चित्र का शीर्षक - यशपाल

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जयराज जाना-माना चित्रकार था। वह उस वर्ष अपने चित्रों को प्रकृति और जीवन के यथार्थ से सजीव बना सकने के लिये , ...

जयराज जाना-माना चित्रकार था। वह उस वर्ष अपने चित्रों को प्रकृति और जीवन के यथार्थ से सजीव बना सकने के लिये, अप्रैल के आरम्भ में ही रानीखेत जा बैठा था। उन महिनों पहाडों में वातावरण खूब साफ और आकाश नीला रहता है। रानीखेत से त्रिशूल , पंचचोली और चौखम्बा की बरफानी चोटियाँ, नीले आकाश के नीचे माणिक्य के उज्ज्वल स्तूपों जैसीं जान पडती है। आकाश की गहरी नीलिमा से कल्पना होती कि गहरा नीला समुद्र उपर चढ क़र छत की तरह स्थिर हो गया हो और उसका श्वेत फेन, समुद्र के गर्भ से मोतियों और मणियों को समेट कर ढेर का ढेर नीचे पहाडों पर आ गिरा हो।

जयराज ने इन दृष्यों के कुछ चित्र बनाये परन्तु मन न भरा। मनुष्य के संसर्ग से हीन यह चित्र बनाकर उसे ऐसा ही अनुभव हो रहा था जैसे निर्जन बियाबान में गाये राग का चित्र बना दिया हो। यह चित्र उसे मनुष्य की चाह और अनुभव के स्पन्दन से शून्य जान पडते थे। उसने कुछ चित्र, पहाडों पर पसलियों की तरह फैले हुए खेतों में श्रम करते पहाडी किसान स्त्री-पुरूषों के बनाये। उसे इन चित्रों से भी सन्तोष न हुआ। कला की इस असफलता से अपने हृदय में एक हाय-हाय का सा शोर अनुभव हो रहा था। वह अपने स्वप्न और चाह की बात प्रकट नहीं कर पा रहा था।

जयराज अपने मन की तडप को प्रकट कर सकने के लिए व्याकुल था।

वह मुठ्ठी पर ठोडी टिकाये बरामदे में बैठा था। उसकी दृष्टि दूर-दूर तक फैली हरी घाटियों पर तैर रही थी। घाटियों के उतारों-चढावों पर सुनहरी धूप खेल रही थी। गहराइयों में चाँदी की रेखा जैसी नदियाँ कुण्डलियाँ खोल रही थीं। दूध के फेन जैसी चोटियाँ खडी थीं। कोई लक्ष्य न पाकर उसकी दृष्टि अस्पष्ट विस्तार पर तैर रही थी। उस समय उसकी स्थिर आँखों के छिद्रों से सामने की चढाई पर एक सुन्दर, सुघड युवती को देखने लगी जो केवल उसकी दृष्टि का लक्ष्य बन सकने के लिए ही, उस विस्तार में जहाँ-तहाँ, सभी जगह दिखाई दे रही थी।

जयराज ने एक अस्पष्ट-सा आश्वासन अनुभव किया। इस अनुभूति को पकड पाने के लिये उसने अपनी दृष्टि उस विस्तार से हटा, दोनों बाहों को सीने पर बाँध कर एक गहरा निश्वास लिया। उसे जान पडा जैसे अपार पारावार में बहता निराश व्यक्ति अपनी रक्षा के लिये आने वाले की पुकार सुन ले। उसने अपने मन में स्वीकार किया, यही तो वह चाहता है ः - कल्पना से सौन्दर्य की सृष्टि कर सकने के लिये उसे स्वयं भी जीवन में सौन्दर्य का सन्तोष मिलना चाहिये; बिना फूलों के मधुमक्खी मधु कहाँ से लाये?

