क्या निराश हुआ जाए पाठ का सारांश उद्देश्य प्रश्न उत्तर

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क्या निराश हुआ जाए हजारीप्रसाद द्विवेदी


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क्या निराश हुआ जाए पाठ का सारांश

क्या निराश हुआ जाए ? , हज़ारी प्रसाद द्विवेदी जी द्वारा लिखित एक प्रेरणात्मक निबंध है।  इस निबंध में लेखक ने प्राचीन मूल्यों एवं सिद्धांतों के प्रति अपनी गहरी आष्टा प्रकट किया है।  आज की विघटन पूर्ण  सामाजिक अवस्था को देखकर वह दुःखी है ,परन्तु निराश नहीं है।  लेखक के अनुसार अच्छाई एवं बुराई तो मानव जीवन के दो पहलु हैं।  वे क्रमशः समयानुसार आते - जाते रहते हैं। अतः आज मानवता को कलंकित करने वाला यह अन्धकार अवश्य समाप्त  फिर आशा का सूर्य उदित होगा। अन्धकार अवश्य समाप्त होगा और फिर आशा का सूर्य उदित होगा। ऐसी परिस्थिति में हमें निराश  की आवश्यकता नहीं है।  
  
क्या निराश हुआ जाए पाठ का सारांश उद्देश्य प्रश्न उत्तर
लेखक वर्तमान सामाजिक वातावरण का यथार्थ चित्रण प्रस्तुत किया है। लेखक देश की वर्तमान स्थिति से बहुत उदासीन है। सुबह उठते ही समाचार पत्रों में ठगी ,चोरी और तस्करी के समाचारों को पढ़कर उसका मन उद्गीन्न हो जाता है।  प्रायः ऐसा देखा जाता है कि लोग एक दूसरे के दोषों को खोजों में ही व्यस्त रहते हैं।  आज ऐसा वातावरण बन गया है कि सच्चे व्यक्ति का कहीं मूल्य ही नहीं है।  जो कुछ भी नहीं करता ,उसमें हज़ारों दोष ढूंढे जाते हैं। लेखक के अनुसार आदमी हूँ गुनाह करता हूँ के आधार पर मनुष्य में गुण और दोष तो होते ही हैं। दुःख का विषय यह है कि गुणों का कम परन्तु दोषों का बढ़ा चढ़ा पेश करते हैं। यही िष्टि चिंता का विषय है।  लेखक भारतीय संस्कृति की गरिमा एवं स्वर्णिम भविष्य की कल्पना को साकार रूप में देखने का विश्वासी है। लेखक का मन यह देखकर दुखी होता है कि आज लोग गाँधी ,तिलक ,विवेकानंद और स्वामी रामतीर्थ के आदर्शों से क्यों विमुख हो रहे हैं।  महात्मा गाँधी की राम राज्य की कल्पना जिसका मूल अभिप्राय था।  दैहिक दैविक भौतिक तापा ,राम राज काहू नहीं व्यापा  से आज के शासक कोसों दूर है।  हमारे मनीषियों की महानता उनके आध्यात्मिक चिंतन की थी जिससे इस देश को विश्वगुरु कहा जाता था।  आज हम लक्ष्य की ओर नहीं बढ़ रहे हैं। अतीत से ही यह देश विभिन्न जातियों एवं परिवारों का संगम रहा है।  सम्पूर्ण दुनिया में विश्व बंधुत्व का आदर्श स्थापित करने वाला देश आज सम्प्रदारियका एवं वैमनष्य से जूझ रहा है।ईमानदार एवं परीक्ष्मी संघर्षमय जीवन जी रहे हैं जब कि फ़रेबी एवं असामाजिक तत्व सुखमय जी रहे हैं।  परिस्थ्ति कुछ ऐसी हो गयी है कि जीवन के सच्चे आदर्शों के बारे लोगों की आष्टा ही हिलने लगी है।  परन्तु आज भी लेखक का मन निराश नहीं है। उसकी मान्यता है कि हमारे राष्ट्र के अतीत के आदर्श की जड़ें इतनी गहरी हैं कि अपसंस्कृति का यह झोंका उसका कुछ भी नहीं बिगाड़ सकता।  अतः ऊपर से चाहे कितना भी कोलाहल क्यों न हो ,अंदर से भारत अब भी महान है।

