मोहन राकेश की कहानी - आर्द्रा

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बचन को थोड़ी ऊँघ आ गई थी , पर खटका सुनकर वह चौंक गई। इरावती डयोढ़ी का दरवाज़ा खोल रही थी। चपरासी गणेशन ...

बचन को थोड़ी ऊँघ आ गई थी, पर खटका सुनकर वह चौंक गई। इरावती डयोढ़ी का दरवाज़ा खोल रही थी। चपरासी गणेशन आ गया था। इसका मतलब था कि छ: बज चुके होंगे। बचन के शरीर में ऊब और झुंझलाहट की झुरझुरी भर गई। बिन्नी न रात को घर आया था, न सुबह से अब तक उसने दर्शन दिए थे। इस लड़के की वजह से ही वह परदेस में पड़ी हुई थी, जहाँ न कोई उसकी जबान समझता था, न वह किसी की जबान समझती थी। एक इरावती थी, जिससे वह टूटी-फूटी हिन्दी बोल लेती थी, हालाँकि उसकी पंजाबी हिन्दी और इरावती की कोंकणी हिन्दी में ज़मीन-आसमान का अन्तर था। जब इरावती भी उसकी सीधे-सादे शब्दों में कही हुई साधारण-सी बात को न समझ पाती, तो वह बुरी तरह अपनी विवशता के खेद से दब जाती थी और इस लड़के को रत्ती-भर चिन्ता नहीं थी कि माँ किस मुश्किल से दिन काटती है और किस बेसब्री से मेरा इन्तज़ार करती है। आए तो घर आ गए, नहीं तो जहाँ हुआ पड़े रहे।

एक मादा सुअर अपने छ: बच्चों के साथ, जो अभी नौ-नौ इंच से ऊँचे नहीं हुए थे, कुएँ की तरफ़ से आ रही थी। तूते के बुड्ढ़े पेड़ के पास पहुँचकर उसने हुंफ्-हुंफ् करते हुए दो-तीन बार नाली को सुँघा और पेड़ के नीचे कीचड़ में लोटने लगी। उसके नन्हें आत्मज उसके उठने की राह देखते हुए वहीं आस-पास मंडराने लगे।

दिन-भर गली में यही सिलसिला चलता था। आसपास सभी घरों ने सुअर पाल रखे थे। बस्ती में लोगों के दो ही धन्धे थे -- सुअर पालना और नाजायज़ शराब निकालना। ये दोनों चीजें उनके दैनिक आहार में सम्मिलित थीं। बस्ती सांटाक्रुज के हवाई अड्डे से केवल आधा मील के फासले पर थी, पर पुलिस की आँख वहाँ नहीं पहुँचती थी। मोनिका का बाप जेकब गली में ही भट्टी लगाता था। वह गली का सबसे बड़ा पियक्कड़ माना जाता था और अक्सर पी कर गली में गाता हुआ चक्कर लगाया करता था, 'ओ दॅट आई हैड विंग्ज ऑफ एंजल्स, हियर टू स्प्रेड एण्ड हैवन वर्ड फ्लाई।'

उस समय वह रोज़ की तरह कुएँ के मोड़ के पास से लड़खड़ाता आ रहा था। उसके शब्द बचन की समझ के बाहर थे, परन्तु उसका स्वर उसके हृदय में दहशत पैदा करने के लिए काफी था, 'ओ दॅट आई हैड विंग्ज ऑफ एन्जल्स, हियर टु स्प्रेड एण्ड हैवनवर्ड फ्लाई! होई-हो! हो-हो-हो! ओ दॅट आई हैड विंग्ज ऑफ एन्जल्स...'

उसका चौडा-चौकोर चेहरा वैसे ही भयानक था, अपने ढीले-ढाले काले सूट में वह और भयानक दिखाई देता था। चेचक के दागों और झुर्रियों से भरा उसका चेहरा दीमक खाई लकड़ी की याद दिलाता था। दूर से ही उस आदमी की आवाज सुनकर बचन का दिल धड़कने लगता था और वह अपना दरवाज़ा बन्द कर लेती थी। उसने कितनी ही बार बिन्नी से कहा था कि वह उस बस्ती से मकान बदल ले, पर वह हर बार यह कहकर टाल देता कि बम्बई की ओर किसी बस्ती में बीस रुपए महिने में उतना अच्छा मकान नहीं मिल सकता। बचन डर के मारे बिन्नी के आने तक लालटेन की लौ भी ज़्यादा ऊँची नहीं करती थी। अंधेरा बहुत बोझिल प्रतीत होता था पर वह मन मार कर बैठी रहती थी।

लालटेन की चिमनी नीचे से आधी काली हो रही थी। बचन को उसे साफ करने का उत्साह नहीं हुआ। अंधेरा होने लगा तो उसने जैसे कर्तव्य पूरा करने के लिए उसे जला दिया और अज्ञात देवता के आगे हाथ जोड़ने की प्रक्रिया पूरी करके घुटनों पर बाहें रखकर बैठ रही। सामने मोढ़े के नीचे लाली का कार्ड रखा था। वह उन अक्षरों की बनावट जानती थी, पर हज़ार आँखें गड़ाकर भी उनका अर्थ नहीं जान सकती थी। बिन्नी के सिवा हिन्दी की चिठ्ठी पढ़ने वाला वहाँ कोई न था। बिन्नी से चिठ्ठी पढ़वाकर भी उसे सुख नहीं मिलता था। वह लाली की चिठ्ठी इस तरह पढ़ कर सुनाता था, जैसे वह उसके बड़े भाई की चिठ्ठी न हो कर गली से किसी गैर आदमी के नाम आई किसी नावाकिफ़ आदमी की चिठ्ठी हो। दो मिनट में वह पहली सतर से लेकर आखिरी सतर तक सारी चिठ्ठी बाँच देता था और फिर उसे कोने में फेंक कर अपनी इधर-उधर की हाँकने लगता था। हर बार उससे चिठ्ठी सुनकर वह कुढ़ जाती थी, पर बिन्नी उसे नाराज़ देखता तो तरह-तरह की बातें बनाकर उसे खुश कर लिया करता था।

