"खाजे बाबू हथिन ?" बाहर से वही जानी पहचानी आवाज़ आयी। मैं समझ गया, छाको का खत आया है और जनबा खत पढवान...
"खाजे बाबू हथिन ?"
बाहर से वही जानी पहचानी आवाज़ आयी। मैं समझ गया, छाको का खत आया है और जनबा खत पढवाने के लिये मेरे पास आना चाहती है ।
मैं अभी-अभी कालेज से आया था, बदन पसीने में तर हो रहा था। सूरज डूब चुका था, पर बाहर अब भी बहुत तपिश थी। कमरे में बैठना अच्छा लग रहा था। जी चाह रहा था, कुछ देर अँधेरे कमरे में लेटा रहूँ। झुलसाने वाली गर्मी में साइकल पर चार मील का रास्ता तय करके घर पहुँचा था। बहुत थका हुआ था। ऐसे में जनबा की आवांज सुनकर मुझे बड़ी कोफ्त हुई। छाको के खत पढ़ने में वैसे भी मुझे बहुत उलझन होती थी। खुद लिखा-पढ़ा तो था नहीं, जाने किससे खत लिखवाकर भेजता था। जबान की बात तो अलग रही, लिखावट ऐसी होती कि पढ़े पढ़ी न जाती थी। इबारत और हिज्जे की गलतियों का तो हिसाब ही नहीं था। जितनी दिक्कत कचहरी के कागजात पढ़ने में होती है, उससे कम दिक्कत मुझे छाको का खत पढ़ने में न होती। शुरू-शुरू में तो बहुत ज्यादा दिक्कत होती थी, पर अब इस लिखावट से कुछ परिचित हो चला था। दो-चार लफ्ज न भी पढ़ पाता, तो अन्दाज से मतलब भाँप लेता था और मेरा अन्दाजा हमेशा सही साबित होता, क्योंकि जनबा सिर हिला-हिलाकर मेरे अन्दाज की तसदीक कर देती थी।
पिछले आठ-दस सालों से छाको के खत पढ़ने का सिलसिला चल रहा हैयानी जब से छाको अपने बाबा से लड़कर यहाँ से गया है। पहले उसके खत कोडरमा से आते थे, उसके पहले झुमरी तलैया से और उसके भी पहले हजारीबाग से। फिर वह कलकत्ता चला गया और अब वह कलकत्ते में ही है। साल में एकाध बार अब भी आ जाता था और जब आता, तो मुझसे जरूर मिलता।
जनबा, जिसका असली नाम जैनब है, छाको की बेवा बहन है। वह उसे बुआ कहता है। शौहर के मरने के बाद उसके कुनबे के खर्च का बोझ छाको ही उठाता आया है। वह अपने बाप को रुपये नहीं भेजता, पर जनबा के नाम पर हर महीने कभी तीस रुपये, कभी पैंतीस रुपये का मनीआर्डर जरूर आता। उसकी लड़की भी जनबा के साथ ही रहती है। जनबा, उसकी बहन और भाई और बाप, सब एक ही घर में रहते हैं। पर जनबा का चूल्हा अलग है। यह चूल्हा छाको का भी है, क्योंकि उसकी बच्ची जनबा के साथ ही रहती है।
''खाजे बाबू हथिन?'' जनबा पुकार रही थी।
अब उठना ही पड़ेगा, यह सोचता हुआ मैं उठा। बाहर की तरफ खुलने वाला दरवांजा खोला। जनबा हाथ में एक लिंफांफा लिये खड़ी थी। कुछ कहे बगैर उसने खत मेरे हाथ में थमा दिया और खुद दहलींज पर बैठ गयी।
मैं खत देखकर चौंक गया। यह क्या! वही लिखावट थी, बात लिखने का अन्दाज भी वही था और खत भी छाको का ही था, पर खत पाकिस्तान से आया था। मुझे उत्सुकता हो रही थी। अपनी उत्सुकता में क्षणभर के लिए मैं भूल ही गया कि जनबा बैठी है और उसे खत पढ़कर सुनाना है। मैं मन-ही-मन सारा खत एक बार पढ़ गया। फिर मुझे एहसास हुआ कि जनबा मेरी तरफ हैरानी से देख रही है। मैं चिट्ठी पढ़कर सुनाने लगा। लिखा था :
''अब्दुश्शकूर की तरफ से बाबा को बहुत-बहुत सलाम, और जैनब बुआ को सलाम और भाई सबको दुआ। मालूम हो कि खुदा के मेहरबानी से हम खैरियत से हैं और आप लोगों की नेक खैरियत चाहते हैं। आप सब कहेंगे कि अब्दुश्शकूर कलकत्ता से बिना ंखबर किये यहाँ कैसे आ गया। इलाही मास्टर जिनकी दुकान में हम काम करते हैं कहिन कि इलाही टेलरिंग हाउस पाकिस्तान में खोलेंगे। सब कारीगरों से बोले कि हमारे साथ चलना होगा। हम बड़े मुश्किल में फँसे। इतना वक्त भी नहीं दिया कि आप लोगों से मिलकर कुछ सलाह कर सकें। चार-पाँच दिन के अन्दर-अन्दर हम सबको लेकर ढाका पहुँच गये। इलाही मास्टर के एक बहनोई यहाँ हैं। यहाँ आने पर पता चला कि वही इलाही मास्टर को बहकाइन था पाकिस्तान चलने के वास्ते। जमी-जमाई दुकान उजाड़कर यहाँ आ गये। हम सब कारीगर लोग इलाही मास्टर के बहनोई के मकान में एक कोठरी में रहते हैं। इलाही मास्टर को दुकान नहीं मिली है। खोज रहे हैं। खुदा करे जल्दी मिल जाए। खाली बैठे-बैठे जी घबरा रहा है।''
''बाबा और जनबा बुआ को मालूम हो कि हम एकदम ठीक हैं। कोई फिकर की बात नहीं। रुपया हर महीने जाएगा। चिट्ठी बराबर दिया कीजिए। ढाका अच्छा शहर है। कलकत्ता के इत्ता बड़ा नहीं है लेकिन अपने गया से बड़ा शहर है। यहाँ बंगाली लोग बहुत हैं। बंगाली लोग अपने मुलक के आदमी सबसे बहुत चिढ़ता है। कहता है कि यह सब कहाँ से आ गया हमारे देस में। इलाही मास्टर के साथ इत्ते रोज काम किया था, इसलिए उनकी बात मानकर यहाँ आ गये। यहाँ पानी खूब बरस रहा है। गया में तो बहुत गरम होगा। मोहल्ले का सब हाल लिखना। हमारी तरफ से मोहल्ले के सब लोगों को सलाम और दुआ। एक जरूरी बात यह है कि मुहर्रम आ रहा है। अखाड़ा निकलेगा। उसमें हमारी तरफ से पाँच रुपया दे दिया जाये, जैसे हर साल दिया जाता है। बाबा को सलाम, जुबैदा को उसके बाबा की दुआ, मुस्तकीम और यासीन को मेरी तरफ से बहुत-बहुत दुआ।''
मैं खत पढ़ चुका, तो देखा कि जनबा रो रही थी।
''छाको का अक्कल देखला ना खाजे बाबू! बप्पा, भइवा, बहिनिया सब तो हियाँ हथिन। अप्पन चल गेइल पाकिस्तान! हमनी सबका नसीब खराब बाबू! आउ का कहा जाये!''
मैं चुप रहा। कहता भी क्या! जनबा खत लेकर ऑंचल से ऑंसू पोंछती हुई चली गयी।
छाको का खत पढ़कर मुझे अजीब-सा लगा। एक लम्बे अरसे से वह बाहर-बाहर रहा था। कभी हजारीबांग, कभी झुमरी तलैया, कभी कोडरमा, कभी कलकत्ता। पर ये सब जगहें हिन्दुस्तान में थीं और ये जगहें ऐसी थीं, जहाँ अकसर हमारे मोहल्ले के लोग रोजगार और काम-धन्धे की तलाश में जाते रहते थे। पर ढाका तो मुल्क ही दूसरा हो गया। ऐसी बात भी नहीं है कि मेरे मोहल्ले से कोई पाकिस्तान गया ही न हो, पर जिनको जाना था, वे बँटवारे के तुरन्त बाद ही चले गये थे। जाने वालों में तकरीबन सबके सब पढ़े-लिखे नौकरीपेशा लोग थे, या फिर ऐसे लोग थे, जिनके पास रुपया था। उसके बाद से मोहल्ले की जिन्दगी में इस लिहाज से ठहराव-सा आ गया था। मोहल्ले में पढ़े-लिखे खुशहाल लोग वैसे भी कम ही थे और पाकिस्तान बनने के बाद उनकी तादाद और भी घट गयी थी। लेकिन जुलाहे, दर्जी, राज, मजदूर, कसाई और इस तरह के निचले तबके के दूसरे लोग मोहल्ले में वैसे ही मौजूद थे, जैसे पहले थे। इनकी तादाद बढ़ी ही थी, घटी नहीं थी। इसलिए छाको का पाकिस्तान चला जाना मुझे अजीब-सा लग रहा था, जैसे कोई ऐसी घटना घटी हो, जिसकी उम्मीद न हो। दिल यह मानने को तैयार नहीं था कि छाको अपनी मर्जी से पाकिस्तान चला गया है। उसके खत से भी जाहिर हो रहा था कि इलाही मास्टर के जोर देने की वजह से वह गया है। पर यह वजह भी बजाहिर बहुत लचर मालूम देती थी। वह कोई बच्चा तो था नहीं कि जोर-जबरदस्ती से उसे मजबूर कर दिया जाता। वह अड़ जाता, तो इलाही मास्टर क्या कर लेते! लेकिन छाको के खत के हर लंफ्ंज से ऐसी मासूमियत टपक रही थी कि मुझे यह मानना ही पड़ा कि छाको न टाली जा सकने वाली किसी मजबूरी की वजह से ही पाकिस्तान गया है।
अब जब कि छाको अपने मुल्क को छोड़कर किसी और मुल्क में चला गया था, न जाने क्यों मैं उसे अपने से बहुत करीब महसूस कर रहा था।
कमरे का दरवाजा, जिसकी चौखट पर कुछ देर पहले जनबा बैठी थी, खुला हुआ था। बरामदे के फर्श पर ईंट के टुकड़ों से रेखाएँ खींचकर लाल दायरे, चौकोर खाने और जाने क्या-क्या शक्लें बनाई गयी थीं। यह मोहल्ले के लड़कों की कारस्तानी थी। लाख डाँट-डपट कीजिए, लेकिन वे अपनी हरकत से कहाँ बाज आते हैं। जैसे ही पता लगा कि कमरे में कोई नहीं है, मोहल्ले-भर के लौंडे जमा हो गये'चक्को बित्ता', 'लंगड़ी टाँग' और 'अंटा' खेलने की खातिर। कमरे का दरवाजा खुला नहीं कि सब पलक झपकते गायब! नाक में दमकर दिया था लौंडों ने! पर इस वक्त जरा भी झुँझलाहट नहीं हुई बरामदे के फर्श को गन्दा देखकर। ऐसा लगा कि छाको और हम दोनों ने ही खेलने की खातिर फर्श पर ईंट के टुकड़ों से लाल रेखाएँ खींची हैं। हम दोनों दीन-दुनिया से बे-खबर खेल में मस्त हैं। और तब एकाएक अब्बाजान की रोबदार आवांज गूँजी है। छाको यह जा, वह जा और मैं भी एक छलाँग में ही कमरे के अन्दर आ गया हँ। पर अब्बाजान को तो सब कुछ मालूम हो चुका है। उनकी दिल दहला देने वाली आवांज कानों में पहुँच रही है, ''मरदूद! सूरत हराम! कितनी बार मना किया, कमीने लड़कों के साथ न खेला कर! पर कम्बख्त मानता ही नहीं! आयन्दा कभी देखा इस तरह खेलते हुए, तो जान से मार डालूँगा।''
पर दूसरे दिन अपनी जान की परवाह किये बगैर मैं फिर छाको के साथ बरामदे में खेलता दिखाई देता।
हमारा खानदान सैयदों का था। मोहल्ले में दो-चार घर ही तो सैयदों के थे। बाकी लोग तो जुलाहे, कसाई या दर्जी थे। मोहल्ले के सब लोग हमारे घर वालों की बहुत इज्जत करते थे और अपना दर्जा हमसे बहुत कम मानते थे। अब्बाजान को अपने खानदान के बड़प्पन का एहसास जरूर था, लेकिन मोहल्ले वालों पर कभी यह जाहिर नहीं होने देते थे कि वह खुद को उनसे बड़ा समझते हैं। मुझे या घर के किसी और बच्चे को मोहल्लों के लौंडों के साथ अंटा या गुल्ली-डंडा खेलते देखते, तो बहुत नाराज होते। उनके सामने तो कुछ न कहते, पर अलग ले जाकर इस बुरी तरह डाँटते कि खौफ से हमारा बुरा हाल हो जाता। एक दिन जब छाको के साथ खेलने के जुर्म की सजा के तौर पर वह मुझे फटकार रहे थे, तो इत्तफाक से छाको ने उनके शब्द सुन लिये थे। उसके बाद वह हफ्तों मुझसे दूर-दूर रहा। लाख मनाने की कोशिश की, पर किसी तरह मानता ही नहीं था। मुझे भी अब्बाजान की बातें बहुत बुरी लगी थीं। खास तौर पर छाको के लिए 'कमीना' लफ्ज सुनना मुझे किसी तरह गवारा नहीं था। जबकि छाको ने खुद अपने कानों से सुन लिया था, मुझे बहुत शर्म महसूस हो रही थी, जैसे मुझे चोरी करते हुए पकड़ा गया हो। मुझे अब्बाजान पर बहुत गुस्सा आया था। आखिर उनको क्या हंक पहुँचता है मेरे साथी को इस तरह बुरा-भला कहने का? मुझे जितना चाहें, डाँट लें, पर छाको को कमीना कहने का उन्हें कोई हक नहीं है। छाको का दिल दुखाकर क्या मिल गया था उनको! उनसे कुछ कहने की हिम्मत तो नहीं होती थी, लेकिन अन्दर-ही-अन्दर गुस्सा सुलगता था।
मैं छाको को मनाने की कोशिश करता रहा। गर्मियों के दिन थे। सुबह का स्कूल था। अब्बाजान भी सवेरे कचहरी जाते और बारह-साढ़े बारह बजे तक लौट आते थे। जैसे ही खाना खाकर वह सोते और खर्राटे की आवांज मेरे कानों में पहुँचती, चुपके से उठता, कुर्सी पर चढ़कर आहिस्ता से दरवांजा खोलता और फिर बाहर से दरवांजे को इस तरह भेड़ देता कि जागने पर अब्बाजान को पता न चले कि मैं बाहर बरामदे में पहुँच गया हूँ। छाको गली में ही या अपने घर की डयोढ़ी में नंजर आ जाता। हलके से ताली बजाकर या ककड़ी फेंककर उसे बरामदे में बुलाता। पर मुझे देखते ही वह मुँह फुला लेता। फिर कहता, ''हम नहीं खेलते तुमरे साथ! तुम शरींफ हो तो अपने घर के! हम कमीने हैं तो अपने घर के! नहीं खेलते तुमरे साथ!''
