हममें से कितनों ने स्पेन को वर्ल्ड कप 2010 का विश्व चैंपियन सोचा था? बहुत कम। यह जानते हुए भी कि वो यूरोपियन चैंपियन है, इसके चाहने वालों की...
हममें से कितनों ने स्पेन को वर्ल्ड कप 2010 का विश्व चैंपियन सोचा था? बहुत कम। यह जानते हुए भी कि वो यूरोपियन चैंपियन है, इसके चाहने वालों की संख्या दुनिया में सीमित थी। और अपने पहले ग्रुप मैच में स्विट्जरलैंड से हार जाने के बाद तो इसकी संभावना और क्षीण हो गयी थी। ठीक इसी तरह नीदरलैंड एक सामान्य टीम के रूप में मानी जाती थी और किसी ने भी उसके उपविजेता होने का नहीं सोचा था। और भी कई कारण बने जो इस साल का फुटबाल वर्ल्ड कप भारी उलट-फेर का इतिहास बनकर रह गया। यह पहली बार हुआ कि पिछले वर्ल्ड कप की दोनों फाइलन टीमें पहले राउंड में ही बाहर हो गयी थीं। विजेता इटली स्लोवाकिया के हाथों हारकर अप्रत्याशित रूप से बाहर हुई तो फ्रांस दक्षिण अफ्रीका से हारकर शर्मनाक तरीके से अगले राउंड तक के लिए क्वालीफाई नहीं कर पायी। उसके बाद तो मानो फुटबाल चाहने वालों पर पहाड़ टूटने का सिलसिला चल पड़ा। पांच बार की वर्ल्ड कप विजेता ब्राजील के चाहने वालों की संख्या, हिन्दुस्तान में ही नहीं विश्व भर में, स्वाभाविक रूप में सर्वाधिक है। महान फुटबालर पेले से लेकर रोनाल्डो जैसे कई खिलाड़ियों के अद्भुत खेल का इसमें योगदान है। मगर ब्राजील का नीदरलैंड से क्वार्टर फाइनल में हारना एक आश्चर्यजनक उलट-फेर था। दुखी मन से सही मगर अधिकांश ब्राजीली फुटबाल प्रेमियों ने अपना पाला बदला और दबे पांव अर्जेंटीना के पक्ष में खड़े हो गए। अर्जेंटीना के चाहने वालों की संख्या पहले भी कम न थी और इसका कारण करिश्माई मेराडोना का होना भी था जो इस बार कोच थे। इसमें कोई शक नहीं कि अर्जेंटीना को विश्व कप के दावेदारों में से एक माना जाता था और मेराडोना के आक्रामक खेल व 1986 के वर्ल्ड कप जीतने की यादें आज भी ताजा हैं। तभी तो उनकी आत्मविश्वास से भरी बातों ने प्रशंसकों की संख्या दुगुनी कर दी थी। अर्जेंटीना और जर्मनी का क्वार्टर फाइनल अघोषित फाइनल मैच की तरह देखा गया था और जबरदस्त रोमांच की उम्मीद लगाई गई थी। मगर फुटबाल प्रेमियों को जबरदस्त निराशा हाथ लगी थी। अर्जेंटीना की हार उतनी अधिक दिल दुखाने वाली नहीं थी जितना उनके खेल का घटिया प्रदर्शन और 0-4 गोल के स्कोर ने तो कइयों का दिल तोड़ दिया था। फुटबाल प्रेमियों ने फिर भी आस नहीं छोड़ी थी और टूटे दिल से यूरोप की पारंपरिक रूप से शक्तिशाली टीम जर्मनी के खेल पर अपनी निगाहें केंद्रित की थी। फुटबाल प्रेमियों द्वारा इतनी जल्दी-जल्दी अपनी पसंदीदा टीम बदलते पहले कभी नहीं देखा गया। लेकिन जर्मनी का सेमीफाइनल में स्पेन से हार जाना एक तरह से प्रेमियों के दिल के डूब जाने के बराबर था। यहां भी एक बार फिर सशक्त जर्मनी के कमजोर खेल ने अधिक निराश किया था।
