साखी कबीरदास Sakhi by Kabir Das साखी summary साखी के दोहे का अर्थ साखी कविता का सारांश साखी सबदी दोहरा साखी शब्द का अर्थ साखी कविता का अर्थ साखी class 10 कबीर साखी अर्थ सहित class 11 साखी summary साखी के दोहे का अर्थ साखी कविता का सारांश साखी सबदी दोहरा साखी class 10 साखी कविता का अर्थ साखी शब्द का अर्थ साखी का भावार्थ class 9
साखी कबीरदास
Sakhi by Kabir Das
पीछे लागा जाई था, लोक वेद के साथि।
आगैं थैं सतगुरु मिल्या, दीपक दीया साथि॥
व्याख्या - कबीरदास जी कहते हैं कि मैं जीवन में पहले सांसारिक माया मोह में व्यस्त था . लेकिन जब मुझसे इससे विरक्ति हुई ,तब मुझे सद्गुरु के दर्शन हुए .सद्गुरु के मार्गदर्शन से मुझे ज्ञान रूपी दीपक मिला इससे मुझसे परमात्मा की महत्ता का ज्ञान हुआ .यह सब गुरु की कृपा से ही संभव हुआ .
२.कबीर बादल प्रेम का, हम पर बरष्या आइ।
अंतरि भीगी आत्मां, हरी भई बनराइ॥
व्याख्या - कबीरदास जी प्रस्तुत दोहे में प्रेम के महत्व के बारे कहते हैं कि मेरे जीवन में प्रेम बादल के रूप में वर्षा की . इस बारिश से मुझे अपनी आत्मा का ज्ञान हुआ . जो आत्मा अभी मेरे अंत स्थल में सोयी हुई थी ,जाग गयी .अतःउसमें एक प्रकार की नवीनता आ गयी .मेरे जीवन हरा - भरा हो गया .
३.बासुरि सुख, नाँ रैणि सुख, ना सुख सुपिनै माहिं।
कबीर बिछुट्या राम सूं, ना सुख धूप न छाँह॥
व्याख्या - कबीरदास जी प्रस्तुत दोहे में कहते हैं कि मनुष्य सांसारिक भाव भाधाओं में उलझा रहता है .उसे सुख की तलाश हमेशा रहती है . वह दिन -रात सुख की तालाश करता रहता है .लेकिन फिर में उसे सच्चे सुख की प्राप्ति नहीं होती है , वह सपने में भी सुख - शान्ति की तलाश करता रहता है .वास्तव में मनुष्य की आत्मा ,राम रूपी परमात्मा से जब बिछुड़ती है ,तो तभी से उसे दुःख प्राप्त हो जाता है . उसके दुःख दूर करने का एकमात्र उपाय राम रूपी परम्तामा की प्राप्ति है .
४.मूवां पीछे जिनि मिलै, कहै कबीरा राम।
पाथर घाटा लौह सब, पारस कोणें काम॥
व्याख्या - कबीरदास जी प्रस्तुत दोहें में कहते हैं कि मृत्यु के बाद परम्तामा की प्राप्ति किसी काम की नहीं है .यदि हमें जीवित रहते ही भगवत प्राप्ति हो जाए तो जीवन सफल हो जाएगा .इसीलिए हमें चाहिए कि इसी जीवन में परमात्मा प्राप्ति का उपाय करें. जब तक लोहा पारस को नहीं प्राप्त करता ,तब टक वह लोहा ही रहता है .पारस से स्पर्श के बाद ही वह सोना बन पाटा है .
५.अंखड़ियाँ झाईं पड़ी, पंथ निहारि-निहारि।
जीभड़िया छाला पड्या, राम पुकारि-पुकारि॥
व्याख्या - कबीरदास जी प्रस्तुत दोहें में कहते हैं कि मनुष्य की आत्मा अपने प्रेमी परमात्मा को प्राप्त करने के लिए दिन रात बाट जोहते -जोहते उसकी आखें थक जाति है .मुँह से अपने प्रेमी रूपी परमात्मा का नाम लेते लेते उसके जीभ में छाले पड़ जाते हैं .इस प्रकार वह अपने परमात्मा रूपी प्रेमी राम को पुकारता रहता है .
६.जो रोऊँ तो बल घटै, हँसौं तो राम रिसाइ।
मनहि मांहि बिसूरणां, ज्यूँ घुंण काठहि खाइ॥
व्याख्या - कबीरदास जी प्रस्तुत दोहें में कहते हैं कि उनकी आत्मा की दशा ऐसी हो गयी है कि वे न हँस सकते हैं क्योंकि इससे प्रभु नाराज़ होंगे ,रोयेंगे तो बल घटेगा .इस प्रकार वे अपने परमात्मा रूपी प्रेमी को याद करके घुटते रहते हैं .जिस प्रकार लकड़ी के अन्दर का घुन उसे खा जाती है ,उसी प्रकार वे अपने परमात्मा रूपी प्रेमी को याद करके घुटते रहते हैं .
