उद्यमी नर रामधारी सिंह दिनकर Udyami Nar Ramdhari Singh Dinkar उद्यमी नर रामधारी सिंह दिनकर उद्यमी नर summary दिनकर की राष्ट्रीय चेतना रामधारी सिंह दिनकर की कविता संग्रह रामधारी सिंह दिनकर की कविता कुरुक्षेत्र हुंकार रामधारी सिंह दिनकर रामधारी सिंह दिनकर की कविता हिमालय दिनकर की कविता हुंकार रामधारी सिंह 'दिनकर' पुस्तकें उद्यमी नर explanation उद्यमी नर कविता
उद्यमी नर रामधारी सिंह दिनकर
Udyami Nar Ramdhari Singh Dinkar
ब्रह्म से कुछ लिखा भाग्य में
मनुज नहीं लाया है
अपना सुख उसने अपने
भुजबल से ही पाया है
प्रकृति नहीं डरकर झुकती है
कभी भाग्य के बल से
सदा हारती वह मनुष्य के
उद्यम से, श्रमजल से
व्याख्या - कवि रामधारी सिंह दिनकर जी कहते हैं कि प्रकृति के भीतर या स्वयं प्रकृति में बहुत साड़ी धन - संपत्ति भरी पड़ी है। उद्यमी मनुष्य को यह सहज की प्राप्त है। यही इतनी बड़ी सम्पदा है कि यह हर किसी को सुखी और संतुष्ट कर सकती है। उद्यमी मनुष्य ही इस संसार को अपने पुरषार्थ द्वारा स्वर्ग बना सकते हैं।
२. भाग्यवाद आवरण पाप का
और शस्त्र शोषण का ,
जिससे रखता दबा एक जन
भाग दूसरे जन का ।
पूछो किसी भाग्यवादी से
यदि विधि अंक प्रबल है
पद पर क्यों देती न स्वयं
वसुधा निज रत्न उगल है ?
व्याख्या - कवि कहता है कि ईष्वर ने साड़ी सुख - संपत्ति के साधन धरती के अंदर छिपा दिए है। यह संपत्ति को केवल उद्यमी नर ही खोज सकते हैं।कवि कहता है कि ब्रह्मा बहले ही भाग्य विधाता है लेकिन उद्यमी नर इसे स्वीकार नहीं करता है। मनुष्य की अपनी सभ्यता आदिम युग से लेकर आज तक की यात्रा पुरुषार्थ से ही प्राप्त कर सकता है।अपने सुख को प्राप्त करने के लिए वह केवल उद्यमशीलता का का आश्रय लेता है। इस प्रकार मनुष्य अपने बाहुबल से प्रकृति में छिपे खजाने को प्राप्त करता है।
३. उपजाता क्यों विभव प्रकृति को
सीच -सीच वह जल से ?
क्यों न उठा लेता निज संचित
कोष भाग्य के बल से ।
और मरा जब पूर्वजन्म में
वह धन संचित करके
विदा हुआ था न्यास समर्जित
किसके घर में धर के ।
व्याख्या - कवि कहते हैं कि प्रकृति किसी मनुष्य के भाग्य के आगे नहीं झुकती है। वह हमेशा उद्यमी प्राणी के मेहनत से हारती है। इस संसार में केवल आलसी लोग ही भाग्य पर निर्भर रहने का प्रयास करते हैं। वे ज्योतिष पर ध्यान देते हैं ,अपनी हस्तरेखा पर ध्यान देते हैं। लेकिन ऐसे आलसी के हाथ कुछ नहीं लगता है। लेकिन उद्यमी व पुरुषार्थी मनुष्य ही अपने परिश्रम के बलपर अपार धन खोज निकालते हैं और अपने माथे पर लिखे हुए दुर्भाग्य के निशान मिटा देते हैं।
४. जन्मा है वह जहां , आज
जिस पर उसका शासन है
क्या है यह घर वही ? और
यह उसी न्यास का धन है ?
यह भी पूछो , धन जोड़ा
उसने जब प्रथम -प्रथम था
उस संचय के पीछे तब
किस भाग्यवाद का क्रम था ?
