शैलेश मटियानी की कहानी - अर्धांगिनी

SHARE:

टिकटघर से आखिरी बस जा चुकने की सूचना दो बार दी जा चुकने के बावजूद नैनसिंह के पाँव अपनी ही जगह जमे रह गए। सामान ...

टिकटघर से आखिरी बस जा चुकने की सूचना दो बार दी जा चुकने के बावजूद नैनसिंह के पाँव अपनी ही जगह जमे रह गए। सामान आँखों की पहुँच में, सामने अहाते की दीवार पर रखा था। नज़र पड़ते ही, सामान भी जैसे यही पूछता मालूम देता था, कितनी देर है चल पड़ने में? नैनसिंह की उतावली और खीझ को दीवार पर रखा पड़ा सामान भी जैसे ठीक नैनसिंह की ही तरह अनुभव कर रहा था। एकाएक उसमे एक हल्का-सा कम्पन हुए होने का भ्रम बार-बार होता था, जबकि लोहे के ट्रंक, वी.आई.पी. बैग और बिस्तर-झोले में कुछ भी ऐसा न था कि हवा से प्रभावित होता।

सारा बंटाढार गाड़ी ने किया था, नहीं तो दीया जलने के वक्त तक गाँव के ग्वैठे में पाँव होते। ट्रेन में ही अनुमान लगा लिया था कि हो सकता है, गोधूली में घर लौटती गाय-बकरियों के साथ-साथ ही खेत-जंगल से वापस होते घर के लोग भी दूर से देखते ही किये नैनसिंह सुबेदार-जैसे चले आ रहे हैं? ख़ास तौर पर भिमुवा की माँ तो सिर्फ़ धुँधली-सी आभा-मात्र से पकड़ लेती कि कहीं रमुवा के बाबू तो नहीं? 'सरप्राइज भिजिट' मारने के चक्कर में ठीक-ठाक तारीख भले ही नहीं लिखी'' मगर महीना तो यही दिसंबर का लिख दिया था? तारीख न लिखने का मतलब तो हुआ कि वह कृष्णपक्ष, शुक्लपक्ष -- सब देखे।

कैसी माया है कि छुटि्टयों पर जाने की कल्पना करने के समय से ही चित्त के भटकने का एक सिलसिला-सा प्रारम्भ हो जाता है। कैंट की दिनचर्या जैसे एक बवाल टालने की वस्तु हो जाती है। स्मृति में, मुँह सामने के वर्तमान की जगह, पिछली छुटि्टयों में का व्यतीत छा जाता है। पहाड़ की घाटियों में कोहरे के छा जाने की तरह, जो खुद तो धुंध के सिवा कुछ नहीं, मगर जंगलों और पहाड़ों तक को अंतर्धान कर देता है।

आखिर यही मोहग्रस्तता घर के आँगन में पहुँचने-पहुँचने तक, कहीं भीतर-भीतर उड़ते पक्षियों की तरह साथ-साथ चलती है।
दिखाई कुछ भी सिर्फ़ सपनों में पड़ता है, लेकिन आवाज़ तो जैसे हर वक्त व्याप्त रहती है। क्या गजब कि टनकपुर के समीप पहुँचते-पहुँचते आँख लग गई थी, जबकि आँख खुलने के बाद, फिर रात से पहले सोने की आदत नहीं। जाने कौन साथ में यात्रा करती महिला कहीं बाथरूम की तरफ़ को निकली होगी, बिल्कुल भिमुवा की माँ के पाँवों की-सी आवाज हुई थी। छुटि्टयों में घर पर रहते हैं तब तक ध्यान नहीं जाता। लौट आते हैं, तब याद आता है कि भैसिया छाते में इन्तज़ार करते, सिगरेट पीते, कोई फिल्मी गाना गा रहे होते। आसमान में या चंद्रमा होता था, या सिर्फ़ तारे। रात के सन्नाटे में एक तरफ़ सौलगाड़ का बहना कानों तक आ रहा था -- दूसरी तरफ़, घर का काम निबटाकर आ रही है सूबेदारनी के झांवरों की आवाज़!

आवाज़ ही क्यों, धीरे-धीरे आकृति उपस्थित होने लगती है। धीरे-धीरे तो बाबू बच्चों - सभी की, मगर मुख्य रूप से उसी की, जो कि दो-तीन वर्षों के अंतराल में छुटि्टयों की तैयारी होते ही प्रकृति की तरह प्रगट होती जाती है। जिसके साथ छुटि्टयों में बिताया गया समय कबूतरों की तरह कंधों पर बैठता, पंख फड़फड़ाता अनुभव होता है। मन में होता है कि यह ट्रेन सुसरी, तो बार-बार ऐसे अड़ियल घोड़ी की तरह रुक जाती है - यह क्या ले चलेगी, हम इसे उड़ा ले चलें। रेलगाड़ी-बस से यात्रा करते भी सारा रास्ता पैदल पैदल ही नाप रहे होने की-सी भ्रांति घेरे रहती है। गाड़ी रुकते ही, देर तक गाड़ी के डिब्बे में पड़े रहने की जगह, आगे पैदल चल पड़ने को मन होता है। एक गाड़ी से नीचे, तो अगला कदम सीधे घर के आँगन में रखने का मन होता है। घर पहुँच चुकने के बाद तो उतना ध्यान नहीं रहता, लेकिन पहले यही कि सुबह के उजाले में क्या आलम रहता है और शाम के धुँधलके या रात के अंधेरे क्या उस स्थान का, जहाँ कि सूबेदारनी हुआ करती है। स्मृति के संसार में विचरण करते में जैसे ज़्यादा रूप पकड़ती जाती है। स्वभाव भी क्या पाया है। अकेले ही सारी सृष्टि चलाती जान पड़ती है। सृष्टि है भी कितनी। जितनी हमसे जुड़ी रहे।

पींग-पींग की लम्बी आवाज़ सुनाई पड़ी, तो भ्रम हुआ कि कहीं कोई स्पेशल बस तो नहीं लग रही पिथौरागढ़ को, लेकिन यह तो ट्रक था। निराश हो नैनसिंह ने मुँह फेरा ही था कि पींग-पींग हुई। घूमकर देखा, तो फिर वही ट्रक था। जैसे ही रुख बदला, फिर वही पींग-पींग ! -- अब ध्यान आया कि ठीक ड्राइवर वाली सीट की बगल में बाहर निकला कोई हाथ, 'इधर आओ' पुकार रहा है।

नैनसिंह ने नहीं पहचाना। बनखरी वाली दीदी का हवाला दिया, तो नाता जुड़ा कि अच्छा, क्या नाम कि जसोंती प्रधान का मझला खीमा है। हाँ, सुना तो था कि इन लोगों की गाड़ियाँ चलती है। खीमसिंह का बोलना, देवताओं के आकाशवाणी करने-सा प्रतीत होता गया और साथ चलने का 'सिग्नल' पाते ही, नैनसिंह सूबेदार सामान ट्रक में रखवाने की युद्धस्तर की तत्परता में हो गए। जैसे कि यह ट्रक ही एकमात्र और आखिरी साधन रह गया हो गाँव पहुँचने का। अच्छा होता, अम्बाला से ही एक चिठ्ठी बनखरी वाली दीदी को भी लिख दी होती कि फलां तारीख के आस-पास घर पहुँचने की उम्मीद है। घर वाली ने जागर भी खोल रखा है और हाट की कालिका ने पूजा भी देनी हुई। तुम भी एक-दो दिनों को ज़रूर चली आना। बहनोई तो पाकिस्तान के साथ दूसरी लड़ाई के दिनों में मारे गए। पेंशनयाफ्ता औरत हैं। भाई-बहनों के साथ-साथ, कुछ कर्मक्षेत्र का रिश्ता भी बनता है। पिथोरागढ़ के ज़्यादातर गाँवों की विधवाओं में तो फौज में भर्ती हुए लोगों की ही होंगी, नहीं तो पहाड़ के स्वच्छ हवा-पानी में बड़ी उम्र तक जीते हैं लोग।

ट्रक के स्टार्ट होते ही, नैनसिंह को पंख लग गए हों। ट्रक का रूप कुछ ऐसा हो गया था, जैसे कि नैनसिंह सूबेदार बैठे हैं, तो वह भी चला चल रहा है पिथोरागढ़ को, नहीं तो कहाँ इस साँझ के वक्त टनकपुर से चंपावत तक की चढ़ाई चढ़ता फिरता।
खीमसिंह ने पहले ही बता दिया था कि रात तो आज चंपावत में ही पड़ाव करना होगा, लेकिन सुबह दस तक पिथोरागढ़ सामने। यहाँ टनकपुर में ही ठहर जाने का मतलब होता, कल सन्ध्या तक पहुँचना। हालांकि घर तो जो आनन्द ठीक गोधूलि की बेला में पहुँचने का है, दोपहर मे कहाँ। शाम का धुँधलका आपको तो अपने में आवृत्त रखता हुआ-सा पहुँचता है, लेकिन जहाँ घर पहुँचना हुआ कि उसे कौन याद रखता है।

देखिए तो काल भी अजब वस्तु है। सब जगह -- और सब समय -- काल भी एक-सा नहीं। संझा का समय जो मतलब पहाड़ में रखता है, खासतौर पर किसी गांव में, वह मैदानी शहरों में कहाँ? पिछले वर्ष ठीक संध्या झूलते में पहुँचना हुआ और संयोग से घर के सारे लोगों से पहले रूक्मा सूबेदारनी उर्फ भिमुचा की अम्मा ही सामने पड़ गई, तो क्या हुआ सूबेदारनी का हाल और क्या खुद सूबेदार साहब का? क्या ग़ज़ब कि पन्द्रह साल पहले, चैत के महीने शादी हुई थी और बन की हिरनी का सा चौंकना अभी तक नहीं गया।
भीड़भाड़ वाला क्षेत्र पार करते-करते, खीमसिंह के साथ आशल-कुशल और नाना दीगर संवाद करते तथा कैप्सटन की सिगरेट की फूँक उड़ाते भी, नैनसिंह सूबेदार व्यतीत के धुँधलके में डूबते ही चले गए।

खीमसिंह ट्रक के साथ-साथ, खुद को भी ड्राइव करता जान पड़ता था। उसकी सारी इंद्रियाँ जैसे पूरी तरह ट्रक के हवाले हो गई थीं। और देखिए तो यह टनकपुर से पिथौरागढ़ की तरफ़ को जाते, या उस तरफ़ से आते, हुए रास्ते पर गाड़ी चलाना भी किसी करिश्मे से कहाँ कम है। पलक झपकते में ऐसे-ऐसे मोड़ हैं कि ड्राइवर का ध्यान चूकते ही, बसेरा नीचे घाटी में ही मिलता है।

