँखे देख रही थी, उस पर मुझे विश्वास नहीं हो रहा था।
उन्होंने मेरी ओर मुस्कराते हुए देखा और अपनी सिगरेट का एक लम्बा कश खींचकर तथा काफी की एक चुस्की लेकर उन्होंने कहा, "अवश्य ही तुम-मदिरा, कॉफी और सिगरेट यहाँ पाकर सोच में पड़ गये हो और मेरे खान-पान तथा ऐश आराम पर उन्हीं लोगों में से एक हो, जो इन बातों में विश्चास करते हैं। कि लोगों से दूर रहने पर मनुष्य जीवन से भी दूर हो जाता है। और ऐसे मनुष्य को उस जीवन के सभी सुखों से वंचित रहना चाहिए।"
मैंने तुरन्त स्वीकार कर लिया, "हाँ ! ज्ञानियों का यही कहना है कि जो केवल ईश्वर की प्रार्थना करने के लिए संसार को त्याग देता है, वह जीवन के समस्त सुख और आनन्द को अपने पीछे छोड़ आता है, केवल ईश्वर द्वारा निर्मित वस्तुओं पर सन्तोष करता है और पानी और पौधों पर ही जीवित रहता है।"
ज़रा रुककर गहन विचारों में निमग्न वे बोले, "मैं ईश्वर की भक्ति तो उसके जीवों के बीच रहकर भी कर सकता था, क्योंकि उसे तो मैं हमेशा से अपने माता-पिता के घर पर भी देखता आया हूँ । मैंने मनुष्यों का त्याग केवल इसलिए किया कि उनका और मेरा स्वभाव मिलता न था और उनकी कल्पना मेरी कल्पनाओं से मेल नहीं खाती थीं। मैंने आदमी को इसीलिए छोड़ा क्योंकि मैंने देखा कि मेरी आत्मा के पहियों से जोर से टकरा रहे हैं और दूसरी दिशा में घूमते हुए दूसरी आत्माओ के पहियों से जोर से टकरा रहे है। मैंने मानव-सभ्यता को छोड़ि दिया, क्योकि मैंने देखा कि वह एक ऐसा पेड़ हैं, जो अत्यन्त पुराना और भ्रष्ट हो चुका है, किन्तु है शक्तिशाली तथा भयानक। उसकी जड़ें पृथ्वी के अंधकार में बन्द हैं और उसकी शाखाएँ बादलों में खो गई हैं। किन्तु उसके फूल लोभ, अधर्म और पाप से बने हैं और फल दु:ख संतोष और भय से। धार्मिक मनुष्यों ने यह बीड़ा उठाया हैं। उसके स्वभाव को बदल देगें,किन्तु वे सफल नहीं हो पाये हैं। वे निराश तथा दुखी होकर मृत्यु को प्राप्त हुए।"
यूसुफ साहब अंगीठी की ओर थोड़ा-सा झुके, मानों अपने शब्दों की प्रतिक्रिया जानने की प्रतीक्षा में हों। मैंने सोचा कि श्रोता ही बने रहना सर्वोत्तम है। वे कहने लगे, "नहीं, मैंने एकान्तवास इसलिए नहीं अपनाया कि मैं एक संन्यासी की भाँति जीवन व्यतीत करूँ, क्योंकि प्रार्थना, जो हृदय का गीत है, चाहे सहस्त्रों की चीख-पुकार की आवाज़ से भी घिरी हो, ईश्वर के कानों तक अवश्य पहुँच जायेगी।
"एक बैरागी का जीवन बिताना तो शरीर और आत्मा को कष्ट देना है तथा इच्छाओं का गला घोंटना है। यह एक ऐसा अस्तित्व है, जिसके मैं नितान्त विरुद्ध हूँ ; क्योंकि ईश्वर ने आत्माओं के मंदिर के रूप में ही शरीर का निमार्ण किया है। और हमारा यह कर्तव्य है कि उसे विश्वास को, जो परमात्मा ने हमें प्रदान किया हैं, योग्यतपूर्वक बनाये रखें।
"नहीं, मेरे भाई, मैंने परमार्थ के लिए एकान्तवास नहीं अपनाया, अपनाया तो केवल इसलिए कि आदमी और उसके विधान से, उसके विचारों तथा उसकी शिकायतों से उसके दु:ख और विलापों से दूर रहूँ ।