व्याख्या - कवि कहता है कि भाग्यवाद भाग्यवादिता का सिद्धांत केवल पाप का आवरण है। यह एक ऐसा अस्थ्तर है , जिसका आश्रय लेकर भाग्यवादी मनुष्य ,दूसरे मनुष्य का शोषण करता है। वह प्रकृति का अकूत भण्डार को अपने पास दबा कर रखता है जिससे कोई अन्य मनुष्य उसका उपयोग न कर सके। कवि कहता है कि यदि भाग्यवाद इतना प्रबल है तो किसी आलसी आदमी के पास क्यों नहीं ढेर - साड़ी धन संपत्ति रख आती है ,जबकि उद्यमी मनुषय अपने परिश्रम से धन - संपत्ति प्राप्त करता है।
५. वही मनुज के श्रम का शोषण
वही अनयमय दोहन ,
वही मलिन छल नर - समाज से
वही ग्लानिमय अर्जन ।
एक मनुज संचित करता है
अर्थ पाप के बल से ,
और भोगता उसे दूसरा
भाग्यवाद के छल से ।
व्याख्या - कवि मानना है कि मेहनती मनुष्य अपने श्रम से जल द्वारा धन अन्न उपजाता है , वह क्यों नहीं आलसी मनुष्य की तरह अपने भाग्य के सहारे सब कुछ क्यों नहीं प्राप्त कर लेता है। उद्यमी मनुष्य को मेहनत करना पड़ता है। एक आलसी मनुष्य अपने पाप कर्म द्वारा हाथ में संचित करता है। वह भाग्यवाद के छल से अन्य मनुष्य का शोषण करता है और पाप कर्म का लाभ उठाता है।
६. नर - समाज का भाग्य एक है
वह श्रम , वह भुज - बल है ,
जिसके सम्मुख झुकी हुई
पृथ्वी, विनीत नभ - तल है ।
जिसनें श्रम जल दिया ,
उसे पीछे मत रह जाने दो ,
विजित प्रकृति से सबसे पहले
उसको सुख पाने दो ।
व्याख्या - कवि का मानना है कि नर समाज अर्थात सभी मनुष्यों का भाग्य एक है।सभी की उन्नति मानव समाज का लक्ष्य है।पृथ्वी को झुकना पुरुषार्थ के बल पर ही संभव है।उद्यमी नर के आगे आकाश भी झुक जाता है।कवि कहता है कि आज के समय में जो व्यक्ति उद्यमी है उसे पृथ्वी का सुख सबसे पहले मिलना चाहिए।उसे पीछे नहीं हटाना चाहिए।वह अपने परिश्रम से सारे सुख - सुबिधाओं को उत्पन्न करता है।अतः सबसे पहले उसे सुख पाने का अधिकार बनता है।
उद्यमी नर कविता udyami Nar का केन्द्रीय भाव Summary
उद्यमी नर कविता रामधारी सिंह जी द्वारा लिखी गयी प्रसिद्ध कविता है ,जिसमें आपने मनुष्य की उद्यमशीलता पर प्रकाश डाला है।कवि का मानना है कि भाग्य के भरोसे रहने वाला व्यक्ति आलसी बना रहता है।इस संसार में उद्यमी मनुष्य ही संसार के सुखों को प्राप्त करता हैं।कवि का मानना है कि प्रकृति में असीमित भण्डार है , जो सभी के लिए पर्याप्त है।उद्यमी मनुष्य ही इस अपरिमित सुख को प्राप्त करता है क्योंकि वह अपने म्हणत और संघर्षशीलता का आश्रय लेकर इस धरती को स्वर्ग बना सकता है।संघर्षशील मनुष्य अपनी मेहनत से प्रकृति के सारे खजाने को प्राप्त कर मेहनत का फल प्राप्त करता है।उद्यमी मनुष्य प्रकृति को अपने परिश्रम से झुका सकता है ,जबकि आलसी मनुष्य भाग्य का सहारा लेते हैं ,इसी भाग्यवादिता का सहारा लेकर एक मनुष्य दूसरे मनुष्य का शोषण करता है।मनुष्य अपने भाग्य से कुछ नहीं प्राप्त करता है ,बल्कि अपने मेहनत से प्राप्त करता। हाथ पर हाथ पर धरे से जीवन में कुछ नहीं प्राप्त होता है।मेहनत द्वारा ही आकाश और पाताल को उद्यमी मनुष्य झुकता आया है।
उद्यमी नर कविता में कवि ने भाग्यवाद की निंदा करते हुए कर्म को प्रमुख माना है।इसीलिए कवि ने कहा है कि जो मनुष्य उद्यमी है ,उसे आगे बढ़ने दो।वह लोगों का नेटवटर करता है।उसके नेटवा की आवश्यकता सभी मनुष्य जाति को है। इसीलिए संसार में सबसे सुख पाने का अधिकार उसी को है।अतः उद्यमी नर के परिश्रम का लाभ सारे समाज को मिलना चाहिए।
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उद्यमी नर कविता के प्रश्न उत्तर
प्रश्न - उद्यमी नर का संसार में महत्व क्यों है? क्या भाग्य उसका साथ देता है?