ट्रक, रफ्तार से ज़्यादा, शोर उत्पन्न कर रहा था। आखिर दो-तीन किलोमीटर पार करते-करते में ही, पहले ट्रेन में रात-भर ठीक न सो पाने की भूमिका बाँधी और फिर आँखें बन्द कर ली, नैना सूबेदार ने मगर नींद कहाँ। आँस बन्द रखते में सड़क ट्रक के साथ ही मुड़ती जान पड़ती थी, ट्रक सड़क के साथ जाता हुआ। नीचे अब अतल लगती-सी मीलों गहरी घाटियाँ हैं और खीमसिंह का या खुद ट्रक का ध्यान ज़रा-सा भी चूका नहीं कि सूबेदार नैनसिंह ने, हड़बड़ाकर आँखों को खोल दिया, तो सामने एक एक परिदृश्य 'आँखें क्यों बन्द कर ले रहे हो' पूछता-सा दिखाई पड़ा। सचमुच में नींद हो, तो बात और है, नहीं तो टनकपुर पिथौरागढ़ को अधर में टांगती-सी सड़क पर कहाँ इतनी निश्ंचितता थी कि आँखें बन्द किये, रूक्मा सूबेदारनी की एक-एक छवि को याद करते रहो। पिछली छुटि्टयों में रामी, यानी रमुआ सिर्फ़ डेढ़ साल का था और स्साला उल्लू का बच्चा बिलकुल बन्दर के डीगरे की तरह माँ की छाती से चिपका रहता था। इस बार की छुटि्टयों के लिए तो सूबेदार ने तब एक ही कोशिश रखी कि दो लड़के 'मोर दॅन सफिशियेंट' माने जाने चाहिए, ज़रूरत अब सिर्फ़ एक कन्याराशि की है। कुछ कहिए, साहब, जो आनन्द कन्या के लालन-पालन में हैं, जैसे वह आईने की तरह आपको अपने में झलकाती-सी बोलती बतियाती है -- वह बात ससुरे लड़कों में कहाँ। इसलिए पिछली बार प्राण-प्रण से लड़की की कोशिश थी और उसी कोशिश में थी यह प्रार्थना कि -- 'हे मइया, हाट की कालिका! आगे क्या कहूँ, तु खुद अतर्यामिनी है।'

चलते-चलाते ही, यह भी याद आ गया नैनसिंह सूबेदार को कि अबकी बार घर से इस प्रकार की कोई खबर चिठ्ठी में नहीं आई। लगता है मइया पूजा पाने के बाद ही प्रसाद देगी। वह भी तो आदमी के सहारे है। जैसी जिसकी मान्यता हो, वैसी समरूप वो भी ठहरी।
निराशा के सागर में आशा के जहाज़ की तरह ट्रक लेकर उदित होने वाले खीमसिंह के प्रति अहसान की भावना स्वाभाविक ही नहीं, ज़रूरी भी थी क्योंकि मिलिट्री की नौकरी से घर लौटते आदमी की छवि ही कुछ और होती है, लोगों में। फिर खीमसिंह से तो दीदी के निमित्त से भी रिश्ता हुआ। लगभग हर दस-पंद्रह किलोमीटर के फासले पर ट्रक को विश्राम देते हुए, खीमसिंह की चाय-पानी, गुटुक-रायते को पूछना खुद की ज़िम्मेदारी ही लगती रही सूबेदार को।

बीच-बीच में सीटी बजाने और गाने की कोशिश भी इसी सावधानी में रही कि खीमसिंह को पता चले, ये सब तो बहुत मामूली बातें हैं। बस का किराया बच भी गया है, तो घर में बच्चों के हाथ रखने को तो कुछ रुपए ज़बर्दस्ती भी देने होंगे। टिकट के पैसों से दूने ही बैठेंगे। क्योंकि अभी तो चंपावत में पड़ाव होना है और वहाँ रात का डिनर भी तो सूबेदार के ही जिम्मे पड़ेगा। मगर खुशी इस बात की है कि टनकपुर अगरचे कहीं होटल में रहना पड़ गया होता, तो जेब जो कटती, सो कटती यह आधा पहाड़ कहाँ पार हुआ होता। अब तो जहाँ आती-जाती, खेतों में काम करती औरतें दिख जा रही है, सभी में रूक्मा सूबेदारनी की छाया गोचर होती है।

अभी-अभी भूमियाधार की चढ़ाई पार करते में, यो ऊपर के धुरफाट में न्योली गाती कुछ अपने को ही हृदय का हाल सुनाती जान पड़ रही थीं। जैसे कहती हों कि पलटन से लौट रहे हो, हमारे लिए क्या लाये हो। मन तो हुआ कि कुछ देर को ट्रक रुकवा कर, या तो उन औरतों के पास तक खुद चल दिया जाएँ या उन्हें ही संकेत किया जाए कि यहाँ तक आकर न्यौली 'टेप' करा जाएँ। फिलिप्स का ट्रांजिस्टर कम टेपरिकार्डर, यानी 'टू इन वन' इसी मकसद से तो लाए हैं -- लेकिन सर्वप्रथम बाबू से कुछ जागर गवाना है -- तब खुद सूबेदारनी की न्यौली 'टेप' करनी है। माँ तो परमधाम में हुई। कुछ ही साल पहले तक दोनों सास-बहू मिलके न्यौली गाती थीं और ज़्यादा रंग में हुई, तो एक-दूसरे की कौली भर लेती थीं।

स्त्री तत्व भी क्या चीज़ हुआ। सारे ब्रम्हांड में व्याप्त ठहरा। कोई ओर-छोर थोड़े हुआ इनकी ममता का। अपरंपार रचना हुई। नाना रूप, नाना खेल। देखिए तो क्या कर सकता है। हज़ार बंदिशों का मारा बंदा। इच्छा कर लेता है, सब कर लेता है। सूबेदारनी से मिलती-जुलती, और खुद के हृदय का हाल सुनाती-सी औरतों का ओझल होना देखते चल रहे हैं नैनसिंह सूबेदार भी। सवारी का साधन भी एक निमित्त मात्र हुआ, चलने वाला तो हर हाल में आदमी ही ठहरा। आदमी चलता रहे, तो गाड़ी-मोटर, सड़क, खेत खलिहान, पेड़-जंगल और पशु-पक्षी भी साथ चलते रहे। आदमी रुका, तहाँ सभी रुक गए। आदमी को दिखते तक में अपरंपार सृष्टि का सभी कुछ प्राणवान और विद्यमान हुआ। आदमी से ओझल होते ही, सब-कुछ शून्य हो जानेवाला ठहरा।

क्या है कि ध्यान धरता है आदमी। ध्यान करता है, आदमी। ध्यान से ही सूबेदारनी ठहरी। औरतें सब लगभग समान हुई और लगभग सभी माता-बहिन-बेटी इत्यादि, लेकिन किसी की कोई बात ध्यान में रह गई किसी की कोई।
माँ का स्वयं के परमधाम सिधारते समय का, 'नैनुवा रे' कहते हुए पूरी आकृति पर हाथ फिराना ध्यान में रह गया है, तो रूक्मा सूबेदारनी को देखते ही हिरनी का सा चौंकना। फोटू कैमरामैन हो जाने वाली ठहरी यह औरत और आपके एक-एक नैन-नक्श को पकड़ती, प्रकट करती ऐसा ध्यान खींच ले कि पंद्रह सालों की गृहस्थी में भी आखों की आब ज्यों-की-त्यों हुई। और बाकी तो शरीर में जो है, सो है, मगर आँखें क्या चीज़ हुई कि प्राणतत्व तो यहीं झलमल करता हुआ ठहरा। फिर कमला सूबेदारनी का तो हाल क्या हुआ कि खीमसिंह 'स्टीयरिंग-व्हील' को हाथों से घुमा रहा है, वैसे आपको सूबेदारनी सिर्फ़ आँखों से घुमा सकने वाली ठहरी। यह बात दूसरी हुई कि अनेक मामलों में वो 'रिजर्व फॉरिस्ट' ही ठहरी।

नैनसिंह सूबेदार का अनायास और अचानक हँस पड़ना, जैसे जंगल की वनस्पतियों और पक्षियों तक में व्याप्त हो गया। खीमसिंह का ध्यान भी चला गया इस अचानक के हँस पड़ने पर, तो उसने भी यही कहा कि फौज का आदमी तो, बस, इन्हीं चार दिनों की छुटि्टयों में जी भर हँस-बोल और मौज-मजा कर लेता है, दाज्यू! कुछ जानदार वस्तु तो आप ज़रूर साथ लाए होंगे? यहाँ तो पहाड़ में ससूरी आजकल डाबर की गऊमाता का दूध-मूत चल रहा है, मृतसंजीवनी सुरा! थ्री एक्स रम, ब्लैकनाइट-पीटरस्कॉट व्हिस्की और ईगल ब्रांडी जैसी वस्तुएँ तो औकात से बिलकुल बाहर पहुँचा दी है सरकार ने।''
चम्पावत आते ही, खीमसिंह ने ट्रक को पहचान के ढाबे के किनारे खड़ा कर दिया। कुछ ऐसे ही मनोभाव में, जैसे गाय-भैस थान पर बाँध रहा हो। उँगलियों की कैंची फँसाकर, लम्बी जमुहाई लेते हुए, ''जै हो कालिका मइया की, आधा सफ़र तो सकुशल कट गया।'' कहा उसने और दृष्टि सूबेदार की तरफ़ स्थिर कर दी।

अर्थ तो रास्ता चलते ही समझ लिया था, और मन भी बना लिया कि जाता ही देखो, तो दिन दरिया बना लो। हँसते हुए ही इंगित कर दिया कि मामला ठीकठाक है। खीमसिंह का तो रोज़ का बासा हुआ। जितनी देर में खीमसिंह ढाबे की तरफ़ निकला, सूबेदार ने अपनी वी.आई.पी. अटैची खोलकर उसमें हैंडलूम की कोरी धोती में लपेटी हुई कोटे की 'थ्री एक्स' बोतलों में एक बाहर निकली। कुछ द्विविधा में ज़रूर हुए कि कोई खाली अद्धा पड़ा होता, तो 'फिफ्टी-फिफ्टी कर लेते। ड्राइवरों-क्लीनरों की नज़रों से तो बाकी छुड़ाना कठिन हो जाता है। जब तक किसी तरह की व्यवस्था करते खीमासिंह न सिर्फ़ कटी प्याज कलेजी- गुर्दा- दिल- फेफड़े के साथ ही आलू भी मिलाए हुए भुटूवे की, भाप उठती प्लेट लेकर उपस्थित! कहो कि पानी का जग लाना रह गया। तो इतने में आधी बोतल थर्मस में कर लेने का अवसर मिल गया।

चलो, अब कहने को हो गया कि कुछ रास्ते में ले चुके, बोतल में बाकी जो बच रही, सो ही आज की रात के नाम है।
गनीमत कि क्लीनर हरीराम कुछ ही दूरी पर के अपने गाँव चला गया और खीमसिंह ने भी मरभुक्खापन नहीं दिखाया। सच कहिए, तो आदमी के बारे में अपने हिसाब, या अपनी तरफ़ से आखिरी बात भूलकर तय न करे कोई। बहुत रंगारंग प्राणी हुआ करता है। इसकी आँखों में पढ़ रहे है आप कुछ और ही, मगर दिल में न जाने क्या है। एक-एक पैसे को साँसों की तरह एकट्ठा करके चलना होता है छुटि्टयों पर, क्योंकि बन्धन हज़ार है। ऐसे में पैसा शरीर में से बोटी की तरह निकलता जान पड़ता है, क्योंकि गाँव-घर, अड़ोस-पड़ोस में ही अगर न हुआ कि नैनसिंह सूबेदार का छुटि्टयों पर घर आना क्या होता है, तो नाक कहाँ रही। और अब इसे भी तो नाक रखना ही कहेंगे कि भुटुवा और पराठे-शिकार-भात, डिनर का सारा खर्चा खीमसिंह ने अपने जिम्मे लगा लिया कि --''दाज्यू, चंपावत से अपना होमलैंड शुरू हो जाता है। आज तो आप हमारे 'गेस्ट' हो। खाने का बंदोबस्त हमारी तरफ़ से पीने का आपकी। मरना हमारा, जीना आपका। सीना हमारा, चाकू आपका ! कोई चीज किसी वक्त में हो जाती है और उसे गॉडगिफ्ट मान लेना, मनुवा ! आप हमको कड़क फौजी ड्रेस में बस अड्डे पर खड़े दिख गए, यह भी भगवान की मर्ज़ी का खेल ठहरा! ठहरा कि नहीं ठहरा? अगर नहीं तो कौन जानता है, भेंट भी होती या नहीं। आप 'भरती होजा फौज में, ज़िंदगी है मौज में' गाते-बजाते, छुट्टी काटकर, चल भी देते।''