७.परवति-परवति मैं फिर्या, नैन गँवाये रोइ।
सो बूटी पाँऊ नहीं, जातैं जीवनि होइ॥
व्याख्या - कबीरदास जी प्रस्तुत दोहें में कहते हैं कि मैं पर्वत - पर्वत घूमता रहा ,मैं रोते - रोते अपनी दृष्टि गँवा बैठा ,लेकिन परमात्मा रूपी संजीवनी बूटी मुझे कहीं नहीं मिली .इस प्रकार जीवन अकारथ ही गया .
८.आया था संसार मैं, देषण कौं बहु रूप।
कहै कबीरा संत हौ, पड़ि गयां नजरि अनूप॥
व्याख्या - कबीरदास जी प्रस्तुत दोहें में कहते हैं कि मैं इस संसार की मायावी जीवन में रमा ही था .संसार की विविधता को देख रहा था ,लेकिन परमात्मा की कृपा से मेरा जीवन ही बदल गया .अब मैं आत्मा में ही रम गया .अब मुझे जीवन के बाहरी सौन्दर्य में कोई दिलचस्पी नहीं बची .
९.जब मैं था तब हरि नहिं, अब हरि हैं मैं नाहिं।
सब अँधियारा मिटि गया, जब दीपक देख्या माहिं॥
व्याख्या - कबीरदास जी प्रस्तुत दोहें में कहते हैं कि जब टक मेरे मन के द्वेष , ईर्ष्या ,क्रोध ,मोह आदि की भावनाएँ थी ,तब तक परमात्मा मुझसे दूर थे ,लेकिन जब जीवन से अन्धकार मिटा तो मुझे प्रभु दिखाई पड़े और मेरे जीवन का अहंकार मिट गया .
१०.तन कौं जोगी सब करैं, मन कौं विरला कोइ।
सब विधि सहजै पाइए, जे मन जोगी होइ॥
व्याख्या - कबीरदास जी प्रस्तुत दोहें में कहते हैं कि लोग बाहरी दिखावें के लिए साधू का वेश धारण करते हैं ,लेकिन मन से साधू नहीं होते हैं .अतः हमें वेश भूषा से साधू नहीं बल्कि मन से साधू होना चाहिए .मन से साधू होने पर ही परमात्मा की प्राप्ति होती है .
समाज सुधारक कबीर samaj sudharak kabir das in hindi
कबीर के सम्बन्ध जाता है कि वह स्वभाव से संत ,परिस्थितियों से समाज सुधारक और विवशता से कवी थे। निश्चय ही तत्कालीन परिशतियाँ ने इस महँ संत को समाज सुधारक का बीड़ा उठाने के लिए बाध्य किया।भारत में मुस्लिन राज्य स्थापित हो जाने के बाद हिन्दू समाज के अत्याचार होने लगे।इन अत्याचारों से पीड़ित होने के कारण हिन्दू तथा मुसलामानों के ह्रदय में घिरना तथा कटुता की दरार बढ़ती गयी जिसने कालांतर समाज को बुरी तरह झकझोर दिया।समाज की इस दयनीय दशा को देखकर कबीर का ह्रदय व्याकुल हो उठा और फक्कड़ तथा मस्तमौला के नाते वह समाज सुधार के मैदान में एकदम कूद पड़े. उन्होंने कविता को अपना अस्त्र बनाकर कुरीतियों तथा अंध विश्वासों पर करारा प्रहार किया और दोनों धर्मों के ढोंगों का पर्दाफाश किया। एक ओर उन्होंने हिन्दुओं की मूर्तिपूजा तथा बहुदेववाद की निंदा की -
"पाहन पूजे हरि मिले, तो मैं पूजूँ पहार। ताते यह चाकी भली ,पीस खाय संसार।
तो दूसरी ओर उन्होंने मुसलामानों को बाँग देने के फटकारा -
"काँकर पाथर जोरि के, मसजिद लई चुनाय । ता चढ़ि मुल्ला बाँग दे, बहिरा हुआ खुदाय ।।"
कबीर की यह फटकार का समाज पर व्यापक प्रभाव पड़ा. इस प्रकार हिंदी और मुसलामानों की कटुता को दूर कर उन्हें एक दूसरे के निकट लाने का उन्होंने सफल प्रयास किया।कबीर ने बुराइयों का सदैव विरोध किया चाहे वह किसी भी वर्ग ,जाती अथवा समुदाय की क्यों न हों।बाहरी आडम्बरों की उन्होंने कसकर खिंचाई की और मन तथा विचारों की शुद्धि पर बल दिया। वह तीरथवत करने तथा नामाज ,रोजा रखने आदि के।उनका कहना था कि हिन्दू और मुसलमान में कोई भेद नहीं हैं इसीलिए राम तथा रहीम के नाम पर आपस में लड़ना मूर्खता है -
"हिन्दू कहें मोहि राम पियारा, तुर्क कहें रहमाना,आपस में दोउ लड़ी-लड़ी मुए, मरम न कोउ जाना।"
