आधुनिकता की दौड़ में चारित्रिक पतन होता जा रहा है। और दिलों की दूरियां बढ़ती जा रही हैं। आधुनिकता की दौड़ में लोगों को लगता है। कि WhatsApp पर मैसेज भेज कर हम अपना फर्ज पूरा कर रहे हैं। कुछ बचा हुआ वक़्त फ़ेसबुक पर एवम ईमेल पर बिताते हैं। अब इस्टाग्राम भी आ गया है। उस पर अपना वक़्त बिताते हैं। शायद वह भूल रहे हैं।
मौलिकता और समाज में बदलाव
खो गई मौलिकता खो गए संस्कार। इस तरह के भाव सबके मन में आने लगे हैं। चारों तरफ अब इसी तरह की
चर्चाएं आम हो रही हैं। क्या यह सब दूसरों पर ही निर्भर करता है। क्या यहां अपना कोई रोल नहीं है। अगर है ,तो इसमें सुधार करने की आवश्यकता है। हमारा स्वाभाव ऐसा हो गया है , कि एक दूसरे पर कीचड़ उछालने को तैयार रहते हैं। आज के बदलते बदलाव में भी एक बड़ा सवाल है। जिसका जवाब ढूंढना हम सबका ही दायित्व बनता है। इस परिपेक्ष में गेंद को दूसरे के पाले में फेंकने से कोई लाभ न होगा। हमें चाहिए कि वक्त रहते अपने आप को सही परिपेक्ष में खुद को बदल डाले और बदलाव इस तरह होना चाहिए कि जो समाज में एक सकारात्मक सोच उत्पन्न करे। अगर ऐसा हो रहा है, तो हम समझेंगे बदलाव हो रहा है। सामाजिक तौर पर यह भी संभव न होगा कि पड़ोसी तो बदल जाए। पर हम जैसे के तैसे रहें। यह भी पूरी तरह से संभावना होगी कि हमें तो इस सब की शुरुआत खुद से ही करनी होगी।
इस तरह से हम बदलते समाज में बदलाव अपने आप आने लगेगा। हम सभी को अपने कार्यों के प्रति भी वचनबद्ध होना होगा। तथा अपना बहुमूल्य समय समाज के उत्थान की दिशा में लगाना होगा। जितना हम बदलेंगे समाज भी उसी अनुसार बदलता चला जाएगा। बदलाव से मेरा मतलब सिर्फ इतना है कि जहां बदलाव जरूरी है। वहां बदलाव करना जरूरी है। लोगों में इस तरह की जागरूकता अभियान चलाने की जरूरत है। अगर बदलाव की भावना को सिर्फ हम दूसरों पर थोपना चाहते हैं। विचारों तथा बोलने की बातें सिर्फ बोलने पर भर के लिए हैं। तो समाज में बदलाव की आशा हमें छोड़ देनी चाहिए। लोग कहते हैं कि बड़े-बड़े लोगों ने विचार दिए, तो उन्होंने अपने ऊपर होने वाले असर को भी महसूस किया है। तभी ये विचार हमारे बीच में आए हैं। लेकिन आज के वक्त में हर कोई ऐसे बदलाव महसूस कर रहे हैं। शायद आप भी कर रहे होंगे कि कुछ लोगों ने बड़े-बड़े विचारों को बोलने के लिए कागज पर उतर लिया है , लेकिन हकीकत में देखा जाए तो वह लोग उन विचारों के आसपास भी नजर नहीं आते। इन लोगों ने विचारों को बोलने भर के लिए अपनी जेब में रखा है। इस तरह के लोग भी समाज के में कोई बदलाव नहीं ला सकते। हमें तो केवल बोलने भर से मतलब है।
