परशुराम का समय इतना प्राचीन है कि उस समय का आकलन कर पाना मुमकिन नहीं है। जमदग्नि परशुराम का जन्म हरिशचन्द्रकालीन विश्वामित्र से एक-दो पीढ़ी बाद का माना जाता है। यह समय प्राचीन संस्कृत ग्रंथों में 'अष्टादश परिवर्तन युग' के नाम से जाना गया है।
भगवान परशुराम का समतामूलक एवं क्रांतिकारी समाज सुधारक कार्य
हमारे धर्मग्रंथ, कथावाचक ब्राह्मण और दलित राजनीति की रोटी सेकने वाले नेतागण भारत के प्राचीन पराक्रमी
परशुराम |
परशुराम क्षत्रियों के शत्रु नहीं शुभचिंतक :-
प्रश्न उठता है कि क्या व्यक्ति केवल चरम हिंसा के बूते जन-नायक के रुप में स्थापित होकर लोकप्रिय हो सकता हैं ? क्या हैह्य वंश के प्रतापी महिष्मति नरेश कार्तवीर्य अर्जुन के वंश का समूल नाश करने के बावजूद पृथ्वी क्षत्रियों से विहीन हो पाई ? रामायण और महाभारत काल में संपूर्ण पृथ्वी पर क्षत्रिय राजाओं के राज्य हैं। वे ही उनके अधिपति हैं। इक्ष्वाकु वंश के मर्यादा पुरुषोत्तम राम को आशीर्वाद देने वाले, कौरव नरेश धृतराष्ट को पाण्डवों से संधि करने की सलाह देने वाले और सूत-पुत्र कर्ण को ब्रह्मशास्त्र की दीक्षा देने वाले परशुराम ही थे। ये सब क्षत्रिय थे। अर्थात परशुराम क्षत्रियों के शत्रु नहीं शुभचिंतक थे। परशुराम केवल आतातायी क्षत्रियों के प्रबल विरोधी थे। परशुराम जी ने कभी क्षत्रियों को संहार नहीं किया. उन्होंने हैहयवंशीय क्षत्रिय वंश में उग आई उस खर पतवार को साफ किया जिससे क्षत्रिय वंश की साख खत्म होती जा रही थी. जिस दिन भगवान परशुराम को योग्य क्षत्रियकुलभूषण प्राप्त हो गया उन्होंने स्वत दिव्य परशु सहित अस्त्र-शस्त्र राम के हाथ में सौंप दिए.
न्याय के लिए हमेशा युद्ध करते रहे :-
वे न्याय के लिए हमेशा युद्ध करते रहे, कभी भी अन्याय को बर्दाश्त नहीं किया. न्याय के प्रति उनका समर्पण इतना अधिक था कि उन्होंने हमेशा अन्यायी को खुद ही दण्डित भी किया । कठिन तप से प्रसन्न हो भगवान विष्णु ने उन्हें कल्प के अंत तक तपस्यारत भूलोक पर रहने का वर दिया। पौराणिक परंपरा में जिन सात व्यक्तियों को अजर अमर माना गया है, उनमें परशुराम एक हैं। कहते हैं कि राम के शौर्य, पराक्रम और धर्मनिष्ठा को देख कर वे हिमालय चले गए थे। उन्होंने बुद्धिजीवियों और धर्मपुरुषों की रक्षा के लिए उठाया परशु त्याग दिया। तप, स्वाध्याय शिक्षण और लोकसेवा छोड़कर आपद्धर्म के रूप में शस्त्र उठाने का प्रायश्चित करने के लिए हिमालय क्षेत्र में समय व्यतीत किया। क्योंकि परशुराम चिरजीवी हैं, इसलिए माना जाता है कि आज भी सशरीर वे हिमालय के किन्हीं अगम्य क्षेत्रों में निवास करते हैं। परशुराम का कार्य क्षेत्र गोमांतक (गोवा) कहा जाता है। राम से साक्षात्कार होने और उन्हें अवतार के रूप में पहचानने के बाद वे हिमालय चले गए। ऋषि धर्म के विपरीत शस्त्र उठाने का प्रायश्चित करने के लिए कहते हैं कि परशुराम ने हिमालय की घाटी में फूलों की घाटी बसाई।
भूमि को कृषि योग्य बनाने के काम :-