खेल में जीत-हार रोमांच पैदा करता है और फुटबाल विश्व कप में इसका लंबा इतिहास रहा है। तगड़ी टीम को किसी नये के द्वारा चैलेंज देना दर्शकों में जोश भर देता है। फुटबाल के असंख्य प्रशंसक होने के पीछे उसका खेल है न कि स्टार खिलाड़ी या टीम का नाम। और दर्शकों को स्तरीय खेल देखने को न मिले तो उसके लिए बाकी सब व्यर्थ है। इस वर्ल्ड कप में उलट-फेर से अधिक खेल की नीरसता ने अपना ध्यान आकर्षित किया। गम हारने का तो था ही, कमजोर कोशिश पर अधिक दुख हुआ। सबसे पहले तो ब्राजील और पुर्तगाल के बीच के मैच को देखकर दर्शकों को जो हताशा हुई, उसका बयान करना मुश्किल है। यूं लग रहा था मानों दोनों फ्रेंडली मैच खेल रहे हों। मैच ड्रा हुआ था। यकीनन गणित के हिसाब से दोनों ही टीम का अगले राउंड के लिए क्वालीफाई करना सुनिश्चित था इसके बावजूद अच्छे खेल का प्रदर्शन न करना खेल की भावना से न खेलने के समान था। तभी तो अगले राउंड में पुर्तगाल की हार का गुस्सा उसके प्रशंसक पचा नहीं पाये। ब्राजील भी नीदरलैंड के साथ खेलते हुए अपनी आक्रामक शैली को छोड़कर रक्षात्मक शैली में इस तरह से खेलती चली गयी कि मैच उनके हाथ से कब निकल गया पता ही नहीं चला। पता नहीं ब्राजीली कोच डूंगा का यह कथन कितना सार्थक था कि उन्होंने ऐसी रक्षात्मक टीम गठित की है जिसे हराना मुश्किल है। यहां सवाल उठता है कि क्या आप हार से बचने आए हैं या जीतने? सत्य तो यह है कि बिना आक्रमण के जीत असंभव है। शायद तभी इसी आपाधापी में ब्राजील का मिड-फिल्डर मेलो आत्मघाती गोल कर बैठा और ब्राजील की हार का कारण बना। फिलिप मेलो रातों-रात देश का विलेन बन गया। ठीक भी तो है विश्व कप के रोड मैप को देखकर ब्राजील का फाइनल तक पहुंचना सबसे आसान लगता था। ठीक इसी तरह अर्जेंटीना व जर्मनी के हारने में ऐसा कहीं भी नहीं लगा कि सशक्त टीमें खेल रही हों। यही कारण है कि लाखों-करोड़ों आम स्वतंत्र और निरपेक्ष दर्शक अच्छे खेल की तलाश में भटकते नजर आए। यूं तो जर्मनी अपने ग्रुप मैचों में सर्बिया से भी हार चुकी थी लेकिन फिर भी स्पेन से उसका हारना अधिक दुखदायी था। अर्जेंटीना को एकतरफा खेल में हराने वाली सशक्त टीम अचानक इतनी कमजोर, असहाय व मैदान में इधर से उधर भागती नजर आयी। यूं तो फुटबाल प्रेमियों की अंतिम आस स्पेन पर टिकी थी और फाइनल वर्ल्ड कप उसने उसी के सहारे देख लिया लेकिन तब तक फुटबाल का असल खेल अपनी ऊर्जा ही नहीं चमक भी खो चुका था।
विश्व की सशक्त दावेदार टीमों के घटिया प्रदर्शन के उलट पराग्वे, उरुग्वे, घाना जैसी छोटी टीमों ने अपनी उपस्थिति दर्ज कराई। वहीं न्यूजीलैंड और एवरी कौस्ट ने कई लोगों को हतप्रभ किया था। सशक्त टीमों का ही नहीं स्टार खिलाड़ियों का प्रदर्शन भी ढीला रहा। ब्राजील के काका जहां अपनी चोट के कारण शायद खेल न दिखा पाए हों लेकिन पुर्तगाल के क्रिस्टियानो रोनाल्डो के चेहरे से उनके फैशन की दुनिया का अहम साफ-साफ दिखाई दिया। और वह मैदान पर भी रैंप पर चलते हुए प्रतीत हुए। उनकी अपने देश में जमकर आलोचना हुई। यह दीगर बात है कि आज के युग में जहां बाजार में पैसे से सब कुछ खरीदा जा सकता