कबीर हिंसा के कट्टर विरोधी थे और अहिंसा को परम धर्म मानते थे। वह समाज को सुधारने से पहले व्यक्ति को सुधारना चाहते हैं। इसीलिए कथनी और करनी की एकता पर उन्होंने बल दिया।उनका आविर्भाव समाज में एक महान उपदेशक के रूप में हुआ ,कवि बनने की चाह उनमें बिलकुल न थी।यह बात दूसरी है कि उन्होंने उपदेश ही उत्तम काव्य बन गए। इस प्रकार कला पक्ष की दृष्टि से कबीर के काव्य का भले ही उतना महत्व न हो ,किन्तु भावपक्ष दृष्टि से उनकी वाणी में सम्पूर्ण मानव जाती के लिए प्रेम तथा एकता का सन्देश है और इसी से इतने दिनों के बाद भी आज उनका काव्य समाज की अमूल्य निधि है।
कबीर की भक्ति भावना
कबीरदास जी यह बतलाया है कि ईश्वर की सत्ता अनंत है।वह सर्वशक्तमान व सर्वव्यापक हैं।अतः जो सर्वदेशिक सार्वकालिक है उसके गुणों का वर्णन करना मनुष्य की शक्ति के परे हैं। ईश्वर तो सर्वत्र व्यापक हैं ,ऐसी निष्ठा संत कबीरदास की है।कबीरदास ईश्वर के निराकार रूप को स्वीकार करते हैं।उनके अनुसार ईश्वर का कोई एक निश्चित रूप व अकार नहींहै।अतः यह केवल मंदिरों, मस्जिदों ,तीर्थस्थानों ,गिरजाघरों में ही व्याप्त न होकर सवत्र व्याप्त है। परन्तु अज्ञान के मोहपाश में फँसे होने के कारण हम उसे देख नहीं पाते हैं।सांसारिक कृपया कलापों व माया में हम इतने निमग्न हो जाते हैं कि ईश्वर के विषय में सोचते ही नहीं है।ईष्वर के नाम पर हम मंदिरों ,तीर्थस्थानों को छानकर अपने समय व धन को नष्ट करते हैं।कबीर कवि होने के साथ -साथ धर्मोपदेशक भी थे। अतः उन्होंने मनुष्यों को आगाह करते हुए ईश्वर प्राप्त का स्थान बता दिया है।कबीर के अनुसार जिस प्रकार मृग कस्तूरी को अपने भीतर ईश्वर को रखते हुए उसकी सुगंध पाने के लिए जंगलों की ख़ाक छानता फिरता है उसी प्रकार मनुष्य अपने ही भीतर ईश्वर को रखते हुए मंदिरों ,मस्जिदों में ईश्वर को पाने के लिए चक्कर लगाता रहता है। अगर मनुष्य अपने भीतर के अज्ञान को नष्ट करके ज्ञान का दीपक जला ले तो वह ईश्वर का दर्शन कर सकता है।
कबीर के अनुसार ईश्वर तक पहुँचने का मार्ग अत्यंत कठिन है। यह कोई मामा का घर नहीं है कि इच्छानुसार प्रवेश कर सकते हैं। हम ईश्वर तक केवल प्रेमरूपी पथ पर चलकर ही पहुँच सकते हैं। इस पथ पर चलने हेतु हमें अपना सर्वशी समर्पण कर देना पड़ता है।
अंत में कबीरदास ने समाज में ब्रहादाम्बरों को फैलाने वाले साधू महात्माओं की खबर ली है। कबीर के अनुसार हम माला फेरकर ईश्वर को नहीं प्राप्त कर सकते हैं ,बल्कि मन को शुद्ध कर तथा भगवान् नाम का स्मरण कर अपने को ईष्वर तक पहुँचा सकते हैं।अतः मन की वृत्तियों का परिमार्जन करना ही वास्तविक भक्ति है। हम अपने अंदर के अहं व मद को समाप्त कर ईश्वर कृपापात्र बन सकते हैं क्योंकि बिना अहंकार नष्ट किये हुए भक्त का मिलान ईश्वर से नहीं हो सकता। अतः ईश्वर का भक्त बनने के लिए हमें अपने मन के अंदर से कपट के भाव और अहंकार की भावना को निष्काषित करना होगा ,तभी ईश्वर के मधुर मिलान की कल्पना की जा सकती हैं।
अतः भक्ति की अंतिम विशेषता बताते हुए कवि कहता है कि ईश्वर के प्रति प्रेम होने से ही हमें इस संसार से विरक्ति हो सकती है।व्यक्ति इस संसार में आकर मायारुपी जाल में फँसकर अपने आपको भूल जाता हैं।जब ईश्वर से प्रेम करने लगता है तो संसार से विरक्ति हो जाती है और वह वैरागी बन जाता है।इस प्रकार भगवान् के दर्शन पाकर वह संतुष्ट हो जाता है और उसे सवत्र ईश्वर ही दृष्टिगोचर होते हैं।
Saakhi Class 11 ISC Questions and Answers
प्रश्न. "कबीर के दोहों में गुरु का महत्व, जीवात्मा तथा परमात्मा का संबंध व अन्य व्यावहारिक विषयों का वर्णन मिलता है।" उदाहरण सहित स्पष्ट कीजिए।
उत्तर- कबीरदास जी हिन्दी साहित्य की संत काव्यधारा की निर्गुण शाखा के प्रमुख कवि थे। कबीरदास जी पढ़े-लिखे नहीं थे। लेकिन उनके पद और उनकी साखियाँ आज भी समाज का मार्गदर्शन करती हैं। कबीर ने गुरु के महत्व, जीवात्मा और परमात्मा के संबंध के साथ ही तत्कालीन समाज में व्याप्त बुराइयों के विरोध को अपने काव्य का विषय बनाया।