अब्बाजान की बात उसको बहुत बुरी लगी थी। लेकिन इसमें मेरा क्या कसूर है? मैं सोचता। अब्बाजान की जबान मैं कैसे बन्दकर सकता हँ! यह भी छाको की ज्यादती है कि अब्बाजान की गलती का बदला मुझसे लेना चाहता है। मैंने तो नहीं कही कोई ऐसी-वैसी बात! मुझसे नारांज होने का क्या मतलब है? फिर दिल में सोचता कि ज्यादती दरअसल अब्बाजान की है। वह कौन होते हैं किसी को कमीना कहने वाले? कई बार दिल में इरादा करता कि अब्बाजनान से कहँ इसके बारे में, पर उनको देखते ही हिम्मत जवाब दे देती। जाने गुस्से में क्या कर बैठें? अम्मी तक तो थरथर काँपती हैं उनसे। मैं किस खेत की मूली हँ! पर एक दिन जाने कैसे हिम्मत करके मैंने उनसे अपनी बात कह डाली। कहने के बाद दिल जैसे डूब-सा गया। लेकिन उस दिन अब्बाजान का मूड बहुत अच्छा था। सुनकर क्षण-भर तो मेरी तरफ देखते रहे, फिर अपनी मूँछ पर उँगली फेरते हुए गम्भीर मुद्रा में बोले, ''अच्छा, तो यह बात है!'' फिर उँगली के इशारे से अपने पास बुलाते हुए बोले, ''यहाँ आओ।'' काटो तो लहू नहीं बदन में। डर के मारे बुरा हाथ था। लेकिन एकाएक मेरी पीठ को ठोंकते हुए वह हँस पड़े और बोले, ''तो छाको ंजनाराज हो गया है मेरी बात पर! मैं उसे मना लूँगा। तुम कोई फिक्र न करो।''
अगले रोज इतवार था। स्कूल और दंफ्तर की छुट्टी थी। अब्बाजान रोंज की तरह तड़के ही उठे। वजू करके नमांज पढ़ी। फिर मुझे उठाया। जेब से एक रुपया निकालकर दिया। कहा, ''जाओ, बिशुन हलवाई के यहाँ से एक रुपये की जलेबियाँ ले आओ।''
अब्बाजान नमाज पर बैठे हुए वजीफा पढ़ने लगे। मैं दौड़ा-दौड़ा बिशुन हलवाई की दुकान पर पहुँचा और गरम-गरम जलेबियाँ लेकर तुरन्त आ गया। तब एक रुपये में कित्ती सारी जलेबियाँ आ जाती थीं? मिलावट और डालडा वगैरह का तो नाम भी नहीं सुना गया था उस वक्त। जलेबियाँ मुझे बहुत पसन्द थीं, इसलिए मैं बहुत खुश हो रहा था। लेकिन साथ-साथ हैरत भी हो रही थी कि आज न तो कोई त्योहार है और न कोई ऐसी खास बात हुई है, फिर सवेरे-सवेरे अब्बाजान को फातिहा का खयाल कैसे आ गया? खर, मैं तो यह सोचकर खुश हो रहा था कि आज उठते ही गरम-गरम जलेबियाँ खाने को मिल रही हैं। फातिहा पढ़कर अब्बाजान ने तख्त पर बिछी जानमाज पर बैठे-बैठे ही जोर से पुकारा, ''छाको!''
अब्बाजान की आवांज छाको ने सुनी, या नहीं, मैं नहीं कह सकता, लेकिन उसके बाबा महम्दू खलीफा दौड़कर हमारे बरामदे में पहुँच गये।
''का कहते हैं बाबू?''
''छाको को भेज देना। फातिहा की मिठाई देनी है।''
''जी अच्छा, अभी भेजते हैं।''
छाको डरते-डरते कमरे में आया। अब्बाजान ने प्यार-भरे लहजे में उससे अपने पास तंख्त पर बैठने को कहा। फिर एक तश्तरी में बारह जलेबियाँ रखकर उसे दीं और कहा, ''चार तुम्हारी हैं, चार जनबा की और चार बेंगा की। जब वह चलने लगा, तो अब्बाजान ने मुहब्बत से उसके सिर पर अपना हाथ रखा और कहा, ''बड़ों की बात का बुरा नहीं मानते हैं! जो वक्त तुम बेकार खेलों में जाया करते हो, उसे किसी अच्छे काम में लगाओ।''
अब्बाजान के इस रवैये को देखकर मैं बहुत खुश हुआ था। उनके बड़प्पन का एक अजीब रुख मैंने देखा था। छाको के दिल पर भी इसका गहरा असर हुआ था। उसकी झेंपी-झेंपी निगाहों से यही जाहिर होता था। उसी रोज रात एक अजीब घटना घटी। रात का खाना खाकर हम लोग बिस्तर पर लेट चुके थे। चाँदनी छिटकी हुई थी। दिन-भर आग बरसती रही थी। लेकिन अब पछुआ के खुशगवार झोंकों ने जहन्नुम को जैसे जन्नत में बदल दिया था। चाँदनी की ठंडी रोशनी में बिस्तर की सफेद चादरों से दिल को बड़ी राहत-सी महसूस हो रही थी। अम्मी का पलँग हमारे पलँग से लगा हुआ था। वह पान लगाने के लिए छालियाँ कतर रही थीं। उनके हाथ में मुरादाबादी सरौता चमक रहा था। छालियाँ कतरने की आवांज के साथ अम्मी की चूड़ियों की खनखनाहट भी सुनाई दे जाती थी। पर जब अब्बाजान जोर से हुक्के का कश लेते, तो यह आवांज हुक्के की गड़गड़ाहट में डूब जाती थी। हमारी छत से दूर एक ताड़ का दरख्त चाँदनी में नहाया हुआ बहुत खूबसूरत लग रहा था।
एकाएक गली में किसी की कड़कदार आवांज गूँजी'साहेबजान है?' मैं खौंफ से अपने छोटे भाई से चिपट गया। अम्मी भी घबरा गयीं और सरौते के फलों के बीच रखी छालियाँ नीचे गिर गयीं। लेकिन अब्बाजान उसी तरह इतमीनान से हुक्के का कश लेते रहे। उनके चेहरे पर परेशानी की कोई झलक नहीं थी। हम लोगों की घबराहट को महसूस करते हुए वह बोले, ''कोई बात नहीं है। सिपाही है। साहेबजान को पूछने आया है। गुंडा है न! पुलिस को ऐसे लोगों पर निगाह रखनी पड़ती है।''
साहेबजान मोहल्ले-भर में तो बदनाम था ही, शहर में भी उसको सब लोग जानते थे। उसकी बदमाशी और गुण्डागर्दी की धाक जमी हुई थी। वह रिश्ते में छाको का मामा लगता था। लेकिन छाको के बाप को उसकी हरकतें बिलकुल पसन्द नहीं थीं, इसलिए वह साहेबजान और उसके घर वालों से कोई वास्ता नहीं रखता था। साहेबजान का भी अजीब हाल था। कभी यह ठाठ होते कि सिल्क की कमींज, सोने की बटन, रेशमी लुंगी, हाथ में खूबसूरत सुनहरी घड़ी सोने की जंजीर में बँधी हुई, गले में सोने की चेन, पैर में चमकते हुए बेहतरीन पम्प जूते और हाथ में कैंची सिगरेट का पैकट, जो उस जमाने में बहुत उम्दा सिगरेट मानी जाती थी। जिधर से निकलता, लड़कों को चवन्नी-अठन्नी देता हुआ गुंजर जाता। और कभी यह हाल कि फटी हुई मैली बनियाइन और मामूली लुंगी बदन पर, दाने-दाने को मुहताज! कई बार मेरे घर भी आ जाता आटा-चावल या पैसा माँगने को। साहेबजान से मन-ही-मन सभी लोग नफरत करते थे, पर उससे डरते भी बहुत थे। यहाँ तक की अब्बाजान की भी उससे कुछ कहने की हिम्मत न होती।
पुलिस के आदमी को गये थोड़ी ही देर हुई थी कि नीचे गली में साहेबजान की आवांज सुनाई दी। वह नशे में चूर था और गन्दी-गन्दी गालियाँ बक रहा थाऐसी-ऐसी गालियाँ, जिनका मैं तब मतलब भी नहीं समझता था।
अब्बाजान ने मुझे अपने पास बुलाया और बड़े ही प्यार-भरे लहजे में वह कहने लगे, ''बेटा, यूँ तो खुदा की निंगाह में सभी इनसान बराबर हैं, लेकिन खानदान और खून बड़ी चीज हैं। हमारे खानदान में कोई शराबी नहीं हुआ, किसी ने जुआ नहीं खेला। छाको का मामू ही तो है साहेबजान। माना कि साहेबजान और छाको के बाप की आदतें एक-सी नहीं हैं, लेकिन हैं तो एक ही खानदान के। हम लोगों को इनकी सुहबत से बचना चाहिए, ताकि इनकी बुराइयाँ हममें न घुस जाएँ...'' इसी तरह की और बहुत-सी बातें अब्बाजान मुझसे कहते रहे। फिर एक फारसी का शेर भी पढ़ा था और उसका मतलब समझाया था। उस शेर का निचोड़ भी कुछ यही था कि बुरी संगत से बचना चाहिए। जब अब्बाजान यह नसीहत कर रहे थे, तो मैंने महसूस किया था कि वह जो कुछ कह रहे हैं, उसमें पूरी सचाई न सही, पर कुछ-न-कुछ सचाई जरूर है।
दूसरे दिन अब्बाजान कचहरी से लौटे थे, तो उनके हाथ में एक बड़ा-सा पैकट था। पैकट मुझे देते हुए उन्होंने कहा था, ''तुम लोगों के लिए ऐसी चीज ला दी है कि खेलने के लिए बाहर जाने की जरूरत नहीं है।'' और जब पैकेट खुला था और कैरम-बोर्ड पर नजर पड़ी थी, तो कितनी खुशी हुई थी मुझे! लगता था, दो जहान की नियामत मिल गयी है।
इसके बाद जाने कैरम-बोर्ड का असर था, या अब्बाजान की नसीहत का कि दुपहर में छाको के साथ खेलने का सिलसिला बिलकुल बन्द हो गया। मैं अपने छोटे भाई के साथ कैरम खेलता रहता। बाहर बरामदे में कंकड़ी के गिरने की आवांज होती हलके से ताली बजती, पैरों की धम-धम करने की आवांज होती, उँगली मुँह में डालकर सीटी की आवाज पैदा की जाती, पर ये तमाम आवांजें कमरे में पहुँचकर कैरम की गोटों की खट-खट में गुम हो जातीं।
इसके बाद मेरे और छाको के बीच वह नंजदीकी न रही, जो पहले थी। आते-जाते एक-दूसरे को देख लेते, तो कभी-कभार बातचीत हो जाती, पर हम दोनों के दरमियान जैसे कोई दीवार आ गयी थी। जैसे-जैसे मैं ऊँची जमातों में चढ़ता गया, पढ़ाई का बोझ भी बढ़ता गया। खेल में दिलचस्पी अब भी बनी हुई थी। अब गुल्ली-डंडा और अटा खेलने का शौक खत्म हो चुका था। उनकी जगह फुटबाल, रिंगबाल और हाकी ने ले ली थी। मैं स्कूल से घर आता। स्कूल में दिये हुए कामों को पूरा करता। फिर शाम को स्कूल के मैदान में खेलने चला जाता। स्कूल मेरे घर से कुछ ज्यादा दूर नहीं था। खेलकर वापस आता, तो मास्टर साहब पढ़ाने आ जाते। सुबह से रात गये तक मैं व्यस्त रहता। मैं मोहल्ले में रहते हुए भी वहाँ की जिन्दगी से कुछ कट-सा गया था। आज जब बचपन की इन छोटी-छोटी बातों के बारे में सोचता हँ, तो अजीब-सा लगता है। क्या रखा है इन छोटी-मोटी यादों में? पर न जाने ऐसा कौन-सा बारीक तार है, जिसने इन यादों को मजबूती से बाँध रखा है, जो इन्हें बिखरने नहीं देता। जरा मौका मिला नहीं कि मोतियों के हार की तरह ये यादें झिलमिला उठती हैं। एक और तसवीर उभर रही है। महम्दू खलीफा गली में आगे-आगे जा रहा है, पीछे-पीछे छाको चल रहा है आहिस्ता-आहिस्ता। गले में कपड़ा नापने का फीता लटक रहा है। हाथ मैं कैंची और बगल में एक छोटी गठरी चुपचाप चल रहा है वह अपने बाप के पीछे, जैसे कैदी सिपाही के पीछे-पीछे चल रहा हो। बिलकुल सपाट चेहरा, जैसे मन में कोई भी विचार-तरंग न हो। और तब एकाएक सपाट चेहरे पर जैसे जिन्दगी की लहर दौड़ गयी हैं। महम्दू खलीफा गुस्से में उसे गालियाँ दे रहा है , माँ की, बहन की।
''सुराथराम, साले, चोरी करबे तू! ममुआ का आदत सीखे है तू!''