उसे खुश होते देर नहीं लगती थी। बिन्नी इतना बड़ा हो कर भी जब-तब उससे बच्चों की तरह लाड़ करने लगता था। कभी उसकी गोद में सिर रखकर लेट जाता और कभी उसके घुटनों से गाल सहलाने लगता। ऐसे क्षणों में उसका हृदय पिघल जाता और वह उसके बालों पर हाथ फेरती हुई उसे छाती से लगा लेती।
''माँ, तेरा छोटा लड़का कपूत है न!'' बिन्नी कहता।
''हाँ-हाँ'' वह हटकने के स्वर में कहती,''तू कपूत है? तू मेरे चन्ना?'' और वह उसका माथा चूम लेती।

लेकिन अक्सर वह बहुत तंग पड़ जाती थी। अनेक रातें ऐसी गुज़रती थीं जब वह घर आता ही नहीं था। अंधेरे घर की छत उसे दबाने को आती थी और यह सारी रातें करवटें बदलती रहती थी। ज़रा आँख झपकने पर बुरे-बुरे सपने दिखाई देने लगते थे। इसलिए कई बार वह प्रयत्न करके आँखें खुली रखती थी।
और वह आता था तो अपने में ही उलझा हुआ व्यस्त-सा।

वह नहीं समझ पाती थी कि उसे किस चीज़ की व्यस्तता रहती है। जहाँ तक कमाने का सवाल था, वह महीने में कठिनता से साठ-सत्तर रुपये घर लाता था। कभी दस रुपये अधिक ले आता तो साथ ही अपनी पचास माँगें उसके सामने रख देता,''इस बार माँ, दो कमीज़ें सिल जाएँ और एक बढ़िया-सा जूता आ जाए'' उसकी बातों से बचन के होठों पर रुखी-सी मुस्कुराहट आ जाती थी। दस रुपये में उसे घर-भर का सामान चाहिए। और जब वह साठ से भी कम रुपए लाता, तो महिने भर की बड़ी आसान योजना उसके सामने प्रस्तुत कर देता, 'दूध-दही का नागा, दाल, प्याज़ खुश्क फुलके और बस!'

वह जानती थी कि ये रुपए भी वह टयुशन-वुशन करके ले आता है, वरना सही अर्थ में वह बेकार है। उसके दिल में बड़े-बड़े मनसूबे अवश्य थे और उनका बखान करते समय वह छोटा-मोटा भाषण दे डालता था; परन्तु उन मनसूबों को पूरा करने के लिए जिस दुनिया की ज़रूरत थी, वह दुनिया अभी बननी रहती थी और वह जोश से उँगलियाँ नचा-नचा कर कहा करता था कि माँ, वह दुनिया बन जाएगी तो तुझे पता चलेगा कि तेरा नालायक बेटा कितना लायक है!
'चुप रह खतम रखना!' वह प्रशंसा की दृष्टि से उसे देखती हुई कहती, 'बडा लायक एक तू ही है।'
'माँ, मेरी लियाकत मेरे पेट में बन्द हैं।' वह हँसता। 'जिस तरह हिरन के पेट में कस्तूरी बन्द होती है न, उसी तरह। जिस दिन वह खुल कर सामने आएगी उस दिन तू अचम्भे से देखती रह जाएगी।'

उसे उसकी बातें सुनकर गर्व होता था। पर कई बार वह बहुत गुम-सुम और बन्द-बन्द सा रहता था, तो उसे उलझन होने लगती थी। और उसके साथ उसके अजीब-अजीब दोस्त घर आया करते थे। उन लोगों का शायद कोई ठोर-ठिकाना नहीं था, क्योंकि वे आते तो दो-दो दिन वहीं पड़े रहते थे और खाने-पीने में निहायत बेतकल्लुफ़ी से काम लेते थे। चूल्हे से उतरती हुई रोटी के लिए जब वे आपस में छीना-झपटी करने लगते, तो उसे आन्तरिक प्रसन्नता का अनुभव होता था। परन्तु प्राय: उसकी दाल की पतीली खाली हो जाती थी और यह देखकर कि उन लोगों की खाने की कामना अभी बनी हुई है, उसे घर का अभाव अपना अपराध प्रतीत होता था। ऐसे समय उसकी आँखों में नमी छा जाती और वह ध्यान बँटाने के लिए अन्य काम करने लगती। वे लोग रुखी नमकीन रोटियों की फ़रमाइश करते तो वह चुपचाप बना देती, परन्तु उन्हें खिलाने का उसका सारा उत्साह समाप्त हो चुका होता।

और उन लोगों के बहस-मुबाहिसे कभी शान्त नहीं होते थे। वे सब ज़ोर-ज़ोर से बोलते थे और इस तरह आपस में उलझ जाते थे; जैसे उनकी बहस पर धरती और ईश्वर की सत्ता का दारोमदार हो। कई बार वे इतने गरम हो जाते थे कि लगता था, अभी एक-दूसरे को नोंच डालेंगे; मगर सहसा उस उत्तेजना के बीच से एक कहकहा फूट पड़ता और वे उठ-उठ कर एक-दूसरे से बगलगीर होने लगते। बिन्नी बचपनमें बहुत खामोश लड़का था। अब उसे इस तरह हुड़दंग करते देखकर उसे आश्चर्य होता था। कई-कई घण्टे घर में तूफ़ान मचा रहता था। उसके बाद फिर नीरवता छा जाती, जो बहुत ही अस्वाभाविक और दम घोटने-वाली प्रतीत होती थी। जब बिन्नी दो-दो दिन घर नहीं आता, तो उस नीरवता के ओर-छोर गुम हो जाते और वह अपने को सदा से गहरे शून्य एकान्त में पड़ी हुई महसूस करती।