कबीर ने मानव-जीवन में गुरु को महत्वपूर्ण स्थान दिया है। उनका कहना है कि सच्चाई का ज्ञान कराने वाले सद्गुरु का, ज्ञान की खोज में महत्वपूर्ण योगदान होता है। वह गुरु ही है, जो ज्ञान की खोज में भटकते हुए मानव को ज्ञान के प्रकाशरूपी दीपक देता है। वही दीपक मानव के ज्ञान को प्रकाशित करता है और उसके भ्रम को दूर करता है।
"पीछे लागा जाई था लोक वेद के साथि।
आगें थैं सतगुरु मिल्या, दीपक दीया हाथि।।"
कबीर का यही मानना है कि जीवात्मा, परमात्मा का अंश है। यह जीवात्मा जब परमात्मा से अलग हो जाती है तो वह उसे खोजने का प्रयास करती रहती है। वह परमात्मा के विरह में व्याकुल रहती है। जीवात्मा के नेत्र परमात्मा के आने का मार्ग देखते रहते हैं। कबीर ने अपने काव्य में जीवात्मा और परमात्मा के बीच ऐसे संबंध की परिकल्पना की है जिसमें परमात्मा के बिना जीवात्मा अधूरी है। जीवात्मा की विकलता को व्यक्त करते हुए कबीरदास जी कहते हैं, कि-
"बासुरि सुख, नाँ रैणि सुख, ना सुख सुपिनै माहिं।
कबीर बिछुट्या राम सूँ, ना सुख धूप न छाँह ।।"
जीवात्मा को परमात्मा से अलग होने के बाद कहीं भी सुख की अनुभूति नहीं होती। स्वप्न में जहाँ कुछ भी सम्भव है, वहाँ भी जीवात्मा को सुख नहीं मिल पाता। जीवात्मा का सुख परमात्मा में ही निहित है।
कबीर ने अपने साहित्य में हमेशा बाह्याडंबर का विरोध किया है। कबीर के अनुसार योगी का रूप धारण करना आसान है। योगी के वस्त्र और वेश-भूषा धारण कर योगी बनने का दिखावा तो कर सकते हैं और यह दिखावा कोई भी कर सकता है। वहीं जब मन को योगी बनाने की बात आती है तो जो बिरले होते हैं वही मन को योगी बना सकते हैं। योगी शब्द योग से बना है जिसका अभिप्राय होता है जोड़। कबीर के काव्य के प्रसंग में यह जोड़ यह योग आत्मा का परमात्मा के बीच का है। वह मनुष्य विरला ही होता है जो आत्मा और परमात्मा के बीच में योग कराने का प्रयास करता है। जो ऐसा प्रयास करने लगता है उस मनुष्य के लिए सारी पद्धतियाँ आसान हो जाती हैं-
"तन क जोगी सब करें, मन कौं विरला कोइ ।
सब विधि सहजै पाइए, जे मन जोगी होई।।"
कबीर ने अपने काव्यों द्वारा व्यावहारिक विषयों का ज्ञान भी दिया है। कबीरदास जी अपने दोहों में यह कहते हैं कि मनुष्य का अहं ही सभी बुराइयों का मूल है। हम अहं में इतने व्यस्त हो जाते हैं कि हमें दूसरी चीजें दिखाई ही नहीं देती। यह अहं अथवा स्वत्व ही अज्ञानता का मूल है। कबीर के अनुसार जब मनुष्य में परमात्मा के प्रति प्रेम जाग्रत होता है, तो यह अहं स्वयं ही समाप्त हो जाता है।
"जब मैं था तब हरि नहिं, अब हरि हैं मैं नाहिं ।
सब अँधियारा मिटि गया, जब दीपक देख्या माहिं।।"
इस प्रकार कबीर ने अपनी रचनाओं में सांसारिकता का खुलकर विरोध किया है। उन्होंने ईश्वर की सर्वव्यापकता तथा जीवन की सच्चाई, सद्वाणी का प्रभाव, जीवात्मा और परमात्मा के संबंध संबंधी गूढ़ विषयों को बहुत ही सरल एवं प्रभावोत्पादक ढंग से समझाया है। इस तरह से यह कहा जा सकता है कि कबीर मानवता के सच्चे पथ-प्रदर्शक थे।
प्रश्न. कबीरदास की साखी के आधार पर सिद्ध कीजिए कि कबीर की वाणी सीधे हृदय पर चोट करती है तथा उसमें सच्चे समाज-सुधारक की निर्भीकता स्पष्ट दिखाई देती है।
उत्तर- कबीरदास जी स्वभाव से ही दार्शनिक एवं सच्चे संत थे। कबीरदास जी का जन्म ऐसे समय में हुआ जब हमारा देश अनेक समस्याओं और बुराइयों से जकड़ा हुआ था। देश में चारों ओर अस्थिरता व्याप्त थी। धर्म के नाम पर, जाति-पाँति, ऊँच-नीच, मूर्तिपूजा, अंधविश्वास, पाखंड और आडंबर ही चारों ओर फैला था। ऐसे में समाज को ऐसे पथ-प्रदर्शक अथवा दिशा-निर्देशक की आवश्यकता थी जो धर्म और नैतिकता का सही मार्ग दिखा सके।
