रामधारी सिंह दिनकर का जन्म 23 सितंबर 1908 ई. में सिमरिया, ज़िला मुंगेर (बिहार) में एक सामान्य किसान रवि सिंह तथा उनकी पत्नी मन रूप देवी के पुत्र के रूप में हुआ था।
राष्ट्रीय सांस्कृतिक चेतना के अग्रदूत राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर
रामधारी सिंह दिनकर |
दिनकर की प्रारंभिक शिक्षा संस्कृत से प्रांरभ हुई। उन्होंने प्रारंभिक शिक्षा गांव की पाठशाला में ग्रहण की। तत्पश्चात ‘बारी‘ नामक ग्राम के ‘राष्ट्रीय मिडिल स्कूल‘ से मिडिल,‘ मोकामा घाट‘ के हाई स्कूल से सन् 1928 में मैट्रिक तथा 1932 में पटना कॉलेज से इतिहास विषय लेकर बीए(आर्नस) करके एक विद्यालय के प्रधानाचार्य, के पद पर नियुक्त हुए। हिंदी साहित्य में एक नया मुकाम बनाने वाले दिनकर छात्रजीवन में इतिहास, राजनीतिक शास्त्र और दर्शन शास्त्र जैसे विषयों को पसंद करते थे, हालांकि बाद में उनका झुकाव साहित्य की ओर हुआ৷ वह अल्लामा इकबाल और रवींद्रनाथ टैगोर को अपना प्रेरणा स्रोत मानते थे৷ उन्होंने टैगोर की रचनाओं का बांग्ला से हिंदी में अनुवाद किया৷ दिनकर का पहला काव्यसंग्रह ‘विजय संदेश’ वर्ष 1928 में प्रकाशित हुआ৷ इसके बाद उन्होंने कई रचनाएं की৷
सन् 1934 में वे बिहार सरकार के अधीन सब रजिस्टार के पद पर आसीन हुए। सन् 1943 तक वे इसी पद पर कार्यरत रहे। लगभग नौ वर्षों तक वह इस पद पर रहे और उनका समूचा कार्यकाल बिहार के देहातों में बीता तथा जीवन का जो पीड़ित रूप उन्होंने बचपन से देखा था, उसका और तीखा रूप उनके मन को मथ गया। फिर तो ज्वार उमरा और रेणुका, हुंकार, रसवंती और द्वंद्वगीत रचे गए। रेणुका और हुंकार की कुछ रचनाऐं यहाँ-
वहाँ प्रकाश में आईं और अग्रेज़ प्रशासकों को समझते देर न लगी कि वे एक ग़लत आदमी को अपने तंत्र का अंग बना बैठे हैं और दिनकर की फ़ाइल तैयार होने लगी, बात-बात पर क़ैफ़ियत तलब होती और चेतावनियाँ मिला करतीं। चार वर्ष में बाईस बार उनका तबादला किया गया। सन् 1943 से 1947 तक वे बिहार सरकार के प्रचार विभाग में उपनिदेशक पद पर आसीन रहे। सन् 1950 में लंगट सिंह कॉलेज, मुज्जफरपुर के हिन्दी विभागाध्यक्ष, 1952 से 1963 तक राज्य सभा के सदस्य,1963 में भागलपुर विश्वविद्यालय के कुलपति, 1965 में भारत सरकार के हिन्दी सलाहकार जैसे विभिन्न पदो को सुशोभित किया एवं अपनी प्रशासनिक योग्यता का परिचय दिया।
सौन्दर्य का प्रेमी बन गया है। ‘द्वन्द्व- गीत‘ में कवि के अन्तर्जगत और बाह्य-जगत का द्वन्द है। ‘सामधेनी‘ में कवि धीरे-धीरे क्रान्ति से शांति की ओर आता दिखाई देता है। कुरुक्षेत्र में कवि का शंकालु मन, समस्यानुकूल और प्रश्नानुकूल हो गया है। ‘रश्मिरथी‘ में कवि की नई विचारधारा यह है कि व्यक्ति की पूजा उसके गुणाे के कारण होनी चाहिए। ‘नील-कमल‘ की कविताओं में प्रयोगशीलता का पुट है। कोयला और कवित्त में कवि ने कला और धर्म के सामंजस्य पर विशेष रूप से बल दिया है। स्वतंत्रता मिलने के बाद भी कवि युग धर्म से जुडा रहा। उसने देखा कि स्वतंत्रता उस व्यक्ति के लिए नहीं आई है जो शोषित है बल्कि उपभोग तो वे कर रहें हैं जो सत्ता के केन्द्र में हैं। आमजन पहले जैसा ही पीडित है, तो उन्होंने नेताओं पर कठोर व्यंग्य करते हुए राजनीतिक ढाचे को हीआडे हाथों लिया-