बात बहुत मामूली थी। 'पुकार' फिल्म चल रही थी। छाको ने अपने बाप की जेब से सोते में पैसे निकाल लिये थे और चुपके से दुकान से खिसक गया था महम्दू खलीफा को जब पता चला, तो वह बुरी तरह बरस पड़ा था उस पर। मुझे बहुत खुशी हुई थी। साथ ही कुछ जलन भी हुई थी। खुशी इसलिए हुई कि उसको डाँटा गया था। अब्बाजान मुझे अकसर डाँटते-फटकारते रहते थे। इसका एक असर यह पड़ा था मुझ पर कि जब किसी को डाँट सुनाते देखता, तो मन-ही-मन बहुत खुश होता। पर उस पर रश्क भी हो रहा था। उसने ऐसा काम कर दिखाया था, जो मैं नहीं कर सकता था। मेरी तो हिम्मत ही नहीं पड़ सकती थी। अब्बाजान का कुछ ऐसा ही रोब था मुझ पर। उन दिनों 'पुकार' फिल्म की बहुत शोहरत थी। परी-चेहरा नसीम पर लोग जान देते थे। रोज गली में कितने ही आदमी 'जिन्दगी का साज भी क्या साज है' गुनगुनाते हुए गुजर जाते। बहुत जी चाहता कि किसी तरह फिल्म देखूँ। आखिर फिल्म में ऐसी क्या बात रहती है कि अब्बाजान मुझे जाने नहीं देते! इतने सारे लोग कैसे जाते हैं। लेकिन उनसे बहस करने का सवाल ही नहीं था। इसलिए जब मालूम हुआ कि छाको 'पुकार' देख आया है, तो मुझे बहुत रश्क हुआ था उस पर। काश, मैं भी देख सकता! मजे की बात यह थी कि अब्बाजान खुद देख आये थे। कितना गुस्सा आया था उन पर मुझे! यह भी कोई बात हुई ? फिल्म देखना बुरा है, तो उनके लिए क्यों बुरा नहीं है? मुझसे तो अच्छा छाको है। डाँट ही सुननी पड़ी न, लेकिन फिल्म तो देख ली!
इस तरह की कितनी ही छोटी-मोटी बातें याद आ रही हैं। छाको दूल्हा बना है। सफेद कमीज पर बादामी रंग का जाकेट पहने है। घोड़ी पर शान से तनकर बैठा हुआ है, मुँह पर लाल रेशमी रूमाल है। पीछे उसकी कमर को पकड़े बेंगा बैठा हुआ है, सुखी मियाँ की शहनाई की आवांज गली में फैल गयी है, बंसी नाई हाथ में छतर लिए खड़ा है। गली में मोहल्ले भर के लड़कों की वह भीड़ है कि रास्ता चलना कठिन हो गया है और तब गली में ऐसा सन्नाटा हो गया कि जी घबराता है। बरात जा चुकी है, पर हमारे यहाँ से कोई भी नहीं गया है, दुनिया में हर बात के लिए कायदे बन हुए है। छाको की बरात में हमारे घर का कोई आदमी नहीं जा सका! यह बात सबको उसी तरह मालूम है, जिस तरह यह बात कि सूरज पूरब में निकलता है। किसी को कोई शिकायत नहीं है। किसी को कोई दु:ख नहीं है। मैं भी अब ऐसा बच्चा नहीं रहा कि इतनी-सी बात न समझ सकूँ। पर एक खयाल मन में जरूर पैदा हुआ है कि छाको फिर मुझसे बाजी ले गया।
और जब पाकिस्तान से आया हुआ छाको का खत मैंने पढ़ा है, तो न जाने क्यों मुझे महसूस हुआ है कि वह दीवार, जो उस चाँदनी-भरी रात में अब्बाजान की नसीहत ने या शायद कैरम-बोर्ड की गोटों ने खड़ी कर दी थी, एक ही झटके में टूट गयी है और छाको मेरे बहुत करीब आ गया हैशायद उससे भी ज्यादा करीब, जब हम दोनों गर्मी की दुपहरी में अब्बाजान और अम्मी की नंजरों से बचकर ईंट के टुकड़ों से बरामदे के फर्श पर लाल रेखाएँ खींचते थे और अजीब खेल खेलते थेबेमायने, बेमतलब, बस यूँ ही।
पन्द्रहवें रोंज छाको का एक और खत आया। लिखा था :
''अब्दुश्शकूर की तरफ से उसके बाबा को और जैनब बुआ को सलाम। मालूम हो कि हम अच्छी तरह हैं। आप लोग लिखा है कि हमको आप सबको छोड़ के नहीं जाना चाहिए था। हम क्या बताएँ। हम नहीं चाहते थे कि आएँ। लेकिन इलाही मास्टर ने ऐसी बात कह दी कि हमको आना ही पड़ा। वह कहिन कि अच्छे वक्त में साथ दिया लेकिन जब तकलींफ का डर है, तो साथ छोड़ रहे हैं। हम बोले कि मास्टर हम ऐसे नहीं हैं। आप ऐसा सोचते हैं तो हम चलेंगे। नहीं जाएँ तो बाप का पेशाब पिएँ। इसलिए आना पड़ा। जबान दे चुके थे। घर बहुत याद आता है। यहाँ का लोग हम लोग के माफिक नहीं है। बंगला बोलता है। हम लोग को देख के बहुत कुड़कुड़ाता है। आज मुहर्रम का चार है। सात तारींख को अखाड़ा निकलेगा। दस को ताजिया उठेगा। हम रहते तो पैक बनते। बेंगा मशक उठाएगा। बड़ी दाहा के इमामबाड़े पर हमारी तरफ से मिठाई और शरबत नियाज करा देना। दाहू भैया से कहियो हमारे वास्ते इमाम साहब से दुआ करें। मुहल्ले का अखाड़ा कैसा निकला, लिखियो। कै मेर बाजा था। इब्राहीम उस्ताद मुहर्रम करने आ गये होगे। बत्तीवाले कित्ते थे। रोशनी में फाटक था या नहीं। शहर में हमारे अखाड़े का पहला नम्बर रहा या नहीं। सब बात लिखिएगा। सबको सलाम दुआ।''
उस रोज मुहर्रम की सातवीं तारींख थी। दाहा पर डंके के बजने की आवांज आ रही थी। गली में लड़के हरे ओर चमकदार नारा-बध्दी पहने आ-जा रहे थे। सचमुच छाको पैक बनकर किस तरह फुदकता फिरता था! सफेद चूड़ीदार पायजामे पर हरा कुरता। कमरबन्द बाँधे हुए, जिसमें तीन-चार घण्टियाँ और एक मूर्छल लटकती रहती। घर दाहा एक किए रहता था वह। रात भर उसकी घण्टियों की आवांज गली में गूँजती रहती। अखाड़ा निकलता, तो उसके साथ-साथ जाता और दिन के नौ-दस बजे कहीं वापस आता।
कितनी ख्वाहिश होती थी मुझे अखाड़ा के साथ शहर-भर में घूमने की, लेकिन अब्बाजान कहाँ इजाजत देते थे इसकी! मोहल्ले का अखाड़ा निकलता, तो सबसे पहले मेरे घर के करीब गली के नुक्कड़ पर एक बड़े मैदान में जमता। फिर कहीं और जाता।
लोग घर से निकलकर नुक्कड़ पर आकर खड़े होते। सामने के हिस्से में आदमियों की भीड़ नहीं रखी जाती थी, ताकि हम लोग आराम से अखाड़ा देख सकें। उस रोज हमारे यहाँ एक बहुत बड़े टप में शरबत बनता और अखाड़े में जितने लोग भी होते, उन सबको शरबत पिलाया जाता। फिर कभी बीस, कभी तीस रुपये अब्बाजान इब्राहीम उस्ताद के हाथ में रख देते। इसके बाद अखाड़ा दूसरी तरफ चला जाता। जाने कितनी बार मैंने छाको को अखाड़ा खेलते देखा था। शायद ही कोई ऐसा मुहर्रम हो, जब वह अखाड़े में मौजूद न रहा हो। बना, पटा, गदका सब कुछ ही तो खेलता था वह। बड़े होने पर गुहार भी इतना अच्छा खेलता था कि मोहल्ले-भर में उसका जवाब नहीं था। लाठी घुमाता हुआ इतनी सफाई से गोल के भीतर निकल जाता कि दूसरी लाठियाँ उसके बदन को छू भी न सकती थीं। यह सब देखकर मेरा भी कितना जी चाहता था कि मैं भी छाको की तरह पैक बनूँ, अखाड़े के साथ घूमता फिरूँ, बना-पटा खेलूँ। लेकिन मुझे क्या करना चाहिए, इसका फैसला तो अब्बाजान करते थे। मैं तो एक कठपुतली था उनके हाथों में। मैं चाहता था पैक बनना, लेकिन हमारे खानदान में इसका रिवांज नहीं था। मुझे मुहर्रम में तौक पहनाया जाता। चाँदी के तौक में हर साल एक नयी कड़ी जोड़ दी जाती, जो इस बात की निशानी थी कि मेरी उम्र में एक साल का इजांफा हो चुका है। तौक पहनाने के पहले अब्बाजान फातिहा करके उसे फूँकते। फिर मुझे तौक पहनाया जाता, नियाज की रेवड़ियाँ खाने को दी जातीं और शरबत पिलाया जाता। अम्मी मेरी जिन्दगी के लिए दुआएँ करतीं। पर मुझे यह सब बिलकुल पसन्द नहीं आता था। मैं तो बस चाहता था कि छाको की तरह मुझे भी पैक बनाया जाए। मेरी कमर में भी घंटियाँ और मूर्छल बँधी हों और मैं भी छाको की तरह रात-भर जहाँ चाहँ, घूमता फिरूँ। लेकिन मेरे लिए इतनी आजादी कहाँ थी! मुहर्रम का तमाशा देखने का इन्तजाम मेरे लिए यह किया जाता कि मुझे अपने रिश्ते के मामू के यहाँ भेज दिया जाता, जिनका मकान बांजार में बीचोबीच था। छत से हम लोग अखाड़ों और ताजियों की बहार देखते। लेकिन जो मजा सड़कों पर घूम-घूमकर तमाशा देखने में है, वह कैदी की तरह एक जगह बन्द होकर देखने में कहाँ !
