रघुनाथ प्रसाद त्त् त्रिवेदी- या रुग्नात् पर्शाद तिर्वेद- यह क्या? क्या करें, दुविधा में जान है। एक ओर तो हिन्दी का यह गौरवपूर्ण दावा है कि ...
रघुनाथ प्रसाद त्त् त्रिवेदी- या रुग्नात् पर्शाद तिर्वेद- यह क्या?
क्या करें, दुविधा में जान है। एक ओर तो हिन्दी का यह गौरवपूर्ण दावा है कि इसमें जैसा बोला जाता है वैसा लिखा जाता है और जैसा लिखा जाता है वैसा ही बोला जाता है। दूसरी ओर हिन्दी के कर्णधारों का अविगत शिष्टाचार है कि जैसे धर्मोपदेशक कहते हैं कि हमारे कहने पर चलो, हमारी करनी पर मत चलो, वैसे ही जैसे हिन्दी के आचार्य लिखें वैसे लिखो, जैसे वे बोलें वैसे मत लिखो, शिष्टाचार भी कैसा? हिन्दी-साहित्य-सम्मेलन के सभापति अपने व्याकररकषायित कंठ से कहें ‘पर्सोत्तमदास’ और ‘हर्किसन्लाल’ और उनके पिट्ठू छापें ऐसी तरह की पढ़ा जाए – ‘पुरुषोत्तम अ दास अ’ और ‘हरि कृष्णलाल अ!’
अजी जाने भी दो, बड़े-बड़े बह गए और गधा कहे कितना पानी! कहानी कहने चले हो, या दिल के फफोले फोड़ने?
अच्छा, तो हुकुम। हम लालाजी के नौकर हैं, बैंगनों के थोड़े ही हैं। रघुनाथप्साद त्रिवेदी अब के इंटरमीडिएट परीक्षा में बैठा है। उसके पिता दारसूरी के पहाड़ के रहने वाले और आगरे के बुझातिया बैंक के मैनेजर हैं। बैंक के दफ्तर के पीछे चौक में उनका तथा उनकी स्त्री का बारहमासिया मकान है बाबू बड़े सीधे, अपने सिद्धांतों के पक्के और खरे आदमी हैं जैसे पुराने ढंग के होते हैं। बैंक के स्वामी इन पर इतना भरोसा करते हैं कि कभी छुट्टी नहीं देते और बाबू काम के इतने पक्के हैं कि छुट्टी माँगते नहीं। न बाबू वैसे कट्टर सनातनी हैं कि बिना मुँह धोए ही तिलक लगाकर स्टेशन पर दरभंगा महाराज के स्वागत को जाएँ, और न ऐसी समाजी ही हैं कि खंजड़ी लेकर ‘तोड़ पोपगढ़ लंका का’ करनह दौड़ें। उसूलों के पक्के हैं।
हाँ, उसूलों के पक्के हैं। सुबह एक प्याला चाय पीते हैं तो ऐसा कि जेठ में भी नहीं छोड़ते और माघ में भी एक के दो नहीं करते। उर्द की दाल खाते हैं, क्या मजाल है कि बुखार में भी मूँग की दाल का एक दाना खा जाएँ। आजकल के एम.ए., बी.ए. पास वालों पर हँसते हैं कि शेक्सपीयर और बेकन चाट जाने पर भी वे दफ्तर के काम की अँग्रेजी चिट्ठी नहीं लिख सकते। अपने जमाने के साथियों को सराहते हैं जो शेक्सपीयर के दो-तीन नाटक न पढ़कर सारे नाटक पढ़ते थे, डिक्शनरी से अँग्रेजी शब्द के लैटिन धातु याद करते थे। अपने गुरु बाबू प्रकाश बिहारी मुकर्जी की प्रशंसा रोज करते थे कि उन्होंने ‘लाइब्रेरी इम्तहान’ पास किया था। ऐसा कोई दिन ही बीतता होगा (निगोशिएबल इन्स्ट्रूमेंट एक्ट के अनुसार होने वाली तातीलों को मत गिनिए) कि जब उनके ‘लाइब्रेरी इम्तहान’ का उपाख्यान नए बी.