कबीर की वाणी आकर्षण से भरी है, उसमें एक ओज है, जिसके कारण वह बिना किसी लाग-लपेट अथवा आडंबर के अपनी बात सीधे हृदय तक पहुँचाने में समर्थ होते हैं।
कबीर ने अपनी ज्ञान प्राप्ति की प्रक्रिया का वर्णन करते हुए कहा है कि प्रारम्भिक अवस्था में मैं लोक-प्रचलित अनुभवों के आधार पर ज्ञान प्राप्त करने का प्रयास करता रहा फिर वेदों में बताए गए ज्ञान का अनुसरण करने लगा लेकिन संतोष नहीं मिला। लेकिन इसी खोज की प्रक्रिया में जैसे ही मुझे सतगुरु मिल जाते हैं वे हमें सच्चाई का ज्ञान कराते हैं। उनके द्वारा दिए गए ज्ञान के दीपक के प्रकाश में सब कुछ स्पष्ट दिखाई देने लगता है।
"पीछे लागा जाई था लोक वेद के साथि।
आगँ थैं सतगुरु मिल्या, दीपक दीया हाथि।।"
इस प्रकार कबीर के अनुसार हमें लोगों की बातों को सीधे-सीधे स्वीकार नहीं करना चाहिए अपितु जो ज्ञान का दीपक हमारे पास हो उसके प्रकाश में तमाम अंधविश्वास और रूढ़ियों को जाँच कर ही उसकी उपयोगिता का निर्धारण किया जा सकता है।
कबीरदास जी यह कहते हैं कि मनुष्य के लिए सच्चा सुख प्रेम में है। जब प्रेम के बादलों से प्रेम की बारिश होती है तो रोम-रोम पुलकित हो जाता है। यह प्रेम ही ईश्वर है। इसलिए परमात्मा को छोड़ अन्यत्र सुख की आशा करना व्यर्थ है।
“बासुरि सुख, नाँ रैणि सुख, ना सुख सुपिनै माहिं ।
कबीर बिछुट्या राम सूँ, ना सुख धूप न छाँह।।"
कबीरदास जी कहते हैं कि सांसारिकता के फेर में नहीं पड़ना चाहिए। मनुष्य का सांसारिकता के फेर में पड़कर परमात्मा को भूल जाना और भूलकर फिर उसी परमात्मा को प्राप्त करने के लिए मनुष्य का चिंता करना मनुष्य को खोखला बना देता है। यह चिंता मनुष्य को ठीक उसी तरह खोखला बना देती है जैसे घुन काठ को खोखला बना देता है।
"जो रोऊँ तो बल घटै, हँसौं तो राम रिसाई ।
मन माहिं बिसूरणा, ज्यूँ घुण काठहिं खाइ।।"
कबीर अपने दोहों के माध्यम से बाह्यांडबर का विरोध करते हैं। कबीर के अनुसार दिखावा करना तो बहुत आसान है कोई भी दिखावा कर सकता है। इसीलिए हमें दिखावे के फेर में नहीं पड़ना चाहिए। जो लोग वास्तविक रूप में संत होते हैं उन्हें दिखावे की आवश्यकता नहीं पड़ती। उन संत लोगों के लिए सब कुछ सहज हो जाता है-
तन को जोगी सब करैं, मन को बिरला कोइ ।
सब विधि सहजै पाइए, जे मन जोगी होइ।।
निष्कर्षतः यह कहा जा सकता है कि कबीरदास जी एक सच्चे संत एवं महान दार्शनिक थे। उनके स्वभाव की निर्भीकता एवं अक्खड़पन उनकी वाणी में स्पष्ट रूप से झलकता है। यही वजह है कि उनकी वाणी, उनके उपदेश हमारे मन पर गहरी एवं सीधी चोट करते हैं। उनका प्रभाव सर्वव्यापक है और समाज को एक नई दिशा दिखाता है।
प्रश्न. कबीरदास जी ने परमात्मा और जीवात्मा के बीच में किस प्रकार के संबंध की बात कही है? कवि ने जीवात्मा का परमात्मा के प्रति प्रेमभाव किस प्रकार व्यक्त किया है? स्पष्ट कीजिए।
उत्तर- कबीरदास जी जीवात्मा को परमात्मा का अंश मानते हैं। जब जीवात्मा संसार में आती है, तो वह आने के बाद भी परमात्मा से मिलने के लिए तरसती रहती है। उसके नेत्र हमेशा परमात्मा से मिलने वाले मार्ग पर ही लगे रहते हैं जीवात्मा इस प्रतीक्षा में लगी रहती है कि कब परमात्मा से मुलाकात होगी। परमात्मा से इतना दूर होने के बावजूद वह हमेशा परमात्मा के नाम का स्मरण करती रहती है। जीवात्मा की आँखों में झाईं पड़ जाती है। आँखें पथरा जाती हैं। लेकिन नेत्र परमात्मा की ओर से लगे रहते हैं।
"अंखडियाँ झाईं पड़ी, पंथ निहारि, निहारि ।
जीभड़ियाँ छाला पड्या, राम पुकारि-पुकारि ।। "