अंधेरा गहरा होने लगा और मोनिका का बाप जा कर अपने कमरे में बन्द हो गया, तो उसने दरवाज़ा खोल दिया। मादा सूअर और उसके बच्चे सामने घर के आहते में डेरा जमाए थे और एक मोटा सुअर नाली के पास हुंफ्-हुंफ् कर रहा था। हवा तेज़ हो गई थी और तूत के बुढ्ढे पेड़ की डालियाँ बुरी तरह हिल रही थीं। आसमान का जो छोर दिखाई देता था, वहाँ रह-रहकर बिजली चमक जाती थी। दो महिने से प्राय: रोज़ ही वर्षा हो रही थी। घर से कुएँ तक गली में कीचड़-कीचड़ भरा रहता था।

इस कीचड़ के लिए बचन को लड़के-लडकियों की उन टोलियों से गिला था, जो वर्षा आरम्भ होने से पूर्व आधी-आधी रात तक गली में घूमती हुई तार-स्वर में ईश्वर से पानी बरसाने का अनुरोध किया करती थी। अब जैसे उन्हीं की वजह से सारा दिन गली में चिपड़-चिपड़ होती रहती थीं।

डयोढ़ी के दरवाज़े पर फिर दस्तक हुई। इरावती ने दरवाज़ा खोल दिया और बिन्नी उधर से मुस्कुराता हुआ अन्दर आ गया।
''आगे की तरफ़ बहुत कीचड़ है; भाभी, माफ़ करना,'' कहता हुआ वह अपने कमरे में आ गया। इरावती ने उस पर एक शिकायत की नज़र डालकर दरवाज़ा बन्द कर लिया। उसके सिर के बाल बुरी तरह उलझे हुए थे और कुर्ता पाजामा बहुत मुचड़े हुए थे। यह स्पष्ट था कि वह सुबह जिस हाल में सो कर उठा था, अभी तक उसी हाल में था और अब तक उसे मुँह-हाथ धोने का समय भी नहीं मिला था।

''माँ, जल्दी से रोटी डाल दे, भूख लगी है'' उसने आते ही चारपाई पर पैर फैलाते हुए आदेश दिया। बचन चुपचाप अपनी जगह पर बैठी रही। न उठी और न ही उसने मुँह से कुछ कहा। कुछ क्षण प्रतिक्षा करने के बाद बिन्नी ने सिर उठाया और कहा,''माँ, रोटी!''

''रोटी आजद्दनहीं बनी है,'' बचन बोली,''मुझे क्या पता था कि लाट साहब आज भी घर आएँगे कि नहीं? रात की रोटी मैंने सबेरे खाई, सबेरे की अब खाई। मैं किस तरह रोज़-रोज़ बासी रोटी खाती रहूँ? किसी तन्दूर पर जा कर खा आ''

बिन्नी हँसता हुआ उठ बैठा और माँ के मोढ़े के पास चला गया।

''यहाँ तंदूर हैं कहाँ, जहाँ जा कर खा लूँ?'' वह बोला,''मेरे हिस्से की जो बासी रोटी रखी थी, वह तूने क्यों खाई? मेरी वाली रोटी दे'' और वह माँ का घुटना पकड़कर बैठ गया।

''मेरे पेट से निकाल ले अपनी बासी रोटी!'' बचन ने वाक्य आरम्भ किया था मीठी झिड़की के रूप में, पर समाप्त करते-करते उसकी आँखें गीली हो गई।

बिन्नी ने उसकी गीली आँखें नहीं देखीं। वह उठ कर रोटी वाले डिब्बे के पास चला गया और बोला,''डिब्बे में रखी होंगी, ज़रूर होंगी ''

बचन ने उसकी नज़र बचाकर अपनी आँखें पोंछ लीं। बिन्नी रोटी वाला डिब्बा लिए हुए उसके सामने आ बैठा। डिब्बे में कटोरा-भर दाल के साथ चार रोटियाँ एक कपड़े में लपेटकर रखीं थीं। बिन्नी ने जल्दी से एक रोटी तोड़ ली!

''यह तो ताज़ी रोटी है!'' वह ग्रास मुँह में ठूँसे हुए बोला।
''बाँसी रोटी खाने को माँ जो है!'' कहकर बचन उठ खड़ी हुई।
उसने पानी का गिलास भरकर उसके पास रख दिया। बिन्नी ने एक घूँट में गटागट गिलास खाली कर दिया और बोला,''और!''
बचन ने गिलास उठा लिया और सुराही से उसमें पानी उंडेलती हुई बोली,''लाली का कार्ड आया है''

''अच्छा!'' कहकर बिन्नी रोटी खाता रहा। उसने कार्ड के सम्बन्ध में ज़रा जिज्ञासा प्रकट नहीं की। बचन का दिल दुख गया। वह गिलास बिन्नी के आगे रखकर बिना एक शब्द कहे अहाते में चली गई और चारपाई पर दरी डाल कर पड़ गई उसका दिल उछलकर आँखों में बह आने को हो रहा था, पर वह किसी तरह चेहरा सख्त करके अपने को रोके रही। थोड़ी देर में बिन्नी जूठे पानी से हाथ धोकर, मुँह पोंछता हुआ अन्दर आ गया।
''कहाँ है कार्ड?'' उसने पूछा।
''कहीं नहीं है'' बचन ने रूँधे हुए स्वर में कहा और करवट बदल ली।
''अब बता भी दे न, जल्दी से सब समाचार पढ़ दूँ''
''सो जा, मुझे कोई समाचार नहीं पढ़वाना है''
''पढ़वाने क्यों नहीं हैं, मैं अभी सब सुनाता हूँ,'' कहकर बिन्नी अन्दर चला गया और कार्ड ढूँढ़कर ले आया। साथ लालटेन भी उठा लाया।
आधे मिनट में उसने सरसरी नज़र से सारा कार्ड पढ़ डाला।