उत्तर- उद्यमी नर ही संसार में इच्छित सुख-साधनों को भोगने में समर्थ हो पाता है। ईश्वर ने इस पृथ्वी के अन्दर सभी धन-धान्य छिपाकर रख दिये हैं। उद्यमी मनुष्य ही उन्हें प्राप्त करता है। उद्यमी नर कभी भी भाग्य के भरोसे रहकर पछताता नहीं, वह तो कार्य को पूरा करके दिखा देता है। संत कबीर ने कहा है-
"कर बहियाँ बल आपणी, छाँड़ परायी आस ।
जिनके आँगन है नदी, सो कत मरत पियास ।
इससे यह साबित होता है कि मनुष्य को अपनी भुजाओं के बल पर विश्वास रखना चाहिए। ईश्वर ने पूरा कोष प्रकृति के भीतर छिपाकर रख दिया है। इसे उद्यमी नर ही भोग सकता है। यदि अब भी कोई मनुष्य उन्हें परिश्रम करके प्राप्त नहीं करता है तो इसमें ईश्वर का दोष कहाँ है। तुलसीदास जी ने कहा है-
'सकल पदारथ हैं जग माहीं । करमहीन नर पावत नाहीं । "
संसार के सभी पदार्थ कर्मशील मनुष्य के लिए हैं, कर्महीन के लिए नहीं । इतिहास इस बात का साक्षी है कि परिश्रमशील और उद्यमी व्यक्ति को हमेशा सफलता मिलती है। गीता में कृष्ण ने अर्जुन को कर्मयोग का ही उपदेश दिया। संस्कृत का यह श्लोक कि-
'उद्यमेन हि सिध्यन्ति कार्याणि न मनोरथैः ।
न हि सुप्तस्य सिंहस्य प्रविशन्ति मुखे मृगाः ।।'
ये इस बात को प्रमाणित करता है कि बिना परिश्रम के मनुष्य को कुछ प्राप्त नहीं होता। ईश्वर ने जो-जो भी बहुमूल्य वस्तुएँ या जीवन के लिए महत्वपूर्ण साधन पृथ्वी के अन्दर छिपाकर रख दिये हैं, वे सब मनुष्य के हितार्थ ही हैं, ईश्वर या प्रकृति के काम तो आने नहीं हैं। मनुष्य उन्हें अपने परिश्रम के बल से ही प्राप्त कर सकता है। आकाश पृथ्वी पर जल वर्षा कर अन्न उत्पन्न करने का साधन बना देता है, लेकिन मनुष्य को हल चलाकर बीज बोना पड़ेगा और उगती फसल की रक्षा करनी होगी तभी उसे खाने के लिए अन्न प्राप्त होगा। कवि के अनुसार, "परिश्रम के सम्मुख पृथ्वी, नभ-तल सभी झुके रहते हैं। वे परिश्रम करने वाले का विरोध नहीं करते, बल्कि सहयोग करते हैं।"
भाग्य के भरोसे रहकर मनुष्य कुछ प्राप्त नहीं कर सकता। ब्रह्मा ने भी मनुष्य के भाग्य में ऐसा कुछ लिखा हो कि उसे बिना कुछ किये सब कुछ मिल जायेगा, ऐसा कोई प्रमाण नहीं मिलता। कर्मवीर न तो भाग्य-भरोसे रहता है और न ही भाग्य के भरोसे रहकर पश्चाताप करता है। प्रकृति कभी भाग्य के सामने झुकती नहीं है। भाग्य के भरोसे रहना मनुष्य की सबसे बड़ी भूल है। कोई भी मनुष्य ब्रह्मा से अपने भाग्य में सुख लिखाकर लाया हो, ऐसा नहीं है। भाग्य के भरोसे तो आलसी ही रहते हैं। यदि भाग्य ही प्रबल हो तो मनुष्य को पृथ्वी में संचित कोष अपने आप प्राप्त हो जायें, पर ऐसा नहीं होता।