वहाँ प्रकाश में आईं और अग्रेज़ प्रशासकों को समझते देर न लगी कि वे एक ग़लत आदमी को अपने तंत्र का अंग बना बैठे हैं और दिनकर की फ़ाइल तैयार होने लगी, बात-बात पर क़ैफ़ियत तलब होती और चेतावनियाँ मिला करतीं। चार वर्ष में बाईस बार उनका तबादला किया गया। सन् 1943 से 1947 तक वे बिहार सरकार के प्रचार विभाग में उपनिदेशक पद पर आसीन रहे। सन् 1950 में लंगट सिंह कॉलेज, मुज्जफरपुर के हिन्दी विभागाध्यक्ष, 1952 से 1963 तक राज्य सभा के सदस्य,1963 में भागलपुर विश्वविद्यालय के कुलपति, 1965 में भारत सरकार के हिन्दी सलाहकार जैसे विभिन्न पदो को सुशोभित किया एवं अपनी प्रशासनिक योग्यता का परिचय दिया।
उनकी प्रशंसनीय साहित्य-सेवाओं के उपलक्ष्य में भागलपुर विश्वविद्यालय ने उन्हें डी.लिट की मानद उपाधि से सम्मानित किया। सन् 1959 में उन्हें राष्ट्रपति द्वारा पद्मभूषण की उपाधि से विभूषित किया गया। उनके ‘ऊर्वशी‘ काव्य ग्रंथ पर उन्हें 1973 में ज्ञानपीठ पुरस्कार से नवाजा गया। वर्ष 1999 में उनके नाम से भारत सरकार ने डाक टिकट जारी किया৷
दिनकर के काव्य में परम्मपरा एवं आधुनिकता का अद्वितीय मेल है৷ राष्ट्रीयता दिनकर की काव्य चेतना के विकास की एक अपरिहार्य कडी है। उनका राष्ट्रीय कृतित्व इसलिए प्राणवाण है कि वह भारतवर्ष की सामाजिक,संस्कृतिक और उनकी आशा अकाकांक्षाओं को काव्यात्मक अभिव्यक्ति प्रदान करने में सक्षम है। वे वर्त्तमान के वैताली ही नहीं बल्कि मृतक विश्व के चारण की भूमिका भी उन्हें निभानी पडी थी। परम्मपरा एवं आधुनिकता की सीमाओं से निकलकर उनका ऐतिहासिक एवं सांस्कृतिक दृष्टिकोण ही दिनकर की राष्ट्रीयता के फलक को व्यापक बनाती है।
रेणुका – में अतीत के गौरव के प्रति कवि का सहज आदर और आकर्षण परिलक्षित होता है। पर साथ ही वर्तमान परिवेश की नीरसता से त्रस्त मन की वेदना का परिचय भी मिलता है।
हुंकार – में कवि अतीत के गौरव-गान की अपेक्षा वर्तमान दैत्य के प्रति आक्रोश प्रदर्शन की ओर अधिक उन्मुख जान पड़ता है।
रसवन्ती - में कवि की सौन्दर्यान्वेषी वृत्ति काव्यमयी हो जाती है पर यह अन्धेरे में ध्येय सौन्दर्य का अन्वेषण नहीं, उजाले में ज्ञेय सौन्दर्य का आराधन है।