ए. हेड क्लर्क को उसके मन और बुद्धि की उन्नति के लिए उपदेश की तरह नहीं सुनाया जाता हो। लाट साहब ने मुकर्जी बाबू को बंगाल-लाइब्रेरी में जाकर खड़ा कर दिया। राजा हरिश्चंद्र के यज्ञ में बलि के खूँटे में बँधे हुए शुन शेप की तरहबाबू अलमारियों की ओर देखने लगे। लाट साहब मनचाहे जैसी अलमारियों से मन चाहे जैसी किताब निकालकर मन चाहे जहाँ से पूछने लगे। सब अलमारियाँ खुल गईं, सब किताबें चुक गईं, लाट साहब की बाँह दुख गई, पर बाबू कहते-कहते नहीं थके; लाट साहब ने अपने हाथ से बाबू को एक घड़ी दी और कहा कि मैं अँग्रेजी-विद्या का छिलका ही भर जानता हूँ, तुम उसकी गिरी खा चुके हो। यह कथा पुराण की तरह रोज कहती जाती थी।
इन उसूल धन बाबूजी का एक उसूल यह भी था कि लड़के का विवाह छोटी उमर में नहीं करेंगे। इनकी जाति में पाँच-पाँच वर्ष की कन्याओं के पिता लड़के वालों के लिए वैसे मुँह बाए रहते हैं जैसे पुष्कर की झील में मगरमच्छ नहाने वालों के लिए; और वे कभी-कभी दरवाजे पर धरना देकर आ बैठते थे कि हमारी लड़की लीजिए, नहीं तो हम आपके द्वार पर प्राण दे देंगे। उसूलों के पक्के बाबूजी इनके भय से देश ही नहीं जाते थे और वे कन्या पिता-रूपी मगरमच्छ अपनी पहाड़ी गोह को छोड़कर आगरे आकर बाबूजी की निद्रा भंग करते थे। रघुनाथ की माता को सास बनने का बड़ा चाव था। जहाँ वह कुछ कहना आरंभ करती कि बाबूजी बैंक की लेजर-बुक खोलकर बैठ जाते, या लक्रडी उठाकर घूमने चल देते। बहस करके स्त्रियों से आज तक कोई जीता, पर पुष्ट मारकर जीत सकता है।
बाबू के पड़ोस में एक विवाह हुआ था। उस घर की मालकिन लाहना बाँटती हुई रघुनाथ की माँ के पास आई। रघुनाथ की माँ ने नई बहू को आसीस दी और स्वयं मिठाई रखने तथा बहू को गोद में भरने के लिए कुछ मेवा लाने भीतर गई। इधर मुहल्ले की वृद्ध ने कहा- ‘पंद्रह बरस हो गए लाहना लेते-लेते। आज तक एक बतासा भी इनके यहाँ से नहीं मिला।’ दूसरी वृद्ध, जो तीन बड़ी और दो छोटी पतोहू की सेवा से इतनी सुखी थी कि रोज मृत्यु को बुलाया करती थी, बोली, ‘बड़े भागों से बेटों का ब्याह होता है।’
तीसरी ने नाक की झुलनी हिलाकर कहा- ‘अपना खाने-पहरने का लोभ कोई छोटे तब तो बेटे की बहू लावे। बहू के आते ही खाने-पहनने में कमी जो हो जाती है।’ चौथी ने कहा- ‘ऐसे कमाने-खाने को आग लगे। यों तो कुत्ते भी अपना पेट भर लेते हैं।’ इसके पति ने चारों बेटों के विवाह में मकान और जमीन गिरवी रख दिए थे और कम-से-कम अपने जीवन भर के लिए कंगाली कम्बल ओढ़ लिया था।