"मैंने एकान्तवास इसलिए अपनाया कि उन मनुष्यों के चेहरे न देख सकूँ, जो अपना विक्रय करते हैं और उसी मूल्य से ऐसी वस्तुएँ खरीदते है, जो आध्यात्मिक तथा भौतिक दोनों ही रुप उनसे भी घटियाँ हैं।
"मैंने एकान्तवास इसलिए ग्रहण किया कि कहीं उन स्त्रियों से मेरी भेट न हो जाए,जो अपने ओठों पर अनेकविध मुस्कान फैलाये गर्व से घूमती रहती हैं - जबकि उनके सहस्त्रों हृदयों की गहराइयों में बस एक ही उद्देश्य विद्यमान है।
"मैंने एकान्तवास इसलिए ग्रहण किया कि मैं उन आत्म-सन्तुष्ठ व्यक्तियों से बच सकूँ, जो अपने सपनों में ही ज्ञान की झलक पाकर यह विश्चास कर लेते हैं कि उन्होंने अपना लक्ष्य पा लिया।
"मैं समाज से इसलिए भागा कि उनसे दूर रह सकूँ जो अपनी जागृति के समय में सत्य का आभास-मात्र का पाकर संसार भर मे चिल्लाते फिरते हैं कि उन्होंने सत्य को पूर्णत: प्राप्त कर लिया है।
"मैंने संसार का त्याग किया और एकान्तवास को अपनाया, क्योंकि मैं ऐसे लोगों के साथ भद्रता बरतते थक गया था, जो नम्रता को एक कार की कमजोरी, दया को एक प्रकार सकी कारयता तथा क्रूरता को एक प्रकार की शक्ति समझते हैं।
"मैंने एकान्तवास अपनाया, क्योंकि मेरी आत्मा उन लोगों के समागम से थक चुकी थी, जो वास्तव में इस बात पर विश्वास करते हैं कि सूर्य चाँद और तारे उनके ख़जानों से ही उदय होते हैं और उनके बगीचों के अतिरिक्त कहीं अस्त नहीं होते। "मैं उन पदलोलुपों के पास से भागा, जो लोगों की आँखों में सुनहरी धूल झोंककर और उनके कानों की अर्थ विहीन आवाजों से भरकर उनके सांसारिक जीवन की छिन्न-भिन्न कर देते हैं।
"मैंने एकान्तवास ग्रहण किया; क्योंकि मुझे तबतक कभी किसी से दया न मिली, जबतक मैंने जी-जान से उसका पूरा-पूरा मूल्य न चुका दिया।
"मैं उन धर्म-गुरुओं से अगल हुआ, जो धर्मोपदेशों के अनुकूल स्वयं जीवन नहीं बिताते, किन्तु अन्य लोगों से ऐसे आचरण की माग करते हैं, जिसे वे स्वयं अपनाते नहीं।
"मैंने एकान्तवास अपनाया; क्योंकि उस महान और विकट संस्था से ही मैं विमुख था, जिसे लोग सभ्यता कहते हैं और जो मनुष्य जाति की अविच्छिन्न दुर्गति पर एक सुरुप दानवता के रुप में छाई हुई है।
"मैं एकान्तवासी इसलिए बना कि इसी में आत्मा के लिए, हृदय के लिए तथा शरीर के लिए पूर्ण जीवन है। अपने इस एकान्तवास में मैंने वह मनोहर देश ढूंढ निकाला है, जहाँ सूर्य का प्रकाश विश्राम करता है: जहाँ पुष्प अपनी सुगन्ध को अपने मुक्त श्वासों द्वारा शून्य में बिखेरते हैं, और जहाँ सरिताएँ गाती हुई सागर को जाती हैं। मैंने ऐसे पहाड़ों को खोज निकाला है, जहाँ मैं स्वच्छ वसन्त को जागते हुए देखता हूँ । और ग्रीष्म की रंगीन अभिलाषाओं, शरद के वैभवपूर्ण गीतों और शीत के सुन्दर रहस्यों को पाता हूँ । ईश्वर के राज्य के इस दूर कोने में मैं इसलिए आया हूँ । क्योंकि विश्च के रहस्यों को जानने और प्रभु के सिंहासन के निकट पहुँच ने के लिए भी तो मैं भूखा हूँ ।"