लेकिन यह सब तो बचपन की बातें हैं। मुहर्रम का अखाड़ा अब भी हमारे मकान के सामने जमता है, अब भी इब्राहीम उस्ताद को रुपये दिये जाते हैं, अखाड़े में आये हुए लोगों को शरबत पिलाया जाता है, लेकिन मैं यह सब महज एक रस्म पूरी करने के लिए करता हँ। वह उमंग और जोश नहीं है, जो बचपन के दिनों में महसूस करता था। लेकिन छाको अब भी कितने चाव और हसरत से मुहर्रम का जिक्र करता है, जैसे इससे उसका रूहानी लगाव हो। मुझे याद है कि ऐसी ही खुशी और उमंग मैंने उस दिन महसूस की थी, जब अब्बाजान ने मुझे नया कैरम-बोर्ड लाकर दिया था। मेरी खुशी की सतह अब बिलकुल बदल गयी है। पर छाको की खुशियों की सतह अब भी वही है, जो बचपन के दिनों में कभी मेरी भी रह चुकी थी।
मैं मुंसिफी के इम्तिहान में बैठ चुका था। उन्हीं दिनों इम्तिहान का नतीजा निकला। मैं चुन लिया गया। नियुक्ति के पहले मुझे पटना पहुँचकर डाक्टरी परीक्षा करवानी थी। मैं पटना चला गया। वहाँ से लौटने के दो-तीन रोज बाद ही छाको का एक और खत आया। लिखा था :
''अब्दुश्शकूर की तरफ से बाबा और जनबा बुआ को बहुत-बहुत सलाम। खत मिला। मालूम हो कि इलाही मास्टर की दुकान बहुत चल रही है। उनको गवरमेंट का बहुत बड़ा ठेका मिल गया है। मास्टर कहते हैं कि सब कारीगर का रुपया हम बढ़ा देंगे और मुनाफा में से भी कुछ देंगे। लेकिन हमारा मन नहीं लगता है। और सब तरह का आराम है। इलाही मास्टर के घर में हम सबका खाना बनता है। जो इलाही मास्टर खाते हैं, वह हम कारीगर सब खाते हैं। हमको बहुत दु:ख हुआ कि इस बार मुहर्रम में तीन मेर बाजा था। बराबर चार मेर बाजा रहता था। रोशनी का फाटक भी नहीं था। हम रहते तो ऐसा नहीं होने देते। जैसे होता, चन्दा उठाकर अच्छा से अच्छा अखाड़ा निकालते। खुदा की मरजी हुई तो हम अगले मुहर्रम में मोहल्ले में जरूर रहेंगे और दिखा देंगे अच्छा से अच्छा अखाड़ा निकालकर। लानत है मोहल्ले के लोगों पर। अपने मोहल्ले की इज्जत का कोई फिकर नहीं है। मेहँदी के बारे में कुछ नहीं लिखा। कैसी मेहँदी निकली थी।
''बाबा को मालूम हो कि हमको कुरैशा का रिश्ता साहेबजान मामू के बेटे से एकदम पसन्द नहीं है। भूरा काम-धन्धे से लगा हुआ है, यह ठीक है। लेकिन चोर-डकैत के बेटे से हमारी बहन का ब्याह हो, यह कैसे हो सकता है। बाबा को मेरी तरफ से कहा जाए कि यह रिश्ता कभी नहीं करें।
''जुबैदा को उसके बाबा की दुआ। मुस्तकीम और यासीन को बहुत-बहुत दुआ।''
छाको का खत पढ़कर मैं सोचने लगा, सैकड़ों मील की दूरी पर बैठा हुआ वह मुहर्रम के अखाड़े से कितनी निकटता अनुभव कर रहा है! पैक बनना, अखाड़ा खेलना, मेहँदी, ढोल-बाजा, मुहर्रम की धूमधाम ये सब मेरे लिए कितनी गैर अहम चीजें बनकर रह गयी हैं! हालाँकि मैं इन चीजों के दरमियान रह रहा हँ, पर मेरे दिल में इनसे कुछ भी तो उमंग नहीं होती। और छाको, जो इनसे सैकड़ों मील की दूरी पर है, जैसे इन सबको अपनी रग-रग में महसूस कर रहा है, जैसे सिवाय मौत के कोई और चीज उसको इन चीजों से अलग नहीं कर सकती। क्या यह उसके अपने स्वभाव की विशेषता है, या इसकी वजह यह है कि जो चीज दूर चली जाती है, उससे आदमी का लगाव बढ़ जाता है। लेकिन मैं तो बाहर-बाहर रहा हँ। मुझे तो मुहर्रम के धूम-धड़ाके की याद ने कभी भी इस तरह नहीं सताया। सोचने पर इसकी एक वजह तो यह मालूम होती है कि मैं जिन्दगी की इन मामूली खुशियों के लिए बूढ़ा हो चुका हँ। लेकिन छाको के लिए इन सीधी-सादी खुशियों की अब भी शायद उतनी अहमियत है, जितनी कि बचपन में थी। और तब मुझे छाको वास्तव में बिलकुल एक बच्चा लगता है, पैक बना गली में फुदकता फिर रहा है और कमर से बँधी हुई घंटियों की आवांज फ़िजाँ में बिखेर रहा है। यह तब भी बच्चा था, जब उसने अब्बाजान की गालियों का बुरा माना था, उस वक्त भी जब अब्बाजान की दी हुई जलेबियों से उसका गुस्सा एकाएक खत्म हो गया था और उस वक्त भी वह बच्चा ही था जब इलाही मास्टर के कहने पर वह अपने वतन को छोड़कर पाकिस्तान चला गया था और अपने जिस्म को उन हवाओं से अलग कर दिया था, जिनके बीच वह पला-बढ़ा था। पर उसकी रूह इन हवाओं को ढूँढ रही थी उस दूध पीते बच्चे की तरह जो माँ के दूध के लिए बिलख-बिलखकर रो रहा हो और उसकी माँ उसके पास न हो।
लेकिन अपनी बहन के रिश्ते के बारे में उसने जो कुछ लिखा था, उसको पढ़कर मुझे अजीब-सा लग रहा था। मुझे अब्बाजान की वह बात याद आ रही थी, जो उन्होंने बहुत पहले उस रात कही थी, जब छत पर चाँदनी छिटकी हुई थी, अम्मी के हाथों में मुरादाबादी सरौता चमक रहा था और एकाएक साहेबजान के दरवांजे पर सिपाही की कड़कदार आवांज गूँजी थी। अब्बाजान तो खून और ंखानदान की अहमियत के कायल थे, लेकिन छाको तो अपने ही खानदान और खून में नफरत के बीज बो रहा था, साहेबजान चोर था, गुंडा था, उसमें दुनिया-भर की बुराइयाँ थीं, लेकिन उसका लड़का भूरा तो ऐसा नहीं था फिर ंखानदान तो उसका ही था। और तब मुझे लगा कि यह भी छाको का लड़कपन ही तो है, अपनी नादानी में वह खुद उस बात को सही साबित करने पर तुला हुआ है, जो कभी अब्बाजान ने कही थी और जो उसे बहुत बुरी लगी थी।
मुंसिफ होने पर मेरी पहली पोस्टिग पूर्णियाँ में हुई। तीन साल के बाद मेरा तबादला समस्तीपुर हो गया। ये दोनों जगहें गंगा के उस पार उत्तरी बिहार में थीं। वकीलों की जिरह, गवाहों के बयान वंगैरह सुनने में पूरा दिन गुंजर जाता। रात गये तक मुकदमों के फैसले लिखता। मसरूफियत बहुत बढ़ गयी थी। इस बीच मैं घर एक-दो बार ही जा सका और वह भी एक-दो रोज के लिए ही। जब मेरी नौकरी के चार साल पूरे हो गये, तो मैंने दो महीने की छुट्टी ली और घर आ गया। पहुँचने के दूसरे दिन सवेरे मैं बैठक में बैठा कोई जरूरी खत लिख रहा था। कमरे का एक दरवाजा, जो बरामदे की तरफ था, खुला हुआ था। एकाएक मेरे कानों में एक आवाज आयी,''खाजे बाबू हैं?''
''कौन हैं? अन्दर आ जाइए'', मैंने जवाब दिया।
''हम हैं अब्दुश्शकूर!''
अभी मैं ठीक तरह से समझ भी न पाया था कि इतने में छाको मेरे सामने आकर खड़ा हो गया। मैं चौंक पड़ा। बिलकुल वैसा ही तो था, जैसा मैंने उसे बरसों पहले देखा था। हाँ, उसके बालों में अलबत्ता कहीं-कहीं सफेदी आ गयी थी।
''अरे छाको, तुम ? तुम कब आये पाकिस्तान से?'' मैंने पूछा।
''हमको आये तो दो महीना हो गया बाबू! हम समझ रहे थे, आपसे मिलना न हो सकेगा। जनबा बुआ बताइस कि आप आये हैं। किस्मत में मिलना लिखा था। कित्ते दिन बाद आपको देखा है!''
''कब तक रहोगे?''
''आज जा रहे हैं। एक महीने का वीसा मिला था। एक महीना और बढ़ाया। इलाही मास्टर जिनकी दुकान में काम करते हैं, खत पर खत लिख रहे हैं कि जल्दी आ जाओ।''
''वहाँ दिल लग गया है तुम्हारा!'' मैंने पूछा।
''नहीं बाबू, मन बहुत घबराता है। घर बहुत याद आता है।''
''फिर गये क्यों?'' मैंने अनजान बनते हुए पूछा।
''का कहें बाबू! इलाही मास्टर के बहकावे में आ गये। धोखे से फारम भी भरवा दीहिन वह पासपोर्ट का।''
''तुम्हारी बच्ची तो ठीक है न? अब तो बड़ी हो गयी होगी'', मैंने विषय बदलते हुए कहा।
''हाँ बाबू, बारह बस की हो गयी। अच्छा लड़का मिल जाए, तो यह फरज पूरा कर दें। आप भी देखिए। कोई अच्छा लड़का मिले तो खबर कीजिए।''
''तुम्हारी एक ही तो बच्ची है। अपने साथ ले जाओ। वहीं शादी-ब्याह करना उसका।''
''बाबू की बात! वहाँ अपनी जात-बिरादरी का लड़का कहाँ मिलेगा!'' छाको ने अपनी ंखास मासूमियत से कहा।
उसी रोज रात के आठ बजे गली के नुक्कड़ पर रिक्शा आकर रुका।
आगे-आगे छाको। उसके पीछे-पीछे महम्दू खलीफा, जनबा, उसके बेटे मुस्तकीन और यासनी, छाको की बहन कुरैशा और उसकी बेटी जुबैदा। उसकी चाल बिलकुल वैसी ही थी, जैसी मैं देखता आया था। आहिस्ता-आहिस्ता चल रहा था वह, जैसे बहुत पहले अपने बाप के साथ चलता था। मुझे लगा, वह दुकान बन्द करके घर लौट रहा है। महम्दू खलीफा आगे-आगे चल रहा है और पीछे-पीछे छाको चल रहा है। उसके गले में कपड़ा नापने का फीता लटक रहा है। एक हाथ में कैंची है और बगल में कपड़ों की छोटी-सी गठरी। लेकिन कहाँ! वह घर की तरफ नहीं जा रहा है। वह तो विरोधी दिशा में जा रहा है। महम्दू खलीफा उसके आगे-आगे नहीं है। वह तो छाको के पीछे-पीछे चल रहा है। मैं सोचता हँ, जमाना कितना बदल गया है! कैसा बदला-बदला लग रहा है सब कुछ! मैं बरामदे से उतरकर गली के नुक्कड़ पर आ गया हँ। छाको रिक्शे पर चढ़ रहा है। यह दृश्य जाने कितनी बार देख चुका हँ। जब कभी वह हजारीबाग जाता, या कोडरमा जाता, या झूमरी तलैया जाता, या कलकत्ता जाता, तो इसी तरह गली के नुक्कड़ पर रिक्शा आकर रुकता। पर मैं कभी तो नहीं जाता था उसे बिदा करने को। तब भी उसके बाप, भाई, बहन, सभी आते थे उसे छोड़ने को रिक्शे तक। लेकिन किसी की ऑंखों में ऑंसू नहीं होते थे। सबके चेहरे उदास जरूर रहते थे। वे जानते थे कि यह आना-जाना तो लगा ही रहता है। यह तो उनकी जिन्दगी का एक हिस्सा है। मोहल्ले के कितने ही लोग बाहर जाते रहते हैं काम-धन्धों की तलाश में। पर आज का जाना तो और ही लग रहा था, जैसे वह रोजगार की तलाश में न जा रहा हो, जैसे वह दूर, बहुत दूर, ऐसी जगह जा रहा हो, जहाँ से जाने वह कभी लौटेगा भी, या नहीं।
मैं गली के नुक्कड़ पर खड़ा हँ। गली की सीढ़ी से लगकर रिक्शा खड़ा है। छाको के चेहरे पर अजीब तरह का तनाव है, जैसे उसका चेहरा फट पड़ेगा उसके मन के तूफान को लेकर। उसके बाजू पर लाल साड़ी की धज्जी में इमाम जामिन बँधा हुआ है। उसकी बेवा बुआ जनबा उसके पास खड़ी है। पायदान पर टीन का एक स्याह बक्स रखा है। उसके ऊपर लाल कपड़े में बँधा हुआ हाँडी क़ा ढक्कन रखा है, जिसमें शायद खाने की कोई चींज रखी हुई है। छाको का एक पैर रिक्शे के पायदान पर है, दूसरा पैर अभी जमीन पर ही है, जैसे वह जमीन में धँस चुका हो। जनबा के ऑंसुओं में डूबे हुए शब्द मेरे कानों में पहुँच रहे हैं,अल्लाह खैर से वापस लाए!''