''भैय्या की तबीयत ठीक नहीं हैं,'' वह लालटेन जमीन पर रखकर माँ की चारपाई के पैताने बैठ गया। बचन सहसा उठकर बैठ गई। बिन्नी ने गुन-गुन कर के पहली डेढ़ पंक्ति पढ़ी और फिर से सुनाने लगा। लाली ने लिखा था कि उसका ब्लडप्रेशर फिर बढ़ गया था, डॉक्टरने उसे आराम करने की सलाह दी है। कुसुम का स्वास्थ्य अब ठिक है और उसका रंग लाली पर आ रहा है। उन्होंने मकान बदल लिया है, क्योंकि पहला घर हवादार नहीं था। और बच्चों को वहाँ से स्कूल जाने में भी दिक्कत होती थी। अब दीवाली पास आ रही है इसलिए बच्चे माँ को बहुत याद करते हैं। माँ को गए छ: महिने से ऊपर हो गए हैं, इसलिए सबका दिल माँ के लिए उदास है।

''इस के बाद सब की नमस्ते हैं'' कहकर बिन्नी ने कार्ड रख दिया।
''यह नहीं लिखा कि किस डॉक्टर का इलाज चल रहा है?''
''तू जैसे वहाँ के सब डॉक्टरों को जानती है''
बिन्नी ने बात अनायास कह दी थी, पर बचन का हृदय छिल गया। उसके चेहरे पर फिर कठिनता आ गई।
''मैं कल वहाँ चली जाती हूँ'' उसने कहा।
''तू चली जाएगी तो मैं अकेला कैसे रहूँगा? मेरी रोटी?''

बचन ने वितृष्णा से उसके चेहरे को देखा, जिसका अर्थ था कि क्या तेरी रोटी उसकी जान से ज़्यादा प्यारी है?
''तू कौन घर की रोटी पर रहता है,'' मुँह से उसने इतना ही कहा।
''भैय्या का ब्लडप्रेशर कोई नया तो नहीं'' बिन्नी फिर कहने लगा।
''तू रहने दे, मैं कल जा रहीं हूँ,'' बचन ने उसे बीच में ही काट दिया। कई क्षण दोनों खामोश रहे। फिर बिन्नी 'अच्छा' कहकर उठ गया।

अगले दिन सुबह ही वह 'अभी थोड़ी देर में आऊँगा' कहकर गया और दोपहर तक लौटकर नहीं आया। बचन का किसी काम में दिल नहीं लग रहा था। फिर भी उसने खाना बनाया और घर के सभी छोटे-मोटे काम पूरे किए। बिन्नी की चारों-पाचों कमीज़ें ले कर उनके टूटे हुए बटन लगा दिए। फिर उसने अपनी दरी और कपड़े एक जगह इकठ्ठे कर लिये। यह निश्चित नहीं था कि वह उस दिन वहाँ से जा पाएगी या नहीं। बिन्नी सुबह उसे निश्चित कुछ बता कर नहीं गया था। यह भी सम्भव था कि बिन्नी के पास किराये के लिए पैसे हों ही नहीं। महिने की उन्नीस तारीख थी और उन्नीस तारीख को उसके पास कभी पैसे नहीं रहते थे। उस स्थिति में उसे तीन-चार तारीख तक अपना जाना स्थगित करना होगा। वह यह भी नहीं जानती थी कि दीवाली कौन तारीख को पड़ेगी। वह सोचने लगी कि इस बीच लाली की तबीयत ज़्यादा खराब न हो जाए। उसे ज़्यादा ही तकलीफ़ होगी, जो उसने चिठ्ठी में लिखा है, नहीं वह चिठ्ठी में कभी न लिखता। यह पंद्रह-बीस दिन यहाँ से न जा सकी तो?

तभी बिन्नी आ गया। उसके साथ उसका लम्बे बालों वाला दोस्त शशि भी था, जिसकी गरदन बात करते हुए तोते की तरह हिलती थी। वह उसकी दाल का सबसे बड़ा प्रशंसक था। आते ही दाल की फ़रमाइश करता था। सदा की तरह वे गली से ही उँचे स्वर में बातें करते हुए आए।

''टिकट ले आया हूँ,'' बिन्नी ने आते ही कहा।''मंगलवाडी से शशि को साथ लिया और वहीं से टिकट भी ले लिया। परन्तु तू अभी तैयार ही नहीं हुई!''
''तैयार क्या होती? तू मुझसे कहकर गया था?''

''जब रात को तय हो गया था, तो सुबह कहने की क्या ज़रूरत थी? अब जल्दी तैयार हो जा। दो घंटे में गाड़ी जाएगी। नकद सवा बीस खर्च करके आया हूँ और वे भी उधार के'' बचन को बुरा लगा कि वह बाहर के आदमी के सामने ऐसी बात कह रहा है।

वह नहीं जानती थी कि टिकट के लिए उसे रुपए उधार लेने पड़े होंगे। वह कब चाहती थी कि उसकी वजह से उस पर उधार चढ़े। वह कह देता तो वह बारह-चौदह दिन बाद चली जाती।
वह कुछ न कहकर कपड़े लपेटने लगी।
''हट माँ, तुझे बिस्तर बाँधना आता भी है?'' बिन्नी आगे बढ़ आया।
''उल्टी-सीधी रस्सी बाँधेगी, कहीं से मोटा कर देगी, कहीं से पतली। हट जा, मैं एक मिनट में बाँध देता हूँ। ऐसा बिस्तर बँधेगा कि रास्ता-भर तेरा खोलने को भी जी नहीं चाहेगा''
''तू रोटी खा ले, मैं बाँध लेती हूँ,'' बचन की आँखें भर आई।