अवश्य ही ये सब बातें रघुनाथ की माँ को सुनाने के लिए कही गई थीं। रघुनाथ की माँ भी जान्तथी कि ये मुझे सुनाने को कही जा रही हैं। परंतु उसके आते ही मुहल्ले की एक और ही स्त्री की निंदा चल पड़ी और रघुनाथ की माँ यह जानकर भी कि उस स्त्री के पास जाते ही मेरी भी ऐसी निंदा की जाएगी, हँसते-हँसते उनकी बातों में सम्मति देने लग गई। पतोहुओं से सुखिनी बुढ़िया ने एक हलके से अनुदात्त से कहा- ‘अब तुम रघुनाथ का ब्याह इस साल तो करोगी?’ उसके चाचा जानें, गहने तो बनवा रहे हैं’- रघुनाथ की माँ ने भी वैसे ही हलके उदात्त से उत्तर दिया। उसके अनुदात्त को यह समझ गई, और इसके उदात्त को वे सब। स्वर का विचार हिंदुस्तान के मर्दों की भाषा में भले ही न रहा हो, स्त्रियों की भाषा में उससे अब भी कई अर्थ प्रकाश किए जाते हैं।
‘मैं तुम्हें सलाह देती हूँ कि जल्दी रघुनाथ का ब्याह कर लो। कलयुग के दिन हैं, लड़का बोर्डिंग में रहता है, बिगड़ जाएगा। आगे तुम्हारी मर्जी, क्यों बहन सच है न? तू क्यों नहीं बोलती?’
‘मैं क्या कहूँ, मेरे रघुनाथ का-सा बेटा होता तो अब दत्तक पोता खिलाती।’ यों और दो-चार बातें करके यह स्त्री-दल चला गया और गृहिणी के हृदय समुद्र को कई विचारों की लहरों से छलकाता हुआ छोड़ गया।
सायंकाल भोजन करते समय बाबू बोले, ‘इन गर्मियों में रघुनाथ का ब्याह कर देंगे।’
स्त्री ने अपने ही लेजर और छड़ी छिपाकर ठान ली थी कि आज बाबूजी को दबाऊँगी कि पड़ोसियों की बोलियाँ नहीं सही जातीं। अचानक रंग पहले चढ़ गया। पूछने लगी- ‘हैं, आज यह कैसे सूझी?’
‘दारसूरी से भैया की चिट्ठी आई है। बहुत कुछ बातें लिखी हैं। कहा है कि तुम तो परदेशी हो गए। यहाँ चार महीने बाद वृहस्पति सिंहस्थ हो जाएगा; फिर डेढ़-दो वर्ष तक ब्याह नहीं होंगे। इसलिए छोटी-छोटी बच्चियों के ब्याह हो रहे हैं, वृहस्पति के सिंह के पेट में पहुँचने के पहले कोई चार-पाँच वर्ष की लड़की कुँवारी बचेगी। फिर जब वृहस्पति कहीं शेर की दाढ़ में से जीता-जागता निकल आया तो न बराबर का घर मिलेगा, न जोड़ की लड़की। तुम्हें क्या है, गाँव में बदनाम तो हम हो रहे हैं। मैंने अभी दो-तीन घर रोक रखे हैं। तुम जानो, अब के मेरा कहने न मानोगे तो मैं तुमसे जन्म-भर बोलने का नहीं।’
‘भैया ठीक तो कहते हैं।’
‘मैं भी मानता हूँ कि अब लड़के का उन्नीसवाँ वर्ष है। अब के इंटरमीडिएट पास हो जाएगा। अब हमारी नहीं चलेगी देवर-भौजाई जैसा नचाएँगे, वैसा ही नाचना पड़ेगा। अब तक मेरी चली, यही बहुत हुआ।’
‘भैया की को, मेरा कहना तो पाँच वर्ष से जो मान रहे हो।’
‘अच्छा अब जिदो मत। मैंने दो महीने की छुट्टी ली है। छुट्टी मिलते ही देश चलते हैं। बच्चा को लिख दिया है कि इम्तहान देकर सीधा घर चला आ। दस-पंद्रह दिन में आ जाएगा। तब तक हम घर भी ठीक कर लें। और दिन भी। अब तुम आगरे बहू को लेकर आओगी।’
स्त्री ने सोचा, बताशेवाली बुढ़िया का उलहना तो मिटेगा।
(2)