यूसुफ साहब ने तब एक लम्बी साँस ली, मानों किसी भारी बोझ से अब मुक्ति पा गये हों। उनके नेत्र अनोखी तथा जादूभरी किरणों से सतेज हो उठे और उनके उज्जवल चेहरे पर गर्व, संकल्प संतोष झलकने लगा।
कुछ मिनट ऐसे ही गुजर गये। मैं उन्हें गौर से देखता रहा और जो मेरे लिए अभी तक अज्ञात था उस पर से आवतरण हटता तब मैंने उनसे कहा, "निस्संदेह आपने जो कुछ कहा, उसमें अधिकांश सही है; किंतु लक्षणो को देखकर सामाजिक रोगों का सही अनुमान लगाने से यह प्रमाणित हो गया है कि आप एक अच्छे चिकित्सक हैं मैं समझता हूँ कि रोगी समाज को आज ऐसे चिकित्सक की अति आवश्यकता है, जो उसे रोग से मुक्त करे अथवा मृत्यु प्रदान करे। यह पीड़ित संसार सबसे दया की भीख चाहता है। क्या यह दयापूर्ण तथा न्यायोचित होगा कि आप एक पीड़ित रोगी को छोड़ जायं और उसे अपने उपकार से वंचित रहने दें?"
वे कुछ सोचते हुए मेरी ओर एकटक देखने लगे और फिर निराश स्वर में बोले, "चिकित्सक सृष्टि के आरम्भ से ही मानव को उनकी अव्यवस्थाओं से मुक्त कराने की चेष्टाएँ करते आ रहे हैं। कुछ चिकित्सकों ने चीरफाड़ का प्रयोग किया और कुछ ने औषधियों का: किन्तु महामारी बुरी तरह फैलती गई। मेरा तो यही विचार है कि रोगी अगर अपनी मैली-कुचैली शैया पर ही पड़े रहने में संतुष्ट रहता और अपनी चिरकालीन व्याधि पर मनन-मात्र करता तो अच्छा होता! लेकिन इसके बदले होता क्या है? जो व्यक्ति भी रोगी मानव से मिलने आता है, अपने ऊपरी लबादे के नीचे से हाथ निकालकर वह रोगी उसी आदमी को गर्दन से पकड़कर ऐसा धर दबाता है कि वह दम तोड़ देता है। हाय यह कैसा अभाग्य है! दुष्ट रोगी अपने चिकित्सक को ही मार डालता है - और फिर अपने नेत्र बन्द करके मन-ही-मन कहता है, ‘वह एक बड़ा चिकित्सक था।’ न, भाई न, संसार में कोई भी इस मनुष्यता को लाभ नहीं पहुँचा सकता। बीज बोनेवाला कितना भी प्रवीण तथा बुद्धिमान् क्यों न हो शीतकाल में कुछ भी नहीं उगा सकता !’’
किन्तु मैंने युक्ति दी "मनुष्यों का शीत कभी तो समाप्त होगा ही, फिर सुन्दर वसन्त आयेगा और तब अवश्य ही खेतों में फूल खिलेंगे और फिर से घाटियों में झरने वह निकलेगें।"
उनकी भृकुटी तन गई और कड़वे स्वर में उन्होंने कहा, "काश! ईश्वर ने मनुष्य का जीवन जो उसकी परिपूर्ण वृति हैं, वर्ष की भाँति ऋतुओं में बाँट दिया होता! क्या मनुष्यों का कोई भी गिरोह जो, ईश्चर के सत्य और उसकी आत्मा पर विश्वास रखकर जीवित है, इस भूखण्ड पर फिर से जन्म लेना चाहेगा? क्या कभी ऐसा समय आयेगा जब मनुष्य स्थिर होकर दिव्य चेतना की टिक सकेगा, जहाँ दिन के उजाले की उज्ज्वलता तथा रात्रि की शान्त निस्तब्ध्ता में वह खुश रह सके? क्या मेरा यह सपना कभी सत्य हो पायेगा? अथवा क्या यह सपना तभी सच्चा होगा जब यह धरती मनुष्य के मांस से ढ़क चुकी होगी और उसके रक्त से भीग चुकी होगी?"