कबीर आत्मा और परमात्मा के बीच अद्वैत संबंध स्थापित करते हैं। जीवात्मा सांसारिक मोह-माया एवं विकारों से विरक्त होकर एकमात्र परमात्मा रूपी प्रिय में आसक्त होती है। जीवात्मा और परमात्मा के बीच प्रेम का संबंध है। जीवात्मा को सांसारिकता में कहीं भी किसी रूप में सुख की प्राप्ति नहीं होती। इस जीवात्मा को न दिन में सुख मिलता है और न रात में ही उसे किसी प्रकार के सुख की अनुभूति होती है। कबीर की यह जीवात्मा अपने राम से बिछड़कर दुखी ही रह जाती है। दुख की प्रबलता ऐसी होती है कि स्वप्न में भी सुख का आभास नहीं होता है। इस प्रकार संसार में आने के बाद परमात्मा को छोड़कर जीवात्मा को किसी भी हाल में सुख नहीं मिलता।
“बासुरि सुख, नाँ रैणि सुख, ना सुख सुपिनै माहिं ।
एककबीर बिछुट्या राम सूँ, ना सुख धूप न छाँह ।। "
कबीरदास जी अपने राम से यह कहते हैं कि जीवात्मा से अगर मिलना ही है तो अभी आकर मिलें क्योंकि मरने के बाद आपके आने से किसी प्रकार की सहायता नहीं होगी जब तक जीवात्मा इन सांसारिक बंधनों में पड़कर नष्टं हो जाएगी। इस प्रकार से नष्ट जीवात्मा को परमात्मा से मिलने का कोई लाभ नहीं होगा। यह ठीक वैसा ही है जैसे किसी पारस पत्थर का ऐसे लोहे से स्पर्श कराया जाए जो पूरी तरह से नष्ट होकर पत्थर बन गया हो। ऐसी परिस्थिति में पारस पत्थर का लोहे को सोने का बना देने वाले गुण का कोई लाभ नहीं होता अर्थात् ऐसा विनष्ट लोहा सोना नहीं बन सकता।
इस प्रकार निष्कर्षतः यह कहा जा सकता है कि कबीर ने आत्मा और परमात्मा के बीच ऐसे संबंध की परिकल्पना की है जिसमें परमात्मा जीवात्मा का पूरक है। जीवात्मा परमात्मा के बिना अधूरी है।
प्रश्न. 'साखी' से क्या अभिप्राय है और कबीर के दोहों को साखी कहने का क्या औचित्य है? पठित साखियों की रचना में कबीर का क्या उद्देश्य है?
उत्तर- 'साखी' शब्द संस्कृत शब्द 'साक्षी' का अपभ्रंश रूप है। साखी का अभिप्राय जीवन के उस प्रत्यक्ष अनुभव से है, जिसका साक्षात्कार करके कवियों ने जनता के समक्ष उसे उपदेश रूप में व्यक्त किया तथा अपनी ज्ञान, भक्ति और वैराग्य-विषयक सच्ची धारणा प्रकट की। साखी का प्रयोग संतों के दोहों के लिए होता है। उन दोहों में उन्होंने अपने व्यावहारिक अनुभवों को व्यक्त किया है। उन अनुभवों की सत्यता के लिए वे स्वयं साक्षी थे। कबीर ने साखी के विषय में यह कहा है-
"साखी आँखी ज्ञान की, समुझि देखु मन माँहि ।
बिन साखी संसार कौ, झगरा झूटत नाँहि ।।
कबीर ने अपने प्रत्यक्ष अनुभवों के आधार पर इन साखियों की रचना की है। कबीर ने सर्वप्रथम वास्तविकता को देखा-परखा, उसका अनुभव किया फिर उसे अपने काव्य में स्थान दिया। इसलिए कबीर ने उन दोहों को साखी कहा। साखी शीर्षकों के अंतर्गत पठित दोहों में कबीर ने अनेक विषयों को स्थान दिया है जैसे-गुरु का महत्व, बाह्याडंबर का विरोध और भक्ति में प्रेम का विरह आदि।
कबीर के अनुसार गुरु ईश्वर से भी श्रेष्ठ होता है क्योंकि गुरु ही ईश्वर से साक्षात्कार में सहायता प्रदान करता है। वह सतगुरु ही होता है जो ज्ञान का सच्चा दीपक अपने शिष्य के हाथ में देता है। उस ज्ञान के प्रकाश में शिष्य के मन का सारा अंधकार विनष्ट हो जाता है। इसलिए ईश्वर की प्राप्ति में गुरु की भूमिका सबसे महत्वपूर्ण होती है।
"पीछे लागा जाई था लोक वेद के साथि ।
आगैं थैं सतगुरु मिल्या, दीपक दीया हाथि।।"
कबीर की भक्ति में प्रेम की मधुरता है। प्रेम के इस मधुर भाव में विरह की अभिव्यक्ति हुई है। जीवात्मा जब अपने प्रिय परमात्मा को छोड़कर इस संसार में आती है तो वह अपने प्रेमी के वियोग में बहुत दुखी हो जाती है। उसकी आँखों में प्रियतम का रास्ता देखते-देखते झाईं पड़ जाती है। उसकी जिह्वा पर अपने प्रेमी का नाम पुकारते-पुकारते छाले पड़ गए हैं।