और तब एकाएक उसका चेहरा फट पड़ा है। दिल का तूफान बाहर निकल पड़ा है। उसका पैर रिक्शे के पायदान से हटकर फिर जमीन पर आ गया है। वह फूट-फूटकर रो रहा है, जैसे वह सचमुच कोई बच्चा हो और उसकी कोई प्यारी चींज उससे छीनी जा रही हो। इस तरह छाको को फूट-फूटकर रोते तो मैंने कभी नहीं देखा। मैंने उसका पासपोर्ट देखा है। अब्दुश्शकूर वल्द महम्दू खलीफा पाकिस्तान का नागरिक है। मैंने कानून का गहरा अध्ययन किया है। कानून की इज्जत मेरी रग-रग में बसी हुई है। मैं जानता हँ कि कानून का जज्बात से कोई ताल्लुक नहीं है। पर न जाने क्यों एकाएक मेरे दिमाग ने जैसे काम करना बन्द कर दिया है। कानून की मोटी-मोटी किताबें जैसे छाको के ऑंसुओं में डूबती जा रही हैं और मैं रूह की गहराई में कहीं शिद्दत से यह महसूस कर रहा हँ कि छाको दरअस्ल परदेश जा रहा है, जहाँ की हर चींज उसके लिए अजनबी है।
बाहर से वही जानी पहचानी आवाज़ आयी। मैं समझ गया, छाको का खत आया है और जनबा खत पढवाने के लिये मेरे पास आना चाहती है ।
मैं अभी-अभी कालेज से आया था, बदन पसीने में तर हो रहा था। सूरज डूब चुका था, पर बाहर अब भी बहुत तपिश थी। कमरे में बैठना अच्छा लग रहा था। जी चाह रहा था, कुछ देर अँधेरे कमरे में लेटा रहूँ। झुलसाने वाली गर्मी में साइकल पर चार मील का रास्ता तय करके घर पहुँचा था। बहुत थका हुआ था। ऐसे में जनबा की आवांज सुनकर मुझे बड़ी कोफ्त हुई। छाको के खत पढ़ने में वैसे भी मुझे बहुत उलझन होती थी। खुद लिखा-पढ़ा तो था नहीं, जाने किससे खत लिखवाकर भेजता था। जबान की बात तो अलग रही, लिखावट ऐसी होती कि पढ़े पढ़ी न जाती थी। इबारत और हिज्जे की गलतियों का तो हिसाब ही नहीं था। जितनी दिक्कत कचहरी के कागजात पढ़ने में होती है, उससे कम दिक्कत मुझे छाको का खत पढ़ने में न होती। शुरू-शुरू में तो बहुत ज्यादा दिक्कत होती थी, पर अब इस लिखावट से कुछ परिचित हो चला था। दो-चार लफ्ज न भी पढ़ पाता, तो अन्दाज से मतलब भाँप लेता था और मेरा अन्दाजा हमेशा सही साबित होता, क्योंकि जनबा सिर हिला-हिलाकर मेरे अन्दाज की तसदीक कर देती थी।
पिछले आठ-दस सालों से छाको के खत पढ़ने का सिलसिला चल रहा हैयानी जब से छाको अपने बाबा से लड़कर यहाँ से गया है। पहले उसके खत कोडरमा से आते थे, उसके पहले झुमरी तलैया से और उसके भी पहले हजारीबाग से। फिर वह कलकत्ता चला गया और अब वह कलकत्ते में ही है। साल में एकाध बार अब भी आ जाता था और जब आता, तो मुझसे जरूर मिलता।
जनबा, जिसका असली नाम जैनब है, छाको की बेवा बहन है। वह उसे बुआ कहता है। शौहर के मरने के बाद उसके कुनबे के खर्च का बोझ छाको ही उठाता आया है। वह अपने बाप को रुपये नहीं भेजता, पर जनबा के नाम पर हर महीने कभी तीस रुपये, कभी पैंतीस रुपये का मनीआर्डर जरूर आता। उसकी लड़की भी जनबा के साथ ही रहती है। जनबा, उसकी बहन और भाई और बाप, सब एक ही घर में रहते हैं। पर जनबा का चूल्हा अलग है। यह चूल्हा छाको का भी है, क्योंकि उसकी बच्ची जनबा के साथ ही रहती है।
''खाजे बाबू हथिन?'' जनबा पुकार रही थी।
अब उठना ही पड़ेगा, यह सोचता हुआ मैं उठा। बाहर की तरफ खुलने वाला दरवांजा खोला। जनबा हाथ में एक लिंफांफा लिये खड़ी थी। कुछ कहे बगैर उसने खत मेरे हाथ में थमा दिया और खुद दहलींज पर बैठ गयी।
मैं खत देखकर चौंक गया। यह क्या! वही लिखावट थी, बात लिखने का अन्दाज भी वही था और खत भी छाको का ही था, पर खत पाकिस्तान से आया था। मुझे उत्सुकता हो रही थी। अपनी उत्सुकता में क्षणभर के लिए मैं भूल ही गया कि जनबा बैठी है और उसे खत पढ़कर सुनाना है। मैं मन-ही-मन सारा खत एक बार पढ़ गया। फिर मुझे एहसास हुआ कि जनबा मेरी तरफ हैरानी से देख रही है। मैं चिट्ठी पढ़कर सुनाने लगा। लिखा था :
''अब्दुश्शकूर की तरफ से बाबा को बहुत-बहुत सलाम, और जैनब बुआ को सलाम और भाई सबको दुआ। मालूम हो कि खुदा के मेहरबानी से हम खैरियत से हैं और आप लोगों की नेक खैरियत चाहते हैं। आप सब कहेंगे कि अब्दुश्शकूर कलकत्ता से बिना ंखबर किये यहाँ कैसे आ गया। इलाही मास्टर जिनकी दुकान में हम काम करते हैं कहिन कि इलाही टेलरिंग हाउस पाकिस्तान में खोलेंगे। सब कारीगरों से बोले कि हमारे साथ चलना होगा। हम बड़े मुश्किल में फँसे। इतना वक्त भी नहीं दिया कि आप लोगों से मिलकर कुछ सलाह कर सकें। चार-पाँच दिन के अन्दर-अन्दर हम सबको लेकर ढाका पहुँच गये। इलाही मास्टर के एक बहनोई यहाँ हैं। यहाँ आने पर पता चला कि वही इलाही मास्टर को बहकाइन था पाकिस्तान चलने के वास्ते। जमी-जमाई दुकान उजाड़कर यहाँ आ गये। हम सब कारीगर लोग इलाही मास्टर के बहनोई के मकान में एक कोठरी में रहते हैं। इलाही मास्टर को दुकान नहीं मिली है। खोज रहे हैं। खुदा करे जल्दी मिल जाए। खाली बैठे-बैठे जी घबरा रहा है।''
''बाबा और जनबा बुआ को मालूम हो कि हम एकदम ठीक हैं। कोई फिकर की बात नहीं। रुपया हर महीने जाएगा। चिट्ठी बराबर दिया कीजिए। ढाका अच्छा शहर है। कलकत्ता के इत्ता बड़ा नहीं है लेकिन अपने गया से बड़ा शहर है। यहाँ बंगाली लोग बहुत हैं। बंगाली लोग अपने मुलक के आदमी सबसे बहुत चिढ़ता है। कहता है कि यह सब कहाँ से आ गया हमारे देस में। इलाही मास्टर के साथ इत्ते रोज काम किया था, इसलिए उनकी बात मानकर यहाँ आ गये। यहाँ पानी खूब बरस रहा है। गया में तो बहुत गरम होगा। मोहल्ले का सब हाल लिखना। हमारी तरफ से मोहल्ले के सब लोगों को सलाम और दुआ। एक जरूरी बात यह है कि मुहर्रम आ रहा है। अखाड़ा निकलेगा। उसमें हमारी तरफ से पाँच रुपया दे दिया जाये, जैसे हर साल दिया जाता है। बाबा को सलाम, जुबैदा को उसके बाबा की दुआ, मुस्तकीम और यासीन को मेरी तरफ से बहुत-बहुत दुआ।''
मैं खत पढ़ चुका, तो देखा कि जनबा रो रही थी।
''छाको का अक्कल देखला ना खाजे बाबू! बप्पा, भइवा, बहिनिया सब तो हियाँ हथिन। अप्पन चल गेइल पाकिस्तान! हमनी सबका नसीब खराब बाबू! आउ का कहा जाये!''
मैं चुप रहा। कहता भी क्या! जनबा खत लेकर ऑंचल से ऑंसू पोंछती हुई चली गयी।
छाको का खत पढ़कर मुझे अजीब-सा लगा। एक लम्बे अरसे से वह बाहर-बाहर रहा था। कभी हजारीबांग, कभी झुमरी तलैया, कभी कोडरमा, कभी कलकत्ता। पर ये सब जगहें हिन्दुस्तान में थीं और ये जगहें ऐसी थीं, जहाँ अकसर हमारे मोहल्ले के लोग रोजगार और काम-धन्धे की तलाश में जाते रहते थे। पर ढाका तो मुल्क ही दूसरा हो गया। ऐसी बात भी नहीं है कि मेरे मोहल्ले से कोई पाकिस्तान गया ही न हो, पर जिनको जाना था, वे बँटवारे के तुरन्त बाद ही चले गये थे। जाने वालों में तकरीबन सबके सब पढ़े-लिखे नौकरीपेशा लोग थे, या फिर ऐसे लोग थे, जिनके पास रुपया था। उसके बाद से मोहल्ले की जिन्दगी में इस लिहाज से ठहराव-सा आ गया था। मोहल्ले में पढ़े-लिखे खुशहाल लोग वैसे भी कम ही थे और पाकिस्तान बनने के बाद उनकी तादाद और भी घट गयी थी। लेकिन जुलाहे, दर्जी, राज, मजदूर, कसाई और इस तरह के निचले तबके के दूसरे लोग मोहल्ले में वैसे ही मौजूद थे, जैसे पहले थे। इनकी तादाद बढ़ी ही थी, घटी नहीं थी। इसलिए छाको का पाकिस्तान चला जाना मुझे अजीब-सा लग रहा था, जैसे कोई ऐसी घटना घटी हो, जिसकी उम्मीद न हो। दिल यह मानने को तैयार नहीं था कि छाको अपनी मर्जी से पाकिस्तान चला गया है। उसके खत से भी जाहिर हो रहा था कि इलाही मास्टर के जोर देने की वजह से वह गया है। पर यह वजह भी बजाहिर बहुत लचर मालूम देती थी। वह कोई बच्चा तो था नहीं कि जोर-जबरदस्ती से उसे मजबूर कर दिया जाता। वह अड़ जाता, तो इलाही मास्टर क्या कर लेते! लेकिन छाको के खत के हर लंफ्ंज से ऐसी मासूमियत टपक रही थी कि मुझे यह मानना ही पड़ा कि छाको न टाली जा सकने वाली किसी मजबूरी की वजह से ही पाकिस्तान गया है।
अब जब कि छाको अपने मुल्क को छोड़कर किसी और मुल्क में चला गया था, न जाने क्यों मैं उसे अपने से बहुत करीब महसूस कर रहा था।
कमरे का दरवाजा, जिसकी चौखट पर कुछ देर पहले जनबा बैठी थी, खुला हुआ था। बरामदे के फर्श पर ईंट के टुकड़ों से रेखाएँ खींचकर लाल दायरे, चौकोर खाने और जाने क्या-क्या शक्लें बनाई गयी थीं। यह मोहल्ले के लड़कों की कारस्तानी थी। लाख डाँट-डपट कीजिए, लेकिन वे अपनी हरकत से कहाँ बाज आते हैं। जैसे ही पता लगा कि कमरे में कोई नहीं है, मोहल्ले-भर के लौंडे जमा हो गये'चक्को बित्ता', 'लंगड़ी टाँग' और 'अंटा' खेलने की खातिर। कमरे का दरवाजा खुला नहीं कि सब पलक झपकते गायब! नाक में दमकर दिया था लौंडों ने! पर इस वक्त जरा भी झुँझलाहट नहीं हुई बरामदे के फर्श को गन्दा देखकर। ऐसा लगा कि छाको और हम दोनों ने ही खेलने की खातिर फर्श पर ईंट के टुकड़ों से लाल रेखाएँ खींची हैं। हम दोनों दीन-दुनिया से बे-खबर खेल में मस्त हैं। और तब एकाएक अब्बाजान की रोबदार आवांज गूँजी है। छाको यह जा, वह जा और मैं भी एक छलाँग में ही कमरे के अन्दर आ गया हँ। पर अब्बाजान को तो सब कुछ मालूम हो चुका है। उनकी दिल दहला देने वाली आवांज कानों में पहुँच रही है, ''मरदूद! सूरत हराम! कितनी बार मना किया, कमीने लड़कों के साथ न खेला कर! पर कम्बख्त मानता ही नहीं! आयन्दा कभी देखा इस तरह खेलते हुए, तो जान से मार डालूँगा।''
पर दूसरे दिन अपनी जान की परवाह किये बगैर मैं फिर छाको के साथ बरामदे में खेलता दिखाई देता।
हमारा खानदान सैयदों का था। मोहल्ले में दो-चार घर ही तो सैयदों के थे। बाकी लोग तो जुलाहे, कसाई या दर्जी थे। मोहल्ले के सब लोग हमारे घर वालों की बहुत इज्जत करते थे और अपना दर्जा हमसे बहुत कम मानते थे। अब्बाजान को अपने खानदान के बड़प्पन का एहसास जरूर था, लेकिन मोहल्ले वालों पर कभी यह जाहिर नहीं होने देते थे कि वह खुद को उनसे बड़ा समझते हैं। मुझे या घर के किसी और बच्चे को मोहल्लों के लौंडों के साथ अंटा या गुल्ली-डंडा खेलते देखते, तो बहुत नाराज होते। उनके सामने तो कुछ न कहते, पर अलग ले जाकर इस बुरी तरह डाँटते कि खौफ से हमारा बुरा हाल हो जाता। एक दिन जब छाको के साथ खेलने के जुर्म की सजा के तौर पर वह मुझे फटकार रहे थे, तो इत्तफाक से छाको ने उनके शब्द सुन लिये थे। उसके बाद वह हफ्तों मुझसे दूर-दूर रहा। लाख मनाने की कोशिश की, पर किसी तरह मानता ही नहीं था। मुझे भी अब्बाजान की बातें बहुत बुरी लगी थीं। खास तौर पर छाको के लिए 'कमीना' लफ्ज सुनना मुझे किसी तरह गवारा नहीं था। जबकि छाको ने खुद अपने कानों से सुन लिया था, मुझे बहुत शर्म महसूस हो रही थी, जैसे मुझे चोरी करते हुए पकड़ा गया हो। मुझे अब्बाजान पर बहुत गुस्सा आया था। आखिर उनको क्या हंक पहुँचता है मेरे साथी को इस तरह बुरा-भला कहने का? मुझे जितना चाहें, डाँट लें, पर छाको को कमीना कहने का उन्हें कोई हक नहीं है। छाको का दिल दुखाकर क्या मिल गया था उनको! उनसे कुछ कहने की हिम्मत तो नहीं होती थी, लेकिन अन्दर-ही-अन्दर गुस्सा सुलगता था।
मैं छाको को मनाने की कोशिश करता रहा। गर्मियों के दिन थे। सुबह का स्कूल था। अब्बाजान भी सवेरे कचहरी जाते और बारह-साढ़े बारह बजे तक लौट आते थे। जैसे ही खाना खाकर वह सोते और खर्राटे की आवांज मेरे कानों में पहुँचती, चुपके से उठता, कुर्सी पर चढ़कर आहिस्ता से दरवांजा खोलता और फिर बाहर से दरवांजे को इस तरह भेड़ देता कि जागने पर अब्बाजान को पता न चले कि मैं बाहर बरामदे में पहुँच गया हूँ। छाको गली में ही या अपने घर की डयोढ़ी में नंजर आ जाता। हलके से ताली बजाकर या ककड़ी फेंककर उसे बरामदे में बुलाता। पर मुझे देखते ही वह मुँह फुला लेता। फिर कहता, ''हम नहीं खेलते तुमरे साथ! तुम शरींफ हो तो अपने घर के! हम कमीने हैं तो अपने घर के! नहीं खेलते तुमरे साथ!''