''रोटी खानेवाला आदमी साथ लाया हूँ,'' वह माँ के लपेटे हुए कपड़ों को फिरसे फैलाता हुआ बोला,''यह इसलिए आया है कि तू चली जाएगी तो तेरे हाथ की दाल फिर कहाँ मिलेगी?''
बचन की गीली आँखों में हल्की-सी मुस्कुराहट भर गई।
''यह भी खा ले,''वह बोली,''मैं अभी दो फुलके और बना देती हूँ''
''और बनाने की ज़रूरत नहीं। जो है वही खा लेंगे''
''पहले मैं खा लूँ, फिर बचें वो इसे दे देना'' कहकर शशि गरदन उठाकर हँस दिया। बिन्नी बिस्तर बाँधता रहा। वह उन दोनों के लिए रोटी डाल लाई।

''तैयार!'' बिन्नी ने हाथ झाड़े और शशि के साथ खाना खाने डट गया।
''माँ अपने लिए रख लेना और जितना बचे वह हमें ला देना''
शशि दाल सुडकता हुआ बोला। वे दोनों खा चुके तो बचन ने जल्दी से बरतन समेट दिए।
''अब माँ, तू भी जल्दी से खा ले,'' बिन्नी ने कुल्ला करके हाथ पोंछते हुए कहा।
''मैंने खा लिया है''
''कब?'' किसी ने पास जाकर उसके कन्धे पकड़ लिए।
''तेरे आने से पहले''
''झूठी!''
''सच मैंने खा लिया है''
''आगे तो कभी इतनी जल्दी नही खाती''
''आज खा लिया है। घर से जाना था न। तुम दोनों तो भूखे नहीं रहे?''
''एक चौथाई भूखे रह गए'' शशि ने डकार लेकर तौलिये से मुँह पोंछा और खूँटी पर टाँग कर हँसने लगा।

स्टेशन पर उसे गाड़ी में बिठाकर वे दोनों प्लेटफार्म पर टहलने लगे। रात को भी बचन ने ठीक से नहीं खाया था, इसलिए भूख के मारे उसका सिर चकरा रहा था। वह जानती थी कि बिन्नी को पता है उसने कुछ नहीं खाया। इसलिए उसके मना करने पर भी वह आधा दर्जन केले रख गया था। वह एक बार मना कर चुकी थी, इसलिए नहीं खा रही थी। मगर बिन्नी और शशि टहलते हुए दूर चले गए थे और शायद अब भी उनमें बहस जारी थी। उसकी समझ में नहीं आता था कि ये लोग कोई इतनी बहस क्यों करते हैं! हर वक्त बहस, बहस, बहस! बहस का कोई अन्त भी होता है। जैसे सारी दुनिया के झगड़े उन्हीं को निपटाने हों। फटे हाल रहेंगे, सेहत का जरा ध्यान नहीं रखेंगे और बातें, जैसे संसार की सम्पत्ति के यही स्वामी हों और उसे बाँटने की समस्या इन्हीं के सिर पर आ पड़ी हो।

वे दोनों प्लेटफार्म के उस सिरे तक हो कर वापस आ रहे थे। वह उनके चेहरे देख रही थी।
माथे पर सलवटें डालें वे हाथ हिला-हिला कर बातें कर रहे थे, फिर भी बच्चे-से दीखते थे। उस समय शायद वे यह भी भूल गए थे कि वे उसे गाड़ी पर चढ़ाने आए हैं। सहसा गार्ड की सीटी सुन कर वे उसके डिब्बे के पास आ गए परन्तु वहाँ आ कर भी उनकी बहस चलती रही -- करघे का काम रूक जाएगा तो लाखों आदमी बेकार हो जाएँगे और जैसे कोमल रोएं हाथ के कपड़े के होते हैं, वैसे मशीनी कपड़े नहीं हो सकते!

बचन सोचने लगी कि ये लोग कभी अपने कपड़े क्यों नहीं देखते? इन्हें अपनी बेकारी की चिन्ता क्यों नहीं होती?
गाड़ी चलने लगी तो जैसे बिन्नी को होश हुआ और उसने उसका हाथ पकड़ कर कहा,''अच्छा माँ!''
बचन के होठों पर रूखी-सी मुस्कुराहट आ गई। उसने उसके सिर पर हाथ फेर दिया।
''अब कब आएगी?''
''जब तू बुलाएगा''
गाड़ी ने रफ्तार पकड़ ली। वह देर तक खिड़की से सिर निकाल कर उन्हें देखती रही। वे हाथ-में-हाथ डाले गेट की ओर जा रहे थे। उनकी बहस शायद अब भी चल रही थी।

बचन को घर आए पन्द्रह दिन हो गए थे।''बिन्नी की चिठ्ठी नहीं आई?'' उसने लाली के कमरे के बाहर रुक कर पूछा। लाली से सवाल पूछने में उसके स्वर में शासित-का सा भाव आ जाता था। वह बेटा बड़ा होते-होते इतना बड़ा हो गया था कि वह अपने को उससे छोटी महसूस करने लगी थी।

''आ जा माँ,'' लाली ने काग़ज़ों से आँखे उठा कर कहा।
''चिठ्ठी उसकी आज भी नहीं आई। न जाने इस लड़के को क्या हो गया है?''
''तू काम कर, मैं जा रही हूँ,'' वह बोली।''सिर्फ़ चिठ्ठी पूछने ही आई थी''