ऐसी ही मानासिक अवस्था में जयराज को एक पत्र मिला। यह पत्र इलाहाबाद से उसके मित्र एडवोकेट सोमनाथ ने लिखा था। सोमनाथ ने जयराज का परिचय उसकी कला के प्रति अनुराग और आदर के कारण प्राप्त किया था। कुछ अपनापन भी हो गया था। सोम ने अपने उत्कृष्ट कलाकार मित्र के बहुमूल्य समय का कुछ भाग लेने की घृष्टता के लिये क्षमा माँग कर अपनी पत्नी के बारे में लिखा था - '' ...ऌस वर्ष नीता का स्वास्थ्य कुछ शिथिल हैं, उसे दो मास पहाड में रखना चाहता हूँ। इलाहाबाद की कडी ग़र्मी में वह बहुत असुविधा अनुभव कर रही है। यदि तुम अपने पडोस में ही किसी सस्ते, छोटे परन्तु अच्छे मकान का प्रबन्ध कर सको तो उसे वहाँ पहुँचा दूँ। सम्भवतः तुमने अलग पूरा बँगला लिया होगा। यदि उस मकान में जगह हो और इससे तुम्हारे काम में विघ्न पडने की आशंका न हो तो हम एक-दो कमरे सबलेट कर लेंगे। हम अपने लिए अलग नौकर रख लेंगे .. आदि-आदि।

दो वर्ष पूर्व जयराज इलाहाबाद गया था। उस समय सोम ने उसके सम्मान में एक चाय-पार्टी दी थी। उस अवसर पर जयराज ने नीता को देखा था और नीता का विवाह हुए कुछ ही मास बीते थे। पार्टी में आये अनेक स्त्री-पुरूष के भीड-भडक्के में संक्षिप्त परिचय ही हो पाया था। जयराज ने स्मृति को ऊँगली से अपने मस्तिष्क को कुरेदा। उसे केवल इतना याद आया कि नीता दुबली-पतली, छरहरे बदन की गोरी, हँसमुख नवयुवती थी; आँखों में बुध्दि की चमक। जयराज ने पत्र को तिपाई पर एक ओर दबा दिया और फिर सामने घाटी के विस्तार पर निरूद्देश्य नजर किये सोचने लगा - क्या उत्तर दे?

जयराज की निरूद्देश्य दृष्टि तो घाटी के विस्तार पर तैर रही थी परन्तु कल्पना में अनुभव कर रहा था कि उसके समीप ही दूसरी आराम कुर्सी पर नीता बैठी है। वह भी दूर घाटी में कुछ देख रही है या किसी पुस्तक के पन्नों या अखबार में दृष्टि गडाये है। समीप बैठी युवती नारी की कल्पना जयराज को दूध के फेन के समान श्वेत, स्फटिक के समान उज्ज्वल पहाड क़ी बरफानी चोटी से कहीं अधिक स्पन्दन उत्पन्न करने वाली जान पडी। युवती के केशों और शरीर से आती अस्पष्ट-सी सुवास, वायु के झोकों के साथ घाटियों से आती बत्ती और शिरीष के फूलों की भीनी गन्ध से अधिक सन्तोष दे रही थी। वह अपनी कल्पना में देखने लगा - नीता उसकी आँखों के सामने घाटी की एक पहाडी पर चढती जा रही है। कडे पत्थरों और कंकडों के ऊपर नीता की गुलाबी एडियाँ, सैन्डल में सँभली हुई हैं। वह चढाई में साडी क़ो हाथ से सँभाले हैं। उसकी पिंडलियाँ केले के भीतर के डंठल के रंग की हैं, चढाई के श्रम के कारण नीता की साँस चढ ग़ई है और प्रत्येक साँस के साथ उसका सीना उठ आने के कारण, कमल की प्रस्फुटनोन्मुख कली की तरह अपने आवरण को फाड देना चाहता है। कल्पना करने लगा - वह कैनवैस के सामने खडा चित्र बना रहा है।

नीता एक कमरे से निकली है। आहट ले उसके कान में विघ्न न डालने क लिए पंजों के बल उसके पीछे से होती हुई दूसरे कमरे में चली जा रही है। नीता किसी काम से नौकर को पुकार रही है। उस आवाज से उसके हृदय का साँय-साँय करता सूनापन सन्तोष से बस गया है ...।

ज़यराज तुरन्त कागज और कलम ले उत्तर लिखने बैठा परन्तु ठिठक कर सोचने लगा - वह क्या चाहता है? ...मित्र की पत्नी नीता से वह क्या चाहेगा? . .तटस्थता से तर्क कर उसने उत्तर दिया - कुछ भी नहीं। जैसे सूर्य के प्रकाश में हम सूर्य की किरणों को पकड लेने की आवश्यकता नहीं समझते, उन किरणों से स्वयं ही हमारी आवश्यकता पूरी हो जाती है; वैसे ही वह अपने जीवन में अनुभव होने वाले सुनसान अँधेरे में नारी की उपस्थिति का प्रकाश चाहता है।