अब्बाजान की बात उसको बहुत बुरी लगी थी। लेकिन इसमें मेरा क्या कसूर है? मैं सोचता। अब्बाजान की जबान मैं कैसे बन्दकर सकता हँ! यह भी छाको की ज्यादती है कि अब्बाजान की गलती का बदला मुझसे लेना चाहता है। मैंने तो नहीं कही कोई ऐसी-वैसी बात! मुझसे नारांज होने का क्या मतलब है? फिर दिल में सोचता कि ज्यादती दरअसल अब्बाजान की है। वह कौन होते हैं किसी को कमीना कहने वाले? कई बार दिल में इरादा करता कि अब्बाजनान से कहँ इसके बारे में, पर उनको देखते ही हिम्मत जवाब दे देती। जाने गुस्से में क्या कर बैठें? अम्मी तक तो थरथर काँपती हैं उनसे। मैं किस खेत की मूली हँ! पर एक दिन जाने कैसे हिम्मत करके मैंने उनसे अपनी बात कह डाली। कहने के बाद दिल जैसे डूब-सा गया। लेकिन उस दिन अब्बाजान का मूड बहुत अच्छा था। सुनकर क्षण-भर तो मेरी तरफ देखते रहे, फिर अपनी मूँछ पर उँगली फेरते हुए गम्भीर मुद्रा में बोले, ''अच्छा, तो यह बात है!'' फिर उँगली के इशारे से अपने पास बुलाते हुए बोले, ''यहाँ आओ।'' काटो तो लहू नहीं बदन में। डर के मारे बुरा हाथ था। लेकिन एकाएक मेरी पीठ को ठोंकते हुए वह हँस पड़े और बोले, ''तो छाको ंजनाराज हो गया है मेरी बात पर! मैं उसे मना लूँगा। तुम कोई फिक्र न करो।''
अगले रोज इतवार था। स्कूल और दंफ्तर की छुट्टी थी। अब्बाजान रोंज की तरह तड़के ही उठे। वजू करके नमांज पढ़ी। फिर मुझे उठाया। जेब से एक रुपया निकालकर दिया। कहा, ''जाओ, बिशुन हलवाई के यहाँ से एक रुपये की जलेबियाँ ले आओ।''
अब्बाजान नमाज पर बैठे हुए वजीफा पढ़ने लगे। मैं दौड़ा-दौड़ा बिशुन हलवाई की दुकान पर पहुँचा और गरम-गरम जलेबियाँ लेकर तुरन्त आ गया। तब एक रुपये में कित्ती सारी जलेबियाँ आ जाती थीं? मिलावट और डालडा वगैरह का तो नाम भी नहीं सुना गया था उस वक्त। जलेबियाँ मुझे बहुत पसन्द थीं, इसलिए मैं बहुत खुश हो रहा था। लेकिन साथ-साथ हैरत भी हो रही थी कि आज न तो कोई त्योहार है और न कोई ऐसी खास बात हुई है, फिर सवेरे-सवेरे अब्बाजान को फातिहा का खयाल कैसे आ गया? खर, मैं तो यह सोचकर खुश हो रहा था कि आज उठते ही गरम-गरम जलेबियाँ खाने को मिल रही हैं। फातिहा पढ़कर अब्बाजान ने तख्त पर बिछी जानमाज पर बैठे-बैठे ही जोर से पुकारा, ''छाको!''
अब्बाजान की आवांज छाको ने सुनी, या नहीं, मैं नहीं कह सकता, लेकिन उसके बाबा महम्दू खलीफा दौड़कर हमारे बरामदे में पहुँच गये।
''का कहते हैं बाबू?''
''छाको को भेज देना। फातिहा की मिठाई देनी है।''
''जी अच्छा, अभी भेजते हैं।''
छाको डरते-डरते कमरे में आया। अब्बाजान ने प्यार-भरे लहजे में उससे अपने पास तंख्त पर बैठने को कहा। फिर एक तश्तरी में बारह जलेबियाँ रखकर उसे दीं और कहा, ''चार तुम्हारी हैं, चार जनबा की और चार बेंगा की। जब वह चलने लगा, तो अब्बाजान ने मुहब्बत से उसके सिर पर अपना हाथ रखा और कहा, ''बड़ों की बात का बुरा नहीं मानते हैं! जो वक्त तुम बेकार खेलों में जाया करते हो, उसे किसी अच्छे काम में लगाओ।''
अब्बाजान के इस रवैये को देखकर मैं बहुत खुश हुआ था। उनके बड़प्पन का एक अजीब रुख मैंने देखा था। छाको के दिल पर भी इसका गहरा असर हुआ था। उसकी झेंपी-झेंपी निगाहों से यही जाहिर होता था। उसी रोज रात एक अजीब घटना घटी। रात का खाना खाकर हम लोग बिस्तर पर लेट चुके थे। चाँदनी छिटकी हुई थी। दिन-भर आग बरसती रही थी। लेकिन अब पछुआ के खुशगवार झोंकों ने जहन्नुम को जैसे जन्नत में बदल दिया था। चाँदनी की ठंडी रोशनी में बिस्तर की सफेद चादरों से दिल को बड़ी राहत-सी महसूस हो रही थी। अम्मी का पलँग हमारे पलँग से लगा हुआ था। वह पान लगाने के लिए छालियाँ कतर रही थीं। उनके हाथ में मुरादाबादी सरौता चमक रहा था। छालियाँ कतरने की आवांज के साथ अम्मी की चूड़ियों की खनखनाहट भी सुनाई दे जाती थी। पर जब अब्बाजान जोर से हुक्के का कश लेते, तो यह आवांज हुक्के की गड़गड़ाहट में डूब जाती थी। हमारी छत से दूर एक ताड़ का दरख्त चाँदनी में नहाया हुआ बहुत खूबसूरत लग रहा था।
एकाएक गली में किसी की कड़कदार आवांज गूँजी'साहेबजान है?' मैं खौंफ से अपने छोटे भाई से चिपट गया। अम्मी भी घबरा गयीं और सरौते के फलों के बीच रखी छालियाँ नीचे गिर गयीं। लेकिन अब्बाजान उसी तरह इतमीनान से हुक्के का कश लेते रहे। उनके चेहरे पर परेशानी की कोई झलक नहीं थी। हम लोगों की घबराहट को महसूस करते हुए वह बोले, ''कोई बात नहीं है। सिपाही है। साहेबजान को पूछने आया है। गुंडा है न! पुलिस को ऐसे लोगों पर निगाह रखनी पड़ती है।''
साहेबजान मोहल्ले-भर में तो बदनाम था ही, शहर में भी उसको सब लोग जानते थे। उसकी बदमाशी और गुण्डागर्दी की धाक जमी हुई थी। वह रिश्ते में छाको का मामा लगता था। लेकिन छाको के बाप को उसकी हरकतें बिलकुल पसन्द नहीं थीं, इसलिए वह साहेबजान और उसके घर वालों से कोई वास्ता नहीं रखता था। साहेबजान का भी अजीब हाल था। कभी यह ठाठ होते कि सिल्क की कमींज, सोने की बटन, रेशमी लुंगी, हाथ में खूबसूरत सुनहरी घड़ी सोने की जंजीर में बँधी हुई, गले में सोने की चेन, पैर में चमकते हुए बेहतरीन पम्प जूते और हाथ में कैंची सिगरेट का पैकट, जो उस जमाने में बहुत उम्दा सिगरेट मानी जाती थी। जिधर से निकलता, लड़कों को चवन्नी-अठन्नी देता हुआ गुंजर जाता। और कभी यह हाल कि फटी हुई मैली बनियाइन और मामूली लुंगी बदन पर, दाने-दाने को मुहताज! कई बार मेरे घर भी आ जाता आटा-चावल या पैसा माँगने को। साहेबजान से मन-ही-मन सभी लोग नफरत करते थे, पर उससे डरते भी बहुत थे। यहाँ तक की अब्बाजान की भी उससे कुछ कहने की हिम्मत न होती।
पुलिस के आदमी को गये थोड़ी ही देर हुई थी कि नीचे गली में साहेबजान की आवांज सुनाई दी। वह नशे में चूर था और गन्दी-गन्दी गालियाँ बक रहा थाऐसी-ऐसी गालियाँ, जिनका मैं तब मतलब भी नहीं समझता था।
अब्बाजान ने मुझे अपने पास बुलाया और बड़े ही प्यार-भरे लहजे में वह कहने लगे, ''बेटा, यूँ तो खुदा की निंगाह में सभी इनसान बराबर हैं, लेकिन खानदान और खून बड़ी चीज हैं। हमारे खानदान में कोई शराबी नहीं हुआ, किसी ने जुआ नहीं खेला। छाको का मामू ही तो है साहेबजान। माना कि साहेबजान और छाको के बाप की आदतें एक-सी नहीं हैं, लेकिन हैं तो एक ही खानदान के। हम लोगों को इनकी सुहबत से बचना चाहिए, ताकि इनकी बुराइयाँ हममें न घुस जाएँ...'' इसी तरह की और बहुत-सी बातें अब्बाजान मुझसे कहते रहे। फिर एक फारसी का शेर भी पढ़ा था और उसका मतलब समझाया था। उस शेर का निचोड़ भी कुछ यही था कि बुरी संगत से बचना चाहिए। जब अब्बाजान यह नसीहत कर रहे थे, तो मैंने महसूस किया था कि वह जो कुछ कह रहे हैं, उसमें पूरी सचाई न सही, पर कुछ-न-कुछ सचाई जरूर है।
दूसरे दिन अब्बाजान कचहरी से लौटे थे, तो उनके हाथ में एक बड़ा-सा पैकट था। पैकट मुझे देते हुए उन्होंने कहा था, ''तुम लोगों के लिए ऐसी चीज ला दी है कि खेलने के लिए बाहर जाने की जरूरत नहीं है।'' और जब पैकेट खुला था और कैरम-बोर्ड पर नजर पड़ी थी, तो कितनी खुशी हुई थी मुझे! लगता था, दो जहान की नियामत मिल गयी है।
इसके बाद जाने कैरम-बोर्ड का असर था, या अब्बाजान की नसीहत का कि दुपहर में छाको के साथ खेलने का सिलसिला बिलकुल बन्द हो गया। मैं अपने छोटे भाई के साथ कैरम खेलता रहता। बाहर बरामदे में कंकड़ी के गिरने की आवांज होती हलके से ताली बजती, पैरों की धम-धम करने की आवांज होती, उँगली मुँह में डालकर सीटी की आवाज पैदा की जाती, पर ये तमाम आवांजें कमरे में पहुँचकर कैरम की गोटों की खट-खट में गुम हो जातीं।
इसके बाद मेरे और छाको के बीच वह नंजदीकी न रही, जो पहले थी। आते-जाते एक-दूसरे को देख लेते, तो कभी-कभार बातचीत हो जाती, पर हम दोनों के दरमियान जैसे कोई दीवार आ गयी थी। जैसे-जैसे मैं ऊँची जमातों में चढ़ता गया, पढ़ाई का बोझ भी बढ़ता गया। खेल में दिलचस्पी अब भी बनी हुई थी। अब गुल्ली-डंडा और अटा खेलने का शौक खत्म हो चुका था। उनकी जगह फुटबाल, रिंगबाल और हाकी ने ले ली थी। मैं स्कूल से घर आता। स्कूल में दिये हुए कामों को पूरा करता। फिर शाम को स्कूल के मैदान में खेलने चला जाता। स्कूल मेरे घर से कुछ ज्यादा दूर नहीं था। खेलकर वापस आता, तो मास्टर साहब पढ़ाने आ जाते। सुबह से रात गये तक मैं व्यस्त रहता। मैं मोहल्ले में रहते हुए भी वहाँ की जिन्दगी से कुछ कट-सा गया था। आज जब बचपन की इन छोटी-छोटी बातों के बारे में सोचता हँ, तो अजीब-सा लगता है। क्या रखा है इन छोटी-मोटी यादों में? पर न जाने ऐसा कौन-सा बारीक तार है, जिसने इन यादों को मजबूती से बाँध रखा है, जो इन्हें बिखरने नहीं देता। जरा मौका मिला नहीं कि मोतियों के हार की तरह ये यादें झिलमिला उठती हैं। एक और तसवीर उभर रही है। महम्दू खलीफा गली में आगे-आगे जा रहा है, पीछे-पीछे छाको चल रहा है आहिस्ता-आहिस्ता। गले में कपड़ा नापने का फीता लटक रहा है। हाथ मैं कैंची और बगल में एक छोटी गठरी चुपचाप चल रहा है वह अपने बाप के पीछे, जैसे कैदी सिपाही के पीछे-पीछे चल रहा हो। बिलकुल सपाट चेहरा, जैसे मन में कोई भी विचार-तरंग न हो। और तब एकाएक सपाट चेहरे पर जैसे जिन्दगी की लहर दौड़ गयी हैं। महम्दू खलीफा गुस्से में उसे गालियाँ दे रहा है , माँ की, बहन की।
''सुराथराम, साले, चोरी करबे तू! ममुआ का आदत सीखे है तू!''