लेखक के अनुसार आज सवत्र जो उहापोह की स्थिति है उसके जिम्मेदार हम स्वयं है। मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। वह काल एवं परिशतितयों के अनुसार  नियम कायदे बनता रहता है।  समय परिवर्तन के साथ वह उसमें संसोधन भी किया करता है।  इस परिवर्तन में यदि वह रंच मात्र भी भूल कर देता है तो हमें सदियों उसका दुष्परिणाम भुगतना पड़ता है। आज की सबसे बड़ी त्रासदी यह है कि जो साधारण नियम कानून सबके लिए बनाये जाते हैं ,सुबिधापूर्ण वर्ग उसे अपने अनुसार मोड़ लेते हैं। सामाजिक कायदे कानून पुराने संस्कारों से टकराते हैं और उनके दोषों का निराकरण होता रहता हैं।  अतः परिष्ट्ती विशेष को देखकर हताश हो जाना ठीक नहीं है। 
 
लेखक ने अपने जीवन की दो घटनाओं का उल्लेख करता है यह बताता है कि सब कुछ होते हए भी आज भी समाज में अच्छे लोगों और अच्छाई की कमी नहीं है। एक बार लेखक यात्रा के समय दस रुपये किराये की जगह एक सौ रुपये का नोट दे दिया।  वह जाकर गाड़ी में बैठ गया परन्तु कुछ ही देर बाद टिकट बाबू उसे खोजते हुए सेकंड क्लास के डिब्बे में आया और माफ़ी मांगते हुए उन्हें नब्बे रुपये लौटा दिए।  लेखक के अनुसार इस घटना का आज भी बहुत महत्व है। यह ईमानदारी के प्रति हमारे खोये हुए विश्वास को जगाती है।  दूसरी घटना में लेखक एक बार सपरिवार बस से यात्रा कर रहा था। मंजिल के कुछ दूर पहले ही बस ख़राब हो गयी।  रात के दस बजे थे। सभी घबड़ाये हुए हुए था।  एकाएक कंडक्टर एक सायकिल लेकर तेज़ी से भागा। लोग ड्राइवर को घेर कर उस पर शक करने लगे कि वे लोग डाकुओं से मिले हुए हैं तथा उसे मारने पर उतारू हो गए।  लोगों के मन में दशहत बैठ गयी थी क्योंकि एक दिन पहले ही उस स्थान पर एक बस लूट ली गयी थी।  किन्तु थोड़ी देर में ही कंडक्टर ने एक खाली बस, साथ में पानी और कुछ दूध लेकर आया।लोगों के चेहरे खिल उठे और वह कबीर बारह बजे सकुशल मंजीत तक पहुंचे गए।  लोगों ने कंडक्टर को धन्यवाद दिया। ड्राइवर से माफ़ी मांगी। 

लेखक  निष्कर्ष पर पहुँचता कि यद्पि वातावरण विषाक्त है ,मनुष्य द्वारा बनाये नियम -कानून उसके लिए बाधक है।इसका उपाय परिस्थिति से पलायन नहीं है।हमें हमेशा आशान्वित होना चाहिए।सत्य का कभी पराभव नहीं होता।भारत अवश्य अपनी महानता हो प्राप्त करेगा।अतएव अभी निराश होने की जरुरत नहीं है।  


क्या निराश हुआ जाए पाठ का उद्देश्य

क्या निराश हुआ जाए ? हज़ारी प्रसाद द्विवेदी जी द्वारा लिखित एक प्रेरणात्मक निबंध है। देश की वर्तमान अवस्था  लेखक के मन में निराशा का भाव उठता है।  आज समाज में ठगी ,जालसाजी ,धोखाधड़ी का बोलबाला है। लोग अच्छाई को काम तथा बुराई को अधिक महत्व दे रहे हैं।  हर जगह नैतिकता का अवमूल्यन हो रहा है।  किन्तु इससे निराश होने की जरुरत नहीं है।  आज भी समाज में सत्य ,दया ,अहिंशा ,करुणा आदि भाव हैं चाहे वे दबे हुए ही क्यों न हो। एक न एक दिन सद्गुणों का उत्थान अवश्य ही तेज़ी से होगा और अमानवीय मूल्यों का ध्वंश हो जाएगा। अतः निराश होने की जरुरत नहीं है।  

सुबह सुबह उठकर अखबारों के कॉलम में प्रतिदिन ठगी ,डकैती ,चोरी ,तस्करी और भष्ट्राचारी के समाचारों की विविधता को पढ़कर लेखक का चित्त बेचैन हो जाता है और यही उसकी उदासी का मूल कारण है।  आज का वातावरण बड़ा की प्रदूषित है।  हर व्यक्ति संदेह की दृष्टि से देखा जा रहा है।  जो व्यक्ति जितने ऊँचे पद पर है वह उतनी ही शंका की दृष्टि से देखा जाता है।  

