दासी कहानी जयशंकर प्रसाद Dasi Jaishankar Prasad दासी कहानी जयशंकर प्रसाद का सार daasi by jaishankar prasad summary - दासी जयशंकर प्रसाद जी द्वारा लिखित एक प्रसिद्ध ऐतिहासिक कहानी है।दासी कहानी जयशंकर प्रसाद का उद्देश्य Dasi Jaishankar Prasad -
दासी कहानी जयशंकर प्रसाद
Dasi Jaishankar Prasad
दासी कहानी जयशंकर प्रसाद का सार daasi by jaishankar prasad summary - दासी जयशंकर प्रसाद जी द्वारा लिखित एक प्रसिद्ध ऐतिहासिक कहानी है। इरावती एक हिन्दू कन्या है ,जिसे मुल्तान की लड़ाई में पकड़ा गया और दासी बना दिया गया।बाद में काशी के एक महाजन ने उसे ५०० दिरहम देकर कड़ी शर्तों पर ख़रीदा।दूसरी दासी फ़िरोज़ा है। वह एक राजा की दासी है।फ़िरोज़ा को छुड़ाने के लिए अहमद के एक हज़ार सोने के सिक्के आने वाले ,लेकिन पहुँचे नहीं। लेकिन फ़िरोज़ा को राजा साहब बिना सिक्के प्राप्त किये छोड़ देता है।
बलराज एक वीर जाट है ,जिसे तुर्क सुलतान महमूद की ओर से सिज्लुकों से युध्य किया था।युध्य में हार के कारण सुल्तान ने बलराज को निकाल दिया। इस प्रकार दुःखी होकर बलराज आत्महत्या करना चाहता है ,लेकिन फ़िरोज़ा उसे रोकती है , बलराज इरावती से प्रेम करता है ,लेकिन गरीब होने के कारण विवाह नहीं कर पाता है।कथा के अंत में बलराज जाटों की सेना का सेनापति बन जाता है।तुर्क सेना के साथ युध्य में बलराज विजयी हुआ ,लेकिन अहमद मारा जाता गया।इस प्रकार बलराज व इरावती का मिलन हुआ ,लेकिन अहमद की मृत्यु के कारण फ़िरोज़ा का मिलन नहीं हो पाता है। जहाँ अहमद मारा जाता है ,वहीँ अहमद की समाधि बनाकर फ़िरोज़ा वहीँ दासी बनकर रह जाती है। वह समाधी की सेवा करती है ,फूल चढ़ाती हुई ,जीवन यापन करती है।
दासी कहानी जयशंकर प्रसाद का उद्देश्य Dasi Jaishankar Prasad
जयशंकर प्रसाद जी ने प्राचीन भारत की दास प्रथा पर प्रकाश डाला गया है।दास प्रथा के कारण महिलाओं का शोषण व उन्हें कुत्सित कार्य करवाया जाता था।लेकिन अनेक प्रकार के अत्याचारों व शोषण करने पर भी स्त्री में एकनिष्ठ ,निर्भीकता व पवित्र प्रेम तथा देशभक्ति की भावना विद्यमान रहती है।इस प्रकार लेखक प्राचीन भारत के गौरव गान करने के साथ - साथ तत्कालीन समाज की बुराइयों पर भी प्रकाश डाला है। इससे लेखक सफल रहा है।
दासी जयशंकर प्रसाद की एक ऐसी कहानी है जिसमें भारतीय संस्कृति एवं राष्ट्रीयता का स्वर गुंजित होता है। इस कहानी में इरावती एक हिंदू कन्या है जिसे म्लेच्छों ने मुलतान की लूट में पकड़ा और दासी बना दिया। उसे 500 दिरम देकर काशी के एक महाजन ने खरीदा। अब वह क्रीत दासी है। इरावती से यह भी लिखवा लिया गया कि वह घर का कुत्सित कार्य करेगी और कोई विद्रोह नहीं करेगी। यदि वह आत्महत्या करेगी तो भी महाजन के कुटुंब पर कोई दोष नहीं लगेगा।
दूसरी दासी फिरोज़ा है। वह गुलाम है। फिरोज़ा को छुड़ाने के लिए अहमद को एक हज़ार सोने के सिक्के भेजने थे जो अभी तक नहीं आए थे। राजा साहब उन सिक्कों को पाकर उसे छोड़ सकते हैं और वह हिन्दुस्तान जा सकती है। राजा साहब कठोर होते हुए भी फिरोज़ा को बिना धन राशि लिए उसे मुक्त कर देते हैं। वे फिरोज़ा को अहमद को समझाने की बातें भी कहते हैं।