अगर हकीकत में सोचें कि बदलाव समाज पर आता है। तो हम सबको चाहिए पहले खुद में बदलाव लाएं और उसके परिणाम संदर्भ के रूप में लोगों के सामने प्रस्तुत करें। लोग इस तरह के विचारों को हाथों-हाथ लेंगे। जिनसे परिणाम साक्षात रुप में प्रस्तुत किए गए हो उदाहरण भी ऐसे हो जो हम लोगों में से हों। जो दिखें नजर आए भी अपने देश या प्रदेश के हों। अपने देश का या प्रदेश में प्रस्तुत करें। फिर देखो बदलाव कैसे नहीं होता। मौलिकता और संस्कार के लिए कोई कैप्सूल नहीं है। जिसे खिलाया जाए और उसके परिणाम दिखने लगें , क्योंकि हमारे बीच में से ही कुछ लोगों को बदलना होगा फिर देखिए बदलाव इतनी तेजी से होगा। कि हम उस की कल्पना भी नहीं कर सकते हैं। जैसा कि आप सभी लोग जानते हैं। हम उस दिन अमुक समय पर अगर भूकंप आता है। तो सबको पता लग जाता है। क्योंकि उस भूकंप को हर कोई महसूस करता है। तथा जब भी भूकंप आता है। तो उसका परिणाम हमें अगर पंखा बंद है। तो हिलने लगता है, हमारा सोने का पलंग भी कम्पन्न करने लग जाता है। अगर भूकंप की तीव्रता अधिक होती है। तो उसके परिणाम सबसे पहले कमजोर दीवारों पर प्लास्टर क्रेक होकर दिखने लगता है। कमजोर इमारतें तथा पुल धरासायी हो जाते हैं। चलती हुई कार अचानक दिशा बदलने लगती है। भूकंप का डर हमारे अंदर घर करने लगता है। कुछ जगह पर तो भगदड़ मच जाती है। लोग खाली स्थान पर या पार्क में एकत्र होने लगते हैं। यानी जान पर बन आती है। उस समय जिसकी समझ में जो आता है। करता है। न जाने कितनी जान और माल की हानि होती है। इसी तरह से अच्छे विचार अपनाएँ जाएं तो उनसे उत्पन्न होने वाले परिणाम भी बहुत सुखद होंगे। मौलिकता तथा संस्कार कब पनपना अपने आप शुरू हो जाएगा। ये खुद को भी पता न लगेगा। फिल्में भी हमारे समाज का आईना होती हैं। या अच्छी फिल्में अच्छा परिणाम समाज में डालते हैं। वह सारे लोग अपने-अपने हीरो के फॉलोवर होते हैं। जैसा हीरो करेगा। फॉलोवर भी वैसा ही करते हैं। परिणाम स्वरुप हमें समाज बदलता नजर आएगा। और समाज एक नया आकार लेगा।
संयुक्त परिवार से ये सब सीखने को मिलता था। तथा पीढ़ी दर पीढ़ी एक दूसरे के गुण दूसरी पीढ़ी में जा रहे थे। जिससे सामाजिक बंधन बहुत ही मजबूत रहता था। लेकिन आज हम क्या देख रहे हैं। कि दिन प्रतिदिन ऐसे संयुक्त परिवार की नींव कमजोर होती जा रही है। आजकल फ्लैट कल्चर शहरों में बढ़ता जा रहा है। जिसे हम एकल परिवार भी कहते हैं। जहां पर किसी की मर्यादा और पहनाव की रोक-टोक सब बंद हो चुकी है। समाज
कमलेश संजीदा |
महिलाओं में तो कपड़े और भी कम होते जा रहे हैं। जिसका फर्क हम सब लोगों के दिमाग पर भी पड़ रहा है। और एक तरह से नई विकृति को जन्म देता है। सुंदर दिखना अलग है। लेकिन सुंदर दिखाना खुद को आना है। जिसका परिणाम होता है। कि आए दिन हमारे आस पास बहुत सारी ऐसी घटनाएं सामने आ रही हैं। जिनके बारे में हम सोचते भी नहीं हैं। हमारे दिमाग में विकृति आने लगी है। और संस्कार विलुप्त होने लगे हैं। लोग भी विक्षिप्त होने लगे। तथा आपस की बंधन भावनाओं को भूलते जा रहे हैं। अगर रिश्ते नाते जैसी दूरियों से मुक्त होते जा रहे हैं। हम एक दूसरे के एहसासों से वंचित होते जा रहे हैं। रिश्ते कैसे जिए जाए सब भूलते जा रहे हैं। कौन हमारा क्या लगता है। किसके साथ कैसा व्यवहार करना चाहिए। यह बातें भी कोई सिखाने वाला नहीं हैं। रिश्तों की अहमियत उनके साथ कैसा व्यवहार किया जाये या कैसा करना चाहिए। .