समाज सुधार और जनता को रोजगार से जोड़ने में भी परशुराम की अंहम् भूमिका रही है। केरल, कच्छ और कोंकण क्षेत्रों में जहां परशुराम ने समुद्र में डूबी खेती योग्य भूमि निकालने की तकनीक सुझाई, वहीं परशु का उपयोग जंगलों का सफाया कर भूमि को कृषि योग्य बनाने के काम में भी किया है । परशुराम ने शुद्र माने जाने वाले दरिद्र नारायणों को शिक्षित व दीक्षित कर उन्हें ब्राहम्ण बनाया। यज्ञोपवीत संस्कार से जोड़ा और उस समय जो दुराचारी व आचरणहीन ब्राहम्ण थे, उन्हें शूद्र घोषित कर उनका सामाजिक बहिष्कार भी किया। परशुराम के अंत्योदय के कार्य अनूठे व अनुकरणीय हैं। इन्हें रेखांकित किए जाने की जरुरत है।
अनीतियों का विरोध :-
परशुराम का समय इतना प्राचीन है कि उस समय का आकलन कर पाना मुमकिन नहीं है। जमदग्नि परशुराम का जन्म हरिशचन्द्रकालीन विश्वामित्र से एक-दो पीढ़ी बाद का माना जाता है। यह समय प्राचीन संस्कृत ग्रंथों में 'अष्टादश परिवर्तन युग' के नाम से जाना गया है। अर्थात यह 7500 वि.पू. का समय ऐसे संक्रमण काल के रुप में दर्ज है, जिसे बदलाव का युग माना गया। इसी समय क्षत्रियों की शाखाएं दो कुलों में विभाजित हुईं। एक सूर्यवंश और दूसरा चंद्रवंश। चंद्रवंशी पूरे भारतवर्ष में छाए हुए थे और उनके प्रताप की तूती बोलती थी। हैह्य अर्जुन वंश चंद्रवंशी था। इन्हें यादवों के नाम से भी जाना जाता था। महिष्मती नरेश कार्तवीर्य अर्जुन इसी यादवी कुल के वंशज थे। भृगु ऋषि इस चंद्रवंश के राजगुरु थे। जमदग्नि राजगुरु परंपरा का निर्वाह कार्तवीर्य अर्जुन के दरबार में कर रहे थे। किंतु अनीतियों का विरोध करने के कारण कार्तवीर्य अर्जुन और जमदग्नि में मतभेद उत्पन्न हो गए। परिणाम स्वरुप जमदग्नि महिष्मति राज्य छोड़ कर चले गए।
सामरिक रणनीति की पृष्ठभूमि:-
इस गतिविधि से रुष्ठ होकर सहस्त्रबाहू कार्तवीर्य अर्जुन आखेट का बहाना करके अनायास जमदग्नि के आश्रम में सेना सहित पहुंच गया। ऋषि जमदग्नि और उनकी पत्नी रेणुका ने अतिथि सत्कार किया। लेकिन स्वेच्छाचारी अर्जुन युद्ध के उन्माद में था। इसलिए उसने प्रतिहिंसा स्वरुप जमदग्नि की हत्या कर दी। आश्रम उजाड़ा था और ऋषि की प्रिय कामधेनु गाय को बछड़े सहित राजा बलात् छीनकर ले गया था । अनेक ब्राहम्णों ने कान्यकुब्ज के राजा गाधि राज्य में शरण ली। परशुराम जब यात्रा से लौटे तो रेणुका ने आपबीती सुनाई। इस घटना से कुपित व क्रोधित होकर परशुराम ने हैहय वंश के विनाश का संकल्प लिया था । इस हेतु एक पूरी सामरिक रणनीति को अंजाम दिया गया था । दो वर्ष तक लगातार परशुराम ने ऐसे सूर्यवंशी और यादववंशी राज्यों की यात्राएं की जो हैह्य चंद्रवंशीयों के विरोधी थे। वाकचातुर्थ और नेतृत्व दक्षता के बूते परशुराम को ज्यादातर चंद्रवंशीयों ने समर्थन दिया। अपनी सेनाएं और हथियार परशुराम की अगुवाई में छोड़ दिए। तब कहीं जाकर महायुद्ध की पृष्ठभूमि तैयार हुई।
भारतखण्ड के राजाओं को जोड़कर युद्धनीति बनाई :-