यूसुफ साहब तब खड़े हो गये और उन्होने आकाश की ओर ऐसे हाथ उठाया, मानो किसी दूसरे संसार की ओर इशारा कर रहे हों और बोले, "नही हो सकता।इस संसार के लिए यह केवल एक सपना है। किंतु मैं अपने लिए इसकी खोज कर रहा हूँ । और जो मैं खोज रहा हूँ । वही मेरे हृदय के कोने-कोने में, इन घाटियों में और इन पहाड़ो में व्याप्क है।" उन्होंने अपने उत्तेजित स्वर को और भी ऊँचा करके कहा, "वास्तव में मैं जानता हूँ । वह तो मेरे अन्त: करण की चीत्कार है। मैं यहाँ रह रहा हूँ, किंतु मेरे अस्तित्व की गहराइयों में भूख और प्यास भरी हुई है, और अपने हाथों द्वारा बनाये तथा सजाये पात्रों में ही जीवन की मदिरा तथा रोटी लेकर खाने में मुझे आनंद मिलता तथा इसीलिए मैं मनुष्यों के निवास स्थान को छोड़कर यहाँ आया हूँ और अंत तक यहीं रहूँगा।"
वे उस कमरे में व्याकुलता से आगे पीछे घूमते रहे और मैं उनके कथन पर विचार करता रहा तथा समाज के गहरे घावों की व्याख्या का अध्ययन करता रहा।
तब मैंने यह कहकर ढंग से एक और चोट की, "मैं आपके विचारों तथा आपकी इच्छाओं का पूर्णत: आदर करता हूँ और आपके एकान्तवास पर मैं श्रद्धा भी करता हूँ । और ईर्ष्या भी। किन्तु आपके अपने से अलग करके अभागे राष्ट्र ने काफी नुकसान उठाया है; उसे एक ऐसे समझकर सुधाकर की आवश्यकता है, जो कठिनाइयों में उसकी सहायता कर सके और सुप्त चेतना को जगा सके।"
उन्होंने धीमे-से अपना सिर हिलाकर कहा, "यह राष्ट्र भी दूसरे राष्ट्रों की तरह ही है, और यहाँ के लोग भी उन्हीं तत्वों से बने हैं, जिनसें शेष मानव। अंतर है तो मात्र बाह्य आकृतियों का, सो कोई अर्थ ही नहीं रखता। हमारे पूर्वीय राष्टों की वेदना सम्पूर्ण संसार की वेदना है। और जिसे तुम पाश्चात्य सभ्यता कहते हो वह और कुछ नहीं,उन अनेक दुखान्त भ्रामक आभासों का एक और रूप है।
"पाखण्ड तो सदैव ही पाखण्ड रहेगा, चाहे उसकी उँगलियों को रंग दिया जाय तथा चमकदार बना दिया जाय। बजना कभी न बदलेगी चाहे उसका स्पर्श कितना भी कोमल तथा मधुर क्यों न हो जाय! असत्यता कभी भी सत्यता में परिणत नहीं की जा सकती, चाहे तुम उसे रेशमी कपड़े पहनकर महलों में ही क्यों न बिठा दो। और लालसा कभी संतोष नहीं बन सकती है। रही अनंत गुलामी, चाहे वह सिद्धातों की हो, रीति-रिवाज़ों की हो या इतिहास की हो सदैव गुलामी ही रहेगी, कितना ही वह अपने चेहरे को रंग ले और अपनी आवाज़ को बदल ले। गुलामी अपने डरावने रुप में गुलामी ही रहेगी, तुम चाहें उसे आज़ादी ही कहों।
"नहीं मेरे भाई, पश्चिम न तो पूर्व से ज़रा भी ऊँचा है और न ज़रा भी नीचा। दोनों में जो अंतर है वह शेर और शेर-बबर के अंतर से अधिक नहीं है। समाज के बाह्य रुप के परे मैंने एक सर्वोचित और सम्पूर्ण विधान खोज निकाला है, जो सुख-दुख तथा अज्ञान सभी को एक समान बना देता है। वह विधान ने एक जाति का दूसरी से बढ़कर मानता है और न एक को उभारने के लिए दूसरे को गिराने का प्रयत्न करता है।"
मैंने विस्मय से कहा, "मनुष्यता का अभिमान झूठा है और उसमें जो कुछ भी है वह सभी निस्सार है।"