प्रेम है कि नफ़रत है, जहाँ शराब कुछ भीतर तक उतरी, तहाँ आदमी की असलियत बोलने लगती है कि वह दरअसल है क्या। इस वक्त कम-से-कम खीमा साथ है, तो कुछ घर का सा वातावरण है। कहीं टनकपुर में ही अतक गए होते, तो फिर वही आधे अंग का खाना-पीना और सोना। केप छोड़ा था, तब से ही लगातार यही हुआ कि संपूर्णता नहीं है। प्रत्येक क्षण किसी की स्मृति है और, बस थोड़े-से फासले पर साथ-साथ चल रही है। पर मायामयी छाया को शरीर धारण करने में अभी भी बहुत समय लगना है। कल जाकर गाँव पहुँचेंगे, तब ही यह व्याकुलता थमेगी।

''जब तक सुदर्शनचक्र हाथ में है, तब तक सोचा है! इसकी छोटे मुँह बड़ी बात मान लेना, दाज्यू! कौन हसबैंड ऑफ मदर झूठ बोल रहा है! खीमसिंह ड्राइवर का नाम लेकर इन्क्यावरी कर सकता है, हर शख्स, जो चलना है टनकपुर-सोर की दस लाइन में, जहाँ कि ज़रा-सा बेलाइन हुए आप, श्रीमान जी तो समझिए कि मुरब्बा तैयार है!'' कहते हुए, खीमसिंह ने भुटुवे की प्लेट उठाकर, उसमें लगा तेल-मसाला चाटना शुरू कर दिया, तो मध्यम कोटि के सरूर में सूबेदार का ध्यान गया सीधे इस बात पर कि रास्ते में जाने कितनी बार तो सचमुच यही झस्-झस् हुई थी कि कहीं ऐसा न हो आइडेंटिटी-कार्ड साथ में रहता है, शिनाख्त ज़रूर पहुँच सकती है, लेकिन आदमी की जगह, सिर्फ़ उसकी शिनाख्त का पहुँचना कितना ख़तरनाक हो सकता है, इस बात की तमीज़ तो ससुरे इस सृष्टि के सिरजनहार तक को नहीं रही। एक खूबी इस चीज़ में है। एकदम लाइन के पार नहीं निकल जाए आदमी, तो पुल पर का चलना है। नीचे आपके मंथर गति की नदी बह रही है और आस-पास के पहाड़ ससुरे ऐसे घूर रहे हैं, जैसे कि घरवाली मायके जाती हो। कल्पना अगर किसी चिड़िया का नाम है, तो ठीक ऐसे ही मौके पर पंख खोलती है। जितनी बार खतरनाक मोड़ पड़ते थे, उतनी ही बार सूबेदारनी जंगल में हिरनी-जैसी व्याकुल होती जान पड़ती थीं, क्योंकि ध्यान में तो बैठी रहती हैं वही। और भीतर-ही-भीतर दोनों हाथ बार-बार इसी प्रार्थना में उठ जा रहे थे कि -- हे मइया, हाट की कालिका!

''औरत है कि देवी है -- माया-मोह और भय-भीति का ही सहारा है। अटैची में चमचमाता लाल साटन डेढ़ मीटर रखा हुआ है और पौने इंची सुपरफाइन गोट और सितारे। चोला मइया का सूबेदारनी खुद अपने हाथों तैयार करेगी। जब तक मइया का ध्यान है, तब तक रक्षा ज़रूर है। नहीं तो, फौज की नौकरी में कौन जानता है कि सरकार ने कब दाना-पानी छुड़ा देना है। कैवेलरी की जिंदगानी है। जीन-लगाम ही अंगवस्त्र है। पिछले साल अचानक ही कैसा ब्लूस्टार ऑपरेशन हो गया और कितने वीर जवान राष्ट्र को समर्पित हो गए। अग्नि को भी समर्पण चाहिए। राष्ट्र की ज्योति जली रहे।

अब नैना सूबेदार का मन हो रहा था, एक प्लेट भुटुवा और मंगा लें, फिर चाहे थर्मस तक भी नौबत क्यों न आ पहुँचे। जाने को तो यह जिन्दगी ही चली जाने के लिए ही है, लेकिन कुछ वक्त ऐसे ज़रूर आते हैं, जो चाँदी के सिक्कों की तरह बोलते मालूम पड़ते हैं कि हम साथ रहेंगे। अब जैसे कि रूक्मा सूबेदारनी का ही ध्यान है, यह मात्र एकाध जनम तक ही साथ देने वाली वस्तु तो नहीं है। पहले कैसे धोती के पल्ले में नाक दबा लेती थीं सूबेदारनी साहिबा, पिछली बार की छुटि्टयों में निमोनिया की पकड़ में थीं, तो दो चम्मच ब्राण्डी पिलाना मछली का मुँह खोलकर, पानी का घूँट डालना हो गया। बाद में खुद कहने लगीं कि खेत-जंगल के कामों से टूटता बदन कुछ ठीक हो जाता है।

चूँकि भुगतान करने का ज़िम्मा खीमसिंह ने लिया, इसलिए संकोच था कि यह ज़ोर डालना हो जाएगा, मगर अपने भीतर की भाषा खीमसिंह में फूट पड़ी --''सूबेदार दाज्यू, भुटुवा बहुत ज़ोरदार बना ठहरा। एक प्लेट और लाता हूँ।''

आखिर-आखिर थर्मस खंगाल कर पानी लेना पड़ा, लेकिन न खीमसिंह आपे से बाहर हुआ, न सूबेदार। धीरे धीरे जाने कहाँ-कहाँ की फसक-फराल लगाते में, रिमझिम-रिमझिम जज्ब होती चलीं गई। कैंप की कैटीन से बाहर निकलने की सी निश्चिंतता में, दोनों अब भोजन प्राप्त करने ढाबे की बेंच तक पहुँचे, तो देखा- ढाबे की मालकिन ही पराठे सेंक रही है और इतना तो खीमसिंह ने पहले ही बता दिया था कि यहाँ के खाने में रस है। औरत भी क्या चीज़ है, साहब। जो स्वाद सिल पर पिसे मसाले का, सो पुड़िया में कहाँ हैं। और पराठे स्साला कोई मर्द सेंक रहा हो, तो घी चाहे जितना लगा लें मगर यहा भुवनमोहिनी आवाज और हँसी कहाँ से लाएगा? इधर पराठा बेलती हैं, सेंकती है और उधर मज़ाक भी करती जाती है कि सूबेदारनी बहुत याद आ रही होंगी? कहाँ-कहाँ तक फैला दिया इसे भी, फैलाने वाले ने, जहाँ देखी, वैसी ही आभा है। जहाँ आप जल रहे, जाने कब शक्कर हो गई। बोलती है और अचानक ही हँस देती है, तो दुकानदारी करती कहाँ दिखाई देती है। कैसे पलक झपकते में दाँव लगा दिया कि 'आदमी तो दूर देश और बरसों का लौटा ही चीज होता है।' -- प्रौढ़ावस्था को प्राप्त हुई में भी एक आँच हैं। वातावरण में घर की सी उष्मा मालूम देने लगी।

"हाँ, हाँ" कहने के सिवा और क्या कहना हुआ। तीन साल के बाद लौटने में तो अपने इलाके का इस पेड़ से उस पेड़ की तरफ कूदता-फाँदता बन्दर भी अपना-सा लगता है। यह तो अन्नपूर्णा की सी मूरत सामने है। होने को तो कुछ सुरूर 'थ्री-एक्स' का भी जरूर है, मगर जब तक भीतर की धारा से संगम ना हो, नशा चाहे जितना हो ले, यह दिव्यमनसता कहाँ।
चुल्हे की आँच में वह किसी वनदेवी की प्रतिमा की-सी छवि में हैं। सोने का गुलुबंद झिलमिला रहा है। पराठा पाथते में हाथों की चूड़ियाँ बज रही है। बीच-बीच में माथे पर के बाल हटाने को बायीं कुहनी हवा में उठाती है, तो रूक्मा सूबेदारनी की नकल उतारती-सी जान पड़ती है। कांक्षा हो रही है, दो के सिवा और कोई उपस्थित न हो। कोई-कोई समय जाने कैसी एक उतावली-सी भर देता है भीतर कि कहीं यह बीत न जाए।

नैनसिंह सूबेदार को एक-एक ग्रास पहले पर्वत, फिर राई होता गया। आँखों की दुनिया अलग होती गई, हाथ-मुँह-उदर की अलग। खीमसिंह को तो, शायद, यह भ्रम हुआ हो कि थ्री एक्स ने भूख का मुँह खोल दिया है, लेकिन सूबेदार को जान पड़ा कि यह अकेले का खाना नहीं। बस, यही फिर सूबेदारनी का ही सामने बैठा होता-सा प्रतीत हुआ नहीं कि डकार भी आ गई। गिलास-भर पानी एक ही लय में गटकते, सूबेदार हाथ धोने नल की तरफ बढ़ गए।

कुछ क्षण होते हैं, विस्तार पकड़ते जाते हैं और कुछ विस्तार, जो धीरे-धीरे, क्षणिक होते जाते हैं, रास्ते का एक दिन कटना पर्वत, 'लेकिन घर पर महिने-भर की छुटि्टयाँ कपूर हो जाती है। पक्षियों-सा उड़ता समय कान में आवाज देता रहता है, लो, आज का दिन भी बीता तुम्हारा। अब बाकी कितने हैं।
बाबू ने थोड़े आँखर जागर गा तो दिया, अपशकुन क्यों करते हो कहने और सूबेदारनी बहू की गाई न्योली के कुछ बन्द सुन लेने पर, लेकिन आखिर तक उनका यह अफसोस गया नहीं कि जितनी रक़म इस फोटू कैमरे और ट्रांजिस्टर-टेपरिकार्डर में लगा दिए सूबेदार ने, उतने में घर के कितने जरूरी-जरूरी काम निबट जाते। अलबत्ता जर्सी, सूटों और थ्री एक्स की तीन बोतलों से उनकी आत्मा जरूर प्रसन्न हो गई कि "यार, पुत्र, जाड़े की मार से बचाने को आ गया तू।"

चार सेल वाला टार्च भी उन्हें बहुत जमा और दस-पाँच दिन बीतते न बीतते तो खुद ही इस मजेदार मूड़ में आ गए कि -- यार, पुत्र, पैसा तो स्साला हाथ का मैल ठहरा! पुरूष की शोभा ठहरी जिंदादिली और रंगीनी! ले, आज तू भी क्या याद करेगा, चार आँखर भगवती जागरण पूरी श्रद्धा से कर देता हूँ। क्या करता हूँ कहता है तू, रिकार्ड ऑन करता हूँ? -- तो कर फिर ऑन -- हरी भगवान जी, प्रथम ध्यान मैं किसका धरता हूँ? तो ध्यान धरता हूँ, उस चौमुखी थिरंचि विधाता का, मइया महाकाली, जिसने कि यह अपूर्व सृष्टि रची और आकाश की जगह पर आकाश, धरती की जगह धरती और पहाड़ की जगह पहाड़, नदी की जगह नदी, अग्नि की जगह अग्नि और क्या नाम, माता गौरी शंकरी छप्परधारिणी, कि पानी की जगह पानी उत्पन्न किया। और कि फूल को पत्तों, दूध को कटोरे के आधार पर रखा। हाड़-माँस के पुतले में रखी प्राणों को संजीवनी। अहा री मइया सिंहवाहिनी -- कैसी अपरम्पार हुई सृष्टि कि सारे ब्रम्हाण्ड में एक महाशब्द व्याप्त हो गया। मनुष्य, तो मनुष्य हुआ, पाताल में का पक्षी भी 'मैं यहाँ, तू कहाँ' गाता दिखाई दिया! कहीं ऊँचा हिमालय रखा, कहीं मैला समुन्दर कहीं धूप रखी, कहीं छाया। कहीं मोहिनी रखी, कहीं माया। विरंची के बाने सृष्टि रची, विष्णु के रूप पोषण किया और शिव के रूप किया संहार -- दूसरा स्मरण तेरा है, माता भगवती, कि तूने भी जब गौरी पार्वती से माया का रूप महाभद्रा-महाकाली रखा, तभी स्थापना हुई तेरी भी हाट का कालिका, घाट की जोगिनी के रूप में। घर को घरिणी तू हुई, वन को हिरणी। पूत को माता हुई, पिता को कन्या कुआँरी --"
बाबू देवी जागरण गाए जा रहे थे। जाने कब गिलास में बाकी बची रम की एक ही घूँट में चढ़ाकर, खूँटी पर से हुड़का भी उतार लिया उन्होंने और 'दुड़-तुकि-दुड्-दुड्' का लहरा लगाते, पूरी तरह लय में हो गए। उनके माथे पर की चुटिया तक रंग में आ गई।