राष्टपिता महात्मा गाँधी और लोकमान्य तिलक ,भारत की आज़ादी के बाद भारत को एक ऐसे राष्ट्र के रूप में देखना चाहते थे जहाँ सबको सुख ,सुविधा और विकाश का सामान अवसर मिले। वास्तव में उनका महत उद्देश्य राम -राज्य की कल्पना थी। मनुष्य सामाजिक नियम को सुचारु रूप से चलाने के लिए नियमों एवं कानूनों को बनाता है। जब समाज में नवीन परिशतियाँ जन्म लेती है तो उस स्थितियों का सामना करने के लिए प्राचीन नियमों में परिवर्तन किया जाता है।  आज भी समाज में सेवा ,ईमानदारी तथा सच्चाई को महत्व दिया जाता है। लोग चोरी ,फरेब एवं धोखेबाज़ी की निंदा करते हैं। आज भी महिलाओं को सम्मान दिया जाता है और पर पीड़ा को अधर्म माना जाता है।  आज भी लोग बेबस लोगों की सहायता करने में अपने को धन्य मानते हैं।  जीवन में धोखेबाज़ी और विश्वासघात की घटनाएँ घटती ही रहती है।  इसे याद रखने से जीवन कष्टमय हो जाएगा। आज भी बहुत से ऐसे प्रसंग है जिनसे ढाढ़स और हिम्मत बंधती है।लेखक ने अपने जीवन की दो घटनाओं का उल्लेख करता है यह बताता है कि सब कुछ होते हए भी आज भी समाज में अच्छे लोगों और अच्छाई की कमी नहीं है। एक बार लेखक यात्रा के समय दस रुपये किराये की जगह एक सौ रुपये का नोट दे दिया।  वह जाकर गाड़ी में बैठ गया परन्तु कुछ ही देर बाद टिकट बाबू उसे खोजते हुए सेकंड क्लास के डिब्बे में आया और माफ़ी मांगते हुए उन्हें नब्बे रुपये लौटा दिए।  लेखक के अनुसार इस घटना का आज भी बहुत महत्व है। यह ईमानदारी के प्रति हमारे खोये हुए विश्वास को जगाती है।  दूसरी घटना में लेखक एक बार सपरिवार बस से यात्रा कर रहा था। मंजिल के कुछ दूर पहले ही बस ख़राब हो गयी।  रात के दस बजे थे। सभी घबड़ाये हुए हुए था।  एकाएक कंडक्टर एक सायकिल लेकर तेज़ी से भागा। लोग ड्राइवर को घेर कर उस पर शक करने लगे कि वे लोग डाकुओं से मिले हुए हैं तथा उसे मारने पर उतारू हो गए।  लोगों के मन में दशहत बैठ गयी थी क्योंकि एक दिन पहले ही उस स्थान पर एक बस लूट ली गयी थी।  किन्तु थोड़ी देर में ही कंडक्टर ने एक खाली बस, साथ में पानी और कुछ दूध लेकर आया।लोगों के चेहरे खिल उठे और वह कबीर बारह बजे सकुशल मंजीत तक पहुंचे गए।  लोगों ने कंडक्टर को धन्यवाद दिया। ड्राइवर से माफ़ी मांगी। इन घटनाओं से भी यह प्रमाणित होता है कि मनुष्यता के गुण अब भी बाकी है। अब भी समाज में दया ,माया ,प्रेम भाव बचे हुए हैं।    


क्या निराश हुआ जाए पाठ के प्रश्न उत्तर

प्र. लेखक के अनुसार आज के समय में कौन कौन सी बुराइयाँ दिखाई देती है ?
उ. लेखक के अनुसार आज के समय में आरोप - प्रत्यारोप का कुछ ऐसा वातावरण बन गया है कि देश में कोई ईमानदार आदमी रह ही नहीं गया है। जो व्यक्ति जितने ऊँचे पद पर है उसमें उतने ही अधिक दोष दिखाए जाने लगे हैं। 
ईमानदारी को मूर्खता का पर्याय समझा जाने लगा है। सच्चाई केवल भीरु और बेबस लोगों के हिस्से में पड़ी है। ऐसी स्थिति में जीवन के महान मूल्यों के प्रति आस्था ही हिलने लगी है। 