जयराज ने संक्षिप्त-सा उत्तर लिखा - ...भीड-भाड से बचने के लिए अलग पूरा ही बंगला लिया है। बहुत-सी जगह खाली पडी है। सबलेट-का कोई सवाल नहीं। पुराना नोकर पास है। यदि नीताजी उस पर देख-रेख रखेंगी तो मेरा ही लाभ होगा। जब सुविधा हो आकर उन्हें छोड ज़ाओ। पहुँचने के समय की सूचना देना। मोटर स्टैन्ड पर मिल जाऊँगा ...।''

अपनी आँखों के सामने और इतने समीप एक तरूण सुन्दरी के होने की आशा में जयराज का मन उत्साह से भर गया। नीता की अस्पष्ट-सी याद को जयराज ने कलाकार के सौन्दर्य के आदेशों की कल्पनाओं से पूरा कर लिया। वह उसे अपने बरामदे में, सामने की घाटी पर, सडक़ पर अपने साथ चलती दिखाई देने लगी। जयराज ने उसे भिन्न-भिन्न रंगों की साडियों में, सलवार-कमीज के जोडों की पंजाबी पोशाक में, मारवाडी अँगिया-लहंगे में फूलों से भरी लताओं के कुंज में, चीड क़े पेड क़े तले और देवदारों की शाखाओं की छाया में सब जगह देख लिया। वह नीता के सशरीर सामने आ जाने की उत्कट प्रतीक्षा में व्याकुल होने लगा; वैसे ही जैसे अँधेरे में परेशान व्यक्ति सूर्य के प्रकाश की प्रतीक्षा करता है।

लौटती डाक से सोम का उत्तर आया - ...तारीख को नीता के लिये गाडी में एक जगह रिजर्व हो गई है। उस दिन हाईकोर्ट में मेरी हाजिरी बहुत आवश्यक है। यहाँ गर्मी अधिक है और बढती ही जा रही है। मैं नीता को और कष्ट नहीं देना चाहता। काठगोदान तक उसके लिए गाडी में जगह सुरक्षित है। उसे बस की भीड में न फँस कर टैक्सी पर जाने के लिए कह दिया है। तुम उसे मोटर स्टैण्ड पर मिल जाना। तुम हम लोगों के लिये जहाँ सब कुछ कर रहे हो, इतना और सही। हम दोनों कृतज्ञ होंगे ...।

ज़यराज मित्र की सुशिक्षित और सुसंस्कृत पत्नी को परेशानी से बचाने के लिए मोटर स्टैण्ड पर पहुँच कर उत्सुकता से प्रतीक्षा कर रहा था। काठगोदाम से आनेवाली मोटरें पहाडी क़े पीछे से जिस मोड से सहसा प्रकट होती थीं, उसी ओर जयराज की आँँख निरन्तर लगी हुई थी। एक टैक्सी दिखाई दी। जयराज आगे बढ ग़या। गाडी रूक़ी। पिछली सीट पर एक महिला अपने शरीर का बोझ सँभाल न सकने के कारण कुछ पसरी हुई-सी दिखाई दी। चेहरे पर रोग की थकावट का पीलापन और थकावट से फैली हुई निस्तेज आँखों के चारों ओर झाइयों के घेरे थे। ज़यराज ठिठका। महिला की आँखों में पहचान का भाव और नमस्कार में उसके हाथ उठते देख जयराज को स्वीकार करना पडा - ''मैं जयराज हूँ।''
महिला ने मुस्कराने का यत्न किया - ''मैं नीता हूँ।''

महिला की वह मुस्कान ऐसी थी जैसे पीडा को दबा कर कर्तव्य पूरा किया गया हो। महिला के साधारणतः दुबले हाथ-पाँवों पर लगभग एक शरीर का बोझ पेट पर बँध जाने के कारण उसे मोटर से उतरने में भी कष्ट हो रहा था। बिखरे जाते अपने शरीर को सँभालने में उसे ही असुविधा हो रही थी जैसे सफर में बिस्तर के बन्द टूट जाने पर उसे सँभलना कठिन हो जाता है। महिला लँगडाती हुई कुछ ही कदम चल पायी कि जयराज ने एक डाँडी (डोली) को पुकार उसे चार आदमियों के कंधों पर लदवा दिया।