पूरी पट्टी में कौन है उनके मुकाबले में भगवती महाकाली का जागरण रचाने वाला? लेकिन नैना सूबेदार का ध्यान तो 'कन्या-कन्या' सुनते ही इस तरफ चला गया, तो फिर लौटना मुश्किल हो गया कि आज तो उन्नीसवाँ दिवस, उन्होंने तो घर पहुँचने के पहले ही दिन मजाक-मजाक में सूबेदारनी के पाँव ही पकड़ लिए थे कि -- 'भगवती, कन्या ही देना' हाँ, तरंग तो कुछ तब भी जरूर रही होगी लेकिन दृष्य भी उत्पन्न तभी होता है, जबकि भीतर कोलाहल हो। जागर में भी तो यही बताया बाबू ने कि प्रथम तो उदित हुआ शब्द, तब कहीं जाके सूरज? इसी बात पर तो, खीमा के साथ ट्रक में की जात्रा की तरह, फिर अचानक हँसी फूट पड़ी और बाबू ने समझा कि कुछ ज्यादा चढ़ गई होगी। एक-दो बन्द और गाकर, हुड़के की पाग को गले से उतार कर, हुड़के में ही लपेट दिया, "कल का दिन बीच में है, नैन ! परसों शनिवार -- तीन दिन का जागर मइया हाट की कालिका के दरबार में लगना ही है। जा, सो जा, बहू रास्ता देखती होगी। मइया के दरबार में देखना कैसा जागर लगाता हूँ। आखिरी जागर होगा यह "
बुढ़वा जी बदमाश हैं। 'बच्चे रास्ता देखते होंगे' नहीं कहते। क्या कर रहे थे उस दिन कि जीवन की चक्की का एक पाट जाता रहा, एक रह गया। माँ को परमधाम गए ठीक-ठीक कितने साल बीते होंगे?

ज्यों-ज्यों छुटि्टयाँ पूँछ रहती जाती है, बीता और विस्तार पाता चल रहा है। चंपावत में रात कैसी बीती थी? भीतर-भीतर कोई यहाँ तक जोर बाँधने लगा था कि राइफिल की नोक पर सामने बिठाए रखो इस औरत को और बताओ इसे कि रोम-रोम में जो व्याकुलता जगाए चली गई हो, इसका देनदार कौन है? हवा की जगह आँधी का रूप रखती खुद गायब हुई जा रही हो, और नैनसिंह सूबेदार पेड़ की डालों से लेकर पहाड़ की चोटियों तक काँपता पड़ा रह गया है, रात के इस अनन्त लगते हुए-से सन्नाटे में? रूप भी शरीर से है, इसे तुम क्या नैना सूबेदार से कुछ कम जानती होगी भगवती? आँखो से लाचार खींचता है, बलवान तो हाथों से काम लेता है।

बस इसी बलवान वाली बात पर सूबेदार को खीमसिंह के साथ चुपचाप उठ जाना पड़ा कि कहीं 'जम्बू बोले यह गत भई, तू क्या बोले कागा?' वाली बात न हो जाय। बद अच्छा, बदनामी बुरी।
तब का व्यतीत, अब तक साथ है ।
अड्डे तक सचमुच दस बजे से भी कुछ पहले ही पहुँच दिया था खीमसिंह ने। सुबह-सुबह चम्पावत से लोहाघाट तक कितनी गहरी और गझिन धुंध थी ।

ट्रक-समेत कहीं अदृश्य लोक में प्रवेश करते होने की भी अनुभूति होती थी और भय। सारा ध्यान इसी बात पर टँगा रहता कि क्या सचमुच इसी जनम में फिर रूक्मा सूबेदारनी होंगी और उनके साथ का तालाब में की मछली का-सा इस कोने से उस कोने तक उजाड़ना? घर पहुँचने के बाद, थोड़ा एकान्त पाते ही सूबेदारनी एकाएक दोनों पाँव जकड़ लेंगी और सोते-से फूट पड़ेंगे धरती में। जन्म-जन्मांतरों की-सी व्याकुलता में, उनकी पीठ तक हिलती होगी। तब, दोनों हाथ काखों में डाले, ऊपर उठाएँगे सूबेदार और सात्वंना देने में, एकाकार हो जाएँगे। तब ट्रक की यात्रा में ही जाने कितनी बार हुआ कि परमात्मा तो अंतर्यामी है, उससे क्या छिपा है, मगर बगल में ड्रायवर की सीट पर बैठा खीमसिंह भी न देख रहा हो। जब कोई जागता है हर क्षण आदमी की स्मृतियों में, पशु-पक्षी भी भीतर तक झाँकते गोचर होते है।
सूबेदारनी साहिबा से क्या कहा था उस पहली रात ही कि "एक आँख से हम देख रहे हैं, एक से तुम। वह भगवती पराठा सेंकती जाती है और मंजीरा-सा बजाती है कि 'एक पराठा तो और लो सूबेदार, साहब!' -- और हमें आप ही सेंकती-खिलाती नजर आती हो। ये तो आपने अब बताया कि कल रात का व्रत रखा था। देखिए कि हम बिना खबर हुए ही दो जनों का भोजन कर गए।"

क्या रखा है स्साले किसी आदमी की जिंदगी में, अगर कहीं पाँवों से लेकर, सिर से ऊपर तक का, गहरे तालाब-जैसा प्रेम नहीं रखा है। कहाँ तो एकमूकता का-सा आलम था प्रारम्भ में। फिर शब्द फूटा एकाएक, तो सचमुच एक सृष्टि होती चली गई। जीभ में लपटा तागे का गुच्छा हट गया और वाणी झरना होती गई। जाने कब, कहाँ रात बीती। सूबेदारनी साहिबा ने नहीं टोका एक बार भी, सिर्फ इतना कहती, उठ खड़ी हुई कि विहानतारा निकल आया है। सूबेदार को भी यही हुआ कि माता भगवती, तू नहीं, तो और कौन है। कौन जागता है, दिन-रात हमारे लिए। कौन देता है इतना ध्यान। किसे पड़ी है हमारी इतनी चिन्ता।
वह गाँव पहुँचने की पहली ही रात थी। किंतु डोंगरे बालामृत वाले कलेंडर में माँ हाट की कालिका के पांवों के नीचे आ पड़े शिवशंकर की सी जो दशा अनुभव हुई थी, वह अब तक साथ है। फर्क इतना कि शंकर अनजाने आ गए, पाँवों के नीचे, नैना सूबेदार अंत:प्रेरणा से। सूबेदारनी 'विहानतारा निकल आया' कहती खड़ी हुई ही थी कि बिस्तर से पाँव बाहर रखते तक में, नैना सूबेदारनी ने सब सुन लिया।

छुटि्टयों के लिए अर्जी लगाने के दिन से लेकर, यहाँ पहुँचने के दिन तक की सारी व्याकुलता पर कैसे अपने ही रक्त में से बार-बार अवतरित होती, रोम-रोम में छा जाती रही सूबेदारनी। बाजार निकलते, सो कैसे साक्षात् उपस्थित होती-सी खुद ही ध्यान दिलाती रहती पग-पग पर कि उनके लिए क्या-क्या वस्तुएँ लेनी है, और क्या बच्चों और बाबू के लिए, इनका जाने कब, कहाँ से अचानक छाया की तरह का प्रकट होना और सारा ध्यान अपनी ओर खींच लेना, बस, गाँव पहुँचकर ही थमा है।
पाँव छूते ही मिट्टी के घड़े की तरह का फूट पड़ना और सारा जल सूबेदार पर उँडेल देना किया था सूबेदारनी ने, तब कहीं खुद के पूर्णांग हुए होने की-सी तृप्ति हुई थी।
कल और भी क्या हुआ था। उधर बाबू देवी-जागरण में हैं और इधर सूबेदारनी के साथ का एक-एक दिन बाइस्कोप के चित्रों की तरह आँखों के सामने हुआ जा रहा है कि कौन-सा सूबेदारनी के साथ कितना बीता और कितना खेतों, कितना जंगल और नदी-बावड़ी में। कितना एक बगल सूबेदारनी है, दुसरी बगल भिमुवा या रमुवा! सूबेदार कह रहे हैं -- 'भिमुवा की अम्मा!' -- सूबेदारनी -- 'रमुवा के बाबू!' -- और यह कि 'इजा की जगह' अम्मा क्यों कहने लगे हो?'

सूबेदार एकाएक अपनी फौजी अंग्रेजी ठोंक दे रहे हैं -- 'एव्हरी डे एण्ड एव्हरी नाइट -- माई डियर सूबेदारनी, यू वॉज ऑन माई ड्रीम!' -- और सूबेदारनी पालिएस्टर की नई साड़ी का छोर मुँह में दबा ले रही, "आग लगे तुम्हारी इस लालपोकिया बानरों की जैसी बोली को।"
अंग्रेजी का अ-आ नहीं जानती है, लेकिन अंग्रजी का रंग गुलाबी होता है, इतना उन्हें पता है। सूबेदार समझा देते है कि 'इतना तो, माई डियर, बिल्कुल करेक्ट पकड़ लिया आपने कि यह लालपोकिया अंग्रेजी की लैंग्विज है।"

रातों को काफी ठंड है और छोटे रमुवा ने सोए-सोए ही लघुशंका निबटा दी है, तो सूबेदारनी मजाक कर रही है, "वहाँ फौज में भी ऐसा ही कर देते हो क्या?" सूबेदार बदले में कुछ और गहरा मजाक करने की सेाच ही रहे हैं कि सूबेदारनी की आँखें एकाएक आर्द्रा नक्षत्र में हो जाती है, "मेरे लिए रमुवा में तुममें क्या अंतर हुआ!"
इसीलिए कहने और मानने को मन करता है कि देवी मइया, तू नहीं, तो कौन है। दो-तीन साल बलि के बकरे की तरह का टंगा होना होता है वहाँ और कौन है वहाँ, जिससे बातें करते खुद के ऊँचे-ऊँचे पर्वतशिखरों पर आसीन होने और साथ में किसी के अपने में से ही झरने की तरह फूट, या नीचे नदी की तरह बह रहे होने की प्रतीति हो। जहाँ सिर के ऊपर जाने ससुरे कितने कप्तान-कर्नल-जर्नल लढ़े रहते हैं, वहाँ सूबेदार की औकात क्या होती है। लेकिन यहाँ -- और स्मृति की मानो, तो वहाँ भी -- एक तेरा स्पर्श होता है कि शरीर में वनस्पतियाँ-सी फूट पड़ती है।
हाट की कालिका मइया के दरबार में जाने का दिन सिर पर आ रहा है और तत्पश्चात् ही सामने होगी -- विदा हेाने की घड़ी। सूबेदारनी के साथ बीते एक-एक दिन के पुष्प अँधेरे में बिखेर देने को मन करता है और टॉर्च हाथ में लेकर, ढूँढ़ने को। आज भी सूबेदारनी अभी-अभी, रोज की तरह, विहानतारे को गोद में लेकर दूध पिलाने को उतावली, छाती पर पाँव रखती-सी निकल गई है, लेकिन झाँवरों की आवाज अभी भी मधुमक्खियों का सा छत्ता डाले हुए है।

"चहा तैयार है, बाबू!" कहता भिमुवा देहली पर खड़ा दिखाई दिया, तब हुआ कि सुबह हो गई होगी। आज का दिन बीच में है, कल ही हाट की जात्रा पर जाना है। सूबेदारनी कल कह रही थी कि "हंहो, रमुवा के बाबू, तुम कह रहे थे इस बार बाँज की पाल्यों कैसी हो रही है?"