है, समय अनुसार प्रशंसकों को शांत कर दिया गया हो। लेकिन प्रशंसकों के दिल में पैसों से नहीं बैठा जा सकता। क्रिस्टियानो यकीनन लोगों के दिलों से उतर चुके होंगे और हो सकता है ब्राजील के पिछले विश्व कप के सितारे रोनाल्डिन्हो की तरह, जो इस बार नदारद थे, अगले विश्व कप में दिखाई न दे। बाजार अच्छे खिलाड़ी को स्टार तो बना सकता है लेकिन खेल नहीं पैदा कर सकता। सितारे तो चमकते हैं मगर यहां उनके प्रदर्शन पर मानो ग्रहण लग गया था। क्या वजह है जो अर्जेंटीना के मैस्सी फुटबाल ग्राउंड में लिटिल मैस्सी साबित हुए और जर्मनी के क्लाज व पुडॉस्की स्पेन के सामने बॉल पकड़ने के लिए नाचते से प्रतीत हुए। और इंग्लैंड का रूनी एक गोल के लिए रोता रह गया। एक तरह से महान खिलाड़ियों द्वारा दस नंबर जर्सी पहनने की परंपरा यहां धूमिल होती प्रतीत हुई। और शीर्ष स्थान खाली देख इस वर्ष के फीफा वर्ल्ड कप का सुपर सितारा ज्योतिष पॉल आक्टोपस बन गया। जिस फुटबाल ने पेले, मेराडोना, जिदान, मैजिको, रोनाल्डो, रिवेलिनो, गडमुलर जैसे महान खिलाड़ियों को जन्म दिया वही खेल आज सामान्य सितारे के लिए भी तरसता प्रतीत हुआ। क्या वजह है जो खिलाड़ी अपना सामान्य खेल भी नहीं दिखा पाये? स्पेन ने फार्म में नहीं चल रहे अपने स्टार टॉरेस तक को बाहर बिठाकर अंत में फल पाया मगर बाकी कोच ऐसा क्यूं नहीं कर पाये? कहीं न कहीं बाजार, विज्ञापन व क्लब के प्रेशर को इससे जोड़कर देखा जा सकता है। सट्टेबाजी के तार तो अदृश्य हैं। हां, अनुशासनहीनता भी एक प्रमुख कारण बना। और बाहर के लोगों को अपने देश से खिलाने का प्रयोग अव्यवहारिक और असफल हुआ। तभी तो फ्रांस में सारा गुस्सा कोच रेमंड डोमेनेक पर फूटा। हर विश्व कप में कुछ एक खिलाड़ी को देखकर भीड़ टूट पड़ती थी और बॉल उनके पैरों के पास पहुंचते ही दर्शक उत्साह में खड़े हो जाते थे। वो जोश वो गर्मी इस बार नदारद थी तभी तो दर्शक स्पेन की टच एंड पास जैसी नयी तकनीकी में किसी तरह स्वयं को संतुष्ट करते नजर आए। स्पेन का डेविड विला बिना किसी बेहद व्यक्तिगत बेहतरीन खेल के भी सितारे की तरह उभरा और उरुग्वे का डिएगो फोरलान प्लेयर ऑफ दा टूर्नामेंट बन गया।
फुटबाल एक आक्रामक खेल है। इसमें गति, ऊर्जा, शक्ति कलात्मकता, स्टैमना का अदभुत व संतुलित मिश्रण है। हाथ छोड़ शरीर का हर अंग प्रयोग किया जा सकता है और हर हाल में अपने प्रतिद्वंद्वी से आगे निकलने की होड़ में यह खेल बच्चे-बूढ़े-जवान हर एक को जोश से भर देता है और खिलाड़ी को विरोधी टीम में घुसकर फुटबाल के साथ भागता देख दर्शक पागल हो जाते हैं। इस बार आधुनिकता के नाम पर रक्षात्मक शैली एवं कई स्थानों पर रैफरी का अनावश्यक यलो एवं रेड कार्ड का बार-बार प्रदर्शन खेल की स्वाभाविक गति को खराब करता प्रतीत हुआ। यह खेल तो प्रारंभ से गिरने, चोट लगने और तुरंत खड़े होकर फिर से खेलने के लिए भागने वालों का खेल है। खेल में तो चोट आएगी लेकिन यह जबरदस्ती प्रहार करता हुआ प्रतीत नहीं होना चाहिए। मगर नकली