उन्होंने जल्दी से कहा, "हाँ, मनुष्यता एक मिथ्या अभिमान है और उसमें जो कुछ भी है, वह सभी मिथ्या है। आविष्कार तथा खोज तो मनुष्य अपने उस समय के मनोरंजन और आराम के लिए करता है, जब वह पूर्णतया थककर हार गया हो। देशीय दूरी को जीतना और समुद्रों पर विजय पाना ऐसा नश्चर फल है जो ने तो आत्मा को संतुष्ट कर सकता है, न हृदय का पोषण तथा उसका विकास ही; क्योंकि वह विजय नितान्त ही अप्राकृतिक है। जिन रचनाओं और सिद्धांतो को मनुष्य कला और ज्ञान कहकर पुकारता है, वे बंधन की उन कड़ियों और सुनहरी जंजीरो के अतिरिक्त कुछ भी नहीं है, जिन्हें मनुष्य अपने साथ घसीटता चलता है और जिनके चमचमाते प्रतिबिम्बों तथा झनझनाहट से वह प्रसन्न होता रहता है। वास्तव में वे मजबूत पिंजरे मनुष्य ने शताब्दियों पहले बनाना आरंभ किया था कितुं तब वह यह ने जानता था कि उन्हें वह अन्दर की तरफ से बना रहा और शीघ्र ही वह स्वयं बंदी बन जायेगा-हमेशा-हमेशा के लिए। हाँ-हाँ, मनुष्य के कर्म निष्फल हैं और उसके उद्देश्य निरर्थक हैं और इस पृथ्वी पर सभी कुछ निस्सार है।"
वे ज़रा से रूके और फिर धीरे-से बोलते गये, "और जीवन की इन समस्त निस्सारताओं में केवल एक ही वस्तु है, जिससे आत्म प्रेम करती हैं जिसे वह चाहती है। एक और अकेली देदीप्यमान वस्तु !"
मैंने कंपित स्वर में पूछा, "वह क्या ?" क्षण भर उन्होंने मुझे देखा और तब अपनी आँखे मीच लीं। अपने हाथ छाती पर रखे। उनका चेहरा तमतमाने लगा और विश्वसनीय तथा गंभीर आवाज़ में बोले, "वह है आत्मा की जागृति, वह है हृदय की आन्तरिक गहराइयों का उद्बोधन। वह सब पर छा जानेवाली एक महाप्रतापी शक्ति है, जो मनुष्य-चेतना में कभी भी प्रबुद्ध होती है और उसकी आँखे खोल देती है। तब उस महान् संगीत की उज्ज्वल धारा के बीच, जिसे अनंत प्रकाश घेरे रहता है, वह जीवन दिखाई पड़ता है, जिससे लगा हुआ मनुष्य सुन्दरता के स्तम्भ के समान आकाश और पृथ्वी के बीच खड़ा रहता है।
"वह एक ऐसी ज्वाला है, जो आत्मा में अचानक सुलग उठती है और हृदय को तपाकर पवित्र बना देती है, पृथ्वी पर उतर आती है और विस्तृत आकाश में चलकर लगाने लगती है।
"वह एक दया है, जो मनुष्य के हृदय को आ घेरती है, ताकि उसकी प्रेरणा से मनुष्य उन सबको आवाक् बनाकर अमान्य कर दे, जो उसका विरोध करते है और जो उसके महान् अर्थ समझने में असमर्थ रहते हैं, उनके विरुद्ध वह शक्ति विद्रोह पैदा करती है।
"वह एक रहस्यमय हाथ हैस, जिसने मेरे नेत्रो के आवरण को तभी हटा दिया, जब मैं समाज का सदस्य बना हुआ अपने परिवार, मित्रों तथा हितैषियों के बीच रहा करता था।
"कई बार मैं विस्मत हुआ और मन-ही-मन कहता रहा, -‘क्या है यह सृष्टि और क्यों मैं उन लोगों से भिन्न हूँ, जो मुझे देखते हैं? मैं उन्हें कैसे जानता हूँ, उन्हें मैं कहाँ मिला और क्यों मैं उनके बीच रह रहा हूँ ? क्या मैं उन लोगों में एक अजनबी हूँ । अथवा वे ही इस प्रकार अपरिचित है-ऐसे संसार के लिए जो दिव्य चेतना से निर्मित है और जिसका मुझे पर पूर्ण विश्चास है?"