‘बाछा’ मेरे हाल में आपका क्या जी लगेगा? गरीबों का क्या हाल? रब रोटी देता है, दिन भर मेहनत करता हूँ, रात पड़ रहता हूँ। बाछा, तुम जैसे साईं लोगों की बरकत से मैं हज कर आया, ख्वाजा का उर्स देख आया, तीन नेले नमाज पढ़ लेता हूँ, और मुझे क्या चाहिए? बाछा, मेरा काम ट्टू चलाना नहीं है। अब तो इस मोती की कमाई खाता हूँ, कभी सवार ले जाता हूँ, कभी लाता; ढाई मण कणक पा लेता हूँ, तो दो पौली बच जाती है। रब की मरजी, मेरा अपना घर था; सिंहों के वक्त की काफी जमीन थी, नाते पड़ोसियों में मेरा नाम था; मैं धामपुर के नवाब का बनाता था और मेरे घर में से उसके जनाने में पकाती थी।एक रात को मैं खाना बना खिला के अपनी मंजड़ी पर सोया था कि, मेरे मौला ने मुझे आवाज दी- ‘लाही, लाही हज कर आ।’ मैं आँखें मल के खड़ा हो गया, पर कुछ दिखा नहीं। फिर सोने लगा कि फिर वही आवाज आई कि ‘लाही, तू मेरी पुकार नहीं सुनता? जा हज कर आ।’ मैं समझा, मेरा मौला मुझे बुलाता है। फिर आवाज आई- ‘लाही, चल पड़; मैं तेरे नाल हूँ, मैं तेरा बेड़ा पार कहूँगा।’ मुझसे रहा नहीं गया। मैंने अपना कम्बल उठाया और आधी रात को चल पड़ा। बा’छा, मैं रातों चला दिनों चला, भीख माँगकर चलते-चलते बंबई पहुँचा। वहाँ मेरे पल्ले टका नहीं था, पर एक हिन्दू भाई ने मुझे टिकट ले दिया। काफले के साथ मैं जहाज पर चढ़ गया। वहीं मुझे छह महीने लगे। पूरी हज की। जब लौटे तो रास्ते में जहाज भटक गया। एक चट्टान पानी के नीचे थी, जो उससे टकरा गया। उसके पीछे की दोनों लालटेनें ऊपर आ गईं और वे हमें शैतान की-सी आँखें दिखाई देने लगीं। सब ने समझा मर जाएँगे, पानी में गोर बनेगी। कप्तान ने छोटी किश्तियाँ खोली और उनमें हाजियों को बिठाकर छोड़ दिया। मर्द का बच्चा आप अपनी जगह से नहीं टला, जहाज के नाल डूब गया। अँधेरे में कुछ सूझता नहीं था। सवेरा होते ही हमने देखश कि दो किश्तियाँ बह रही हैं और न जहाज है, न दूसरी किश्तियाँ। पता ही नहीं, हम कहाँ से किधर जा रहे थे। लहरें हमारी किश्तियों को उछालती, नचाती, डुबोती, झकोड़ती थीं। जो लमहा बीतता था, हम खैर मनाते थे। पर मेरे मालिक ने करम किया, मेरे अल्लाह ने, मेरे मौला ने जैसे उस रात को कहा था, मेरा बेड़ा पार किया। तीन दिन तीन रात हम बेपते बहते रहे- चौथे दिन माल के जहाज ने हमको उठा लिया और छठे दिन कराची में हमने दुआ की नमाज पढ़ी। पीछे सुना कि तीन सौ हाजी मर गए।
‘वहाँ से मैं ख्वाजा की जियारत को चला, अजमेर शरीफ में दरगाह का दीदार पाया। इस तरह, बा’छा साढ़े सात महीने पीछे मैं घर आया। आकर घर देखता क्या हूँ कि सब पटरा हो गया है। नवाब जब सवेरे उठा तो उसने नाश्ता माँगा। नौकरों ने कहा कि इलाही का पता नहीं। बस वह जल गया। उसने मेरा घर फुँकवा दिया, मेरे जमीन अपनी रखवाल के भाई को दे दी और मेरी बीवी को लौंडी बनाकर कैद कर लिया। मैं उसका क्या ले गया था, अपना कम्बल ले गया था। और पिछले तीन महीने की तलब अपनी पेटी में उसके बावर्चीखाने में रख गया था। भला, मेरा मौला बुलावे और मैं न जाऊँ? पर उसको जो एक घंटा देर से खाना मिला इससे बढ़कर और गुनाह क्या होता?