प्र. क्या कारण है कि आज हर आदमी में दोष अधिक दिखाई दे रहे हैं और गुण कम ?
उ. आये दिन हमें समाचार पत्रों में ठगी ,डकैती ,चोरी ,तस्करी और भ्रष्टाचार के समाचार पढ़ने को मिलते हैं। बड़े से बड़े आदमी को भी सन्देश की दृष्टि से देखा जाता है। राजनीतिक पार्टियाँ भी एक दूसरे पर दोषारोपण करती रहती है। वातावरण इतना दूषित है कि कोई भी ईमानदार दिखाई नहीं देता है। समाज में लोगों का रुझान भी कुछ इस प्रकार का है कि वे ईमानदार व्यक्ति पर भी शक करते हैं। यही कारण है कि आज का हर आदमी दोषी अधिक दिखाई देता है और गुणी कम।  

प्र. लेखक दोषों का पर्दाफाश करते समय किस बात से बचने के लिए कहता है ?
उ. लेखक दोषों का पर्दाफाश करना बुरा नहीं मानता है। पर कई किसी के दोषों का पर्दाफाश करते समय हम उसमें रस लेने लगते हैं और उसके दोषों का उद्धघाटन करना ही अपना एक मात्र कर्तव्य मान लेते हैं जो सर्वथा अनुचित है। अतः लेखक दोषों का पर्दाफाश करते समय उनके उद्धघाटन में रस लेने से बचने के लिए कहता है क्योंकि बुराई में रस लेना ठीक नहीं है। 

प्र. कुछ यात्री बस ड्राईवर को मारने के लिए क्यों उतारू हो गए थे ?
उ. यात्रियों का विचार था कि ड्राईवर धोखा दे रहा है। उसने कन्डक्टर को पहले ही डाकुओं के यहाँ भेज दिया है। ड्राईवर ने जान बूझकर यहाँ बस खड़ी कर दी है। दो दिन पहले भी इसी तरह एक बस को लूटा गया है। अतः यात्री भयभीत थे और इसके लिए वे ड्राईवर को दोष दे रहे थे। इसी कारण कुछ यात्री बस ड्राईवर को मारने के लिए उतारू हो गए थे। 




प्र. जीवन के महान मूल्यों के प्रति आज हमारी आस्था क्यों हिलने लगी है ?
उ. पिछले कई वर्षों से समाज में कुछ इस प्रकार का वातावरण बन रहा है कि ईमानदार और मेहनत करके अपना निर्वाह करने वाले को मूर्ख समझा जाता है और धोखाधड़ी करने वाले ,झूठ और फरेब से काम करने वाले आनंद कर रहे हैं। सच्चाई केवल भीरु और निरीह व्यक्तियों के लिए ही रह गयी है। परिश्रमी ,ईमानदार और सच्चाई का जीवन जीने वालों को अनेक कठिनाइयाँ सहन करनी पड़ती है। इसी कारण जीवन के महान मूल्यों के बारे में हमारी आस्था कम हो रही है। 

प्र. हमारे महापुरुषों के सपनों के भारत का क्या स्वरुप था ?
उ. हमारे महापुरुषों के सपने भारत आर्य और द्रविड़ तथा यूरोपीय और भारतीय आदर्शों की मिलन भूमि रहा है। यहाँ कभी भी भौतिक वस्तुओं के संग्रह को बहुत अधिक महत्व नहीं दिया गया है। मनुष्य के भीतर स्थित आंतरिक तत्वों को अधिक महत्व दिया गया है। हमारे महापुरषों ने भारत का जो सपना देखा था उसमें संयम ,सादगी और सरलता को अधिक महत्व दिया गया था। 

प्र. भ्रष्टाचार आदि के विरुद्ध आक्रोश प्रकट करना किस बात को प्रमाणित करता है ?
उ. भ्रष्टाचार आदि के विरुद्ध आक्रोश प्रकट करना यह प्रमाणित करता है कि हम अब  भी सेवा ,ईमानदारी ,सच्चाई और आध्यामिकता को महत्व देते हैं और अच्छा समझते हैं। हम ऐसी चीज़ों को गलत समझते हैं और समाज में ऐसे लोगों की प्रतिष्ठा कम करना चाहते हैं जो गलत तरीके से धन या मान कमाते हैं। 