कुरुक्षेत्र (1946 ई.)- ‘कुरुक्षेत्र’ में महाभारत के शान्ति पर्व के मूल कथानक का ढाँचा लेकर दिनकर ने युद्ध और शान्ति के विशद, गम्भीर और महत्त्वपूर्ण विषय पर अपने विचार भीष्म और युधिष्ठर के संलाप के रूप में प्रस्तुत किये हैं। दिनकर के काव्य में विचार तत्त्व इस तरह उभरकर सामने पहले कभी नहीं आया था। ‘कुरुक्षेत्र’ के बाद उनके नवीनतम काव्य ‘उर्वशी’ में फिर हमें विचार तत्त्व की प्रधानता मिलती है। साहसपूर्वक गांधीवादी अहिंसा की आलोचना करने वाले ‘कुरुक्षेत्र’ का हिन्दी जगत में यथेष्ट आदर हुआ।
सामधेनी (1947 ई.)- में दिनकर की सामाजिक चेतना स्वदेश और परिचित परिवेश की परिधि से बढ़कर विश्व वेदना का अनुभव करती जान पड़ती है। कवि के स्वर का ओज नये वेग से नये शिखर तक पहुँच जाता है।
उर्वशी (1961 ई.)- ‘उर्वशी’ जिसे कवि ने स्वयं ‘कामाध्याय’ की उपाधि प्रदान की है– ’दिनकर’ की कविता को एक नये शिखर पर पहुँचा दिया है। भले ही सर्वोच्च शिखर न हो, दिनकर के कृतित्त्व की गिरिश्रेणी का एक सर्वथा नवीन शिखर तो है ही।
दिनकर ने अपनी ज्यादातर रचनाएं ‘वीर रस’ में कीं. इस बारे में जनमेजय कहते हैं, ‘भूषण के बाद दिनकर ही एकमात्र ऐसे कवि रहे, जिन्होंने वीर रस का खूब इस्तेमाल किया. वह एक ऐसा दौर था, जब लोगों के भीतर राष्ट्रभक्ति की भावना जोरों पर थी. दिनकर ने उसी भावना को अपने कविता के माध्यम से आगे बढ़ाया. वह जनकवि थे इसीलिए उन्हें राष्ट्रकवि भी कहा गया ৷`
असल में दिनकर जी 'आवेग' के कवि हैं। 'रेणुका' की पहली ही कविता में कवि कहता है -
भावों के आवेग प्रबल
मचा रहे उर में हलचल।
उग्र राष्ट्रीय भावों को व्यक्त करने वाली प्रसिद्ध कविता है 'हिमालय' जिसकी ये पंक्तियाँ अत्यंत प्रसिद्ध हैं -
रे रोक युद्धिष्ठिर को न यहाँ
जाने दे उनको स्वर्ग धीर
पर फिरा हमें गांडीव गदा
लौटा दे अर्जुन भीम वीर।
संवेदनशीलता का भरपूर समावेश है सृजन में ‘रेणुका‘, ‘हुंकार‘, ‘रसवन्ती‘ में एक ओर छायावादी रोमानियत, मधुर कल्पना व भावुकता मिलती है तो दूसरी ओर प्रगतिवादी सामाजिक चेतना। ‘रेणुका‘ में अतीत के प्रति गहरा आकर्षण है। ‘हुंकार‘ में कवि दीनता और विपन्नता के प्रति दयाद्र्र हो गया है। ‘रसवन्ती ‘ में कवि
डॉ.आनंद कुमार यादव |
टोपी कहती है मैं थैली बन सकती हू ।
कुरता कहता है मुझे बोरिया ही कर लो।।
ईमान बचाकर कहता है ऑखे सबकी,
बिकने को हू तैयार खुशी से जो दे दो ।।
इस अन्यायपूर्ण व्यवस्था का भोग करने वालों की संवेदनहीनता के प्रति कवि के मन में रोष है, तभी तो वह कहता है -
तोड़ दो इसको, महल को बर्बाद कर दो
नींव की ईंटें हटाओ
दब गए हैं जो अभी तक जी रहे हैं
जीवितों को इस महल के बोझ से आजाद कर दो।
दिनकर की सौंदर्य दृष्टि हर वस्तु में सौंदर्य नहीं खोज पाती। सुंदरता का प्रचलित अर्थ और रूप ही वे ग्रहण करते हैं। अतः हाहाकार थम जाने पर सुंदरता की देवी उर्वशी पर कविता का ध्यान चला ही जाता है। उर्वशी के दिनकर के सृजन क्षेत्र में आने पर मुझे 'रेणुका' की एक कविता की ये पंक्तियाँ याद आती हैं -
व्योम कुंजों की परी अभिकल्पने?