कहानी के अंत में हम देखते हैं कि इरावती और जाटों के सरदार बलराज का मिलन होता है। राजा साहब अपनी बहन इरावती को पाकर बहुत प्रसन्न होते हैं। परंतु फिरोज़ा स्वतंत्र होकर भी वह अहमद का प्यार प्राप्त नहीं कर सकी क्योंकि अहमद को युद्ध में मार दिया जाता है। वहाँ फिरोज़ा की प्रसन्नता की समाधि बनती है। वहाँ वह फूल चढ़ाती है और दीप जलाती है। फिरोज़ा उस समाधि की आजीवन दासी बनी रहती है।
जयशंकर प्रसाद जी ने 'दासी प्रथा' पर प्रकाश डालकर तत्कालीन परिस्थितियों को यथार्थ रूप में प्रस्तुत किया है। पशु-पक्षियों की तरह हिंदू और तुर्कबाला को पकड़ा और बेचा जाता है। इरावती को कुत्सित कार्य करने के लिए विवश किया जाता है। क्रीत दासी अपनी इच्छानुसार कुछ नहीं कर सकती। उसे आततायी के हाथों कलंकित होना पड़ता है। राजा साहब जैसे सहृदय व्यक्ति द्वारा फिरोज़ा को स्वतंत्रता दिलाकर कहानी को सुंदर रूप प्रदान किया गया है। लेखक अपने उद्देश्य-अर्थात 'दासी' प्रथा पर प्रकाश डालने और इस प्रथा के कारण होने वाले दासियों के दुखों को दिखाने में पूर्णतया सफल हुए हैं।
दासी कहानी जयशंकर प्रसाद शीर्षक की सार्थकता Dasi Jaishankar Prasad
दासी जयशंकर प्रसाद जी द्वारा लिखित एक प्रसिद्ध ऐतिहासिक कहानी है।कहानी का शीर्षक सार्थक व सरल है। प्राचीन काल में दास प्रथा विद्यमान थी।दासों का अपना स्वयं कोई अस्तित्व नहीं होता था।उन्हें पशुओं की भातिं कोई भी खरीद व बेंच सकता था।लेकिन दास प्रथा होने के वावजूद भी वे एक मनुष्य होते थे।मनुष्य के उच्च चरित्र उनमें भी विद्यमान थे।फ़िरोज़ा व इरावती दोनों ही स्त्री पात्रों में एकनिष्ठ ,निर्भीकता व पवित्र प्रेम तथा देशभक्ति की भावना विद्यमान रहती है।इस प्रकार दासी शीर्षक ,सार्थक व पाठकों तक अपनी बात पहुंचाने में सफल है।
जयशंकर प्रसाद द्वारा रचित कहानी 'दासी' जिज्ञासा उत्पन्न करती है कि कहानी में 'दासी' कौन है और वह 'दासी' क्यों है? अन्त में उस दासी का क्या होता है? दासी का अर्थ है-गुलाम नौकरानी, खरीदी हुई दासी; जिसकी अपनी मरज़ी नहीं चलती। वह पराधीन है। उसे खरीदा और बेचा भी जा सकता है।
प्रस्तुत कहानी 'दासी' में दो युवतियों को दासी के रूप में दिखाया गया है। एक हिन्दू युवती इरावती है। वह वीर पुरुष बलराज की वाग्दत्ता पत्नी है। उसका वह्नि वेदी के सामने परिणय होने वाला था। वह नहीं हो पाया। बलराज पहले अमीर बनना चाहता था और फिर विवाह करना चाहता था। वह इरावती की रक्षा न कर सका। वह म्लेच्छों द्वारा मुलतान की लूट में पकड़ी गई और काशी के एक महाजन के हाथ पाँच सौ दिरम में बेची गई। वह 'क्रीत दासी' बन गई। उसे लिखकर देना पड़ा कि वह घर के कुत्सित से कुत्सिक कार्यों को करेगी। बेचारी ने बहुत कष्ट सहे। अंत में बलराज के साथ उसका मिलन दिखाया गया है। उसका भाई तिलक भी मिल जाता है। दूसरी दासी 'फिरोज़ा' एक तुर्क बालिका है। वह भी पराधीन है। उसकी आज़ादी के लिए एक हजार सोने के सिक्कों की बात हो रही थी। अहमद को हिन्दुस्तान से वे सिक्के भेजने थे, जो अभी तक नहीं आए थे। उसकी सहृदयता को देख राजा साहब ने बिना धन लिए उसे मुक्त कर दिया। राजा साहब कुछ सोने के टुकड़ों के लिए फिरोजा का हृदय नहीं कुचलना चाहते थे।