वह बरामदे से हो कर अपने कमरे में आ गई। वह जानती थी कि लाली का समय कीमती है। वह आधी-आधी रात तक बैठ कर दूसरे दिन का केस तैयार करता है। मुवक्किलों की वजह से उसका खाने-पीने का भी समय निश्चित नहीं रहता। छ: महीने में उसकी व्यस्तता पहले से कहीं बढ़ गई थी। नए घर में आ जाने से जगह का आराम अवश्य हो गया था, पर कचहरी पहले से भी दूर हो गई थी। उसकी व्यस्तता के कारण वह कई बार सारा-सारा दिन उससे बात नहीं कर पाती थी। रात को जब वह बैठक से उठ कर जाता, तो सीधा सोने के कमरे में चला जाता। दिन-भर की थकान के बाद वह उसके आराम में विघ्न नहीं डालना चाहती थी। सबेरे वह कुसुम से पूछ लेता कि रात को उसकी तबीयत कैसी रही है? कुसुम संक्षेप में उसे हाल बता देती।
''सोने से पहले उसके सिर में बादामरोगन डाल दिया करो,'' वह कहती।
''मैं कई बार कहती हूँ, पर वे डलवाते ही नहीं,'' कुसुम जैसे रटा-रटाया उत्तर देती।
''मुझे बुला लिया करो, मैं आ कर डाल दूंगी''
''डालने को नौकर है मगर वे डलवाते ही नहीं''

वह जानती थी कि सिर में बादामरोगन डलवाने के लिए लाली को किस तरह मनाया जा सकता है। मगर कुसुम अपने को अधिक अन्तरंग समझती थी। और उसके सुझावों से सहमति प्रकट करती हुई भी करती वही थी जो उसके मन में होता था। वह जिस शिष्टता और कोमलता से बात करती थी उससे बचन को लगता था कि वह उस घर में केवल मेहमान है। दिनभर उसके करने के लिए वहाँ कोई काम नहीं होता था। खाना बनाने के लिए एक नोकर था और उपर का काम करने के लिए दूसरा। उसके काम की देखभाल के लिए कुसुम थी। जब भी बचन कोई काम करने के लिए कहती तो कुसुम नौकर का ज़िक्र कर देती -- नोकर के रहते अपने हाथ से काम करने की क्या ज़रूरत है? यही बात लाली भी कह देता है --''माँ, तू काम करेगी तो घर में दो-दो नौकर किस लिए हैं?''

बचन सोचती थी कि काम करने के लिए नोकर है और देखभाल के लिए कुसुम है, फिर घर में उसका होना किस लिए है? सबेरे पाँच बजे से रात के दस बजे तक वह क्या करे? पन्द्रह दिन पहले वह आई ही थी, तो बच्चे उसके गिर्द हुए रहते थे। उन्हें दादी से हज़ारों बातें कहनी और शिकायतें करनी थीं। मगर चार दिन में ही उनके लिए उसकी नवीनता समाप्त हो गई थी। उनकी अपनी छोटी-छोटी व्यस्तताएँ थी, जिनमें उनका समय बँटा हुआ था।

कुमुद कभी-कभी ज़रूर उसके पास आ जाती थी और उसके कमरे में खामोश खेलती रहती थी। उसे दादी शायद इसलिए अच्छी लगती थी कि माँ दोनो भाइयों से अधिक स्नेह करती थी।

बचन कमरे में आ कर चारपाई पर लेट गई। मन ताने-बाने बुनने लगा। बिन्नी ने अभी तक चिठ्ठी क्यों नहीं लिखी? अंधेरे घर में इस समय वह अकेला सोया होगा। रोटी का जाने उसने क्या डौल किया है? उसने चलते समय उससे पूछा तक नहीं कि वह पीछे कैसे रहेगा, कहाँ रोटी खाएगा? उसके रहते वह तन-बदन की होश भूला रहता था, अब जाने उसकी क्या हालत होगी? चिठ्ठी ही लिख देता तो कुछ तसल्ली हो जाती। मगर उसे चिठ्ठी लिखने की होश आएगी?

कमरे में खिड़की खुली थी और दूर तक खुला आकाश दिखाई देते हुए उन नक्षत्रों के विन्यास से वह परिचित थी। वही नक्षत्र, वह बम्बई की उस मनहूस बस्ती में ऊपर भी झिलमिलते देखा करती थी। यहाँ से वे उसे तिरछे कोण से दिखाई देते थे, वहाँ वह अहाते में लेटकर उन्हें ठीक अपने ऊपर देखा करती थी। उसी तरह लेटे हुए वह बिन्नी की आहट की प्रतीक्षा करती थी। हुंफ्-हुंफ् की ध्वनियाँ पास आती और दूर चली जाती थीं। फिर दूर से फटे हुए गले की बेहूदा आवाज सुनाई देने लगती थी, 'ओ डैडाई है डि्वजो फेंजल।' उस आवाज़ से वह कितना घृणा करती थी! यहाँ इस एकान्त बंगले में आसपास मे कोई आवाज़ नहीं आती थी। नौ-साढ़े नौ बजे बच्चों के सो जाने के बाद निस्तब्धता छा जाती थी। केवल रंगीलाल के बरतन मलने या चौका धोने की ही आवाज़ सुनाई देती थी।

उसने करवट बदल ली कि किसी तरह नींद आ जाए! नींद न आना रोज की बात हो गई थी। कहाँ दस बजे से ही उसकी आँखों में नींद भर जाती थी और कहाँ अब वह ग्यारह, बारह और एक के घण्टे गिनती रहती थी। 'जाने क्यों?' वह सोचती रह जाती।

रात को वह देर से सोई मगर सुबह जल्दी उठ गई। उठने पर उसका हृदय रात से अधिक अस्थिर और अशान्त था। इतना बड़ा पहाड़-सा दिन और उसके बाद फिर वैसी ही रात! लम्बी निष्क्रियता की कल्पना से एक बड़ा शून्य उसके अन्तर को घेरे था। आकाश में चिडियों के गिरोह उड़ रहे थे। रसोईघर में रंगी स्टोव में हवा भर रहा था। उसे साहब के लिए बिस्तर पर चाय पहुँचानी थी। बम्बई में सुबह जब वह कमरे में बाल्टी रखकर नहा रही होती, तो बिन्नी बाहर से चाय की माँग करने लगता था। उससे उसके भजन में बाधा पड़ती थी और उसे उलझन होती थी, पर वह चुपचाप उसके लिए चाय बना देती थी। परन्तु आज उसे इस बात की उलझन हो रही थी कि उसका भजन में मन क्यों नहीं लगता? अब जब कि भजन के लिए पूरा अवकाश था, उसकी प्रवृत्ति उसकी ओर क्यों नहीं होती थी?