"अंखडियाँ झाईं पड़ी, पंथ निहारि, निहारि ।
जीभड़ियाँ छाला पड्या, राम पुकारि-पुकारि।।"
कबीर ने अपने काव्य में बाह्याडंबरों का खुलकर विरोध किया है। वे दिखावे को तनिक भी महत्व नहीं देते हैं। समाज में व्याप्त इस दिखावे से सजग करने के उद्देश्य से कबीर ने कहा है-
"तन कौं जोगी सब करैं, मन कौं विरला कोइ ।
सब विधि सहजै पाइए, जे मन जोगी होई।।"
इस प्रकार साखी में कबीर का मुख्य उद्देश्य समाज की बुराइयों को उजागर करना था तो वहीं दूसरी ओर गुरु के महत्व और परमात्मा के संबंध को व्यक्त करना है।
प्रश्न. पठित अंशों के आधार पर कबीरदास जी की काव्यकला का वर्णन कीजिए।
उत्तर- कबीरदास जी सहज चिंतक, भावुक और संत होने के साथ ही साथ कवि भी हैं। कबीर के काव्य में तत्कालीन समाज का प्रतिबिम्ब झलकता है। यद्यपि कबीर ने अपने काव्यों की रचना काव्य के तत्वों को ध्यान में रखकर नहीं की फिर भी यदि कबीर के काव्य को देखा जाए तो उसमें काव्य की अनेक विशेषताएँ परिलक्षित होती हैं।
कबीरदास जी के भावपक्ष को यदि देखा जाए तो यह पता चलता है कि कबीर ने गुरु को सर्वोच्च स्थान देते हुए उन्हें परमात्मा तक पहुँचाने वाला पथप्रदर्शक बताया है।
"पीछे लागा जाई था लोक वेद के साथि।
आगैं थैं सतगुरु मिल्या, दीपक दीया हाथि।।"
इस प्रकार कबीर ने अपने काव्यों में जहाँ गुरु को प्रमुख मानते हैं वहीं दूसरी ओर परमात्मा को जीवात्मा का प्रियतम माना गया है। यह जीवात्मा, परमात्मा के विरह में व्याकुल रहती है। कबीर ने जीवात्मा के विरह का बड़ा ही मार्मिक वर्णन किया है-
"बासुरि सुख, नोँ रैणि सुख, ना सुख सुपिनै माहिं ।
कबीर बिछुट्या राम सूँ, ना सुख धूप न छाँह । । "
कबीर ने अपनी साखियों में बाह्याडंबर का भी खुलकर विरोध किया है। कबीर यह कहते हैं कि दिखावा करना बहुत ही आसान है। इसलिए हमें दिखावा करने वालों से और दिखावा करने दोनों से ही बचने का प्रयास करना चाहिए।
तन को जोगी सब करैं, मन को बिरला कोइ ।
सब विधि सहजै पाइए, जे मन जोगी होइ। ।
इस प्रकार कबीर ने पढ़े लिखे न होने पर भी अपने काव्य के माध्यम से अपने भावों को बड़ी सफलता से व्यक्त किया है। कबीर के काव्य के कलापक्ष पर नजर डालें तो कबीर की भाषा उनके कलापक्ष का महत्वपूर्ण तत्व है।
कबीर ने अपने भावों को व्यक्त करने के लिए भाषा को सशक्त माध्यम बनाया है। भाषा मानो कबीर की दासी थी, कबीर ने जो भी चाहा अपनी भाषा से कहलवा दिया। कबीर की भाषा में अरबी-फारसी, अवधी, ब्रज, पंजाबी आदि के शब्दों का मिश्रण है। इसी कारण उनकी भाषा को 'सधुक्कड़ी' या 'पंचमेल खिचड़ी' कहा जाता है। कबीर के काव्य में तत्सम, तद्भव, देशज, विदेशी व अन्य बोलियों का भी बड़ी कुशलता से प्रयोग किया गया है। कबीर की भाषा की बानगी निम्नवत् है-
"परवति-परवति मैं फिर्या, नैन गँवाये रोइ।
सो बूटि पाऊँ नहीं, जातै जीवनि होई ।। "
यहाँ 'परवति-परवति' में पुनरुक्ति प्रकाश अलंकार है। परवति, नैन आदि तद्भव शब्दों का प्रयोग किया गया है। कबीर ने अपनी साखियों में प्रतीकों का बड़ी सफलता से प्रयोग किया है। जैसे-'दीपक दीया हाथि' में दीपक ज्ञान के प्रतीक रूप में प्रयुक्त किया गया है। इन साखियों में यत्र-तत्र अनुप्रास अलंकार का प्रयोग मिलता है। छंद योजना की दृष्टि से यदि देखा जाए तो कबीर ने अपनी साखियों में दोहा छंद का प्रयोग किया है। इस प्रकार कबीर के काव्य में भावपक्ष जितना सुन्दर है उसी परिमाण में कलापक्ष का भी सुन्दर संयोजन किया गया है।
MCQ Questions with Answers Sakhi Kabirdas
बहुविकल्पीय प्रश्न उत्तर
१. कबीरदास के गुरु का नाम बताएं .
a. रामानंद
b. हरिहरदास
c. समर्थरामदास
d. सूरदास
उ. a. रामानंद
२. कबीरदास किसके उपासक थे ?