फिरोज़ा अहमद से बहुत प्रेम करती थी। रूठना-मनाना भी उनमें चलता था। अहमद की बुरी नज़र इरावती पर पड़ी तो वह नाराज़ होकर चली गई। जब अहमद की जाटों के साथ युद्ध करते समय मृत्यु हुई तो उसकी वहाँ समाधि बनाई गई। फिरोज़ा उस समाधि की आजीवन दासी बनी रही। वह वहाँ झाडू देती, फूल चढ़ाती और दीप जलाती रही।
लेखक जयशंकर प्रसाद 'दासी' के जीवन एवं उसके कष्टों को चित्रित करने में पूर्णतया सफल हुए हैं। वह पराधीन है। उसे कुत्सित कार्य करने पडेंगे। कष्टों से वह भाग नहीं सकती। वह क्रीतदासी है। उसे खरीदा और बेचा जा सकता है। उसकी अवस्था पशुओं जैसी है। अतः हम कह सकते हैं कि कहानी का शीर्षक 'दासी' नाम की सार्थकता सिद्ध करता है।
दासी कहानी में फिरोजा का चरित्र चित्रण
फिरोजा जयशंकर प्रसाद द्वारा लिखित 'दासी' कहानी की प्रमुख पात्र है। वह अपने प्रेम, त्याग और समझदारी का एक आदर्श प्रस्तुत करती है। उसके हृदय में भावुकता और दृढ़ता है। उसे कर्तव्य बोध की पूरी-पूरी समझ है। वह अर्न्तद्वन्द्व की स्थितियों से निकलना जानती है। जयशंकर प्रसाद ने उसके उज्ज्वल चरित्र को गहरे लगाव के साथ प्रस्तुत किया है जिसमें मानव मन की दुर्बलता और सबलता के रूप साथ-साथ दिखाई देते हैं।
फ़िरोज़ा एक सहृदय स्त्री है। वह बलराज और इरावती के प्रेम संबंधों से परिचित है। वह स्वयं अहमद नियाल्तगीन से प्रेम करती है। परन्तु बलराज को इरावती से मिलने के लिए हिन्दुस्तान जाने के लिए प्रेरित करती है। फ़िरोज़ा में जीवन के प्रति सकारात्मक तथा आशावादी दृष्टि देखी जा सकती है। जब बलराज आत्महत्या करना चाहता है तब फ़िरोज़ा उसे रोकती है और कहती है- "सुख जीने में है बलराज ! ऐसी हरी-भरी दुनिया, फूल बेलों से सजे हुए नदियों के सुन्दर किनारे, सुनहला सवेरा...... इस सबों से मुँह मोड़कर आँखें बन्द कर लेना । कभी नहीं...... मैं तुम्हें मरने नहीं दूँगी।
फ़िरोज़ा एक साहसी महिला है वह आत्महत्या को पाप समझती है। वह साहस और वीरता का सम्मान करना चाहती है तभी तो वह बलराज को कहती है- " जिहून के किनारे तुर्कों से लड़ते हुए मर जाना दूसरी बात थी। तब में तुम्हारी कब्र बनवाती, उस पर फूल चढ़ाती ...."।
फ़िरोज़ा प्रेम के महत्त्व को समझती है। वह बलराज को समझाती है कि तुम इरावती से जब इतना प्यार करते हो तो मरने क्यों जा रहे हो। एक बार उसे देख तो लो । फिरोज़ा एक साहसी स्त्री है। वह भी लड़ाई में पकड़ी हुई गुलामी का जीवन जी रही है लेकिन वह पूर्ण विश्वास से कहती है- “मैं अब गुलामी में नही रह सकूँगी....मैं छूटकारा पा जाऊँगी और गुलाम ही रहने पर रोने की कौन सी बात है ? मर जाने की इतनी जल्दी क्यों ?" फ़िरोज़ा आशावादी है, उसे आशा है कि-"जो आज गुलाम है वही कल सुल्तान हो सकता है, फिर रोना किस बात का, जितनी देर हँस सकती हूँ उस समय को रोने में क्यों बिताऊँ ?"