बात बहुत मामूली थी। 'पुकार' फिल्म चल रही थी। छाको ने अपने बाप की जेब से सोते में पैसे निकाल लिये थे और चुपके से दुकान से खिसक गया था महम्दू खलीफा को जब पता चला, तो वह बुरी तरह बरस पड़ा था उस पर। मुझे बहुत खुशी हुई थी। साथ ही कुछ जलन भी हुई थी। खुशी इसलिए हुई कि उसको डाँटा गया था। अब्बाजान मुझे अकसर डाँटते-फटकारते रहते थे। इसका एक असर यह पड़ा था मुझ पर कि जब किसी को डाँट सुनाते देखता, तो मन-ही-मन बहुत खुश होता। पर उस पर रश्क भी हो रहा था। उसने ऐसा काम कर दिखाया था, जो मैं नहीं कर सकता था। मेरी तो हिम्मत ही नहीं पड़ सकती थी। अब्बाजान का कुछ ऐसा ही रोब था मुझ पर। उन दिनों 'पुकार' फिल्म की बहुत शोहरत थी। परी-चेहरा नसीम पर लोग जान देते थे। रोज गली में कितने ही आदमी 'जिन्दगी का साज भी क्या साज है' गुनगुनाते हुए गुजर जाते। बहुत जी चाहता कि किसी तरह फिल्म देखूँ। आखिर फिल्म में ऐसी क्या बात रहती है कि अब्बाजान मुझे जाने नहीं देते! इतने सारे लोग कैसे जाते हैं। लेकिन उनसे बहस करने का सवाल ही नहीं था। इसलिए जब मालूम हुआ कि छाको 'पुकार' देख आया है, तो मुझे बहुत रश्क हुआ था उस पर। काश, मैं भी देख सकता! मजे की बात यह थी कि अब्बाजान खुद देख आये थे। कितना गुस्सा आया था उन पर मुझे! यह भी कोई बात हुई ? फिल्म देखना बुरा है, तो उनके लिए क्यों बुरा नहीं है? मुझसे तो अच्छा छाको है। डाँट ही सुननी पड़ी न, लेकिन फिल्म तो देख ली!
इस तरह की कितनी ही छोटी-मोटी बातें याद आ रही हैं। छाको दूल्हा बना है। सफेद कमीज पर बादामी रंग का जाकेट पहने है। घोड़ी पर शान से तनकर बैठा हुआ है, मुँह पर लाल रेशमी रूमाल है। पीछे उसकी कमर को पकड़े बेंगा बैठा हुआ है, सुखी मियाँ की शहनाई की आवांज गली में फैल गयी है, बंसी नाई हाथ में छतर लिए खड़ा है। गली में मोहल्ले भर के लड़कों की वह भीड़ है कि रास्ता चलना कठिन हो गया है और तब गली में ऐसा सन्नाटा हो गया कि जी घबराता है। बरात जा चुकी है, पर हमारे यहाँ से कोई भी नहीं गया है, दुनिया में हर बात के लिए कायदे बन हुए है। छाको की बरात में हमारे घर का कोई आदमी नहीं जा सका! यह बात सबको उसी तरह मालूम है, जिस तरह यह बात कि सूरज पूरब में निकलता है। किसी को कोई शिकायत नहीं है। किसी को कोई दु:ख नहीं है। मैं भी अब ऐसा बच्चा नहीं रहा कि इतनी-सी बात न समझ सकूँ। पर एक खयाल मन में जरूर पैदा हुआ है कि छाको फिर मुझसे बाजी ले गया।
और जब पाकिस्तान से आया हुआ छाको का खत मैंने पढ़ा है, तो न जाने क्यों मुझे महसूस हुआ है कि वह दीवार, जो उस चाँदनी-भरी रात में अब्बाजान की नसीहत ने या शायद कैरम-बोर्ड की गोटों ने खड़ी कर दी थी, एक ही झटके में टूट गयी है और छाको मेरे बहुत करीब आ गया हैशायद उससे भी ज्यादा करीब, जब हम दोनों गर्मी की दुपहरी में अब्बाजान और अम्मी की नंजरों से बचकर ईंट के टुकड़ों से बरामदे के फर्श पर लाल रेखाएँ खींचते थे और अजीब खेल खेलते थेबेमायने, बेमतलब, बस यूँ ही।
पन्द्रहवें रोंज छाको का एक और खत आया। लिखा था :
''अब्दुश्शकूर की तरफ से उसके बाबा को और जैनब बुआ को सलाम। मालूम हो कि हम अच्छी तरह हैं। आप लोग लिखा है कि हमको आप सबको छोड़ के नहीं जाना चाहिए था। हम क्या बताएँ। हम नहीं चाहते थे कि आएँ। लेकिन इलाही मास्टर ने ऐसी बात कह दी कि हमको आना ही पड़ा। वह कहिन कि अच्छे वक्त में साथ दिया लेकिन जब तकलींफ का डर है, तो साथ छोड़ रहे हैं। हम बोले कि मास्टर हम ऐसे नहीं हैं। आप ऐसा सोचते हैं तो हम चलेंगे। नहीं जाएँ तो बाप का पेशाब पिएँ। इसलिए आना पड़ा। जबान दे चुके थे। घर बहुत याद आता है। यहाँ का लोग हम लोग के माफिक नहीं है। बंगला बोलता है। हम लोग को देख के बहुत कुड़कुड़ाता है। आज मुहर्रम का चार है। सात तारींख को अखाड़ा निकलेगा। दस को ताजिया उठेगा। हम रहते तो पैक बनते। बेंगा मशक उठाएगा। बड़ी दाहा के इमामबाड़े पर हमारी तरफ से मिठाई और शरबत नियाज करा देना। दाहू भैया से कहियो हमारे वास्ते इमाम साहब से दुआ करें। मुहल्ले का अखाड़ा कैसा निकला, लिखियो। कै मेर बाजा था। इब्राहीम उस्ताद मुहर्रम करने आ गये होगे। बत्तीवाले कित्ते थे। रोशनी में फाटक था या नहीं। शहर में हमारे अखाड़े का पहला नम्बर रहा या नहीं। सब बात लिखिएगा। सबको सलाम दुआ।''
उस रोज मुहर्रम की सातवीं तारींख थी। दाहा पर डंके के बजने की आवांज आ रही थी। गली में लड़के हरे ओर चमकदार नारा-बध्दी पहने आ-जा रहे थे। सचमुच छाको पैक बनकर किस तरह फुदकता फिरता था! सफेद चूड़ीदार पायजामे पर हरा कुरता। कमरबन्द बाँधे हुए, जिसमें तीन-चार घण्टियाँ और एक मूर्छल लटकती रहती। घर दाहा एक किए रहता था वह। रात भर उसकी घण्टियों की आवांज गली में गूँजती रहती। अखाड़ा निकलता, तो उसके साथ-साथ जाता और दिन के नौ-दस बजे कहीं वापस आता।
कितनी ख्वाहिश होती थी मुझे अखाड़ा के साथ शहर-भर में घूमने की, लेकिन अब्बाजान कहाँ इजाजत देते थे इसकी! मोहल्ले का अखाड़ा निकलता, तो सबसे पहले मेरे घर के करीब गली के नुक्कड़ पर एक बड़े मैदान में जमता। फिर कहीं और जाता।
लोग घर से निकलकर नुक्कड़ पर आकर खड़े होते। सामने के हिस्से में आदमियों की भीड़ नहीं रखी जाती थी, ताकि हम लोग आराम से अखाड़ा देख सकें। उस रोज हमारे यहाँ एक बहुत बड़े टप में शरबत बनता और अखाड़े में जितने लोग भी होते, उन सबको शरबत पिलाया जाता। फिर कभी बीस, कभी तीस रुपये अब्बाजान इब्राहीम उस्ताद के हाथ में रख देते। इसके बाद अखाड़ा दूसरी तरफ चला जाता। जाने कितनी बार मैंने छाको को अखाड़ा खेलते देखा था। शायद ही कोई ऐसा मुहर्रम हो, जब वह अखाड़े में मौजूद न रहा हो। बना, पटा, गदका सब कुछ ही तो खेलता था वह। बड़े होने पर गुहार भी इतना अच्छा खेलता था कि मोहल्ले-भर में उसका जवाब नहीं था। लाठी घुमाता हुआ इतनी सफाई से गोल के भीतर निकल जाता कि दूसरी लाठियाँ उसके बदन को छू भी न सकती थीं। यह सब देखकर मेरा भी कितना जी चाहता था कि मैं भी छाको की तरह पैक बनूँ, अखाड़े के साथ घूमता फिरूँ, बना-पटा खेलूँ। लेकिन मुझे क्या करना चाहिए, इसका फैसला तो अब्बाजान करते थे। मैं तो एक कठपुतली था उनके हाथों में। मैं चाहता था पैक बनना, लेकिन हमारे खानदान में इसका रिवांज नहीं था। मुझे मुहर्रम में तौक पहनाया जाता। चाँदी के तौक में हर साल एक नयी कड़ी जोड़ दी जाती, जो इस बात की निशानी थी कि मेरी उम्र में एक साल का इजांफा हो चुका है। तौक पहनाने के पहले अब्बाजान फातिहा करके उसे फूँकते। फिर मुझे तौक पहनाया जाता, नियाज की रेवड़ियाँ खाने को दी जातीं और शरबत पिलाया जाता। अम्मी मेरी जिन्दगी के लिए दुआएँ करतीं। पर मुझे यह सब बिलकुल पसन्द नहीं आता था। मैं तो बस चाहता था कि छाको की तरह मुझे भी पैक बनाया जाए। मेरी कमर में भी घंटियाँ और मूर्छल बँधी हों और मैं भी छाको की तरह रात-भर जहाँ चाहँ, घूमता फिरूँ। लेकिन मेरे लिए इतनी आजादी कहाँ थी! मुहर्रम का तमाशा देखने का इन्तजाम मेरे लिए यह किया जाता कि मुझे अपने रिश्ते के मामू के यहाँ भेज दिया जाता, जिनका मकान बांजार में बीचोबीच था। छत से हम लोग अखाड़ों और ताजियों की बहार देखते। लेकिन जो मजा सड़कों पर घूम-घूमकर तमाशा देखने में है, वह कैदी की तरह एक जगह बन्द होकर देखने में कहाँ !