परशुराम को अवन्तिका के यादव, विदर्भ के शर्यात यादव, पंचनद के द्रुह यादव, कान्यकुब्ज ;कन्नौज के गाधिचंद्रवंशी, आर्यवर्त सम्राट सुदास सूर्यवंशी, गांगेय प्रदेश के काशीराज, गांधार नरेश मान्धता, अविस्थान (अफगानिस्तान), मुजावत (हिन्दुकुश), मेरु (पामिर), श्री (सीरिया) परशुपुर (पारस, वर्तमानफारस) सुसर्तु (पंजक्षीर) उत्तर कुरु (चीनी सुतुर्किस्तान) वल्क, आर्याण (ईरान) देवलोक (षप्तसिंधु) और अंग-बंग-बिहार के संथाल परगना से बंगाल तथा असम तकद्ध के राजाओं ने परशुराम का नेतृत्व स्वीकारते हुए इस महायुद्ध में भागीदारी की। जबकि शेष रह गई क्षत्रिय जातियां चेदि (चंदेरी) नरेश, कौशिक यादव, रेवत तुर्वसु, अनूप, रोचमान कार्तवीर्य अर्जुन की ओर से लड़ीं। इस भीषण युद्ध में अंततः कार्तवीर्य अर्जुन और उसके कुल के लोग तो मारे ही गए। युद्ध में अर्जुन का साथ देने वाली जातियों के वंशजों का भी लगभग समूल नाश हुआ। भरतखण्ड में यह इतना बड़ा महायुद्ध था कि परशुराम ने अंहकारी व उन्मत्त क्षत्रिय राजाओं को, युद्ध में मार गिराते हुए अंत में लोहित क्षेत्र, अरुणाचल में पहुंचकर ब्रहम्पुत्र नदी में अपना फरसा धोया था। बाद में यहां पांच कुण्ड बनवाए गए जिन्हें समंतपंचका रुधिर कुण्ड कहा गया है। ये कुण्ड आज भी अस्तित्व में हैं। इन्हीं कुण्डों में भृगृकुलभूषण परशुराम ने युद्ध में हताहत हुए भृगु व सूर्यवंशीयों का तर्पण किया। इस विश्वयुद्ध का समय 7200 विक्रम संवत पूर्व माना जाता है। जिसे उन्नीसवां युग कहा गया है।
समाज सुधार व कृषि का कार्य:-
इस युद्ध के बाद परशुराम ने समाज सुधार व कृषि के कार्य हाथ में लिए। केरल, कोंकण मलबार और कच्छ क्षेत्र में समुद्र में डूबी ऐसी भूमि को बाहर निकाला जो खेती योग्य थी। इस समय कश्यप ऋषि और इन्द्र समुद्री पानी को बाहर निकालने की तकनीक में निपुण थे। अगस्त्य को समुद्र का पानी पी जाने वाले ऋषि और इन्द्र का जल-देवता इसीलिए माना जाता है। परशुराम ने इसी क्षेत्र में परशु का उपयोग रचनात्मक काम के लिए किया। शूद्र माने जाने वाले लोगों को उन्होंने वन काटने में लगाया और उपजाउ भूमि तैयार करके धान की पैदावार शुरु कराईं। इन्हीं शूद्रों को परशुराम ने शिक्षित व दीक्षित करके ब्राहम्ण बनाया। इन्हें जनेउ धारण कराए। और अक्षय तृतीया के दिन एक साथ हजारों युवक-युवतियों को परिणय सूत्र में बांधा। परशुराम द्वारा अक्षयतृतीया के दिन सामूहिक विवाह किए जाने के कारण ही इस दिन को परिणय बंधन का बिना किसी मुहूर्त्त के शुभ मुहूर्त्त माना जाता है। दक्षिण का यही वह क्षेत्र हैं जहां परशुराम के सबसे ज्यादा मंदिर मिलते हैं और उनके अनुयायी उन्हें भगवान के रुप में पूजते हैं।
मार्शल आर्ट में योगदान :-
भगवान परशुराम शस्त्र विद्या के श्रेष्ठ जानकार थे। परशुराम केरल के मार्शल आर्ट कलरीपायट्टु की उत्तरी शैली वदक्कन कलरी के संस्थापक आचार्य एवं आदि गुरु हैं। वदक्कन कलरी अस्त्र-शस्त्रों की प्रमुखता वाली शैली है।वदक्कन कलरी अस्त्र-शस्त्रों की प्रमुखता वाली शैली है।
डा. राधेश्याम द्विवेदी ,
पुस्तकालय एवं सूचनाधिकारी ,
पुरातत्व सर्वेक्षण आगरा,
Email: rsdwivediasi@gmail.com