जंगल गाँव के उत्तरी छोर में है। एक सिलसिला-सा है, जो सात-आठ गाँवों के सिरहाने के सधन हरीतिमा की तरह, आर-से-पार तक चला गया है। नीचे-नीचे तक कई बार हो आए हैं, सूबेदार, लेकिन चूँकि शिकार खेलने को मना कर देती रही है सूबेदारनी कि, "हंहो, यह अपनी भड़ाम-भड़ाम यहाँ अपनी मिलेटरी में ही किया करो। हमको नहीं लगरी अच्छी हत्या " -- इसलिए सूबेदार भी, बस, राइफल को कंधे पर सैर-भर करवा के लौट आते रहे हैं -- लेकिन दो-दो तन-तनाते बकरे हाट की कालिका के मन्दिर में काटे जाने हैं, एक भिमुवा की बधाई का भाखा हुआ है, दूसरा रमुवा की-- देवी मइया नहीं कहती होगी कि हमें नहीं अच्छी लगती हत्या? -- खैर, वो क्या है कि बाबू देवी-जागरण में कैसे बताते हैं कि एक हाथ में खड्ग लिया, दूसरे में गदा, एक हाथ में -- सोलह हाथों में मइया कालिका ने आयुध धारण किये और दो हाथों में खप्पर

इससे ज्यादा दूर तक मस्तिष्क जा नहीं पाता है। क्योंकि वह तो जब तक दो हाथों वाली है, तब तक हमारी पहुँच में है। आगे का रूप ऋषि-मुनियों के ज्ञान की वस्तु हुई।
चाय पीने को बाहर आँगन में निकल आए सूबेदार, तो अब तक का सारा मायालोक जैसे कमरे में ही छूट गया। भीतर चित्त का विस्तार था, बाहर प्रकृति उपस्थित है। गाँव में बाखलियों (घरों की श्रृंखला) से नीचे घाटी में, नदी के किनारे तक खेतों का सिलसिला चला गया है। लगता है; सुबह-सुबह -- विशेष तौर पर सर्दियों की ऋतु में। नदी में स्नान करके, कोई सीढ़ियों पर पाँव, रखती-सी, वो ऊपर जंगल में निकल गई। दो-चार दिन घट (पनचक्की) की ओर निकल गए थे, सूबेदारनी कपड़े धोती रही थी और वो भी देखते रहे, तालाब में मछलियों का खेल। जीवन का खेल जल-थल, सब जगह एक है।

आजकल गेहूँ खेतों में अन्नप्राशन के बाद के बच्चों-जितना सयाना हो आया है। घुटनों के बल खड़ा होने की कोशिश करता हुआ-सा -- लेकिन अभी कोहरे में धोती से पल्ले के नीचे दुबका पड़ा-सा अंतर्धान है। कहीं आठ-नौ बजे तक कुहासा ठीक से छंट पाएगा। अभी तो भूमिया देवता के कमर से नीचे के परिधान की तरह व्याप्त है। गाँव भी तो कितना छोटा है यह। पहाड़ का बच्चा मालूम देता है।

दस बजे तक में सबको खिला-पिलाकर, सूबेदारनी ने सीढ़ी के पत्थर पर दराती को धार लगाना शूरू किया, तो सूबेदार भी वर्दी में हो लिये। खूँटी पर से उतारकर, राइफल कंधे पर रखी। हवाई बैग में टेपरिकार्डर, कैमरा और सिगरेट का डिब्बा रखा और चल पड़े।
आँगन से लेकर, जंगल की तरफ वाली पगडंडी में परिचितों-बिरादरों से 'राम-राम पायलागों -- जीते रहो' निबटाते हुए, पूर्ण एकान्त होते में ही सिगरेट का एक जोरों का कश लिया। फिर थोड़ा रूककर, पीछे-पीछे आती सूबेदारनी को बराबरी पर रोकते हुए, कंधे पर हाथ रख दिया, "आज आपको बहुत जी-जान से गाकर सुना देती है, न्योली, माई डियर! घर में और खेतों में 'भोइस' दबवा दी थी आपने। अब तो चलाचली का वक्त है। कल पूजा हो जानी है। बस, दो-चार दिन और बासा मानिए। फिर वहीं, आफ्टर मिनीमम टू और थ्री एयर्स वाली बात गई। आप उस न्यौली को जरूर गाना आज अपने फूल भौल्यूम में -- काटते-काटते फिर पाल्योंता जाता है बांज का जंगल-- दि फारेस्ट ऑफ मिरकिल्स!"

सूबेदारनी कुछ नहीं बोलीं, प्रकृति बनी रही। लगभग एक मील के बाद अरण्य का सम्पूर्ण वृत्त, वनस्पतियों से भरी झील हो गया। दूर-दूर गाय-बकरियाँ चरती दिखाई दे रही थीं और कुछ औरतें। बांज-फल्या के पल्लव बटोरती। सूबेदारनी को इतना संकोच तो था कि पहले साथ-साथ जाने वाली औरतें, जहाँ और जब आमना-सामना होगा, मजाक जरूर उड़ाएँगी, लेकिन इनका संग तो सदैव का है, सूबेदार का कहाँ। ये तो फूल की तरह खिले और वो भी दो-तीन बरसों में एक बार। एकाध महिना अपने संग-संग हमें भी खिलाए रहे और फिर अचानक एक दिन, आँख-ओझल।

अब जंगल तो रेशा-रेशा जाना हुआ है। एकान्त ढूँढने में ज्यादा समय नहीं लगा। सूबेदार बच्चा हो गए कि पाल्यों कटे न कटे, न्योली पहले निबटानी है। चौरस जगह टोहकर, सूबेदारनी अपने नए, रंगीन घाघरे को ठीक से फैलाती बैठ गई। हरी क्रेप के घाघरे में लाल रंग की गोट है। कमर में धोती का पीताम्बरी फेंटा है। पिठां-अक्षत माथे पर ऐसे हैं, जैसे गर्भ से ही साथ हों। नाक में चंदकों वाली, तीन तोले की बाएँ कान के पास तक का स्थान घेरती नथ है -- कानों में सोने की मुद्रिकाएँ।

गले में मोतीमाला काला चरेवा और गुलुबन्द है। हाथों में पहुँचियाँ और पाँवों में झांवर। पूरे आभूषण धारण किये है आज नैना सूबेदार के आग्रह पर। एक हाथ में दराती है। दूसरे में अभी तक बांज-फल्यांट के पल्लव रखने का जाल था, अब उसमें रंग-बिरंगे फूलोंवाला घमेला है। क्या रूप है। क्या रंग है।

सूबेदार एकाएक उठे अपनी जगह से सूबेदारनी साहिबा के सिर पर हाथ फेरते हुए 'ओक्के' कहा और जंगली मृग होते, कुलाँच मारते-से, कुछ फासले पर हो गए। कभी कहें - माई डियर, जरा-सा दाएँ। कभी बाएँ। कभी मुस्कुराओ, कभी खिलखिलाओ और कभी न्योली गाने की, फिर कभी जंगल में किसी खोए हुए को ढूँढ़ने की सी मुद्रा में हो जाओ -- सूबेदारनी साहिबा को भी जाने क्या हुआ कि जैसा कहा, तैसी होती गई। बीच में सिर्फ इतना ही बोली, "देखो, जैसे तुम्हारा मन अचाता है, तैसा कर कर लो। -- मगर इस वक्त फाटू मिलेटरी में चाहे अपने दोस्तों-दोस्तानियों को दिखाते फिरना, यहाँ रमुवा के बूबू (दादा) और दूसरे लोगों की नजर में नहीं पड़ने चाहिए -- बहुत मजाक उड़ाएँगे लोग! कहेंगे, घर में जगहा नहीं मिली --"
सूबेदारनी साहिबा का खिलखिलना हिलाँस पक्षी के चंद्राकार झुंड-सा उड़ता हुआ, जाने हिमालयों के शिखरों तक कहाँ-कहाँ चला गया। सारा अरण्य डूब गया। नैना सूबेदार के मुँह से इतना ही निकला -- "हमको तो आप ही देवी है --"
सूबेदारनी में सारा संकोच पतझर के समय का पत्तों-सा झरता, और ऋतु वसंत के पल्लवों-सा उगता चला गया। कहाँ फोटो में गाता दिखाई पड़ने-भर को न्योली शुरू की थी, कहाँ एक लड़ी-सी बँधती चली गईं।
काटते-काटते सिर पल्लवित हो जाता है
बांज का वन
समुद्र भर जाता है, मेरे प्राण,
नहीं भरता मन!
आश्विन मास की नदी में चमकती है
असेला मछली
अब जाते हो
कौन जानता है, फिर कब होगी भेंट!
वो देखो, उधर हिमालय की द्रोणियों में
कैसी चादर-सी बिछ गई है बर्फ
पक्षी होती मैं, मेरे प्राण,
उड़ती, बस उड़ती ही चली जाती
तुम्हारी दिशा में!

'टेप' की गई न्योलियों को खुद सूबेदारनी ने सुना, तो पहले मुग्ध हुई और फिर फूट-फूटकर रो पड़ी। कल रात से अब तक में एकत्र सारा सुख, जैसे अपने सारे आचरण पृथक करता हुआ-सा, एक साथ प्रकट हो गया।
लौटते-लौटते शरद ऋतु का दिन और छोटा पड़ता गया। सूबेदारनी के पाँव भारी हो गए हैं। एक गट्ठर सिर पर लदा है बांज और फल्यांट के पल्लवों का। एक भीतर इकट्ठा है। पाल्यों उतारने और जाल भर लेने के बाद के विश्राम में, सिर सूबेदारनी साहिबा के गोद में था और जूँ ढूँढ़ने की प्रक्रिया में उनके अँगूठों के नाखून आपस में जुड़ते थे, तो लगता था आवाज मीलों दूर तक जा रही होगी। तब याद आया था, अचानक, फिर वहीं खीमा के साथ की ट्रक-यात्रा में एकाएक उपस्थित होकर, सफर समाप्त होने तक लगातार विद्यमान रहा मृत्यु-भय! सुख अकेले कहाँ आता है।

रात के सन्नाटे में, नीचे घाटी की दिशा से, सियारों का समवेत आता है। और याद आता है, सूबेदारनी का आँचल ओठों में दबाकर, यह बताना कि इसी बर्ष जुलाई में गाँव के तीन घरों में तार आए। सुना, उधर अमृतसर में कोई लड़ाई हो गई एक साया फौजियों के घर मँडराता फिरता रहा है महिने भर।
किसी भी दिन हो सकता है, अघटित का घटित होना। फौजी गुजरता है, तो सिर्फ तार ही देखने को मिलता है। रूप, आकार -- उसी में सब कुछ देख लो। अच्छा ही है कि जीवन का अन्त जब भी हो, सूबेदारनी साहिबा से कहीं बहुत दूर हो। हाट की कालिका के मन्दिर में देवदार के जुड़वाँ पेड़ है। सैंकड़ो वर्ष पुराने। जाना कल है, पेड़ आज ही क्यों याद आ पड़े? दोनों को देखो, तो एक में से ही दो किये हुए-से दिखाई पड़ते हैं। लगभग बराबर ऊँचे, बादलों को छुने की बढ़ते हुए-से। बराबर सधन। धूप छतरी पर ही अटक जाती है। नीचे कितनी गहरी छाया। इनमें से एक को काट दीजिए, तो दूसरा सिर धुनता दिखाई पड़ेगा।
माता तू ही रक्षा करना!