लेकिन यह सब तो बचपन की बातें हैं। मुहर्रम का अखाड़ा अब भी हमारे मकान के सामने जमता है, अब भी इब्राहीम उस्ताद को रुपये दिये जाते हैं, अखाड़े में आये हुए लोगों को शरबत पिलाया जाता है, लेकिन मैं यह सब महज एक रस्म पूरी करने के लिए करता हँ। वह उमंग और जोश नहीं है, जो बचपन के दिनों में महसूस करता था। लेकिन छाको अब भी कितने चाव और हसरत से मुहर्रम का जिक्र करता है, जैसे इससे उसका रूहानी लगाव हो। मुझे याद है कि ऐसी ही खुशी और उमंग मैंने उस दिन महसूस की थी, जब अब्बाजान ने मुझे नया कैरम-बोर्ड लाकर दिया था। मेरी खुशी की सतह अब बिलकुल बदल गयी है। पर छाको की खुशियों की सतह अब भी वही है, जो बचपन के दिनों में कभी मेरी भी रह चुकी थी।
मैं मुंसिफी के इम्तिहान में बैठ चुका था। उन्हीं दिनों इम्तिहान का नतीजा निकला। मैं चुन लिया गया। नियुक्ति के पहले मुझे पटना पहुँचकर डाक्टरी परीक्षा करवानी थी। मैं पटना चला गया। वहाँ से लौटने के दो-तीन रोज बाद ही छाको का एक और खत आया। लिखा था :
''अब्दुश्शकूर की तरफ से बाबा और जनबा बुआ को बहुत-बहुत सलाम। खत मिला। मालूम हो कि इलाही मास्टर की दुकान बहुत चल रही है। उनको गवरमेंट का बहुत बड़ा ठेका मिल गया है। मास्टर कहते हैं कि सब कारीगर का रुपया हम बढ़ा देंगे और मुनाफा में से भी कुछ देंगे। लेकिन हमारा मन नहीं लगता है। और सब तरह का आराम है। इलाही मास्टर के घर में हम सबका खाना बनता है। जो इलाही मास्टर खाते हैं, वह हम कारीगर सब खाते हैं। हमको बहुत दु:ख हुआ कि इस बार मुहर्रम में तीन मेर बाजा था। बराबर चार मेर बाजा रहता था। रोशनी का फाटक भी नहीं था। हम रहते तो ऐसा नहीं होने देते। जैसे होता, चन्दा उठाकर अच्छा से अच्छा अखाड़ा निकालते। खुदा की मरजी हुई तो हम अगले मुहर्रम में मोहल्ले में जरूर रहेंगे और दिखा देंगे अच्छा से अच्छा अखाड़ा निकालकर। लानत है मोहल्ले के लोगों पर। अपने मोहल्ले की इज्जत का कोई फिकर नहीं है। मेहँदी के बारे में कुछ नहीं लिखा। कैसी मेहँदी निकली थी।
''बाबा को मालूम हो कि हमको कुरैशा का रिश्ता साहेबजान मामू के बेटे से एकदम पसन्द नहीं है। भूरा काम-धन्धे से लगा हुआ है, यह ठीक है। लेकिन चोर-डकैत के बेटे से हमारी बहन का ब्याह हो, यह कैसे हो सकता है। बाबा को मेरी तरफ से कहा जाए कि यह रिश्ता कभी नहीं करें।
''जुबैदा को उसके बाबा की दुआ। मुस्तकीम और यासीन को बहुत-बहुत दुआ।''
छाको का खत पढ़कर मैं सोचने लगा, सैकड़ों मील की दूरी पर बैठा हुआ वह मुहर्रम के अखाड़े से कितनी निकटता अनुभव कर रहा है! पैक बनना, अखाड़ा खेलना, मेहँदी, ढोल-बाजा, मुहर्रम की धूमधाम ये सब मेरे लिए कितनी गैर अहम चीजें बनकर रह गयी हैं! हालाँकि मैं इन चीजों के दरमियान रह रहा हँ, पर मेरे दिल में इनसे कुछ भी तो उमंग नहीं होती। और छाको, जो इनसे सैकड़ों मील की दूरी पर है, जैसे इन सबको अपनी रग-रग में महसूस कर रहा है, जैसे सिवाय मौत के कोई और चीज उसको इन चीजों से अलग नहीं कर सकती। क्या यह उसके अपने स्वभाव की विशेषता है, या इसकी वजह यह है कि जो चीज दूर चली जाती है, उससे आदमी का लगाव बढ़ जाता है। लेकिन मैं तो बाहर-बाहर रहा हँ। मुझे तो मुहर्रम के धूम-धड़ाके की याद ने कभी भी इस तरह नहीं सताया। सोचने पर इसकी एक वजह तो यह मालूम होती है कि मैं जिन्दगी की इन मामूली खुशियों के लिए बूढ़ा हो चुका हँ। लेकिन छाको के लिए इन सीधी-सादी खुशियों की अब भी शायद उतनी अहमियत है, जितनी कि बचपन में थी। और तब मुझे छाको वास्तव में बिलकुल एक बच्चा लगता है, पैक बना गली में फुदकता फिर रहा है और कमर से बँधी हुई घंटियों की आवांज फ़िजाँ में बिखेर रहा है। यह तब भी बच्चा था, जब उसने अब्बाजान की गालियों का बुरा माना था, उस वक्त भी जब अब्बाजान की दी हुई जलेबियों से उसका गुस्सा एकाएक खत्म हो गया था और उस वक्त भी वह बच्चा ही था जब इलाही मास्टर के कहने पर वह अपने वतन को छोड़कर पाकिस्तान चला गया था और अपने जिस्म को उन हवाओं से अलग कर दिया था, जिनके बीच वह पला-बढ़ा था। पर उसकी रूह इन हवाओं को ढूँढ रही थी उस दूध पीते बच्चे की तरह जो माँ के दूध के लिए बिलख-बिलखकर रो रहा हो और उसकी माँ उसके पास न हो।
लेकिन अपनी बहन के रिश्ते के बारे में उसने जो कुछ लिखा था, उसको पढ़कर मुझे अजीब-सा लग रहा था। मुझे अब्बाजान की वह बात याद आ रही थी, जो उन्होंने बहुत पहले उस रात कही थी, जब छत पर चाँदनी छिटकी हुई थी, अम्मी के हाथों में मुरादाबादी सरौता चमक रहा था और एकाएक साहेबजान के दरवांजे पर सिपाही की कड़कदार आवांज गूँजी थी। अब्बाजान तो खून और ंखानदान की अहमियत के कायल थे, लेकिन छाको तो अपने ही खानदान और खून में नफरत के बीज बो रहा था, साहेबजान चोर था, गुंडा था, उसमें दुनिया-भर की बुराइयाँ थीं, लेकिन उसका लड़का भूरा तो ऐसा नहीं था फिर ंखानदान तो उसका ही था। और तब मुझे लगा कि यह भी छाको का लड़कपन ही तो है, अपनी नादानी में वह खुद उस बात को सही साबित करने पर तुला हुआ है, जो कभी अब्बाजान ने कही थी और जो उसे बहुत बुरी लगी थी।
मुंसिफ होने पर मेरी पहली पोस्टिग पूर्णियाँ में हुई। तीन साल के बाद मेरा तबादला समस्तीपुर हो गया। ये दोनों जगहें गंगा के उस पार उत्तरी बिहार में थीं। वकीलों की जिरह, गवाहों के बयान वंगैरह सुनने में पूरा दिन गुंजर जाता। रात गये तक मुकदमों के फैसले लिखता। मसरूफियत बहुत बढ़ गयी थी। इस बीच मैं घर एक-दो बार ही जा सका और वह भी एक-दो रोज के लिए ही। जब मेरी नौकरी के चार साल पूरे हो गये, तो मैंने दो महीने की छुट्टी ली और घर आ गया। पहुँचने के दूसरे दिन सवेरे मैं बैठक में बैठा कोई जरूरी खत लिख रहा था। कमरे का एक दरवाजा, जो बरामदे की तरफ था, खुला हुआ था। एकाएक मेरे कानों में एक आवाज आयी,''खाजे बाबू हैं?''
''कौन हैं? अन्दर आ जाइए'', मैंने जवाब दिया।
''हम हैं अब्दुश्शकूर!''
अभी मैं ठीक तरह से समझ भी न पाया था कि इतने में छाको मेरे सामने आकर खड़ा हो गया। मैं चौंक पड़ा। बिलकुल वैसा ही तो था, जैसा मैंने उसे बरसों पहले देखा था। हाँ, उसके बालों में अलबत्ता कहीं-कहीं सफेदी आ गयी थी।
''अरे छाको, तुम ? तुम कब आये पाकिस्तान से?'' मैंने पूछा।
''हमको आये तो दो महीना हो गया बाबू! हम समझ रहे थे, आपसे मिलना न हो सकेगा। जनबा बुआ बताइस कि आप आये हैं। किस्मत में मिलना लिखा था। कित्ते दिन बाद आपको देखा है!''
''कब तक रहोगे?''
''आज जा रहे हैं। एक महीने का वीसा मिला था। एक महीना और बढ़ाया। इलाही मास्टर जिनकी दुकान में काम करते हैं, खत पर खत लिख रहे हैं कि जल्दी आ जाओ।''
''वहाँ दिल लग गया है तुम्हारा!'' मैंने पूछा।
''नहीं बाबू, मन बहुत घबराता है। घर बहुत याद आता है।''
''फिर गये क्यों?'' मैंने अनजान बनते हुए पूछा।
''का कहें बाबू! इलाही मास्टर के बहकावे में आ गये। धोखे से फारम भी भरवा दीहिन वह पासपोर्ट का।''
''तुम्हारी बच्ची तो ठीक है न? अब तो बड़ी हो गयी होगी'', मैंने विषय बदलते हुए कहा।
''हाँ बाबू, बारह बस की हो गयी। अच्छा लड़का मिल जाए, तो यह फरज पूरा कर दें। आप भी देखिए। कोई अच्छा लड़का मिले तो खबर कीजिए।''
''तुम्हारी एक ही तो बच्ची है। अपने साथ ले जाओ। वहीं शादी-ब्याह करना उसका।''
''बाबू की बात! वहाँ अपनी जात-बिरादरी का लड़का कहाँ मिलेगा!'' छाको ने अपनी ंखास मासूमियत से कहा।
उसी रोज रात के आठ बजे गली के नुक्कड़ पर रिक्शा आकर रुका।
आगे-आगे छाको। उसके पीछे-पीछे महम्दू खलीफा, जनबा, उसके बेटे मुस्तकीन और यासनी, छाको की बहन कुरैशा और उसकी बेटी जुबैदा। उसकी चाल बिलकुल वैसी ही थी, जैसी मैं देखता आया था। आहिस्ता-आहिस्ता चल रहा था वह, जैसे बहुत पहले अपने बाप के साथ चलता था। मुझे लगा, वह दुकान बन्द करके घर लौट रहा है। महम्दू खलीफा आगे-आगे चल रहा है और पीछे-पीछे छाको चल रहा है। उसके गले में कपड़ा नापने का फीता लटक रहा है। एक हाथ में कैंची है और बगल में कपड़ों की छोटी-सी गठरी। लेकिन कहाँ! वह घर की तरफ नहीं जा रहा है। वह तो विरोधी दिशा में जा रहा है। महम्दू खलीफा उसके आगे-आगे नहीं है। वह तो छाको के पीछे-पीछे चल रहा है। मैं सोचता हँ, जमाना कितना बदल गया है! कैसा बदला-बदला लग रहा है सब कुछ! मैं बरामदे से उतरकर गली के नुक्कड़ पर आ गया हँ। छाको रिक्शे पर चढ़ रहा है। यह दृश्य जाने कितनी बार देख चुका हँ। जब कभी वह हजारीबाग जाता, या कोडरमा जाता, या झूमरी तलैया जाता, या कलकत्ता जाता, तो इसी तरह गली के नुक्कड़ पर रिक्शा आकर रुकता। पर मैं कभी तो नहीं जाता था उसे बिदा करने को। तब भी उसके बाप, भाई, बहन, सभी आते थे उसे छोड़ने को रिक्शे तक। लेकिन किसी की ऑंखों में ऑंसू नहीं होते थे। सबके चेहरे उदास जरूर रहते थे। वे जानते थे कि यह आना-जाना तो लगा ही रहता है। यह तो उनकी जिन्दगी का एक हिस्सा है। मोहल्ले के कितने ही लोग बाहर जाते रहते हैं काम-धन्धों की तलाश में। पर आज का जाना तो और ही लग रहा था, जैसे वह रोजगार की तलाश में न जा रहा हो, जैसे वह दूर, बहुत दूर, ऐसी जगह जा रहा हो, जहाँ से जाने वह कभी लौटेगा भी, या नहीं।
मैं गली के नुक्कड़ पर खड़ा हँ। गली की सीढ़ी से लगकर रिक्शा खड़ा है। छाको के चेहरे पर अजीब तरह का तनाव है, जैसे उसका चेहरा फट पड़ेगा उसके मन के तूफान को लेकर। उसके बाजू पर लाल साड़ी की धज्जी में इमाम जामिन बँधा हुआ है। उसकी बेवा बुआ जनबा उसके पास खड़ी है। पायदान पर टीन का एक स्याह बक्स रखा है। उसके ऊपर लाल कपड़े में बँधा हुआ हाँडी क़ा ढक्कन रखा है, जिसमें शायद खाने की कोई चींज रखी हुई है। छाको का एक पैर रिक्शे के पायदान पर है, दूसरा पैर अभी जमीन पर ही है, जैसे वह जमीन में धँस चुका हो। जनबा के ऑंसुओं में डूबे हुए शब्द मेरे कानों में पहुँच रहे हैं,अल्लाह खैर से वापस लाए!''
और तब एकाएक उसका चेहरा फट पड़ा है। दिल का तूफान बाहर निकल पड़ा है। उसका पैर रिक्शे के पायदान से हटकर फिर जमीन पर आ गया है। वह फूट-फूटकर रो रहा है, जैसे वह सचमुच कोई बच्चा हो और उसकी कोई प्यारी चींज उससे छीनी जा रही हो। इस तरह छाको को फूट-फूटकर रोते तो मैंने कभी नहीं देखा। मैंने उसका पासपोर्ट देखा है। अब्दुश्शकूर वल्द महम्दू खलीफा पाकिस्तान का नागरिक है। मैंने कानून का गहरा अध्ययन किया है। कानून की इज्जत मेरी रग-रग में बसी हुई है। मैं जानता हँ कि कानून का जज्बात से कोई ताल्लुक नहीं है। पर न जाने क्यों एकाएक मेरे दिमाग ने जैसे काम करना बन्द कर दिया है। कानून की मोटी-मोटी किताबें जैसे छाको के ऑंसुओं में डूबती जा रही हैं और मैं रूह की गहराई में कहीं शिद्दत से यह महसूस कर रहा हँ कि छाको दरअस्ल परदेश जा रहा है, जहाँ की हर चींज उसके लिए अजनबी है।
आज की छुट्टी सफ़ल हो गई।
जवाब देंहटाएं’मास्टरपीस।’
Lekhak ka parichay page nahi hai, na internet par koi link. kahani uttam hai
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