‘इसके पंद्रहवें दिन जनाने में एक सोने की अँगूठी खो गई। नवाब ने मेरी घरवाली पर शक किया। उससे पूछा तो वह बोली कि मेरा कौन-सा घर और घरवाला बैठा है कि उसके पास अँगूठी ले जाऊँगी। मैं तो यही रहती हूँ। सीधी बात थी, पर उससे सुनी नहीं गई। जला-भुना तो था ही, बेंत लेकर लगा मारने, बा’छा, मैं क्या कहूँ, मौला मेरा गुनाह बख्शे, आज पाँच बरस हो गए हैं, पर जब मैं घरवाली की पीठ पर पचासों दागों की गुच्छियाँ देखता हूँ, तो यही पछतावा रहता है कि रब ने उस सूर का (तोबा! तोबा!) गला घोटने को यहाँ क्यों न रखा। मारते-मारते जब मेरी घरवाली बेहोश हो गई तब डरकर उसे गाँव के बाहर फिंकवा दिया। तीसरे दिन वह वहाँ से घिसकती-घिसकती चलकर अपने भाई के यहाँ पहुँची।
‘रघुनाध ने रुँधे गले से कहा, ‘तुमने फरयाद नहीं की?’
‘कचहरियाँ गरीबों के लिए नहीं हैं बाछा, वे तो सेठों के लिए हैं। गरीबों की फरयाद सुनने वाला सुनता है उसने पंद्रह दिन में सुनकर हुकुम भी दे दिया। मेरी औरत को मारते-मारते उस पाजी के हाथ की अँगुली में एक बेंत की सली चुभ गई थी। वही पक गई। लहू में जहर हो गया। पंद्रहवें दिन मर गया। हज से आकर मैंने सारा हाल सुना। अपने जले हुए घर को देखा और अपने परदादे की सिंहों की माफी जमीन को भी देखा। चला आया। मसजिद में जाकर रोया। मेरे मौला ने मुझे हुकुम दिया, ‘लाही, मैं तेरे नाल हूँ, अपनी जोरू को धीरज दे।’ मैं साले के यहाँ पहुँचा। उसने पचीस रुपए दिए, मैं टट्टू मोल लेकर पहाड़ चला आया और यहाँ रब का नाम लेता हूँ और आप जैसे साईं लोगों की बंदगी करता हूँ। रब का नाम बड़ा है।’
रघुनाथ इम्तहान देकर रेल से घराठनी तक आया। वहाँ तीस मील पहाड़ी रास्ता था। दूरी पर चूने के-से चमकते दिखने लगे, जो कभी न पिघलने वाली बर्फ के पहाड़ थे। रास्ता साँप की तरह चक्कर खाता था। मालूम होता कि एक घाटी पूरी हो गई, पर ज्यों ही मोड़ आते, त्यों ही उसकी जड़ में एक और आधी मील का चक्कर निकल पड़ता। एक ओर ऊँचा पहाड़, दूसरी ओर ढाई सौ फुट गहरी खड्ड। और किराए के ट्टुओं की लत कि सड़क के छोर पर चलें जिससे सवार की एक टाँग तो खड्ड पर ही लटकती रहे। आगे वैसा ही रास्ता, वैसी ही खड्ड, सामने वैसी ही कोने पर चलने वाली टट्टू। जब धूप बढ़ी और जी न लगा तो मोती के स्वामी इलाही से रघुनाथ से उसका इतिहास पूछा। उसने जो सीधी और विश्वस से भरी, दुःख की धाराओं से भीगी और विश्वास से भरी, दुःख की धाराओं से भीगी हुई कथा कही, उससे कुछ मार्ग कट गया। कितने गरीबों का इतिहास ऐसी चित्र-घटनाओं की धूप-छाया से भरा हुआ है। पर हम लोग प्रकृति के इन सच्चे चित्रों को न देखकर उपन्यासों की मृगतृष्णा में चमत्कार ढूँढ़ते है।