गिरने और चोट की नौटंकी इस बार खूब चली। जिसका बेहतरीन प्रदर्शन ब्राजील और नीदरलैंड के मैच में हुआ जहां रोबेन (नीदरलैंड) ने अपने गिरने और चोट खाने की नौटंकी से ब्राजील के खिलाड़ियों को रैफरी का धौंस दिखाकर पूरी तरह रक्षात्मक बना दिया। इलेक्ट्रॉनिक युग में अब तीसरे अम्पायर और कंप्यूटर की बातें की जानी लगी हैं लेकिन यह यकीनन फुटबाल की नैसर्गिक मस्ती को समाप्त कर देगा जहां बाईस खिलाड़ियों के बीच तीन अम्पायरों को दौड़ता देख खून में गर्मी आ जाती है। कंप्यूटर युग ने चाहे जितनी उन्नति कर ली हो मगर बंद कमरे में स्क्रीन पर गाड़ी तेज चलाना वो रोमांच पैदा नहीं कर सकता जो खुले मैदान में साइकिल चलाने से ही उत्पन्न हो जाता है। इस खेल के लाखों-करोड़ों प्रशंसक फुटबाल नहीं खेलते, न ही कइयों का देश खेलता है मगर वो मैदान में खेल का मजा लेने जाते हैं, न कि शकीरा का वाका-वाका देखने-सुनने। बाजार को इस बात की सदा से गलतफहमी रही है मगर सच तो यह है कि दर्शक को यहां अर्द्धनग्न नारी के नृत्य पर थिरकते कोमल पैर नहीं फुटबाल को नचाने वाले मजबूत पैर देखने का जुनून होता है। बॉल के साथ भीड़ को चीरते हुए तेज दौड़ना इस खेल की आत्मा है न कि टच एंड पास का नया फार्मूला। जिस खेल की चमक से आकर्षित होकर राष्ट्रों के प्रमुख खिंचे चले आते हों, भय है कि बाजार का काला जादू उसके तेज को फीका न कर दे।
खेल में जीत-हार रोमांच पैदा करता है और फुटबाल विश्व कप में इसका लंबा इतिहास रहा है। तगड़ी टीम को किसी नये के द्वारा चैलेंज देना दर्शकों में जोश भर देता है। फुटबाल के असंख्य प्रशंसक होने के पीछे उसका खेल है न कि स्टार खिलाड़ी या टीम का नाम। और दर्शकों को स्तरीय खेल देखने को न मिले तो उसके लिए बाकी सब व्यर्थ है। इस वर्ल्ड कप में उलट-फेर से अधिक खेल की नीरसता ने अपना ध्यान आकर्षित किया। गम हारने का तो था ही, कमजोर कोशिश पर अधिक दुख हुआ। सबसे पहले तो ब्राजील और पुर्तगाल के बीच के मैच को देखकर दर्शकों को जो हताशा हुई, उसका बयान करना मुश्किल है। यूं लग रहा था मानों दोनों फ्रेंडली मैच खेल रहे हों। मैच ड्रा हुआ था। यकीनन गणित के हिसाब से दोनों ही टीम का अगले राउंड के लिए क्वालीफाई करना सुनिश्चित था इसके बावजूद अच्छे खेल का प्रदर्शन न करना खेल की भावना से न खेलने के समान था। तभी तो अगले राउंड में पुर्तगाल की हार का गुस्सा उसके प्रशंसक पचा नहीं पाये। ब्राजील भी नीदरलैंड के साथ खेलते हुए अपनी आक्रामक शैली को छोड़कर रक्षात्मक शैली में इस तरह से खेलती चली गयी कि मैच उनके हाथ से कब निकल गया पता ही नहीं चला। पता नहीं ब्राजीली कोच डूंगा का यह कथन कितना सार्थक था कि उन्होंने ऐसी रक्षात्मक टीम गठित की है जिसे हराना मुश्किल है। यहां सवाल उठता है कि क्या आप हार से बचने आए हैं या जीतने? सत्य तो यह है कि बिना आक्रमण के जीत असंभव है। शायद तभी इसी आपाधापी में ब्राजील का मिड-फिल्डर मेलो आत्मघाती गोल कर बैठा और ब्राजील की हार का कारण