अचानक वे चुप हो गये, जैसे कोई भूली बात स्मरण कर रहें हो, जिसे वह प्रकट नहीं करना चाहते। तब उन्होंने अपनी बांहें फैला दीं और फुसफूसाया, "आज से चार वर्ष पूर्व, जब मैंने संसार का त्याग किया, मेरे साथ यही तो हुआ था। इस निर्जन स्थान में मैं इसलिए आया कि जागृत चेतना में देख सकूँ और सौमनस्यता और सौम्य नीरवता के आनदं को भोग सकूँ ।"
गहन अंधकर की ओर घूरते हुए वे द्वार की ओर बढ़े, मानों तूफ़ान से कुछ कहना चाहते हो, पर वे प्रकंपित स्वर में बोले, "यह आत्मा के भीतर की जागृति है। जो इसे जानता हों, पर वे प्रकम्पित स्वर में बोले, "यह आत्मा के भीतर की जागृति है। जो इसे जानता है, वह इसे शब्दों में व्यक्त नहीं कर सकता, और जो नहीं जानता, वह अस्त्वि के विवश करनेवाले किंतु सुंदर रहस्यों के बारे में कभी ने सोच सकेगी।"
एक घंटा बीत गया, यूसुफ-अल फाख़री कमरे में एक कोने से दूसरे कोने तक लम्बे डग भरते घूम रहे थे। वे कभी-कभी रुककर तुफान के कारण अत्यधिक भूरे आकाश को ताकने लगते थे। मैं खामोश ही बना रहा और उनके एकांतवासी जीवन की दु:ख-सुख की मिली-जुली तान पर सोचता रहा।
कुछ देर बाद रात्रि होने पर वे मेरे पास आये और देर तक मेरे चेहरे को घूरते रहे, मानों उस मनुष्य के चित्र को अपने मानस-पट पर अंकिट कर लेना सोच हो, जिसकें सम्मुख उन्होंने अपने जीवन के गूढ रहस्यों का उद्धटन कर दिया हो। विचारो की व्याकुलता से मेरा मन भारी हो गया था। और तूफ़ान की धुन्ध के कारण मेरी आँखें बोझिल हो चली थीं।
तब उन्होंने शांतिपूर्वक कहा, "मैं अब रात भर तुफान में घूमने जा रहा हूँ । ताकि प्रकृत के भावाभिव्यंजन की समीपता भाँप सकूँ । यह मेरा अभ्यास है, जिसका आनंद मैं अधिकतर शरद तथा शीत में लेता हूँ । लो, यह थोड़ी मदिरा है और यह तम्बाकू। कृपा कर आज रात भर के लिए मेरा घर अपना ही समझो।"
उन्होंने अपने आपको एक काले लबादे से ढंक लिया और मुस्कराकर बोले, "मैं तुमसे प्रार्थना करता हूँ कि सुबह जब तुम जाओं तो बिना आज्ञा के प्रवेश करनेवालों के लिए मेरे द्वार बन्द करते जाना: क्योंकि मेरा कार्यक्रम है कि मैं सारा दिन पवित्र देवदारो के बन में घूमते बिताऊंगा।" तब वे द्वार की ओर बढ़े और एक लम्बी छड़ी साथ लेकर बोले, "यदि तूफ़ान फिर कभी तुम्हें अचानक इस जगह के आपपास घूमते हुए आ घेरे, तो इस आश्रम में आश्रय लेने में संकोच न करना। मुझे आशा है कि अब तुम तूफ़ान से प्रेम करना सीखोगे, भयभीत होना नही! सलाम, मेरे भाई!"