धूप चढ़ गई थी कि वे एक ग्राम में पहुँचे। गाँव के बाहर सड़क के सहारे एक कुआँ था और उसी के पास एक पेड़ के नीचे इलाही ने स्वयं और अपने मोती के लिए विश्राम करने का प्रस्ताव किया। ‘घोड़े को न्हारी देकर और पानी-वानी पीकर धूप ढलते ही चल देंगे और बात-की-बात में आपको घर पहुँचा देंगे।’ रघुनाथ को भी टाँगें सीधी करने में कोई उज्र न था। खाने की इच्छा बिलकुल न थी। हाँ, पानी की प्यास लग रही थी। रघुनाथ अपने बक्स में से लोटा-डोर निकालकर कुएँ की तरफ चला।
(3) कुएँ पर देखा कि छह-सात स्त्रियाँ पानी भरने और भरकर ले जाने की कई दशाओं में हैं। गाँवों में परदा नहीं होता। वहाँ सब पुरुष सब स्त्रियों से और सब स्त्रियाँ सब पुरुषों से निडर होकर बातें कर लेती हैं। और शहरों के लम्बे घूँघटों के नीचे जितना पाप होता है, उसका दसवाँ हिस्सा भी गाँवों में नहीं होता। इसी से तो कहावत में बाप ने बेटे को उपदेश दिया है कि लंबे घूँघट-वाली से बचना। अनजान पुरुष किसी भी स्त्री से ‘बहन’ कहकर बात कर लेता है और स्त्री बाजा में जाकर किसी भी पुरुष से ‘भाई’ कहकर बोल लेती है। यही वाचिक संधि दिन भर के व्यवहारों में ‘पासपोर्ट’ का काम दे देती है। हँसी-ठट्ठा भी होता है, पर कोई दुर्भाव नहीं खड़ा होता। राजपूताने के गाँवों में स्त्री ऊँट पर बैठी निकल जाती है और खेतों के लोग ‘मामीजी, मामीजी’ चिल्लाया करते हैं न उनका अर्थ उस शब्द से बढ़कर कुछ होता है और न वह चिढ़ती है। एक गाँव में बारात जीमने बैठी। उस समय स्त्रियाँ समधियों को गाली गाती हैं। पर गालियाँ न गाई जाती देख नागरिक-सुधारक बराती को बड़ा हर्ष हुआ। वह ग्राम के एक वृद्ध से कह बैठा, ‘बड़ी खुशी की बात है कि आपके यहाँ इतनी तरक्की हो गई है।’ बुड्ढा बोला, ‘हाँ साहब, तरक्की हो रही है। पहले गालियों में कहा जाता था, फलाने की फलानी के साथ और अमुक को अमुक के साथ। लोग-लुगाई सुनते थे, हँस देते थे। अब घर-घर में वे ही बातें सच्ची हो रही हैं। अब गालियाँ गाई जाती हैं तो चोरों की दाढ़ी में तिनके निकलते हैं। तभी तो आंदोलन होते हैं कि गालियाँ बाद करो, क्योंकि वे चुभती हैं।