सौजन्य के नाते उसे डाँडी के साथ चलना चाहिए था परन्तु उस शिथिल और विरूप आकृति के समीप रहने में जयराज को उबकाई और ग्लानि अनुभव हो रही थी।

नीता बंगले पर पहुँच कर एक अलग कमरे में पलंग पर लेट गई। जयराज के कानों में उस कमरे से निरन्तर आह! ऊँह! की दबी कराहट पहुँच रही थी। उसने दोनों कानों में उँगलियाँ दबा कर कराहट सुनने से बचना चाहा परन्तु उसे शरीर के रोम-रोम से वह कराहट सुनाई दे रही थी। वह नीता की विरूप आकृति, रोग और बोझ से शिथिल, लंगडा-लंगडा कर चलते शरीर को अपनी स्मृति के पट से पोंछ डालना चाहता था परन्तु वह बरबस आकर उसके सामने खडा हो जाता। नीता जयराज को उस मकान के पूरे वातावरण में समा गई अनुभव हो रही थी। जयराज का मन चाह रहा था - बंगले से कहीं दूर भाग जाये।

दूसरे दिन सुबह सूर्य की प्रथम किरणें बरामदे में आ रही थीं। सुबह की हवा में कुछ खुश्की थी। जयराज नीता के कमरे से दूर, बरामदे में आरामकुर्सी पर बैठ गया। नीता भी लगातार लेटने से ऊब कर कुछ ताजी हवा पाने के लिये अपने शरीर को सँभाले, लँगडाती-लँगडाती बरामदे में दूसरी कुर्सी पर आ बैठी। उसने कराहट को गले में दबा, जयराज को नमस्कार कर हाल-चाल पूछ कर कहा - ''मुझे तो शायद सफर की थकावट या नयी जगह के कारण रात नींद नहीं आ सकी ..।''

ज़यराज के लिए वहाँ बैठे रहना असम्भव हो गया। वह उठ खडा हुआ और कुछ देर में लौटने की बात कह बँगले से निकल गया। परेशानी में वह इस सडक़ से उस सडक़ पर मीलों घूमता इस संकट से मुक्ति का उपाय सोचता रहा। छुटकारे के लिए उसका मन वैसे ही तडप रहा था जैसे चिडिमार के हाथ में फँस गई चिडिया फडफ़डाती है। उसे उपाय सूझा। वह तेज कदमों से डाकखाने पहुँचा। एक तार उसने सोम को दे दिया - अभी बनारस से तार मिला है कि रोग-शैया पर पडी माँ मुझे देखने के लिए छटपटा रही हैं। इसी समय बनारस जाना अनिवार्य है। मकान का किराया छः महीने का पेशगी दे दिया है। नौकर यहीं रहेगा। हो सके तो तुम आकर पत्नी के पास रहो।

यह तार दे वह बंगले पर लौटा। नौकर को इशारे से बुलाया। एक सूटकेस में आवश्यक कपडे ले उसने नौकर को विश्वास दिलाया कि दो दिन के लिये बाहर जा रहा है। सोम को दी हुई तार की नकल अपने जाने के बाद नीता को दिखाने के लिए दे दी और हिदायत की - ''बीबी जी को किसी तरह का भी कष्ट न हो।''

बनारस में जयराज को रानीखेत से लिखा सोम का पत्र मिला। सोम ने मित्र की माता के स्वास्थ्य के लिये चिन्ता प्रकट की थी और लिखा था कि हाईकोर्ट में अवकाश हो गया है। वह रानीखेत पहुँच गया है। वह और नीता उसके लौट आने की प्रतीक्षा उत्सुकता से कर रहे हैं।

जयराज ने उत्तर में सोम को धन्यवाद देकर लिखा कि वह मकान और नौकर को अपना ही समझ कर निस्संकोच वहाँ रहे। वह स्वयं अनेक कारणों से जल्दी नहीं लौट सकेगा। सोम बार-बार पत्र लिखकर जयराज को बुलाता रहा परन्तु जयराज रानीखेत न लौटा। आखिर सोम मकान और सामान नौकर को सहेज, नीता के साथ इलाहाबाद लौट गया। यह समाचार मिलने पर जयराज ने नौकर को सामान सहित बनारस बुलवा लिया।