सूबेदारनी देवी का चोला सिल चुकी हैं। चढ़ावे की अन्य सामग्रियों के साथ दोनों घंटे भी एक कोने में रख दिए गए थे। भीमू और रामू, लाख मना करते भी, कभी-कभी बजा देते हैं, सो घंटे के वृत्त में खुले अक्षर उनका नाम पुकारते मालूम देते हैं -- श्री भीमसिंह, आत्मज ठाकुर, श्री नैनसिंह, आत्मज ठाकुर, श्री नैनसिंह, आत्मज श्रीमान
हर बार इन छुटि्टयों-भर का उत्सव है। दोनों छोरों पर। इस बार मइया की कालिका के दरबार में बधाइयाँ जानी हैं, तो यही रंग सबसे ऊपर है। बच्चे अपने दादा की नकल में देवी-जागरण लगाते हैं। भिमवा ने क्या कहा था कि अगर कोई बहन होती, तो उसमें देवी का अवतार कराते?
सूबेदारनी साहिबा की प्रतिच्छवि और उतर भी किसमें पाएगी? आधी सृष्टि उसी पक्ष में हैं। आधी उससे बाहर।
घर तो, घर है, ऊपर दो मंजिले पर व्यतीत होते जीवन में नीचे गोठ के पशुओं तक का साझा जान पड़ता है। कुछ ही दिनों को आए है, तो भी भैंस दुहने, नहलाने, उधर धार में के पेड़ों पर स्तूप की तरह चिनी गई घास की पुल्लियों को उतरवाने तथा लकड़ी फाड़ने, नाना प्रकार के छोटे-छोटे घरेलू काम है। यहाँ आकर समझ में आता है कि एक सूबेदारनी के सिर पर कितने काम। भाई कोई संग आया नहीं। बहनें थीं, एक आसाम गई है अपने परिवार के साथ, दूसरी चार दिनों को आई, वनखरी वासी दीदी, हवा के साथ,साथ लौट गई। सबके अपने-अपने कारोबार हैं।

कहो कि बुढ्ढे जी अभी भी छोटे-मोटे कई काम निबटा लेते हैं। इस बार यहीं तो समझ रहे थे कि आधी पेंशन पर ही चले आओ। सूबेदारनी भी यही चाहती है, मगर अभी और चार-पाँच साल खींच लेना ही ठीक है। फौज के रहे को फिर यहाँ कौन-सी नौकरी-दुकानदारी करनी। पूरी पेंशन लेकर घर बैठना है। यहीं खेती-बाड़ी सँभालनी है और बच्चों को आगे बढ़ाना है।
सोचते जाओ, तो जीवन के तर्क पीठ पर सवार होते जाते हैं। सूबेदारनी से कुछ छिपा नहीं रहता। कभी अड़ोस-पड़ोस घूमने में लगा देती हैं। कभी नमकीन और प्याज सामने लगा देती है। खाने-पीने की चीजों में कुछ छूट जाए। दो-चार दिन घरेलू व्यंजनों की हौंस। कभी भट-मदिरा का जोजा और लहसुन, हरी धनिया का नमक है। कभी चौमास से रखी करड़ी ककड़ी का रायता, गड़ेरी का भंग पड़ा रसदार साग और पूरियाँ। कभी मुट्ठी-भर लहसुन पड़ी और घी में जम्बू से छोंकी मसूर की दाल है, हरी पालक-लाही का टपकिया और ताजे-ताजे ऊखलकुटे घर के चावलों का भात।

कभी घर में ही बकरा कट गया। सान-सून, भुटुवे से लेकर सिरी-मणुओं का शोरबा! -- घर में न हुआ, कभी कभी पास-पड़ोस से आ गया शिकार। कभी शहर से खाने-पीने, फसक-फराल; हर चीज की बहार। यही सब धूप-छाँव ठहरी आदमी के जीवन में, बाकी क्या रखा ठहरा। कैलाश का देवता भी आदमी के आँगन में उतरा, तो उसे भी आखिर नाच-कूद के चल ही देना हुआ। बाबू बड़े गिदार हुए, कितनी कहावतें हुई उनके पास। कभी तरंग में हुए तो नातियों के साथ-साथ, बहू को भी बिठा लिया। बाप-बेटे, दोनों के सामने रम के पेग हुए। बाबू कभी 'और मेरे रंगीले, झुमाझुमी नाच।' की मस्ती में, तो कभी 'सदा न फूले तोरई, सदा न साचन होय,' को बैराग में।

बाद के दिन तो भारी होते गए। हाटे के देवी-मंदिर से लाया गया लालवस्त्र आँगन-किनारे के खुबानी के पेड़ की टहनी में बँधा हुआ है, लेकिन नैना सूबेदार देखते हैं, तो रेलगाड़ी के गार्ड के हाथ में थमी हरी झंडी मालूम देता है। हवा में हिलता है, तो 'चलो, चल पड़ो' कहता सुनाई पड़ता है। और इस वक्त हाल यह है कि सारा सामान बँधा पड़ा है, लेकिन कुली अभी तक कहीं नहीं दिखाई पड़ा। कल शहर स्कूल जाने वाले बच्चों से कहलावा भेजा था कि किसी भट को भिजवा दे हिमालया होटल का बची सिंह, मगर कहीं कोई चिन्ह ही नहीं है।

गाँव का हाल है यह कि कुली का काम पी.डब्लू.डी. या जंगलार के ठेकों पर करने वाले अनेक हैं, लेकिन बिरादरों का बोझ उठाना गुनाह है। माया-मोह में रह भी गए अंतिम गुंजाइश तक। अब अगर कल सुबह तक टनकपुर ही नहीं पहुँच पाए, तो अम्बाला छावनी कहाँ समय पर पहुँचना हो पाएगा। कई बार जी में आता है कि खुद ही लादें और ले चलें। वापसी का सामान है, बहुत भारी नहीं, मगर जो देखेगा, सो ही हँसेगा। सारी सूबेदार साहबी मिट्टी में मिल जाएगी।

सूबेदार बार-बार सिगरेट सुलगा रहे थे और बार-बार घड़ी पर आँखें जाती थीं बाबू बूढ़े और कमजोर हैं। बच्चे कच्चे। डेढ़-दो-घंटे से कम का रास्ता नहीं बस-अड्डे तक का और दोपहर बाद तो आखिरी बस क्या, ट्रक मिलना भी कठिन हो जाएगा। नैना सूबेदार अभी हताशा और बेचैनी में ही डूबे थे कि देखा, सूबेदारनी बाबू से कुछ कहती, नजदीक पहुँची है और जब तक में वो कुछ ठीक से समझें, सूटकेस उठाकर सिर पर रख लिया और कह क्या रही है कि "बिस्तरबंद इसके ऊपर रख दो।"
सूबेदारनी के कहने में कुछ ऐसी दृढ़ता थी, और परिस्थिति का दबाव कि सूबेदार की पाँवों से सिर तक एक झुरझुरी-सी तो जरूर हुई, मगर इस तर्क का कोई जवाब सूझा नहीं कि 'मुँह ताकते तो दिन निकल जाएगा। थोड़ी दूर तक तो चले चलते हैं, रास्ते में कुली जहाँ भी मिल जाएगा --"
नई बात इसमें कुछ नहीं। छुट्टी पर आते में कुली साथ आता है, वापसी में घर के लोग पहुँचा देते हैं। सिपाही-लांसनायक तक तो अपना सामान खुद नहीं उठाते, हवालदार-सूबेदार की तो नाक ही कटी समझिए।

गाँव की सरहद के समाप्त होते-होते, चित्त काफी-कुछ व्यवस्थित हो गया। बाबू और बच्चों की आकृतियाँ धुँधली पड़ती गई। गाय-भैस बकरियों तक की स्मृति कुछ दूर तक साथ चलती आती है। सरहद तक तो खेत तक साथ चलते मालूम पड़ते हैं। दरवाजे के ऊपर चिपकाया गया दशहरे का छापा भी। दशहरे के हरेले दिन सावन के रक्षाबंधन की सहेज रखी रक्षा बाँधते और हरेला सिर पर रखते हुए क्या कहा था, ठीक माँ की तरह -- जीते रहना, जागते रहना। यों ही बार-बार भेंटते रहना। सियार की जैसी बुद्धि हो, सिंह का सा बल! चातकों का-सा हठ हो -- योगियों का सा ज्ञान!
७७७
रक्षा का मंत्र तो खुद सूबेदार को भी याद ठहरा -- 'येन बद्धो बली राजा। दानवेन्द्रो महाबल ' ये तागे ऐसे ही हुए। दानवेन्द्रों से भी नहीं। तोड़े से भी नहीं तोडे जा सके, हम नर-वानर किस गिनती में। माँ जब तक हुई, ठीक यहीं, इस गधेरे तक आती रही छोड़ने। यही रोककर स्फटिक स्वच्छ गंगाजल अंजुलि में भर लाती थीं और सूबेदार के माथे पर छिड़कती, बाहों में बाँध लेती थीं। तागों का एक पूरा जाल हुआ। घर पहुँची, तो अदृश्य हो जाने वाला ठहरा। वापस लौटते में लोहे के तारों का गड़ना। यह सब जीवन का सामान्य प्रवाह हुआ। किसने पार पाया, कौन पा सकेगा। मुखसार की ऋतु में बैल खुले हैं, जुलाई के वक्त कहाँ। एक के बाद, दूसरा सिगरेट जलाते हुए, यही गाने का मन हो रहा कि -- चल, उड़ जारे पंछी -- ई-ई-ई
टेपरिकार्डर, कैमरा हवाई बैग में हैं। इसके अलावा टिफिन भी सूबेदार के हाथ में। रूल कभी -कभी उन्हीं से टकरा कर बज उठता है। सूटकेस और सफारी होल्डाल सूबेदारनी साहिबा के सिर पर है। यों तो अनेक का यही सिलसिला है। हवालदार साहब ट्रांजिस्टर लटकाए, रूल हिलाते, घड़ी बार बात देखते और सिगरेट पीते आगे-आगे चल रहे हैं और पीछे-पीछे घरवाली -- सामान, सिर पर लादे हुए --मगर नैना सूबेदार के साथ यह पहला अवसर है। कभी भी, अपने से दो अंगुल कम करके तो देखा ही नहीं।
एकाएक बोले "सूबेदारनी, आप जरा रूकिये। ये बैग और टिफिन आप पकड़ लीजिये अब। थोड़ी दूर तक अटैची-होल्डाल मैं ले चलता हूँ।"
सूबेदारनी पीछे को मुड़ी, हौले से मुस्कुराई, तेजी से आगे बढ़ गईं। जैसे गंध प्रकट करती जाती हो अपनी। बोलती गईं -- "मेरा तो यह रोज का अभ्यास हुआ, रमुआ के बाबू! बेकार के संकोच में पड़ रहे हो। खेतों में पर्सा नहीं ढ़ोती कि घास-अनाज के गट्ठर नहीं। उस दिन भी तुम्हारे पीछे-पीछे पाल्यों का जाल लिये चल रही थी --"
"वो घर का- रोजदारी काम हुआ -- मगर ये तो -- "
"एक प्रकार की कुलीगिरी हुई," को सूबेदार ने अपने भीतर ही अंतर्धान कर कर लिया।
"आज बात करने में तुम 'माई डियर !' नहीं कर रहे हो -- इतना उदास पड़ जाना भी क्या ठहरा --"
अब सूबेदार कैसे बताएँ कि अग्निपथ बीत गया, राख रह गई। यहाँ से यहाँ तक बुझा-बुझापन-सा व्याप्त हुआ पड़ा है।
"इज्जत तो भीतर की भावना हुई। हम निगोड़ी तुम-तुम ही तुमड़ाती रही जिंदगी भर। तुमसे 'आप-आप' से नीचे नहीं उतरा गया। दुर्गा सासू कह रही थी, घरवाली को प्रतिष्ठा देना कोई इसके सूबेदार से सीखे। तुम जब वहाँ रात-दिन हम लोगों की चिंता में घुलते रहने वाले हुए, तब कुछ नहीं -- एक दिन को तुम्हारा बोझ हमारे सिर पर आ गया- तो क्या पर्वत आ गया ठहरा? सिर के ताज तो आखिर तुम ही हुए -- "
सूबेदार को लगा कि सूबेदारनी का बोलना फिर कानों तक आते चला गया और सूबेदार को लगा, जैसे कलम से शरीर पर लिखे दे रही है कि अगली छुटि्टयों में क्या-क्या लेते आना है।
फिर स्मृति में स्पर्श उभरते ही गए कि गाँव पहुँचने के दिन एक-एक वस्तु को कैसे हजार आँखों से देखती-सी मुग्ध होती जाती थीं सूबेदारनी। सिंथाल की बट्टी को जब इन्होंने सूँघा, तब उससे सुगंध फूटनी शुरू हुई थी। लोभ नहीं हैं, लाए हुए को सार्थक कर देना है। इस वक्त 'यह मत भूलना, वह जरूर लेते आना' की सारी रट सिर्फ सूबेदार की उत्साह और गरिमा बढ़ा देने के लिए है।