उन्होंने द्वार खोला और अन्धकार में अपने सिर को ऊपर उठाये बाहर निकल गये। यह देखने के लिए कि वे कौन-से रास्ते से गये हैं, मैं ड्योढ़ी पर ही खड़ा रहा, कितुं शीघ्र ही वे मेरी आंखों से ओझल हो गये। कुछ मिनटों तक मैं घाटी के कंकड़-पत्थरो पर उनकी पदचाप सुनता रहा।
गहन विचारो की उस रात्रि के पश्चात जब सुबह हुई तब तूफ़ान चुका था और आसमान निर्मल हो गया था। सूर्य की गर्म किरणों से मैदान और घाटियाँ तमतमा रही थीं। नगर को लौटते समय मैं उस आत्मिक जागृति के सम्बन्ध में सोचता जाता था, जिसके लिए यूसुफ-अल-फाख़री ने इतना कुछ कहा था। वह जागृति मेरे अंग-अंग में व्याप रही थी। मैंने सोचा कि मेरा यह स्फरण अवश्य ही प्रकट होना चाहिए। जब मैं कुछ शान्त हुआ तो मैंने देखा कि मेरे चारों ओर पूर्णता तथा सुन्दरता बसी हुई है।
जैसे ही मैं उन चीखते-पुकारते नगर के लोगों के पास पहुँचा मैंने उनकी आवाज़ों को सुना और उनके कार्यो को देखा, तो मैं रूक गया और अपने अन्त:करण से बोला, "हाँ आत्मबोध मनुष्य के जीवन में अति आवश्यक है और यही मानव-जीवन का एकमात्र उद्देश्य है। क्या स्वयं सभ्यता समस्त दु:खपूर्ण बहिरंग में आत्मिक जागृति के लिए एक महान ध्येय नहीं है? तब हम किस प्रकार एक ऐसे पदार्थ के अस्तित्व से इंकार कर सकते हैं, जिसका अस्तित्व ही अभीप्सित योग्यता की समानता का पक्का प्रमाण है? वर्तमान सभ्यता चाहे नाशकारी प्रयोजन ही रखती हो, कितुं ईश्वरीय विधान ने उस प्रयोजन के लिए एक ऐसी सीढ़ी प्रदान की है, जो स्वतन्त्र अस्तित्व की ओर ले जाती है।"
मैंने फिर कभी यूसुफ-अल फाख़री को नहीं देखा, क्योंकि मेरे अपने प्रयत्नों के कारण, जिनके द्वारा मैं सभ्यता की बुराइयों को दूर करना चाहता था, उसी शरद ऋतु के अन्त में मुझे उत्तरी लेबनान से देख निकाला दे दिया गया और मुझे एक ऐसे दूर देश में प्रवासी का जीवन बिताना पड़ा है, जहाँ के तूफ़ान बहुत कमजोर हैं और उस देश में एक आश्रमवासी का-सा जीवन बिताना एक अच्छा-खासा पागलपन हैं, क्योंकि यहाँ का समाज भी बीमार है।
बहुत खूब ! क्या अच्छा लिखते थे खलील पर कोशिश करेँ कि उनके काव्य को पोस्ट करेँ......
जवाब देंहटाएंबहुत खूब ! क्या अच्छा लिखते थे खलील पर कोशिश करेँ कि उनके काव्य को पोस्ट करेँ......
जवाब देंहटाएंबहुत खूब ! क्या अच्छा लिखते थे खलील पर कोशिश करेँ कि उनके काव्य को पोस्ट करेँ......
जवाब देंहटाएंShander ......
जवाब देंहटाएंBahut Khoob...
सुंदर बहुत सुंदर
जवाब देंहटाएंधन्यवाद
excellant
जवाब देंहटाएंpadte padte ulajh gaya.
जवाब देंहटाएंdhanyavad is liye ki aaplogo ki vajh se ek bahut achha lekh padne ko mila muje lagta hai lekhak ne is khani ke jariye apne man ke bhavo ko samne rkha hai or lekhak ke in vicharo me kafi gaihrai hai mujhe ye lekh kafi pasand aaya mai "khalil jibran" ke bare me or padna chahuga ya unki rachnaye bhi padna chahunga krpya muje btae mai khai padh sakta huin mera email hai {patelsubodh@rocketmail.com}
जवाब देंहटाएंdhanyavad