सही बात परशुराम क्रांतिकारक समाज सुधारक थे. आपने उनके बारेमें दी गयी जानकारी बड़ी अच्छी लगी.
जवाब देंहटाएंThe Parashooran Paradox
जवाब देंहटाएंWhat is the "Paradox of Parshooram" ? The man copulated wuth his mother,on the instructions of his father - who was an impotentica sage.The Hindoo Model,is that the Gods sent the husband of Brahmin wives,to jungles for penance and austerities - while the Hindoo Gods, seduced the wives of the Brahmins,and mated with them.
The father of Parshooram,did not want to mate iwth his wife,as he was on a celibacy trip.Hence his son banged mommy - but the Kshatriyas saw the kid.To hide the shame and guilt - the son and poppy,blamed the Kshatriyas - and theh killed all the Kshatriyas ! In Hindooism,incest is normal - even Gan-pati mated with his mother.
This is all a "copy and paste",from Greek Theology and Creativity.dindooohindoo
Net result - all the Kshatriya men were dead, and their women were on heat - and so,they copulated with the Brahmins,to breed a "new race" of Kshatriyas.These "mew" breed had the DNA of the Brahmins (cowards,weasels and impotenticas) and the DNA of their mothers (which is "whoring") - the "born agains" Kshatriyas.
The Disaster
When the Sakas,Scythians,Turks,Afghans,Mongols,Central Asians,Greeks,Persians, Abyssinians etc., attacked Hindoosthan - there was no martial race left,as the "real" so called Kshatriyas were killed.These Kshatriya cowards,joined hands with Babar and the Brits and the Portugese to kill and rape Hindoos.These "rat" Kshatriyas were called Rakpoots,Jats and Sikhs etc.
The DNA of these "born again" Kshatriyas (as stated above),explains Y the Hindoos were raped again and again and again and again (The DNA of Poppy - The Brahmin - and so were,their women.This also explains Y the Rajpoots sold their women,like whores,to the Mughals and the Brits - to save their lives and money (The DNA of their 1st mommy).
This also explains Y the Sakas,Scythians,Turks,Afghans,Mongols, Greeks,Persians, Abyssinians etc.,who stayed back in Hindoosthan,and married locals - also produced cowards,weasels,idiots and impotenticas.
The Curse
It is all the curse of Parshooram - the Curse of Incest and the Curse of Hindooism. Just like the curse of Ishvaku - whose own kids from the same mommy married each other - and then lineaged into Rama,the coward and impotentica.
Rama - captures the disaster the doom of the Hindoo race,and the Hindoo DNA - which is Y the Hindoo Muslims and Nassara,are treated as trash,all over the world - with real Muslims and Jesuits.