गाँव से शहर तक की इस सड़क पर , यह कोई पहली बार का चलना तो नहीं इन्हीं छुटि्टयों में दो बार जा चुके हैं। एक बार शहर घूमा, कुछ खरीदारी की - मैटिनी शो देखा और हिमालया होटल में ही ठहर गए। हाँ, प्रसंग बदल गया है, तो सड़क भी पाँव थामे ले रही है।
पिथौरागढ़-झूलाबार वाली मुख्य सड़क अब थोड़े ही फासले पर है। इस गाँव वाली सड़क के दोनों ओर पत्थरों की चिनाई हुई है। समतल नहीं, ऊबड़-खाबड़ हैं। बूटों की आवाज कानों को स्पर्श करती मालूम पड़ती है। नजर नीचे चली जाय, तो खेतों में घास बीनती औरतें या इनारे-किनारे की भूमि पर चरते पशु दिखाई पड़ जाते हैं। ऊपर आसमान की तरफ देखो, ये ही सब पक्षी बनकर उड़ते-से जान पड़ते हैं। जहाँ तक यह गाँव वाली कच्ची सड़क जाती है, सब एक है, पक्की डामरवाली सड़क आते ही, पृथक हो गए होने का आभास होता है।

दूर खड़ा भराड़ी का जंगल 'याद रखना, भूलना मत' पुकारता-सा आगे को आ रहा है और प्रकृति सूबेदारनी की ही भाँति घाघरा फैलाए बैठी मालूम पड़ती है। मुसन्यौले ज्यादा लम्बे नहीं उड़ते, सिर्फ एक से दूसरी झाड़ी तक फूदकते है और चीं-चीं-चीं मचाए रहते हैं। याद आता है कि इस बार कन्या की कामना इतनी क्यों रही होगी, तो वहाँ अम्बाला छावनी में साथ के एक फौजी अधिकारी के यहाँ आँखों में छा गई छोटी-सी बच्ची की आकृति स्मृति में उभरती जाती है।

याद आता है उसका 'अंकल-अंकल' कहना और कंधे पर चढ़ने की जिद करना। और यह कि बाबू की वृद्धावस्था और घर के वीरान पड़ जाने के डर में परिवार को साथ रखने का अवसर नहीं।
कल यों ही पूछ लिया कि सूबेदारनी साथ चलोगी? जवाब क्या आया कि किस बार नहीं चली हैं। जब छाया न रहे, तब समझो कि साथ नहीं हैं। और इस वक्त साथ चल रही हैं, तो छाया से ज्यादा कहाँ हैं।

प्रकृति की ही भांति, सूबेदारनी भी तो ज्यों-ज्यों ओझल, त्यों-त्यों और प्रत्यक्ष होती जाती है। हर बार यही होता आया है। बस में बैठते ही स्मृतियाँ पक्षियों के झुँडों का तरह उदित हो जाती है भीतर। कौन दिन कौन क्षण कैसा बीता सूबेदारनी के साथ, जंगल में हवा की तरह बजने लगता है भीतर। यहाँ से कैम्प पहुँचने तक नदी की यात्रा है।
अचानक रूकी और 'दो मिनट ठहरना' -- कहते-कहते, सूबेदारनी ने सिर पर का सामान दीवार पर रखवा देने का इंगित किया। सूबेदार को लगा, चढ़ाई चढ़ते थक गई हैं। सामान ठीक से रखाते, कुछ कहने को हुए कि संकोच और शरारत में मुस्कुराती, सूबेदारनी तेजी से नीचे खेतों की दिशा में उतर गईं। जब तक में वो लौटी, नैना सूबेदार को अचानक ही भराड़ी के जंगल में की वह जलधारा स्मरण हो आई, जिसे उद्गम में देखते, उन्होंने सूबेदारनी से मजाक किया था-- यह नहीं शरमाती। सूबेदारनी क्या बोली -- धरती तो माता हुई। उसे सभी समान हुए।
शादी के बाद का एक बरसों लंबा सिलसिला है, जो सूबेदारनी को सयानी करता चला। आने के साल से अब तक में क्या से क्या है। भराड़ी के जंगल में से प्रकट हुई पतली-सी जलधारा, दूर तक क्या जाइए, नीचे घाटी तक में पनचक्की के पाट घुमाती नदी हो गई है। जाने कितने स्त्रोतों से जल इकट्ठा होता गया।
रोेकते-रोकते भी, फिर सामान उठा लिया चल पड़ने से पहले, बोलीं, "आप जाने लगते हो, तो जाने क्या होता है भीतर-भीतर ठंड-सी मालूम पड़ती है। इस बार तो दूर तक का साथ हुआ। पिछली बार आँगन में ही खड़ी थी। आप आँखों से ओझल हुए कि -- तब भी -- "
जब तक में नैना सूबेदार कुछ बोलने की कोशिश करें, वो चल पड़ीं। दो कदम पीछे चलते, साफ-साफ दिखती हैं। सिर पर के बोझ और असमतल रास्ते के कारण, कमर दाएँ-बाएँ लचकती है, तो सुबहला-सा गोरा रंग नजर थाम लेता है। पिंडलियों पर से घाघरे का पाट उठता है, तो मछली के पानी में करवट मारते होने की सी झिलमिल। जाते समय सूबेदारनी, हर बार, ऐसी हो आती है कि नदी का छूटना है। सफर करते में घंटों बाद कोई नदी आती है रास्ते में, तो कैसे उसकी आब ऊपर तक आती मालूम पड़ती है। यह आद्रा कभी नहीं छूटती। बाहर ओझल होते ही, भीतर बहने लगती है।

बिलकुल चुपके आस्तीन से आँखें पोंछी, तो भी कुछ आवाज-सी आती सुनाई पड़ी। नैना सूबेदार ने जर्सी की जेब में से निकाल कर, चश्मा लगा लिया। सूबेदारनी चली जा रही थीं। उनका तेज चलना हाथ में बंधी घड़ी पर वजन डालता मालूम पड़ रहा था। दोनों हाथ ऊपर को उठाए चल रही है, तो औरत होना अपनी भाषा बोलता-सा सुनाई पड़ता है। नदी में नहाकर, किनारे जाइए। कपड़े बदलिए, वापस लौट चलिए। थोड़ा स्मृति पर जोर देने की कोशिश करिए कि नदी को बहते होने की आवाज -- खास तौर पर पहाड़ में -- कितनी दूर-दूर तक साथ आती है।
मुख्य सड़क तक पहुँचने से पहले ही, कुछ कुली कंधे पर रस्से डाले शहर की तरफ जाते दिख गए, तो सूबेदार ने जोरों से पुकार लिया। वो ठिठके, तो आने का संकेत किया। तब तक में सूबेदारनी ने सिर पर से सामान उतार, दीवाल पर रख दिया।

एक-एक रूपये के नोटों की एक नई गड्डी जर्सी से निकाल कर, सूबेदारनी के हाथों में थमाई नैना सूबेदार ने। कहा कुछ नहीं। हाथों को कुछ क्षण यों ही थामे रहे। सुबेदारनी ही हँस पड़ी, "इतनी ज्यादा रकम दे रहे हो मजदूरी में -- अगली बार भी हम ही लाएँगी साहब का सामान --"
सूबेदारनी हँस रही थीं। हाथों को अलग करना कठिन हो गया। बेल लिपटी जान पडती है। एकएक भराड़ी के जंगल में न्योली गाते समय का परिदृश्य छा गया। भीतर कोई फूट-सा पड़ा-छोड़ो यार, सूबेदार ! सारा बोरा-बिस्तर भूल जाओ यहीं सड़क पर। यों ही हाथ फँसाए, सूबेदारनी को ले उड़ो। खेत, घाटी, जंगल, नदी -- सबको उलँघते चले जाओ, जब थक जाओ, सूबेदारनी की गोद में सिर रखे, आँचल ऊपर उठा दो और पड़े रहो।

इस हिमशिखर के पार का झरना साफ दिखाई देता है। झाँको तो खुद के प्रतिबिम्ब झलकते है।
कुली ने सामान लाद लिया, तो सूबेदारनी ने पाँवों को स्पर्श किया और सिर तक समा गई उनकी उंगलियों की छुअन, बूटों तक के भीतर ही नहीं, पूरे स्मृति जगत में व्याप्त हो गई। कुछ समझ नहीं पाए कि पाँवों पर झुकी सूबेदारनी को 'जीती रहो, जगती रहो' कैसे कहें। सूबेदारनी अब विदा लेने को खड़ी हुई, तो पिठाँ-अक्षत जैसे एकाएक प्रकट हुए हों माथे पर। जाने कितनी गहरी रेखाएँ उभर आई, आँखों के बीच की जगह अंतर्धान हो गई। दोनों ऊपर तक डबडबा उठीं थी अब। नैना सूबेदार को लगा, पक्षी योनी से पहले इस झील का पार कठिन है। सूबेदार को हुआ, पंख होते हुए तो एक ही उड़ान में बोझिल हो जाते।
ऊपर पक्की सड़क तक पहुँचते में सूबेदार मुड़े नही। गाँव की कच्ची सड़क का मुहाना मुख्य सड़क में समा गया, तब पलट कर देखा।
सूबेदारनी इसी ओर टकटकी लगाए खड़ी थीं। ओझल होते, तो उन्हें ही देखना है।