जयराज के जीवन में सूनेपन की शिकायत का स्थान अब सौन्दर्य के धोखे के प्रति ग्लानि ने ले लिया। जीवन की विरूपता और वीभत्सता का आतंक उसके मन पर छा गया। नीता का रोग से पीडित, बोझिल कराहता हुआ रूप उसकी आँखों के सामने से कभी न हटने की जिद कर रहा था। मस्तिष्क में समायी हुई ग्लानि से छुटकारा पाने का दृढ निश्चय कर वह सीधा कश्मीर पहुँचा। फिर बरफानी चोटियों क बीच कमल के फूलों से घिरी नीली डल झील में शिकारे पर बैठ उसने सौन्दर्य के प्रति अनुराग पैदा करना चाहा। पुरी और केरल में समुद्र के किनारे जा उसने चाँदनी रात में ज्वार-भाटे का दृश्य देखा। जीवन के संघर्ष से गूँजते नगरों में उसने अपने-आप को भुला देना चाहा परन्तु मस्तिष्क में भरे हुए नारी की विरूपता के यथार्थ ने उसका पीछा न छोडा। वह बनारस लौट आया और अपने ऊपर किये गये अत्याचार का बदला लेने के लिये रंग और कूची लेकर कैनवेस के सामने जा खडा हुआ।

जयराज ने एक चित्र बनाया, पलंग पर लेटी हुई नीता का। उसका पेट फूला हुआ था, चेहरे पर रोग का पीलापन, पीडा से फैली हुई आँखें, कराहट में खुल कर मुडे हुए होंठ, हाथ-पाँव पीडा से ऐंठे हुए।

जयराज यह चित्र पूरा कर ही रहा था कि उसे सोम का पत्र मिला। सोम ने अपने पुत्र के नामकरण की तारीख बता कर बहुत ही प्रबल अनुरोध किया था कि उस अवसर पर उसे अवश्य ही इलाहाबाद आना पडेग़ा। जयराज ने झुंझलाहट में पत्र को मोड क़र फेंक दिया, फिर औचित्य के विचार से एक पोस्टकार्ड लिख डाला - धन्यवाद, शुभकामना और बधाई। आता तो जरूर परन्तु इस समय स्वयं मेरी तबियत ठीक नहीं। शिशु को आशीर्वाद।

सोम और नीता को अपने सम्मानित और कृपालु मित्र का पोस्टकार्ड शनिवार को मिला। रविवार वे दोनों सुबह की गाडी से बनारस जयराज के मकान पर जा पहुँचे। नौकर उन्हें सीधे जयराज के चित्र बनाने की टिकटिकी पर ही चढा हुआ था। सोम और नीता की आँखें उस चित्र पर पडी और वहीं जम गई।

जयराज अपराध की लज्जा से गडा जा रहा था। बहुत देर तक उसे अपने अतिथियों की ओर देखने का साहस ही न हुआ और जब देखा ते नीता गोद में किलकते बच्चे को एक हाथ से कठिनता से सँभाले, दूसरे हाथ से साडी क़ा आँचल होठों पर रखे अपनी मुस्कराहट छिपाने की चेष्टा कर रही थी। उसकी आँखें गर्व और हँसी से तारों की तरह चमक रही थीं। लज्जा और पुलक की मिलवट से उसका चेहरा सिंदूरी हो रहा था।

जयराज के सामने खडी नीता, रानीखेत में नीता को देखने से पहले और उसके सम्बन्ध में बताई कल्पनाओं से कहीं अधिक सुन्दर थी। जयराज के मन को एक धक्का लगा - ओह धोखा! और उसका मन फिर धोखे की ग्लानि से भर गया।

जयराज ने उस चित्र को नष्ट कर देने के लिए समीप पडी छुरी हाथ में उठा ली। उसी समय नीता का पुलक भरा शब्द सुनाई दिया - ''इस चित्र का शीर्षक आप क्या रखेंगे?''

जयराज का हाथ रूक गया। वह नीता के चेहरे पर गर्व और अभिमान के भाव को देखता स्तब्ध खडा था।

कलाकार को अपने इस बहुत ही उत्कृष्ट चित्र के लिए कोई शीर्षक न खोज सकते देख नीता ने अपने बालक को अभिमान से आगे बढा, मुस्कुराकर सुझाया - ''इस चित्र का शीर्षक रखिये सृजन की पीडा।!''

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