वह कुछ देर बरामदे में खड़ी हो कर सूर्योदय के स्वर्णिम रंग को देखती रही। क्षितिज के एक कोने से दूसरे कोने तक झिलमिलाती हुई स्वर्णिम आभा धीरे-धीरे बिखर रही थी। लगता था, जैसे गोलक में बन्द उजाला फूटकर बाहर निकलने के लिए संघर्ष कर रहा हो। उजाले की बढ़ती हुई झलक से हर क्षण ऐसी प्रतीति होती थी। उसने बरामदे से उतर कर पूजा के लिए गेंदे के कुछ फूल चुन लिए और रसोईघर में चली गई।

रंगी स्टोव से केतली उतार कर चायदानी में पानी डाल रहा था। उसने अपने आँचल के फूल आले में डाल दिए। रंगी ट्रे उठा कर चलने लगा, तो उसने ट्रे उसके हाथ से ले ली।
''रहने दे, मैं ले जाती हूँ'' और वह ट्रे लिए हुए लाली के कमरे की ओर चल दी।
''माँ जी, आप न ले जाइए, साहब मुझपर नाराज होंगे।'' रंगी ने पीछे से संकोच के साथ कहा।
''इसमें नाराज़ होने की क्या बात? मैं तेरे कहने से थोड़े ही ले जा रही हूँ?'' और वह थोड़ी खांस कर लाली के कमरे में चली गई।

लाली कम्बल ओढ़कर बिस्तर पर बैठा था। कुसुम सोई हुई थी।
लाली के हाथ में कुछ कागज थे, जिन्हें वह ध्यान से पढ़ रहा था। उसने यह लक्षित नहीं किया कि चाय ले कर माँ आई है। बचन ने ट्रे मेज पर रख प्याली में चाय बनाई और उसके पास ले गई। लाली ने चाय के लिए हाथ बढ़ाया तो देखा कि प्याली लिए माँ खड़ी है।

''माँ, तू?'' उसने आश्चर्य के साथ कहा।
बचन ने प्याली उसके हाथ में दे दी। उसने पहली बार लक्षित किया कि लाली के बाल कनपटियों के पास से सफेद हो गए हैं। चश्मा उतार देने से उसकी आँखों के नीचे गहरे गड्ढ़े नज़र आ रहे थे। लाली ने कागज रख कर चश्मा लगा लिया।
''रंगी और नारायण क्या कर रहे हैं?'' उसने पूछा।
''नारायण दूध लाने गया है,'' वह बोली, ''रंगी रसोईघर में हैं।''
''तो उससे नहीं आया जाता था? तू सुबह-सुबह उठकर चाय लाए, वाह इससे अच्छा है मैं आप ही बनाकर पी लूँ।''

''तू बनाकर पी लेगा, जिसे यह नहीं पता कि दूध कौन-सा है और चीनी कौन-सी!'' वह थोड़ा हँस दी। तभी कुसुम करवट बदल कर उठ बैठी।
''माँ जी, आप?'' उसने भी आँख मलते हुए उसी आश्चर्य के साथ कहा। फिर झट से कम्बल उतार कर वह बिस्तर से निकल आई।
''आप रहने दीजिए माँजी, मैं बनाती हूँ।''
कुसुम दूसरी प्याली में चाय बनाने लगी। बनाकर प्याली उसने बचन की ओर बढ़ा दी।
''मैं अभी नहाई नहीं। अभी से चाय पी लूँ?''
''पी भी ले माँ!'' लाली बोला,''कभी तो धरम-करम को छोड़ दिया कर।''
''नहीं, मैं ऐसे नहीं पीती। तुम्हीं लोग पियो।''

कुसुम प्याली लेकर अपने बिस्तर पर चली गई। बचन लाली के पैताने बैठ गई। लाली और कुसुम खामोश चाय पीते रहे!
कमरे में हर चीज़ व्यवस्थित ढंग से रखी थी। अंगीठी पर नीले रंग का कपड़ा बिछा था, जिस पर कुसुम ने सफ़ेद डोरे से कढ़ाई की थी। वही एक ओर अखरोट की लकड़ी का बना गौतम बुद्ध का बस्ट पड़ा था और दूसरी ओर हाथी-दाँत की हंसों की जोड़ी रखी थी। सन्दूकों पर गद्दे बिछाकर उन्हें लाल कपड़े से ढँक दिया गया था। कोने में कुसुम की सिलाई की मशीन पड़ी थी और वहाँ पास ही लाली की अधसिली कमीज़ के टुकड़े बँधे रखे थे। मेज पर छोटे-से शेल्फ़ में लाली की किताबें पड़ी थीं और पास ही टेबल-लैंप रखा था। दूसरे कमरे में खुलने वाले दरवाज़े के पर्दे पर भी कुसुम ने अपने हाथ से कढ़ाई कर रखी थी। उधर से करवटें बदलने की आवाज़ आ रही थी। बच्चों की भी नींद खुल गई थी।

''लाली ने चाय पीकर प्याली मेज पर रख दी। कुसुम अर्थपूर्ण दृष्टि से उसके चेहरे को देख रही थी। बचन उठ खड़ी हुई।
''चल दी माँ?'' कहते-कहते लाली ने काग़ज़ उठा लिए।
''हाँ, तू अपना काम कर। मैं जा कर नहा-धो लूँ।''
''कोई ख़ास बात तो नहीं थी?''
''नहीं, कोई खास बात तो नहीं थी। नौकर चाय ला रहा था, मैंने कहा, मैं ले जाती हूँ।''
लाली की आँखें काग़ज़ों पर झुक गई। कुसुम चाय के हलके-हलके घूँट भर रही थी। बचन चलने के लिए उद्यत हो कर भी खड़ी रही।
''एक बात सोचती हूँ'' वह कहने लगी।
लाली ने काग़ज़ फिर से रख दिए।
''हाँ-हाँ।''
''इतने दिन हो गए, बिन्नी की चिठ्ठी नहीं आई।''
''मैं अब उससे कोई गिला नहीं करता,'' लाली चिढ़े हुए स्वर में बोला।'' गफ़लत की भी हद् होती है। इस लड़के का घरवालों से जैसे कोई रिश्ता-नाता ही नहीं है।''
बचन चुप रही।