प्र. रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने अपने प्रार्थना गीत में भगवान् से क्या प्रार्थना की और क्यों ?
उ. गुरुदेव रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने अपने प्रार्थना गीत में भगवान् से प्रार्थना की है कि यदि संसार में केवल हानि ही उठानी पड़े और धोखा भी खाना पड़े तो ऐसे अवसरों पर मुझे ऐसी शक्ति दो कि मैं तुम्हारे ऊपर संदेह न करूँ। "
रवीन्द्रनाथ में भगवान से यह प्रार्थना इसीलिए की है क्योंकि जीवन में ऐसी घटनाएँ भी घटती हैं ,परन्तु इन्ही घटनाओं के कारण मन में संदेह पाल लेना ठीक नहीं है। जीवन में बहुत कुछ अच्छा भी है। अभी भी मनुष्यता एकदम समाप्त नहीं हुई है। 

प्रश्न. 'क्या निराश हुआ जाए?' निबन्ध में निबन्धकार का क्या उद्देश्य है? किन दो घटनाओं के द्वारा निबन्धकार ने यह बताने का प्रयास किया है कि मनुष्यता अब भी पूरी तरह समाप्त नहीं हुई है? उन घटनाओं का संक्षेप में वर्णन कीजिए। 

उत्तर - आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी जी ने अपने निबन्ध 'क्या निराश हुआ जाए ?' की रचना एक विशेष उद्देश्य से की है। इस निबन्ध की रचना के दौरान निबन्धकार का उद्देश्य स्पष्ट रूप से परिलक्षित होता है। निबन्ध के प्रारम्भ में ही लेखक ने देश की वर्तमान स्थिति की विवेचना की है। लेखक यह बताना चाहता है कि आज देश में एक ऐसे वातावरण का निर्माण हो गया है कि जिसे देख ऐसा प्रतीत होता है कि देश में कोई ईमानदार आदमी रह ही नहीं गया है। आज हर जगह दोष और भ्रष्टाचार ही दिखाई देता है। यदि इस पृष्ठभूमि पर विचार करें तो हर व्यक्ति दोषी दिखाई देता है। इसलिए यह चिन्तन का विषय है।
 
इस आधार पर यह कहना कि अब देश के लोगों में गुणों का अभाव है, यह अवश्य ही असंगत होगा। दोषों को बढ़ा-चढ़ाकर दिखाया जाता है तो गुण उसमें छिप जाते हैं और हमारा ध्यान उस ओर नहीं जा पाता है। ऐसी परिस्थिति में हमें चिन्ता करने की आवश्यकता है या निराश होने की ?
 
लेखक ने अपने बस चालक और टिकट बाबू की ईमानदारी की घटना के उदाहरणों द्वारा यह स्पष्ट रूप से प्रमाणित किया है कि समाज में अभी भी सच्चाई और ईमानदारी बाकी है।
 
लेखक यह बताता है कि एक बार गलती से दस रुपये की जगह सौ का नोट देने के बाद वह आकर ट्रेन में बैठ गया जबकि टिकट दस रुपये का था, थोड़ी ही देर में टिकट बाबू विनम्रता के साथ उसे नब्बे रुपये लौटा देता है। यह कहना कि अब ईमानदारी लुप्त हो गई है गलत होगा ।
 
लेखक वहीं दूसरे प्रसंग में यह कहता है कि मैं अपनी पत्नी और तीन बच्चों के साथ जा रहा था, निर्धारित स्थान से पहले एक निर्जन स्थान पर बस ने जवाब दे दिया। रात के दस बजे का समय था। तब कंडक्टर साइकिल लेकर चलता बना। लोगों ने सोचा कहीं वही डकैतों को न भेज दे। कुछ नौजवान ड्राइवर को मारने की योजना बना रहे थे। मैंने बड़ी मुश्किल से ड्राइवर को बचाया। उसी समय हम यह देखते हैं कि बस अड्डे से खाली बस लेकर कण्डक्टर आ रहा है। आते ही उसने कहा कि यह बस चलने लायक नहीं है। इसलिए वह नई बस लाया है। साथ ही वह लेखक के बच्चों के लिए पानी और दूध भी लाया था। अन्त में लोगों ने अपने व्यवहार के लिए ड्राइवर से माफी माँगी।
 
इन उदाहरणों को देखकर यह नहीं कहा जा सकता कि मनुष्यता एकदम समाप्त हो गई है। द्विवेदी जी ने यह समझाया कि सिर्फ कपटपूर्ण घटनाओं का हिसाब रखने से हमें कष्ट की अनुभूति होती है, वहीं दूसरी ओर जब हम ऐसी घटनाओं पर ध्यान देते हैं जिसमें लोगों ने अकारण ही जरूरतमंद लोगों की सहायता की है, तो ऐसी घटनाएँ मन को आशा और हिम्मत देती हैं।