कहानीकार ने फ़िरोज़ा को एक उच्च चरित्र वाली आदर्श स्त्री के रूप में चित्रित किया है। जब उसका प्रेमी अहमद नियाल्तगीन अपने आवास के दलान की सीढ़ी पर बैठी-बैठी सोती हुई इरावती का सौन्दर्य देखकर पागल हो उठता है। जैसे ही वह बुरी नीयत से इरावती का हाथ पकड़ता है तभी फ़िरोज़ा वहाँ आ जाती है और कहती है- “मैं बिकी हूँ अहमद ! तुम भला मेरे हाथ क्यों बिकने लगे ? लेकिन तुमको मालूम है कि तुमने राजा तिलक को अभी मेरा दाम नही चुकाया, इसलिए में जाती हूँ।"
फ़िरोज़ा की आँखों में तीव्र ज्वाला थी। वह अपने प्रेमी के इस अपराध को क्षम्य नहीं मानती। वह कहती है-"अहमद हत - बुदिध ! निष्प्रभ !" फ़िरोज़ा बलराज से कहती है कि उसे अहमद की छाया से बचना है। वह बलराज और इरावती को मिला देती है, पर अपने प्यार को नही बचा पाती। उसका प्रेमी मारा जाता है। फ़िरोज़ा की प्रसन्नता की वहीं समाधि बन जाती है। उस समाधि की वह आजीवन दासी बनी रही।
इस प्रकार फ़िरोज़ा का चरित्र एक कुलीन, सुघड़, सुशील और उच्च आशय वाली आदर्श स्त्री के रूप में चित्रित हुआ है। फ़िरोज़ा दूसरों की सहायता करने वाली एक सच्ची प्रेमिका के रूप में अपनी छाप छोड़ जाती है।
दासी कहानी के आधार पर इरावती का चरित्र चित्रण
इरावती जयशंकर प्रसाद द्वारा लिखित ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य पर आधारित कहानी 'दासी' की प्रमुख नायिका है। कहानीकार जयशंकर प्रसाद ने उसका चरित्र विविध सन्दर्भों तथा संघर्षों के परिवेश में चित्रित किया है।
इरावती कर्तव्य और विवशता, संकल्प और विकल्प, प्रवृत्ति और निवृत्ति के ध्रुवों के बीच जीती हुई सुखद भविष्य की ओर बढ़ती है। इरावती राजतिलक की बहन की ओर वीर जाट बलराज की प्रेमिका के रूप में आती है। वह फिरोज़ा की सखी के साथ ही महाजन की कीतदासी की भूमिका में भी दिखाई देती है। लेखक ने उसके चरित्र के माध्यम से जीवन की विवशताओं की ओर संकेत किया है। वह संघर्ष, विवशता और अंधकार से जूझते हुए अपने जीवन की सार्थकता पाती है।
बलराज और इरावती एक दूसरे को प्यार करते हैं लेकिन कंगाली के कारण दोनों का विवाह नहीं हो पाता। बलराज, इरावती को वचन देता है कि वह लड़ाई में जाएगा। सुल्तान की लूट में जो सोने-चाँदी की ढेरी मिलेगी उससे वह अमीर हो जाएगा। और इरावती से विवाह करेगा। बलराज फिरोज़ा को बताता है कि सुल्तान ने सिलजुकों से हार जाने पर तुर्क और हिन्दुओं को नौकरी से निकाल दिया है। इसी अपमान के कारण वह आत्महत्या करने जा रहा था, तब फिरोज़ा उसे मरने से बचाती है और बलराज को इरावती से मिलने के लिए कहती है।