इस सम्बन्ध में भाग्य उसकी कोई सहायता नहीं करता। कवि भाग्यवादी नहीं है, वह तो उद्यमी नर की ही प्रशंसा करने वाला व्यक्ति है। यहाँ एक प्रश्न अवश्य उठता है कि किसी का कमाया हुआ धन कोई भोग रहा है। कवि का कहना है कि पाप से जो संचित धन है उसे भाग्य के छल से कोई और भोगता है, यह एक धोखा है जो भाग्य का नाम लेकर धनी व्यक्ति के धन का उपयोग करता है। ऐसा भोग बहुत कम समय तक ही चलता है। कवि ने नर-समाज का भाग्य मनुष्य का परिश्रम और परिश्रम से बहाया हुआ पसीना बताया है । इस कविता में कवि ने यही प्रेरणा दी है कि भाग्य के भरोसे न रहकर कर्मशील और परिश्रमी बनो। अपने कार्य से कभी विरक्त मत हो।
प्रश्न. भाग्यवाद के विरोध में कवि ने कौन-कौन से तर्क दिए हैं? सोदाहरण समझाइए |
उत्तर- दिनकर जी प्रगतिवादी कवि हैं। प्रगतिवादी चेतना को मार्क्सवादी के आलोक में ही देखा और परखा जा सकता है। यह प्रगतिवाद साम्यवाद का पोषक है। समाज को दो वर्गों में विभाजित किया जा सकता है-एक है शोषक तो दूसरा है शोषित वर्ग।
शोषक वर्ग के अन्तर्गत जमींदार, मालिक, पूँजापित, उद्योगपति, व्यापारी आदि हैं। यह वर्ग ऐसा है जिसमें लोग यह मान लेते हैं कि सुख पर उनका ही अधिकार है। सुख भोगना उनके भाग्य में ही है। ऐसा कहकर वे स्वयं को इस पाप से मुक्त करने का प्रयास करते हैं। वे परिश्रम करने वाले के सुख के भाग को भाग्य की ओट में छीन लेते हैं। इसे व्यक्त करते हुए कहता है कि-
“भाग्यवाद आवरण पाप का और शस्त्र शोषण का,
जिससे रखता दबा एक जन भाग दूसरे जन का।"
इस प्रकार यह शोषण करने वाला वर्ग अपनी शक्ति से परिश्रम करने वाले के फल पर अधिकार कर लेता है। वह भाग्य की दुहाई देता है। लेकिन दूसरा वर्ग शोषित वर्ग है जिसमें किसान, श्रमिक, मजदूर आदि हैं जिनके परिश्रम से प्राप्त होने वाले फल का शोषण कर ही यह शोषक वर्ग फलीभूत होता है। कवि इस असंगति को दूर करने के लिए यह सुझाव देता है कि हमें भाग्यवाद के ओट में शोषण करने की आवश्यकता नहीं है, अपितु हमें उसे शोषित वर्ग को आगे लाने की आवश्यकता है। कवि कहता है कि परिश्रम करने वाला वह वर्ग ही प्रकृति के सुख को प्राप्त करने का प्रथम अधिकारी है।