प्रश्न. “भारतवर्ष ने कभी भी भौतिक वस्तुओं के संग्रह को महत्व नहीं दिया है। उसकी दृष्टि से मनुष्य के भीतर जो महान आन्तरिक तत्व स्थिर भाव से बैठा हुआ है, वही परम और धरम है।" इस कथन की व्याख्या कीजिए।
 
उत्तर- लोभ-मोह, काम-क्रोध आदि विचार मनुष्य में स्वाभाविक रूप से विद्यमान रहते हैं, पर उनको प्रधान शक्ति मान लेना और अपने मन और बुद्धि को उन्हीं के इशारे पर छोड़ देना निकृष्ट आचरण है। भारतवर्ष ने कभी भी इसको महत्व नहीं दिया, इन्हें सदा संयम के बन्धन से बाँधकर रखने का प्रयास किया है, परन्तु भूख की उपेक्षा नहीं की जा सकती। बीमार के लिए हवा की उपेक्षा नहीं की जा सकती, गुमराह को ठीक रास्ते पर चलाने की उपेक्षा नहीं की जा सकती।
 
वैसे तो इस देश में दरिद्रजनों की हीन अवस्था को दूर करने के लिए अनेक कायदे कानून बनाये गये हैं, जो कृषि, उद्योग, वाणिज्य, शिक्षा और स्वास्थ्य की स्थिति को अधिक उन्नत और सुचारु बनाने के लक्ष्य से प्रेरित हैं, परन्तु जिन लोगों को इन कार्यों में लगना है, उनका मन सब समय पवित्र नहीं होता। प्रायः वे अपने लक्ष्य को भूल जाते हैं और अपनी ही सुख-सुविधा की ओर ज्यादा ध्यान देने लगते हैं। आदर्शों को मजाक का विषय बनाया गया और संयम को दकियानूसी मान लिया गया।
 
भारतवर्ष सदा कानून को धर्म के रूप में देखता आ रहा है। आज एकाएक कानून और धर्म में अन्तर कर दिया गया है। धर्म को धोखा नहीं दिया जा सकता, कानून को दिया जा सकता है। यही कारण है कि जो लोग धर्मभीरु रूढ़िग्रस्त हैं, वे कानून की त्रुटियों से लाभ उठाने में संकोच नहीं करते।
 
भारत में समाज के ऊपरी वर्ग में चाहे जो हो रहा हो, भीतर-भीतर भारतवर्ष अब भी अनुभव कर रहा है कि धर्म आज कानून से बड़ी चीज है। अब भी सेवा, ईमानदारी, सच्चाई और आध्यात्मिकता के मूल्य बने हुए हैं। वे दब अवश्य गये हैं, लेकिन नष्ट नहीं हुए हैं। मनुष्य आज कानून से बड़ी चीज है।मनुष्य आज भी मनुष्य से प्रेम करता है, महिलाओं का सम्मान करता है, झूठ और चोरी को गलत समझता है, दूसरों को पीड़ा पहुँचाने को पाप समझता है। समाचार-पत्रों में भरे आक्रोश से प्रमाणित होता है कि हम गलत व्यवहार को गलत ही समझते हैं। 

प्र. महान भारतवर्ष को पाने की संभावना बनी हुई है और बनी रहेगी। लेखक के इस कथन से हमें क्या सन्देश मिलता है ?

उ. महान भारतवर्ष को पाने की संभावना बनी हुई है और बनी रहेगी के माध्यम से लेखक यह सन्देश देना चाहता है कि हमें निराश होने की आवश्यकता नहीं है क्योंकि समाज के उपरी वर्ग में चाहे कुछ भी हो रहा हो ,अब भी भीतर ही भीतर हम यह अनुभव करते हैं कि सेवा ,ईमानदारी ,सच्चाई और अध्यात्मिकता का मूल्य है। आज भी हम मनुष्य से प्रेम करते हैं ,महिलाओं का सम्मान करते हैं ,झूठ और चोरी को गलत समझते हैं और दूसरों को पीड़ा पहुँचाना पाप समझते हैं। 