घर से बाहर जाओ तो कुछ दोस्त और घर आओ तो किसी को भी बात करने की फुरसत नहीं है। टीo वीo भी आज के वक्त में एक बीमारी सी बन चुकी है। घर में घुसे नहीं की टीo वीo देखना शुरू हो गए। टीo वीo से हटे तो लैपटॉप पर लग गए। और लैपटॉप से हटे तो मोबाइल फोन पर लग गए। आसपास कुछ लोग बैठे भी हों तो भी एक दूसरे से न तो बातें करते हैं। न ही कोई एक दूसरे में इंटरेस्ट लेता है। रही बची कसर WhatsApp ने पूरी कर दी है। लोग पूरे -पूरे दिन WhatsApp पर लगे रहते हैं। और अपने दिल की बातें, वीडियो , मैसेज तथा फोटो क्या -क्या आपस में भेजते रहते हैं। दिनभर मैसेज पर मैसेज भेजते रहते हैं। और उनके मैसेज पढ़ते रहते हैं। अगर वही लोग सामने आ जाएं तो उनके साथ वह बातें भी नहीं करते। क्या जमाना आ गया है। इसी तरह से अपने समय को हर कोई बरबाद करने में लगे हुए हैं। किस रिश्ते को कैसे जिया जाए, यह सब कहानियाँ जैसी होती जा रहीं हैं। एक दूसरे से मिलना जुलना भी कम हो गया है।
भारतीय दंड संहिता में कहा गया है कि IPC Section 497 states, "Whoever has sexual intercourse with a person who is and whom he knows or has reason to believe to be the wife of another man, sex without the consent or connivance of that man, such sexual intercourse not amounting to the offence of rape, is guilty of the offence of adultery."
भारतीय दंड संहिता में कहा गया है कि IPC Section 497 states, "Whoever has sexual intercourse with a person who is and whom he knows or has reason to believe to be the wife of another man, sex without the consent or connivance of that man, such sexual intercourse not amounting to the offence of rape, is guilty of the offence of adultery."