"जिसने श्रम- जल दिया, उसे पीछे मत रह जाने दो,
विजित प्रकृति से सबसे पहले उसको सुख पाने दो।"
इस प्रकार कवि एक समतावादी समाज की परिकल्पना करता है जिसमें लोगों को उनके परिश्रम के अनुरूप ही फल मिले। इस समाज में कोई भाग्य की ओट में किसी के साथ अन्याय न करे।
प्रश्न । पठित कविता में कवि ने श्रम को भाग्य से श्रेष्ठ सिद्ध किया। इस कथन को सोदाहरण स्पष्ट कीजिए ।
उत्तर- पठित कविता 'उद्यमी नर' में उद्यम को श्रेष्ठ माना गया है। कवि का कथन है कि ईश्वर ने हमें बहुत कुछ दिया है। परन्तु ईश्वर प्रदत्त वह खजाना ईश्वर के द्वारा ही छिपाया गया है। जो लोग इस खजाने को प्राप्त करने के लिए प्रयास करते हैं वही उसे प्राप्त कर पाते हैं। गीता में कर्म के सिद्धान्त को प्रतिपादित करते हुए श्रीकृष्ण ने कहा था जो परिश्रम करने वाला व्यक्ति होता है उसी की मनोकामनाएँ पूरी होती हैं। शेर जंगल का राजा होता है लेकिन उसे भी भोजन के लिए शिकार का उद्यम करना पड़ता है। जिस प्रकार सोए हुए शेर के मुख से हिरण स्वयं प्रवेश नहीं करता ठीक उसी प्रकार बिना परिश्रम के कुछ भी प्राप्त करना दुर्लभ है।
"उद्यमेन हि सिध्यंति कार्याणि न मनोरथैः ।
न हि सुप्तस्य सिंहस्य प्रविशति मुखे मृगा।"
यहाँ उसी श्रम के महत्व को प्रतिपादित करते हुए कवि दिनकर जी कहते हैं कि भाग्य नाम की कोई वस्त होती ही नहीं, मनुष्य आज जो भी सुख भोग रहा है वह उसके परिश्रम का ही परिणाम है-
"ब्रह्मा से कुछ लिखा भाग्य में मनुज नहीं लाया है,
अपना सुख उसने अपने भुजबल से ही पाया है। "
इस प्रकार मनुष्य अपने सुखों का कर्ता खुद ही है। भाग्य के भरोसे रहने से कुछ नहीं मिलता। कवि भाग्यवाद का खंडन करते हुए कहते हैं कि अगर भाग्य ही सबसे प्रबल होता तो पृथ्वी भाग्यवान लोगों के चरणों पर बिना किसी परिश्रम के ही रत्न उगल कर रख देती, परन्तु ऐसा नहीं है। पृथ्वी के अन्दर निहित रत्नों को पाने के लिए परिश्रम करना पड़ता है। किसान अपनी फसल को उगाने और उपजाने के लिए कठिन परिश्रम करता है।
“पूछो किसी भाग्यवादी से, यदि विधि-अंक प्रबल है,
पद पर क्यों देती न स्वयं वसुधा निज रतन उगल है ?"