बना। फिलिप मेलो रातों-रात देश का विलेन बन गया। ठीक भी तो है विश्व कप के रोड मैप को देखकर ब्राजील का फाइनल तक पहुंचना सबसे आसान लगता था। ठीक इसी तरह अर्जेंटीना व जर्मनी के हारने में ऐसा कहीं भी नहीं लगा कि सशक्त टीमें खेल रही हों। यही कारण है कि लाखों-करोड़ों आम स्वतंत्र और निरपेक्ष दर्शक अच्छे खेल की तलाश में भटकते नजर आए। यूं तो जर्मनी अपने ग्रुप मैचों में सर्बिया से भी हार चुकी थी लेकिन फिर भी स्पेन से उसका हारना अधिक दुखदायी था। अर्जेंटीना को एकतरफा खेल में हराने वाली सशक्त टीम अचानक इतनी कमजोर, असहाय व मैदान में इधर से उधर भागती नजर आयी। यूं तो फुटबाल प्रेमियों की अंतिम आस स्पेन पर टिकी थी और फाइनल वर्ल्ड कप उसने उसी के सहारे देख लिया लेकिन तब तक फुटबाल का असल खेल अपनी ऊर्जा ही नहीं चमक भी खो चुका था।
विश्व की सशक्त दावेदार टीमों के घटिया प्रदर्शन के उलट पराग्वे, उरुग्वे, घाना जैसी छोटी टीमों ने अपनी उपस्थिति दर्ज कराई। वहीं न्यूजीलैंड और एवरी कौस्ट ने कई लोगों को हतप्रभ किया था। सशक्त टीमों का ही नहीं स्टार खिलाड़ियों का प्रदर्शन भी ढीला रहा। ब्राजील के काका जहां अपनी चोट के कारण शायद खेल न दिखा पाए हों लेकिन पुर्तगाल के क्रिस्टियानो रोनाल्डो के चेहरे से उनके फैशन की दुनिया का अहम साफ-साफ दिखाई दिया। और वह मैदान पर भी रैंप पर चलते हुए प्रतीत हुए। उनकी अपने देश में जमकर आलोचना हुई। यह दीगर बात है कि आज के युग में जहां बाजार में पैसे से सब कुछ खरीदा जा सकता है, समय अनुसार प्रशंसकों को शांत कर दिया गया हो। लेकिन प्रशंसकों के दिल में पैसों से नहीं बैठा जा सकता। क्रिस्टियानो यकीनन लोगों के दिलों से उतर चुके होंगे और हो सकता है ब्राजील के पिछले विश्व कप के सितारे रोनाल्डिन्हो की तरह, जो इस बार नदारद थे, अगले विश्व कप में दिखाई न दे। बाजार अच्छे खिलाड़ी को स्टार तो बना सकता है लेकिन खेल नहीं पैदा कर सकता। सितारे तो चमकते हैं मगर यहां उनके प्रदर्शन पर मानो ग्रहण लग गया था। क्या वजह है जो अर्जेंटीना के मैस्सी फुटबाल ग्राउंड में लिटिल मैस्सी साबित हुए और जर्मनी के क्लाज व पुडॉस्की स्पेन के सामने बॉल पकड़ने के लिए नाचते से प्रतीत हुए। और इंग्लैंड का रूनी एक गोल के लिए रोता रह गया। एक तरह से महान खिलाड़ियों द्वारा दस नंबर जर्सी पहनने की परंपरा यहां धूमिल होती प्रतीत हुई। और शीर्ष स्थान खाली देख इस वर्ष के फीफा वर्ल्ड कप का सुपर सितारा ज्योतिष पॉल आक्टोपस बन गया। जिस फुटबाल ने पेले, मेराडोना, जिदान, मैजिको, रोनाल्डो, रिवेलिनो, गडमुलर जैसे महान खिलाड़ियों को जन्म दिया वही खेल आज सामान्य सितारे के लिए भी तरसता प्रतीत हुआ। क्या वजह है जो खिलाड़ी अपना सामान्य खेल भी नहीं दिखा पाये? स्पेन ने फार्म में नहीं चल रहे अपने स्टार टॉरेस तक को बाहर बिठाकर अंत में फल पाया मगर बाकी कोच ऐसा क्यूं नहीं कर पाये? कहीं न कहीं बाजार, विज्ञापन व क्लब के प्रेशर को इससे जोड़कर देखा जा सकता