बलराज जब इरावती को खोजते हुए फिरोज़ा के साथ हिन्दुस्तान आता है तो उसे मंदिर में इरावती दिखाई देती है। वह उसे पुकारता है, जिससे अपने प्रेम का परिचय इरावती को दे सके, परन्तु इरावती उसे रोक देती है। बलराज उससे पूछता है-“क्या तुम मेरी वाग्दत्ता पत्नी नहीं हो ? क्या हम लोगों का वह्नि-वेदी के सामने परिणय नही होने वाला था ? तब इरावती कहती है- “हाँ होने वाला था किन्तु हुआ नहीं, और बलराज तुम मेरी रक्षा नहीं कर सके। मैं आततायी के हाथ से कलंकित की गई। फिर तुम मुझे पत्नी रूप में कैसे ग्रहण करोगे ? तुम वीर हो । पुरुष हो । तुम्हारे पुरुषार्थ के लिए बहुत-सी महत्वाकांक्षाएँ हैं। उन्हें खोज लो, मुझे भगवान की शरण में छोड़ दो। मेरा जीवन, अनुताप की ज्वाला से झुलसा हुआ मेरा मन, स्नेह के योग्य नहीं है।"
बलराज जब उसे भगा ले जाने का प्रस्ताव रखता है तो वह अपनी पवित्र भावनाओं का परिचय देते हुए अपनी दुर्दशा और अपमानों के यथार्थ को इस प्रकार व्यक्त करती है-"भाग चलूँ, क्यों ? सो नहीं हो सकता। मैं क्रीत दासी हूँ। मलेच्छों ने मुझे सुल्तान की लूट में पकड़ लिया। मैं उनकी कठोरता में जीवित रहकर बराबर उनका विरोध ही करती रही। नित्य कोड़े लगते, बाँधकर मैं लटकाई जाती, फिर भी मैं अपने हठ से न डिगी।" इरावती आगे बताती है कि एक दिन मुझे कन्नौज के चतुष्पथ पर घोड़ों के साथ ही बेचने के लिए खड़ा किया गया और पाँच सौ दिरम में काशी के एक सेठ के हाथों बेच दिया गया। इरावती ने लिखकर दिया कि वह इस घर का कुत्सित से कुत्सित कर्म करेगी और कभी भी विद्रोह नहीं करेगी, न कभी भागने की चेष्टा करेगी। उसने सिर पर तृण रखकर अपने को बेचने में स्वीकृति दी है।
इरावती अपने मालिक के प्रति वफादार बनी रहती है, उसने अपनी शर्तों के आधार पर अपने शरीर पर सब प्रकार की यातनाएँ सहीं । बलराज को इरावती का व्यवहार बड़ा ही रूखा लगा, पर इरावती मजबूर थी। वह अपनी शर्तों के बन्धन में बंधी हुई थी। वह चाहती थी कि बलराज उसे भूल जाए क्योंकि अब वह उसके योग्य नहीं रही।
इरावती स्पष्टवादी है। वह स्वार्थी नहीं है। वह बलराज को स्पष्ट शब्दों में अपने विषय में सब कुछ बता देती है। अन्त में जाटों की विजय हुई। इस युद्ध में बलराज भी घायल हो गया। अन्त में इरावती घायल मूच्छित बलराज का सिर अपनी गोद में लेकर उसे जल पिलाती है।जल पीते ही बलराज ने कहा- “इरावती, अब न मरूँगा ?" बलराज जाटों का सरदार बना और इरावती रानी। इस प्रकार इरावती के तमाम दुःखों का सुखद अन्त होता है।
दासी कहानी के प्रश्न उत्तर
प्रश्न. 'दासी' कहानी के लेखक कौन हैं? इसमें उन्होंने क्या दर्शाने का प्रयास किया है?