इस प्रकार अंत में यह कहा जा सकता है कि दिनकर जी ने श्रम को भाग्य से श्रेष्ठ माना है क्योंकि कवि का मानना है कि श्रम के द्वारा भाग्य को बदला भी जा सकता है।
"धोते वीर कुअंक भाल का बहा भ्रुवों से पानी।"
इससे स्पष्ट हो जाता है कि दिनकर जी ने अपने काव्य के माध्यम से यह प्रेरणा दी है कि भाग्य के भरोसे न रहकर हमेशा अपने कर्म में प्रवृत्त रहो । यह परिश्रम ही सफलता का आधार है।
प्रश्न. पठित कविता के आधार पर दिनकर जी के प्रगतिवाद पर प्रकाश डालिए ।
उत्तर-छायावाद के बाद का सबसे सबल साहित्यिक आन्दोलन 'प्रगतिवाद' है।मार्क्सवादी विचारधारा से अनुप्राणित साहित्यिक रचनाओं को प्रगतिवादी साहित्य की संज्ञा प्रदान की गई है। प्रगतिवादी कवि समाज के नवनिर्माण की प्रेरणा देते हैं और उस सामाजिक व्यवस्था को नष्ट करना चाहते हैं, जिसकी नींव शोषण पर टिकी है।
दिनकर जी के काव्य में इसी प्रगतिवादी विचारधारा के दर्शन होते हैं। वर्तमान युग में सुखोपभोग की अभिलाषा में व्यक्ति दूसरे के परिश्रम से मिलने वाले फल को छीनने में तनिक भी गुरेज नहीं करता। कवि कहता है कि यदि ऐसा न हो, सभी अपनी मेहनत के अनुरूप सुख को प्राप्त करें तो वह धरती स्वर्ग की भाँति हो जाएगी। कवि कहते हैं कि यह प्रकृति तो सुखों का खजाना है। इस खजाने में सभी को सन्तुष्ट करने की क्षमता है। बस सभी को एक-सा सुख प्राप्त कर संतुष्ट रहने की आवश्यकता है-
"सब हो सकते तुष्ट, एक-सा सब सुख पा सकते हैं,
चाहें तो, पल में धरती को स्वर्ग बना सकते हैं।"
पठित कविता में कवि ने भाग्यवाद को शोषण का शस्त्र माना है। कवि ऐसे समाज के निर्माण की कल्पना करता है जिसमें शोषण न हो। ऐसे समाज का निर्माण श्रम की प्रतिष्ठा के बिना असम्भव है। प्रगतिवादी विचारधारा के अनुरूप कवि यह सोचता है कि शोषक वर्ग परिश्रमी वर्ग का शोषण करता है और अपने इस पाप पर पर्दा डालने के लिए भाग्य का सहारा लेता है।
“भाग्यवाद आवरण पाप का और शस्त्र शोषण का,
जिससे दबा रखता एक जन भाग दूसरे जन का।"
इस काव्य में कवि प्रगतिवाद की वह तान सुनाना चाहता है जिसमें परिश्रमी वर्ग को उसके परिश्रम का फल मिले। समतामूलक समाज की स्थापना हो । किसान जो सम्पूर्ण समाज के लिए अन्न उपजाता है आज वही और उसका परिवार कुपोषण के शिकार हैं। कवि इस असमानता को दूर करने के लिए यह आह्वान करता है कि परिश्रमी और मेहनती वर्ग को सबसे पहले सुख प्राप्त करने का अधिकार है।
"जिसने श्रम- जल दिया, उसे पीछे मत रह जाने दो,
विजित प्रकृति से सबसे पहले उसको सुख पाने दो।"
इस प्रकार अंत में निष्कर्ष के रूप में यह कहा जा सकता है कि कवि ने अपनी इस कविता में प्रगतिवादी चेतना के स्वर को प्रमुख स्थान देते हुए परिश्रम द्वारा एक समतामूलक समाज की स्थापना का संदेश देने का प्रयास किया है।
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It is very helpful butsome more explanation could be added....
जवाब देंहटाएंThis is all in this poem the explanation is up to the mark no more extra could b added in this ....
हटाएंNo it's right more can be added
हटाएंThanks it helped me a lot
जवाब देंहटाएंThankyou so much...im I fully prepared for exams now !! Helped me alot
जवाब देंहटाएंIt was not good at all too much difficult words are used.... Horible
जवाब देंहटाएंIt was helpful but used words were bit difficult
जवाब देंहटाएंइस कविता के प्रश्न अभ्यास भी होने चाहिए थे
जवाब देंहटाएंBilkul sahi likha h 👍👍 good
जवाब देंहटाएंBilkul sahi likha h good👍👍
जवाब देंहटाएं1st peragaraf nahi kyo
जवाब देंहटाएंIsc ke hisab se. Daalo meri jaan
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