a. साकार ईश्वर के .
b. कृष्ण के
c. निर्गुण ब्रह्म के
d. श्रीराम के
उ. c. निर्गुण ब्रह्म के
३. कबीरदास की मृत्यु कब हुई थी ?
a. ११८०
b. १४९५
c. १८५४
d. ११८७
उ. b. १४९५
४. कबीरदास का पालन पोषण किसने किया था ?
a. नीरू और नीमा ने
b. कमाल और कमाली ने
c. रामबोला ने
d. रामानंद ने
उ. a. नीरू और नीमा ने
५. कबीरदास किस शाखा के कवि थे ?
a. भक्तिकाल
b. आधुनिक काल
c. निर्गुण भक्ति शाखा
d. वीरगाथा काल
उ. c. निर्गुण भक्ति शाखा
६. कबीरदास ने किसे महान माना है ?
a. परिवार को
b. पुत्र को
c. गुरु को
d. ईश्वर को
उ. c. गुरु को
७. कबीरदास ने दीपक का क्या अर्थ बताया है ?
a. उजाला फैलाना
b. ज्ञान का प्रकाश
c. अन्धविश्वास
d. श्रेष्ठज्ञान
उ. b. ज्ञान का प्रकाश
8. कबीरदास किस भाषा में उपदेश देते थे
a. खड़ी बोली
b. लोकप्रचलित भाषा
c. अवधी भाषा
d. ब्रजभाषा
उ. b. ब्रजभाषा
९. "मन को जोगी " से कवि का क्या अभिप्राय है ?
a. मन को संसार में लगाना .
b. मन को परिवार से लगाना
c. मन पर नियंत्रण होना
d. मन को भटकने देना
उ. c. मन पर नियंत्रण देना
१०. कबीरदास जी किस राम की पूजा करते हैं ?
a. दशरथ के पुत्र श्रीराम की पूजा करते हैं .
b. निराकार राम की
c. अयोध्या के राम की
d. कौशल्या के पुत्र राम की
उ. b. निराकार राम की .
11. कबीरदास जी किन बुराइयों से दूर रहने को कहा है ?
a. चोरों की संगत से
b. मांस मदिरा से
c. पाखंडी लोगों से
d. सामाजिक एवं धार्मिक बुराइयों से .
उ. d. सामाजिक एवं धार्मिक बुराइयों से .
१२. सतगुरु से कवि का क्या तात्पर्य है ?
a. श्रेष्ठ या सच्चा गुरु
b. रामानंद गुरु को
c. आध्यात्मिक गुरु
d. शिक्षा प्रदान करने वाला गुरु
उ. a. श्रेष्ठ या सच्चा गुरु .
१३. "परवति-परवति मैं फिर्या " के द्वारा कवि क्या कहना चाहते हैं ?
a. हमें भ्रमण करना चाहिए .
b. प्रकृति का आनंद लेना चाहिए .
c. इस वाक्य के द्वारा कवि घूमने को व्यर्थ बताते हैं .
d. यह भी एक आडम्बर है .
उ. c. इस वाक्य द्वारा कवि घूमने को व्यर्थ बताते हैं .
१४. कबीरदास जी रातदिन किसे पुकारते हैं ?
a. अपने प्रियतम राम को .
b. अपने गुरु को
c. संसार के लोगों को
d. अपने पुत्र को .
उ. a. अपने प्रियतम राम को .
१५. कबीरदास की मृत्यु कहाँ हुई थी ?
a. काशी
b. लमही
c. मगहर
d. बनारस
उ. c. मगहर
१६. कबीरदास जी की पत्नी का नाम लिखो .
a. तारा
b. लोई
c. बिष्णु देवी
d. कमाली
उ. b. लोई .
१७. कबीरदास जी की रचनाओं का संग्रह क्या कहलाता है ?
a. साखी
b. सबद
c. रमैनी
d. बीजक
उ. d. बीजक
१८. "पीछे लागा जाई था, लोक वेद के साथि।" इसके बाद वाली सही पंक्ति चुनिए .
a. सो बूटी पाँऊ नहीं, जातैं जीवनि होइ.
b. सब अँधियारा मिटि गया, जब दीपक देख्या माहिं॥
c. सब विधि सहजै पाइए, जे मन जोगी होइ .
d. आगैं थैं सतगुरु मिल्या, दीपक दीया साथि॥
उ. d. आगैं थैं सतगुरु मिल्या, दीपक दीया साथि॥
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साखी के दोहे का अर्थ
साखी कविता का सारांश
साखी सबदी दोहरा
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कबीर साखी अर्थ सहित class 11
साखी summary
साखी के दोहे का अर्थ
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साखी का भावार्थ class 9
Bhut sundar
जवाब देंहटाएंAmazing
जवाब देंहटाएं1 number 👌
जवाब देंहटाएंBhut ache se samjhaya👌
जवाब देंहटाएंFantastic
जवाब देंहटाएंVery helpful
जवाब देंहटाएंThankyou very much👍👍😃😃
Very nice
जवाब देंहटाएंVery nice
जवाब देंहटाएंSakhi ke Hindi anuvad
जवाब देंहटाएंChapter 1ka doha nahi hai
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