आधुनिकता की दौड़ में चारित्रिक पतन होता जा रहा है। और दिलों की दूरियां बढ़ती जा रही हैं। आधुनिकता की दौड़ में लोगों को लगता है। कि WhatsApp पर मैसेज भेज कर हम अपना फर्ज पूरा कर रहे हैं। कुछ बचा हुआ वक़्त फ़ेसबुक पर एवम ईमेल पर बिताते हैं। अब इस्टाग्राम भी आ गया है। उस पर अपना वक़्त बिताते हैं। शायद वह भूल रहे हैं। जो आत्मीयता सामने दिखाई जा सकती हैं। वह मैसेज के सहारे नहीं दिखाई जा सकती। आप अपने आप में परिवर्तन लाइए और अपने परिवार और रिश्तेदारों की तरफ ध्यान दीजिए। अपने लक्ष्य पर ध्यान केंद्रित दीजिए। अपने समाज पर ध्यान दीजिए। और अपना सामाजिक , मानसिक ,स्वस्थिक पूर्ण विकास कीजिए। तभी आप एक जिम्मेदार नागरिक बन सकते हैं। और देश के उत्थान में अपना विशेष सहयोग दे सकते हैं वरना समाज में विकृति पर विकृति होती चली जाएंगी। और हम गलतियां एक दूसरे पर मढ़ते चले जाएंगे। जिसका भविष्य में कोई भी परिणाम नजर नहीं आएगा और हमारे रिश्ते हमारा समाज सब बिगड़ता चला जाएगा। जब तक हम अपने अंदर झाँक कर नहीं देखेंगे। कि हम क्या कर रहे हैं। तब तक हम को पता ही नहीं लगेगा। कि हम किस रास्ते पर जा रहे हैं। और क्या कर रहे हैं। किस संस्कृति को अपना रहे हैं। हम जिस संस्कृति की ओर बढ़ रहे हैं।
जिस संस्कृति की हम बात कर रहे हैं। यह हमारी संस्कृति नहीं है। यह विदेशी संस्कृति है। और इससे हमारा कोई विकास नहीं हो सकता और हकीकत में देखा जाए। तो इससे हमारा कोई सरोकार नहीं है। अब हमें चाहिए कि हम अपने से बड़ों का आदर करें। अपने से बड़ों को सम्मान दें। अपने से बड़ों के पैर छूकर आशीर्वाद लें। चोटों को प्यार करें। तभी हम अपनी संस्कृति को समर्पित हो सकते हैं। और इस समाज में भविष्य में बदलाव को अंगीकृत कर सकते हैं। वरना वह दिन दूर नहीं कि हमारे बच्चे भी हमें पहचानने से इंकार करेंगे। और हम अपनी पहचान बताने के लिए उनके सामने नए-नए प्रमाण या पुराने प्रमाण फोटो के रूप में वीडियो के रूप में ऑडियो के रूप में उनके सामने प्रस्तुत करना होगा। तब वे जाकर कहीं हमें पहचानेंगे और पहचानने के बाद भी हमें वह सम्मान नहीं मिलेगा।
अगर हमें सामाजिक दृष्टि से अपने समाज को बचाना है। अपने आप को बचाना है। तो क्या सही है। क्या गलत है। इस सब का विचार करके ही आगे बढ़ना चाहिए। और विचारों को फॉलो करना चाहिए। वरना हम जिस रास्ते पर जा रहे हैं। ऐसी जगह पर पहुंच जाएंगे। जहां से लौटकर आना हमारे लिए नामुमकिन होगा। अगर हम सामाजिक वैल्यू की बात करते हैं। तो सामाजिक वैल्यू हमारे चाल चलन पर ही डिपेंड करते हैं। जिस तरह से हम व्यवहार करेंगे। उसी तरह से हमें इस समाज से व्यवहार मिलेगा। जिस तरह से हम समाज को देखेंगे समाज भी हमें उसी तरह से देखेगा। और उसी तरह से सम्मान देगा। अगर हम सम्मान देंगे। तो हमें अपने आप ही सम्मान मिलेगा। अगर हम किसी की बेइज्जती करेंगे। सबके सामने दिखाएंगे। तो बदले में वही हमें मिलेगा। जो हम समाज को देंगे। वही बदले में हमें मिलेगा। अगर हमने अपने आप को नहीं बदला , तो शायद बहुत देर हो जाएगी। और हमारे लिए हमारी संस्कृति वापस पाना भी बहुत मुश्किल हो जाएगा।
- कमलेश संजीदा उर्फ़ कमलेश कुमार गौतम
गाज़ियाबाद,उत्तर प्रदेश
Email. kavikamleshsanjida@gmail.com
Excellent article kamlesh sanjida g
जवाब देंहटाएंBilkul sahi likha h. Ab jarurat h ki dusro ko blame karne se achha h ki khud kuch suruaat karni chahiye.
जवाब देंहटाएंBeautiful advice and a good though
जवाब देंहटाएंVery well said.
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