''यहाँ रहकर बी.ए. कर लेता तो कुछ बन-बना जाता। अब साहब ज़िन्दगी भर आवारागर्दी करेंगे।''
बचन की आँखें भर आई। उसने चेष्टा की कि आँसू आँखों में ही रुक जाएँ पर यह सम्भव नहीं हुआ तो उसने पल्ले से आँखें पोंछ ली।
''यह लड़का न जाने कब अपना होश रखना सीखेगा। अपनी जान की भी तो फिक्र नहीं करता। वहाँ रहकर मैं ही जो थोड़ा-बहुत देख लेती थी, सो देख लेती थी। कभी-कभी सोचती हूँ कि मैं वहाँ उसके पास ही रहूँ तो ठीक है।'' और वह निर्णय सुनने के ढंग से लाली की ओर देखने लगी। लाली गम्भीर हो गया, बोला नहीं।

''मैं कहती हूँ मेरी आँखों के सामने रहेगा तो मुझे पता तो चलता रहेगा कि क्या करता है, क्या नहीं करता।'' उसके स्वर में थोड़ी याचना भी आ गई।
''माँ जी का यहाँ दिल नहीं लगा।'' कुसुम ने प्याली रखते हुए कहा। पलभर लाली की आँखें उससे मिली रहीं।
''अभी तो माँ तू आई ही है,'' वह बोला,''दस-पंद्रह रोज़ में दीवाली है।''
''मेरा बच्चों को छोड़ कर जाने को मन करता है क्या? मैं वैसे ही बात कर रही थी।'' वह फिर से चलने के लिए तैयार हो कर बोली, ''पता नहीं रोटी भी ठीक से खाता है या नहीं।''
कुसुम उठ कर रंगी को आवाज़ देती हुई बाहर चली गई।
''तू जाना चाहे तो और बात है।'' लाली के चेहरे पर कुछ अन्यमनस्कता आ गई।
''जाने की बात नहीं है, मैं तो वैसे ही सोचती थी।''
''जाना है, चली जा। नहीं खामखाह चिन्ता से परेशान रहेगी।''

बचन कुछ क्षण खामोश रही। लाली अपनी उँगलियाँ मसलता रहा।
''किस गाड़ी से चली जाऊँ?''
''रात की गाड़ी ठीक रहती है। उसमें भीड़ कम होती है।''
''तेरी तबीयत की चिन्ता रहेगी।''
''मेरी तबीयत ठीक ही है।''
''तू चिठ्ठी लिखता रहेगा न?''
''हाँ, मैं नहीं लिखूँगा तो कुसुम लिख देगी।''
''अच्छा!''

रात की गाड़ी में उसे अच्छी जगह मिल गई। जनाने डिब्बे में उसके अतिरिक्त दो ही सवारियाँ थीं। कुसुम नारायण को ले कर उसे छोड़ने के लिए आई थी। लाली मुवक्किलों की वजह से नहीं आ पाया था। कुसुम गाड़ी चलने तक उसके पास बैठ कर बातें करती रही कि दादी के पीछे बच्चे फिर उदास हो जाएँगे, तीन चार दिन घर सूना-सूना लगेगा और कहा कि रास्ते के लिए खाना बनवाकर ले जाती तो अच्छा था। गाड़ी ने सीटी दी तो कुसुम प्लेटफार्म पर उतर गई।
''जाते ही चिठ्ठी लिखिएगा,'' उसने कहा।
''तुम लाली की तबीयत का पता देती रहना,'' बचन ने कहा।
सहसा उसे लाली के सफ़ेद बालों का ध्यान हो आया।
''रात को उसे देर-देर तक न पढ़ने देना और उससे कहना कि सिर में बादामरोगन डलवा लिया करे।''
कुसुम ने सिर हिला दिया। गाड़ी चल दी तो उसने हाथ जोड़ दिए।

प्लेटफार्म पीछे रह गया तो बचन आकाश की ओर देखने लगी। उसके अन्तर में फिर एक शून्य-सा भरने लगा। क्षितिज के पास वही नक्षत्र चमक रहे थे। बचन अपलक दृष्टि से उन्हें देखती रही। वह जहाँ जा रही थी उस घर का नक्शा धीरे-धीरे उसकी आँखों के आगे घूमने लगा। नीची छत वाला वह टूटा-फूटा कमरा, मादा सुअर और उसके बच्चों की हुंफ्-हुंफ् और कुएँ की तरफ़ से आती हुई मोटी, भद्दी फटी हुई आवाज़ -- ओ डैडाई है डिवंजो - फ़ेंसल, अंधेरा, एकान्त, बिन्नी, शशि और उसके दोस्त, बहसें और दाल रोटी के लिए उन लोगों की छीना-झपटी।
उसकी आँखें भर आई। क्षितिज के पास चमकते हुए नक्षत्र धुंधले पड़ गए।
उसने आँखें पोंछ लीं। नक्षत्र फिर चमकने लगे।

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  1. मोहन राकेश सिद्ध हस्त कथाकार थे। उन की कहानियों में भाषण नहीं होता था। लेकिन फिर भी वे बहुत कुछ कह जाती थीं। आज के लेखकों के लिए यह कहानी अनुपम उदाहरण है। हमें उन से सीखना चाहिए।

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