उत्तर- 'दासी' कहानी महान लेखक जयशंकर प्रसाद द्वारा रचित है। प्राचीन काल की दास प्रथा को लेकर उन्होंने खरीदी एवं बेची जाने वाली दासियों के जीवन को प्रकट किया है। मुलतान की लूट में पकड़ी गई इरावती को 500 दिरम के बदले काशी के एक महाजन के हाथ बेचा जाता है। वह एक क्रीत दासी है। उससे लिखवाया जाता है कि न वह भागने की चेष्टा करेगी और न ही विद्रोह करेगी। वह घर का कुत्सित से कुत्सित कार्य करेगी। यदि वह तंग आकर आत्महत्या करेगी तो उसका दोष स्वामी और उसके परिवार पर नहीं आएगा। स्वामी जब चाहे और जितने रुपयों में चाहे उसे बेच सकेगा।
दूसरी दासी एक तुर्क बाला फिरोज़ा है। राजा साहब उसे तब मुक्त कर सकते हैं जब उसके बदले एक हज़ार सोने के सिक्के आयेंगे। अहमद से आशा की जा रही थी कि वह हिन्दुस्तान से रुपये भेजकर फिरोज़ा को मुक्त करायेगा लेकिन उसने ऐसा नहीं किया। हाँ! सहृदय राजा साहब ने बिना धन लिये उसे मुक्त कर दिया और हिन्दुस्तान जाने की इजाज़त दे दी। फिरोज़ा का दुर्भाग्य कि वह अहमद के मर जाने पर उसकी समाधि की आजीवन दासी बनी रही। बलराज, इरावती और राजा साहब का मिलन सुखदायी है। बलराज जाटों का सरदार बना और इरावती रानी बनी। चनाब का वह प्रान्त इरावती की करूणा से हरा-भरा हो गया।
प्रश्न. अहमद कौन था? उसका अंत कैसा हुआ?
उत्तर- अहमद का पूरा नाम अहमद नियाल्तगीन था। वह गज़नी का सेनापति था। वह पंजाब का सेनानी भी था। वह रावी नदी के किनारे एक सुंदर महल में रहता है। उस महल के चारों ओर वृक्षों की दूर तक फैली हुई हरियाली है। वहाँ शिविरों में तुर्क सैनिक निवास करते हैं।
एक दिन सिर दर्द के कारण फिरोज़ा एक कमरे में सो रही थी। अहमद के शयनकक्ष की सेवा का भार इरावती पर था। इरावती काफी देर अहमद की प्रतीक्षा करते समय रावी नदी का प्रवाह देखते-देखते सोने लगी। अहमद आया। सुल्तान के रोष का समाचार उसे मिल चुका था। अहमद पंजाब का स्वतंत्र शासक बनना चाहता था। उसने सोई हुई इरावती को जगाया और थोड़ी शीरजा लाने को कहा। जब वह लेकर आई तो अहमद के मन में पशुता नाच उठी और उसने इरावती का हाथ पकड़ लिया। वह फिरोज़ा के हाथ बिकने की बात कह ही रहा था कि वह वहाँ आ गई। उसने कहा कि मैं बिकी हूँ। अभी तक तुमने राजतिलक को मेरा दाम नहीं चुकाया। फिरोज़ा नाराज़ हो इरावती को लेकर चली गई।
जंगल में जाटों का सरदार बलराज इरावती और फिरोज़ा के साथ बात कर रहा था कि अहमद ने अपने सैनिकों को इन दोनों स्त्रियों को पकड़ने की आज्ञा दी। बलराज का भाला हिल उठा और युद्ध आरम्भ हो गया। अहमद की वहीं मृत्यु हो गई। उस समय गज़नी की सेना तिलक के साथ वहाँ पहुँच चुकी थी। युद्ध रुक गया। बलराज जो मूर्छित हो गया था, पानी पीते ही जी गया। अहमद की वहाँ समाधि बनी।
प्रश्न. राजा साहब कौन थे? वे हिन्दुस्तान क्यों नहीं आना चाहते थे?