भूमि को निज स्वर्ग पर ललचा नहीं
पा न सकती मृत्ति उड़ कर स्वप्न को
युक्ति हो तो आ बसा अलका यहीं।
दिनकरजी मुख्य रूप से कवि हैं किन्तु उन्होंने गद्य साहित्य का भी यथेष्ट निर्माण किया है। इस सम्बन्ध में उनकी ‘मिट्टी की ओर‘, ‘अद्र्ध-नारीश्वर‘, ‘काव्य की भूमिका‘, ‘शुद्ध कविता की खोज‘, ‘संस्कृति के चार अध्याय‘, ‘हमारी सांस्कृतिक एकता‘, ‘धर्म-नैतिकता और विज्ञान‘ आदि गद्य रचनाएं अत्यन्त महत्त्व की एवं भाव पूर्ण हैं। इन रचनाओं में उनके गंभीर अध्ययन एवं स्वतंत्र चिन्तन की छाप सर्वत्र दृष्टिगत होती है। इनकी महत्ता और लोकप्रियता का अन्दाजा इस तथ्य से ही लगाया जा सकता है कि उनकी कुछ कृतियों का अनुवाद उड़िया, कन्नड़, तेलगु, अंग्रेजी, स्पेनिश, रूसी आदि कई भाषाओं में हो चुका है।
दिनकर के काव्य में जहॉ अपने युग की पीडा का मार्मिक अंकन हुआ है,वहॉ वे शाश्वत और सार्वभौम मूल्यों की सौन्दर्यमयी अभिव्यक्ति के कारण अपने युग की सीमाओं का अतिक्रमण किया है। अर्थात वे कालजीवी एवं कालजयी एक साथ रहे हैं।
यह रचना डॅा०आनन्द कुमार यादव जी द्वारा लिखी गयी है। आपकी हिंदी एवं उर्दू -गीत,ग़ज़ल, कहानी, नज़्म, दोहे, हाइकू, छंदमुक्त,आलेख, आलोचना, समालोचना, शोध-पत्र प्रकाशित हो चुके है। आपके द्वारा लिखित विभिन्न राष्ट्रीय एवं स्थानीय पत्र -पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित हो चुकी है। विशेष उपलब्धि : प्रतिष्ठित समाचार पत्र 'दैनिक जागरण' के तत्त्वावधान में आयोजित 'मेरा शहर मेरा गीत' के विजेता बनकर 'कालि्ंजर' की रचना करना। अन्य उपलब्धि : केदारनाथ अग्रवाल शोधपीठ बांदा द्वारा सम्मानित। रामविलास शर्मा की हिन्दी जाति सम्बन्धी अवधारणा पर व्याख्यान हेतु चि०ग्रा०वि०वि०म०प्र०से सम्मानित।
पता—राजापुर रोड़ ,कमासिन, बांदा (उ०प्र०) 210125 ,फ़ोन—9450227302
ईमेल-anandy071@gmail.com
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