COMMENTS

Leave a Reply
नाम

अंग्रेज़ी हिन्दी शब्दकोश,3,अकबर इलाहाबादी,11,अकबर बीरबल के किस्से,62,अज्ञेय,37,अटल बिहारी वाजपेयी,1,अदम गोंडवी,3,अनंतमूर्ति,3,अनौपचारिक पत्र,16,अन्तोन चेख़व,2,अमीर खुसरो,7,अमृत राय,1,अमृतलाल नागर,1,अमृता प्रीतम,5,अयोध्यासिंह उपाध्याय "हरिऔध",7,अली सरदार जाफ़री,3,अष्टछाप,4,असगर वज़ाहत,11,आनंदमठ,4,आरती,11,आर्थिक लेख,8,आषाढ़ का एक दिन,22,इक़बाल,2,इब्ने इंशा,27,इस्मत चुगताई,3,उपेन्द्रनाथ अश्क,1,उर्दू साहित्‍य,179,उर्दू हिंदी शब्दकोश,1,उषा प्रियंवदा,5,एकांकी संचय,7,औपचारिक पत्र,32,कक्षा 10 हिन्दी स्पर्श भाग 2,17,कबीर के दोहे,19,कबीर के पद,1,कबीरदास,19,कमलेश्वर,7,कविता,1478,कहानी लेखन हिंदी,17,कहानी सुनो,2,काका हाथरसी,4,कामायनी,6,काव्य मंजरी,11,काव्यशास्त्र,40,काशीनाथ सिंह,1,कुंज वीथि,12,कुँवर नारायण,1,कुबेरनाथ राय,2,कुर्रतुल-ऐन-हैदर,1,कृष्णा सोबती,3,केदारनाथ अग्रवाल,4,केशवदास,6,कैफ़ी आज़मी,4,क्षेत्रपाल शर्मा,53,खलील जिब्रान,3,ग़ज़ल,139,गजानन माधव "मुक्तिबोध",15,गीतांजलि,1,गोदान,7,गोपाल सिंह नेपाली,1,गोपालदास नीरज,10,गोरख पाण्डेय,3,गोरा,2,घनानंद,3,चन्द्रधर शर्मा गुलेरी,6,चमरासुर उपन्यास,7,चाणक्य नीति,5,चित्र शृंखला,1,चुटकुले जोक्स,15,छायावाद,6,जगदीश्वर चतुर्वेदी,17,जयशंकर प्रसाद,35,जातक कथाएँ,10,जीवन परिचय,77,ज़ेन कहानियाँ,2,जैनेन्द्र कुमार,7,जोश मलीहाबादी,2,ज़ौक़,4,तुलसीदास,28,तेलानीराम के किस्से,7,त्रिलोचन,4,दाग़ देहलवी,5,दादी माँ की कहानियाँ,1,दुष्यंत कुमार,7,देव,1,देवी नागरानी,23,धर्मवीर भारती,12,नज़ीर अकबराबादी,3,नव कहानी,2,नवगीत,1,नागार्जुन,25,नाटक,1,निराला,39,निर्मल वर्मा,4,निर्मला,42,नेत्रा देशपाण्डेय,3,पंचतंत्र की कहानियां,42,पत्र लेखन,202,परशुराम की प्रतीक्षा,3,पांडेय बेचन शर्मा 'उग्र',4,पाण्डेय बेचन शर्मा,1,पुस्तक समीक्षा,141,प्रयोजनमूलक हिंदी,38,प्रेमचंद,50,प्रेमचंद की कहानियाँ,91,प्रेरक कहानी,16,फणीश्वर नाथ रेणु,4,फ़िराक़ गोरखपुरी,9,फ़ैज़ अहमद फ़ैज़,24,बच्चों की कहानियां,88,बदीउज़्ज़माँ,1,बहादुर शाह ज़फ़र,6,बाल कहानियाँ,14,बाल दिवस,3,बालकृष्ण शर्मा 'नवीन',1,बिहारी,8,बैताल पचीसी,2,बोधिसत्व,9,भक्ति साहित्य,143,भगवतीचरण वर्मा,7,भवानीप्रसाद मिश्र,3,भारतीय कहानियाँ,61,भारतीय व्यंग्य चित्रकार,7,भारतीय शिक्षा का इतिहास,3,भारतेन्दु हरिश्चन्द्र,10,भाषा विज्ञान,18,भीष्म साहनी,9,भैरव प्रसाद गुप्त,2,मंगल ज्ञानानुभाव,22,मजरूह सुल्तानपुरी,1,मधुशाला,7,मनोज सिंह,16,मन्नू भंडारी,10,मलिक मुहम्मद जायसी,9,महादेवी वर्मा,20,महावीरप्रसाद द्विवेदी,3,महीप सिंह,1,महेंद्र भटनागर,73,माखनलाल चतुर्वेदी,3,मिर्ज़ा गालिब,39,मीर तक़ी 'मीर',20,मीरा बाई के पद,22,मुल्ला नसरुद्दीन,6,मुहावरे,4,मैथिलीशरण गुप्त,14,मैला आँचल,8,मोहन राकेश,16,यशपाल,19,रंगराज अयंगर,43,रघुवीर सहाय,6,रणजीत कुमार,29,रवीन्द्रनाथ ठाकुर,22,रसखान,11,रांगेय राघव,2,राजकमल चौधरी,1,राजनीतिक लेख,21,राजभाषा हिंदी,66,राजिन्दर सिंह बेदी,1,राजीव कुमार थेपड़ा,4,रामचंद्र शुक्ल,3,रामधारी सिंह दिनकर,25,रामप्रसाद 'बिस्मिल',1,रामविलास शर्मा,9,राही मासूम रजा,8,राहुल सांकृत्यायन,2,रीतिकाल,3,रैदास,4,लघु कथा,125,लोकगीत,1,वरदान,11,विचार मंथन,60,विज्ञान,1,विदेशी कहानियाँ,34,विद्यापति,8,विविध जानकारी,1,विष्णु प्रभाकर,3,वृंदावनलाल वर्मा,1,वैज्ञानिक लेख,8,शमशेर बहादुर सिंह,6,शमोएल अहमद,5,शरत चन्द्र चट्टोपाध्याय,1,शरद जोशी,3,शिक्षाशास्त्र,6,शिवमंगल सिंह सुमन,6,शुभकामना,1,शेख चिल्ली की कहानी,1,शैक्षणिक लेख,57,शैलेश मटियानी,3,श्यामसुन्दर दास,1,श्रीकांत वर्मा,1,श्रीलाल शुक्ल,4,संयुक्त राष्ट्र संघ,1,संस्मरण,34,सआदत हसन मंटो,10,सतरंगी बातें,33,सन्देश,44,समसामयिक हिंदी लेख,270,समीक्षा,1,सर्वेश्वरदयाल सक्सेना,19,सारा आकाश,22,साहित्य सागर,22,साहित्यिक लेख,88,साहिर लुधियानवी,5,सिंह और सियार,1,सुदर्शन,3,सुदामा पाण्डेय "धूमिल",10,सुभद्राकुमारी चौहान,7,सुमित्रानंदन पन्त,23,सूरदास,16,सूरदास के पद,21,स्त्री विमर्श,11,हजारी प्रसाद द्विवेदी,4,हरिवंशराय बच्चन,28,हरिशंकर परसाई,24,हिंदी कथाकार,12,हिंदी निबंध,438,हिंदी लेख,536,हिंदी व्यंग्य लेख,14,हिंदी समाचार,186,हिंदीकुंज सहयोग,1,हिन्दी,7,हिन्दी टूल,4,हिन्दी आलोचक,7,हिन्दी कहानी,32,हिन्दी गद्यकार,4,हिन्दी दिवस,91,हिन्दी वर्णमाला,3,हिन्दी व्याकरण,45,हिन्दी संख्याएँ,1,हिन्दी साहित्य,9,हिन्दी साहित्य का इतिहास,21,हिन्दीकुंज विडियो,11,aapka-banti-mannu-bhandari,6,aaroh bhag 2,14,astrology,1,Attaullah Khan,2,baccho ke liye hindi kavita,70,Beauty Tips Hindi,3,bhasha-vigyan,1,chitra-varnan-hindi,3,Class 10 Hindi Kritika कृतिका Bhag 2,5,Class 11 Hindi Antral NCERT Solution,3,Class 9 Hindi Kshitij क्षितिज भाग 1,17,Class 9 Hindi Sparsh,15,divya-upanyas-yashpal,5,English Grammar in Hindi,3,formal-letter-in-hindi-format,143,Godan by Premchand,12,hindi ebooks,5,Hindi Ekanki,20,hindi essay,430,hindi grammar,52,Hindi Sahitya Ka Itihas,105,hindi stories,682,hindi-bal-ram-katha,12,hindi-gadya-sahitya,8,hindi-kavita-ki-vyakhya,19,hindi-notes-university-exams,77,ICSE Hindi Gadya Sankalan,11,icse-bhasha-sanchay-8-solutions,18,informal-letter-in-hindi-format,59,jyotish-astrology,24,kavyagat-visheshta,26,Kshitij Bhag 2,10,lok-sabha-in-hindi,18,love-letter-hindi,3,mb,72,motivational books,12,naya raasta icse,9,NCERT Class 10 Hindi Sanchayan संचयन Bhag 2,3,NCERT Class 11 Hindi Aroh आरोह भाग-1,20,ncert class 6 hindi vasant bhag 1,14,NCERT Class 9 Hindi Kritika कृतिका Bhag 1,5,NCERT Hindi Rimjhim Class 2,13,NCERT Rimjhim Class 4,14,ncert rimjhim class 5,19,NCERT Solutions Class 7 Hindi Durva,12,NCERT Solutions Class 8 Hindi Durva,17,NCERT Solutions for Class 11 Hindi Vitan वितान भाग 1,3,NCERT Solutions for class 12 Humanities Hindi Antral Bhag 2,4,NCERT Solutions Hindi Class 11 Antra Bhag 1,19,NCERT Vasant Bhag 3 For Class 8,12,NCERT/CBSE Class 9 Hindi book Sanchayan,6,Nootan Gunjan Hindi Pathmala Class 8,18,Notifications,5,nutan-gunjan-hindi-pathmala-6-solutions,17,nutan-gunjan-hindi-pathmala-7-solutions,18,political-science-notes-hindi,1,question paper,19,quizzes,8,raag-darbari-shrilal-shukla,8,Rimjhim Class 3,14,samvad-lekhan-in-hindi,6,Sankshipt Budhcharit,5,Shayari In Hindi,16,skandagupta-natak-jaishankar-prasad,6,sponsored news,10,suraj-ka-satvan-ghoda-dharmveer-bharti,6,Syllabus,7,tamas-upanyas-bhisham-sahni,4,top-classic-hindi-stories,59,UP Board Class 10 Hindi,4,Vasant Bhag - 2 Textbook In Hindi For Class - 7,11,vitaan-hindi-pathmala-8-solutions,16,VITAN BHAG-2,5,vocabulary,19,
ltr
item
हिन्दीकुंज,Hindi Website/Literary Web Patrika: शैलेश मटियानी की कहानी - अर्धांगिनी
शैलेश मटियानी की कहानी - अर्धांगिनी
हिन्दीकुंज,Hindi Website/Literary Web Patrika
https://www.hindikunj.com/2010/04/shailesh-matiyani.html
https://www.hindikunj.com/
https://www.hindikunj.com/
https://www.hindikunj.com/2010/04/shailesh-matiyani.html
true
6755820785026826471
UTF-8
Loaded All Posts Not found any posts VIEW ALL Readmore Reply Cancel reply Delete By Home PAGES POSTS View All RECOMMENDED FOR YOU LABEL ARCHIVE SEARCH ALL POSTS Not found any post match with your request Back Home Sunday Monday Tuesday Wednesday Thursday Friday Saturday Sun Mon Tue Wed Thu Fri Sat January February March April May June July August September October November December Jan Feb Mar Apr May Jun Jul Aug Sep Oct Nov Dec just now 1 minute ago $$1$$ minutes ago 1 hour ago $$1$$ hours ago Yesterday $$1$$ days ago $$1$$ weeks ago more than 5 weeks ago Followers Follow THIS PREMIUM CONTENT IS LOCKED STEP 1: Share to a social network STEP 2: Click the link on your social network Copy All Code Select All Code All codes were copied to your clipboard Can not copy the codes / texts, please press [CTRL]+[C] (or CMD+C with Mac) to copy बिषय - तालिका