समाचार पत्रों में भी भ्रष्टाचार के प्रति आक्रोश यही साबित करता है कि आज भी हम ऐसी चीज़ों को गलत समझते हैं और समाज में उन तत्वों की प्रतिष्ठा कम करना चाहते हैं ,जो गलत तरीके से धन या मान संग्रह करते हैं। 

प्रश्न. "क्या निराश हुआ जाए" पाठ का सारांश व उद्देश्य लिखिए।
 
उत्तर - हिन्दी साहित्य के मूर्धन्य साहित्यकार हजारी प्रसाद द्विवेदी का स्थान एक आलोचक व निबन्धकार के रूप में सर्वोपरि है। प्रस्तुत निबन्ध 'क्या निराश हुआ जाए' एक आशावादी दृष्टिकोण लिए हुए है। आज के माहौल में एक दूसरे पर आरोप-प्रत्यारोप लगाना साधारण बात हो गई है। सभी समाचार पत्र ठगी, डकैती, चोरी, तस्करी व भ्रष्टाचार के समाचारों से भरे रहते हैं। जो आदमी जितने ऊँचे पद पर है। उसमें उतने अधिक दोष हैं। हर आदमी संदेह की नजर से देखा जा रहा है। लेखक कहते हैं- "एक बहुत बड़े आदमी ने एक बार मुझसे कहा था कि इस समय वह सुखी है जो कुछ नहीं करता। जो कुछ भी करेगा उसमें लोग दोष खोजने लग जाएंगे।" आज हर आदमी दोषी अधिक दिख रहा है। ईमानदारी से मेहनत करके जीविका चलाने वाले निरीह और भोले-भाले श्रमजीवी पिस रहे हैं। झूठ और फरेब का रोजगार करने वाले फल-फूल रहे हैं। ईमानदारी को मूर्खता का पर्याय समझा जाने लगा है। लेखक कहते हैं - "जीवन के महान मूल्यों के बारे में लोगों की आस्था ही हिलने लगी है।" परन्तु इसका कारण मनुष्य द्वारा बनाई गई कुछ गलत नीतियाँ हैं। हमारे सामाजिक नियम-कानून पुराने आदर्शों से टकरा रहे हैं। परिणामस्वरूप आज उथल-पुथल मची हुई है। भारतवर्ष ने कभी भी भौतिक वस्तुओं के संग्रह को महत्व नहीं दिया है। मनुष्य के भीतर लोभ, मोह, काम, क्रोध स्वाभाविक रूप से विद्यमान रहते हैं पर उनको प्रधान शक्ति मानना और अपनी बुद्धि को उनके इशारे पर छोड़ देना निकृष्ट आचरण है।"
 
भारतवर्ष सदा कानून को धर्म के रूप में देखता आ रहा है। आज एकाएक कानून और धर्म में अन्तर कर दिया गया है। लेखक कहता है- "धर्म को धोखा नहीं दिया जा सकता। कानून को दिया जा सकता है।"

समाज के ऊपरी वर्ग में चाहे जो हो रहा हो पर भीतर ही भीतर आज भी धर्म को कानून से बड़ा माना जाता है। सच्चाई, ईमानदारी, सेवा, आध्यात्मिकता के मूल्य अब भी बने हुए हैं। आज भी मनुष्य मनुष्य से प्रेम करता है। महिलाओं का सम्मान करता है। झूठ और चोरी को गलत समझता है। दूसरे को पीड़ा देना पाप समझता है।
 
लेखक कहता है कि - "दोषों का पर्दाफाश करना बुरी बात नहीं है..। बुराई में रस लेना बुरी बात है। अच्छाई में उतना ही रस लेकर उजागर न करना और भी बुरी बात है।' किसी लेखक ने अपने जीवन से सम्बन्धित घटनाओं से समझाया कि एक बार लेखक ने रेलवे स्टेशन में दस रुपए के टिकट के लिए सौ का नोट दे दिया। वह जल्दी में आकर सीट पर बैठ गया। तभी टिकट बाबू लेखक को ढूँढ़ता हुआ आया और नब्बे रुपए वापस करते हुए बोला- "यह बहुत बड़ी गलती हो गई थी। आपने भी नहीं देखा, मैंने भी नहीं देखा।" लेखक कहते हैं- "कैसे कहूँ कि दुनिया से सच्चाई और ईमानदारी लुप्त हो गई है।" 