है। सट्टेबाजी के तार तो अदृश्य हैं। हां, अनुशासनहीनता भी एक प्रमुख कारण बना। और बाहर के लोगों को अपने देश से खिलाने का प्रयोग अव्यवहारिक और असफल हुआ। तभी तो फ्रांस में सारा गुस्सा कोच रेमंड डोमेनेक पर फूटा। हर विश्व कप में कुछ एक खिलाड़ी को देखकर भीड़ टूट पड़ती थी और बॉल उनके पैरों के पास पहुंचते ही दर्शक उत्साह में खड़े हो जाते थे। वो जोश वो गर्मी इस बार नदारद थी तभी तो दर्शक स्पेन की टच एंड पास जैसी नयी तकनीकी में किसी तरह स्वयं को संतुष्ट करते नजर आए। स्पेन का डेविड विला बिना किसी बेहद व्यक्तिगत बेहतरीन खेल के भी सितारे की तरह उभरा और उरुग्वे का डिएगो फोरलान प्लेयर ऑफ दा टूर्नामेंट बन गया।
फुटबाल एक आक्रामक खेल है। इसमें गति, ऊर्जा, शक्ति कलात्मकता, स्टैमना का अदभुत व संतुलित मिश्रण है। हाथ छोड़ शरीर का हर अंग प्रयोग किया जा सकता है और हर हाल में अपने प्रतिद्वंद्वी से आगे निकलने की होड़ में यह खेल बच्चे-बूढ़े-जवान हर एक को जोश से भर देता है और खिलाड़ी को विरोधी टीम में घुसकर फुटबाल के साथ भागता देख दर्शक पागल हो जाते हैं। इस बार आधुनिकता के नाम पर रक्षात्मक शैली एवं कई स्थानों पर रैफरी का अनावश्यक यलो एवं रेड कार्ड का बार-बार प्रदर्शन खेल की स्वाभाविक गति को खराब करता प्रतीत हुआ। यह खेल तो प्रारंभ से गिरने, चोट लगने और तुरंत खड़े होकर फिर से खेलने के लिए भागने वालों का खेल है। खेल में तो चोट आएगी लेकिन यह जबरदस्ती प्रहार करता हुआ प्रतीत नहीं होना चाहिए। मगर नकली गिरने और चोट की नौटंकी इस बार खूब चली। जिसका बेहतरीन प्रदर्शन ब्राजील और नीदरलैंड के मैच में हुआ जहां रोबेन (नीदरलैंड) ने अपने गिरने और चोट खाने की नौटंकी से ब्राजील के खिलाड़ियों को रैफरी का धौंस दिखाकर पूरी तरह रक्षात्मक बना दिया। इलेक्ट्रॉनिक युग में अब तीसरे अम्पायर और कंप्यूटर की बातें की जानी लगी हैं लेकिन यह यकीनन फुटबाल की नैसर्गिक मस्ती को समाप्त कर देगा जहां बाईस खिलाड़ियों के बीच तीन अम्पायरों को दौड़ता देख खून में गर्मी आ जाती है। कंप्यूटर युग ने चाहे जितनी उन्नति कर ली हो मगर बंद कमरे में स्क्रीन पर गाड़ी तेज चलाना वो रोमांच पैदा नहीं कर सकता जो खुले मैदान में साइकिल चलाने से ही उत्पन्न हो जाता है। इस खेल के लाखों-करोड़ों प्रशंसक फुटबाल नहीं खेलते, न ही कइयों का देश खेलता है मगर वो मैदान में खेल का मजा लेने जाते हैं, न कि शकीरा का वाका-वाका देखने-सुनने। बाजार को इस बात की सदा से गलतफहमी रही है मगर सच तो यह है कि दर्शक को यहां अर्द्धनग्न नारी के नृत्य पर थिरकते कोमल पैर नहीं फुटबाल को नचाने वाले मजबूत पैर देखने का जुनून होता है। बॉल के साथ भीड़ को चीरते हुए तेज दौड़ना इस खेल की आत्मा है न कि टच एंड पास का नया फार्मूला। जिस खेल की चमक से आकर्षित होकर राष्ट्रों के प्रमुख खिंचे चले आते हों, भय है कि बाजार का काला जादू उसके तेज को फीका न कर दे।
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