उत्तर- राजा साहब का पूरा नाम तिलक राजा था। वह सुल्तान महमूद का अत्यंत विश्वासपात्र हिन्दू कर्मचारी था। वह सुल्तान का सलाहकार था। उसने अपनी बुद्धि बल से कट्टर यवनों के बीच अपनी प्रतिष्ठा बना रखी थी। सुल्तान मसऊद के समय में भी वह उपेक्षा का पात्र नहीं बना। भले ही वह बाहर से कठोर हो पर अंदर से वह दयालु था। उसने बलराज के हाथ में धन की थैली रखकर उसे हिन्दुस्तान जाने की सलाह दी। फिर उसे भेजने में सहायता की।
फिरोज़ा एक दासी थी। उसकी स्वतंत्रता के लिए अहमद को हिन्दुस्तान से राजा साहब के पास एक हज़ार सोने सिक्के भेजने थे, लेकिन उसने नहीं भेजे। राजा साहब ने अपनी सहृदयता का प्रमाण तब दिया जब उसने बिना ध न लिए फिरोज़ा को हिन्दुस्तान जाने की आज्ञा दे दी।
राजा साहब हिन्दुस्तान नहीं आना चाहता था क्योंकि उसकी बड़ी-बड़ी आकांक्षाएँ थीं। आराम था, मस्ती थी, अपनी उन्नति में वह अपनी जन्मभूमि हिन्दुस्तान के दुख-दर्द को भूल गया था। वह वहाँ सलाहकार के रूप में सुल्तान महमूद के लूटों की गिनती करता था, उस खून से रंगे धन की सूची बनाता था, और हिन्दुस्तान के शोषण के लिए सुल्तान को नई-नई तरकीबें बताता था। उसे अब हिन्दुस्तान जाना अच्छा नहीं लगता था। उसे अपनी बहन इरावती का दुख था। उसे उसने कष्टों में छोड़ दिया था। अब वह उसे कैसे अपना मुँह दिखलाएगा इस बात का उसे बहुत दुख था। उसने फिरोज़ा से कहा था कि वह अहमद से कह कर उसकी बहन को ढूँढे। यह कह वह शुभ्र गुम्बद वाले अपने महल में चला गया।
प्रश्न. बलराज एक साहसी वीर था। फिरोज़ा ने उसकी जान कैसे बचाई? अन्त में उसका दुर्भाग्य सौभाग्य में कैसे बदला ?
उत्तर- बलराज एक साहसी वीर था। वह भले ही हिन्दू था किन्तु वह सुल्तान की सेना में था। सुल्तान ने सिलजूको से हारे तुर्क और हिन्दू दोनों को नौकरी से निकाल दिया। उसके साथी कटार से लिपटकर गज़नी नदी की गोद में चले गए। वह भी मरना चाहता था। वह उन वीर आत्माओं का शोचनीय अन्त तथा अपमान सहन नहीं कर पा रहा था। जब बलराज ने तेज़ छुरे से अपने आपको मारना चाहा तो सहृदय फिरोजा ने उसकी कलाई पकड़ ली। उसने उसे इस हरी-भरी दुनिया में सुखपूर्वक जीने का उपदेश दिया। निराश बलराज ने बताया कि उसने सोचा था कि अमीर बन कर वह अपनी प्रेमिका इरावती से जाकर विवाह करेगा। इस हालत में वह उसे कैसे मुँह दिखायेगा। वह उसकी रक्षा भी नहीं कर सका।
बलराज को जब ज्ञात हुआ कि इरावती एक क्रीत दासी बन गई है और उसका जीवन कष्टमय है तो वह बहुत दुखी हुआ। मंदिर में उसने प्रभु से प्रार्थना की थी और वहाँ उसे इरावती 'क्रीत दासी' के रूप में मिली थी। वह उसके साथ भाग भी नहीं सकती थी। उसने महाजन को बहुत कुछ लिखकर दे रखा था।
कहानी के अंत में हम देखते हैं कि उसका दुर्भाग्य सौभाग्य में बदल गया। भारत लौटने पर वह जाटों का सरदार बना। उसने अपनी जाति के लोगों में जान भर दी। उसने अहमद को इसलिए मारा क्योंकि वह फिरोज़ा और इरावती को पकड़ना चाहता था। वहाँ सुल्तान की सेना तिलक के साथ पहुँच गई थी। तिलक अपनी बहन को पाकर फूला नहीं समा रहा था। युद्ध में मूर्छित हुए बलराज को इरावती ने जल दिया और वह स्वस्थ हो गया। वह जाटों का सरदार बना और इरावती रानी बनी। साथ में राजा साहब को शक्ति प्राप्त हुई।
😊
जवाब देंहटाएंApko story ke bare me nahi pta 1000 pe firoja ko chorne ki baat thi
जवाब देंहटाएंHa toh 1000 ki hi baat kri gye h shi toh h sb.
हटाएंLike Shakespeare is in English, Jai Shankar Prasad is in Hindi... The rarest gem ♥️
जवाब देंहटाएं😕
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हटाएंKafi chota uddeshya hai
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