लेखक दूसरी घटना बताते हैं- "एक बार लेखक बस में पत्नी और बच्चों के साथ यात्रा कर रहा था । अचानक बस गन्तव्य से आठ किलोमीटर पहले ही खराब हो गई। कंडक्टर साइकिल लेकर चल दिया। लोगों ने सोचा किसी लूट के इरादे से बस रोक दी है। लोग ड्राइवर को पकड़कर मारने की योजना बना रहे थे। तभी कंडक्टर दूसरी बस लेकर आया। साथ ही बच्चों के लिए दूध व पानी भी लेता आया। उसने आते ही कहा- " अड्डे से नई बस लाया हूँ। इस पर बैठिए। यह बस चलने लायक नहीं है।" सब लोग दूसरी बस में बैठे और समय से पहले बस अड्डे पर पहुँच गये। लोगों ने कंडक्टर को धन्यवाद दिया व ड्राइवर से माफी माँगी। 

लेखक कहते हैं कि कैसे कह दूँ मनुष्यता समाप्त हो गई है। यह कहना एकदम गलत है कि दुनिया से मानवता बिल्कुल गायब हो गई है। लेखक ने जीवन में धोखा भी खाया है। ठगा भी गया है। परन्तु विश्वासघात बहुत कम अवसरों पर देखने को मिला।
 
उद्देश्य - लेखक का स्वर आत्मविश्वास और आशा से ओतप्रोत है। वह यही बताना चाहते हैं। हमारी प्राचीन मान्यताएँ हैं, संस्कृति है जिन्हें लोग आज भी मानते हैं। हमें अपने आदर्शों को नहीं भूलना चाहिए। उनका मानना है कि किसी व्यक्ति विशेष के दोषों को प्रकट कर उसमें रस लेना बुरी बात है। उन्होंने लोगों को बुराई की जगह अच्छाई पर ध्यान देने की प्रेरणा दी है। हमें कानून की त्रुटियों का गलत लाभ नहीं उठाना चाहिए। मनुष्य के भीतर लोभ, मोह, काम, क्रोध आदि विकार स्वाभाविक रूप से विद्यमान रहते हैं। पर इन्हें प्रधान शक्ति मानकर मन तथा बुद्धि को उन्हीं के इशारे पर छोड़ देना निकृष्ट आचरण है। लेखक ने भारतीय संस्कृति में आत्मा को भौतिकता से अधिक महत्व दिया है। शोषण व भ्रष्टाचार भरे माहौल का चित्रण कर लोगों को यथार्थता की ओर ले जाना लेखक का उद्देश्य है । आजकल लोग ईमानदारी को मूर्खता और ईमानदार को मूर्ख समझने लगे हैं। ऐसे दूषित वातावरण में रहते हुए अपने गुणों व आदर्शों को छोड़ने लगे हैं। पर लेखक अपनी महान संस्कृति में विश्वास रखने की प्रेरणा देता है। उनका कहना है कि मनुष्य के बनाए नियम कानूनों को बदलने की आवश्यकता है। अपने जीवन की दो सच्ची घटनाओं के माध्यम से लेखक ने बताने का प्रयास किया है कि जीवन के महान मूल्यों में हमें आस्था रखनी चाहिए। लोगों में अभी भी ईमानदारी, दया, माया आदि गुण विद्यमान हैं। अतः निराश होने की आवश्यकता नहीं है। हमें अपनी सोच को सकारात्मक रखना चाहिए। 


क्या निराश हुआ जाए पाठ के शब्दार्थ

मन बैठना - निराश होना 
तस्करी - चोरी का व्यापार 
प्रत्यारोप - बदले में आरोप 
अतीत - बीता हुआ 
मनीषी - विचारक 
जीविका - कमाई का साधन 
निरीह - कमजोर 
विधि - जिसकी अनुमति हो 
निषेध - जिसकी अनुमति न हो 
परीक्षित - जिसकी परीक्षा कर ली गयी हो 
गरिमा - शान 
अवांछित - न चाहा हुआ 
वंचना - ठगना 
गंतव्य - जहाँ पहुँचना है 
विश्वासघात - विश्वास में धोखा


COMMENTS

Leave a Reply: 7
  1. समाज के कल्याण हेतु क्या क्या कदम उठाऐ जा सकता हैं

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    1. वर्तमान परिस्थिति में भी हताश हो जाना ठीक नहीं - इस कथन की पुष्टि पाठ के आधार पर कीजिए? क्या निराश हुआ जाए

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  2. Question- lekhak ne is paath Ka naam kya nirash hua Jaye hi kyu likha

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  3. Kya niraash hua jaye chapter ke questions aur answers

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