रघुनाथ यदि चाहता तो किसी भी पानी भरने वाली से पीने को पानी माँग लेता। परंतु उसने अब तक अपनी माता को छोड़कर किसी स्त्री से कभी बात नहीं की थी। स्त्रियों के सामने बात करने को उसका मुँह खुल न सका। पिता की कठोर शिक्षा से बालकपन से ही उसे वह स्वभाव पड़ गया था कि दो वर्ष प्रयाग में स्वतंत्र रहकर भी वह अपने चरित्र को, केवल पुरुषों के समाज में बैठकर, पवित्र रख सका था। जो कोने में बैठकर उपन्यास पढ़ा करते हैं, उनकी अपेक्षा खुले मैदान में खेलने वालों के विचार अधिक पवित्र रहते हैं- इसीलिए फुटबॉल और हॉकी के खिलाड़ी रघुनाध को कभी स्त्री विषयक कल्पना ही नहीं होती थी; वह मानवी सृष्टि में अपनी माता को छोड़कर और स्त्रियों के होने या न होने से अनभिज्ञ था। विवाह उसकी दृष्टि में एक आवश्यक किन्तु दुर्ज्ञेय बंधन था जिसमें सब मनुष्य फँसते हैं और पिता की आज्ञानुसार वह विवाह के लिए घर उसी रुचि से आ रहा था जिससे कि कोई पहले-पहल थिएटर देखने जाता है। कुएँ पर इतनी स्त्रियों को इकट्ठा देखकर वह सहम गया, उसके ललाट पर पसीना आ गया और उसका बस चलता तो वह बिना पानी पिये ही लौट जाता। अस्तु, चुपचाप डोर लोटा लेकर एक कोने पर जा खड़ा हुआ और डोर खोलकर फाँसा देने लगा।
प्रयाग के बोर्डिंग की टोटियों की कृपा से, जन्म भर कभी कुएँ से पानी नहीं खींचा था, न लोटे में फाँसा लगाया था। ऐसी अवस्था में उसने सारी डोर कुएँ में बखेर दी और उसकी जो छोर लोटे से बाँधी, वह कभी तो लोटे को एक सौ बीस अंश के कोण पर लटकाती और कभी सत्तर पर। डोर के जब बट खुलते हैं तब वह पहुँच पेंच खाती है। इन पेंचों में रघुनाथ की बाँहें भी उलझ गईं। सिर नीचा किए ज्यों ही वह डोर को सुलझाता था, त्यों ही वह उलझती जाती थी। उसे पता नहीं था कि गाँव की स्त्रियों के लिए वह अद्भुत कौतुक नयनोत्सव हो रहा था।
धीरे-धीरे टीका-टिप्पणी आरंभ हो गई। एक ने हँसकर कहा, ‘पटवारी है, पैमाइश की जरीब फैलाता है।’
दूसरी बोली, ‘ना, बाजीगर है, हाथ-पाँव बाँधकर पानी में कूद पड़ेगा और फिर सूखा निकल आएगा।’
तीसरी बोली, ‘क्यों लल्ला, घरवालों से लड़कर आए हो?’
चौथी ने कहा, ‘क्या कुएँ में दवाई डालोगे? इस गाँव में तो बीमारी नहीं है।’
इतने में एक लड़की बोली, ‘काहे की दवाई और कहाँ का पटवारी? अनाड़ी लोटे में फाँसा देना नहीं आता। भाई, मेरे घड़े को मत कुएँ में डाल देना, तुमने तो सारी मेंड़ ही रोक ली!’ यों कहकर वह सामने आकर अपना घड़ा उठाकर ले गई।
पहली ने पूछा, ‘भाई तुम क्या करोगे?’
लड़की बात काटकर बोल उठी, ‘कुएँ को बाँधेंगे।’
पहली- ‘अरे! बोल तो।’ लड़की- ‘माँ ने सिखाया नहीं।’
संकोच, प्यास, लज्जा और घबराहट से रघुनाथ का गला रुक रह था; उसने खाँसकर कण्ठ साफ करना चाहा। लड़की ने भी वैसी ही आवाज की। इस पर पहली स्त्री बढ़कर आगे आई और डोर उठाकर कहने लगी, ‘क्या चाहते हो? बोलते क्यों नहीं?’
लड़की -’फारसी बोलेंगे।’
रघुनाथ ने शर्म से कुछ आँखें ऊँची कीं, कुछ मुँह फेरकर कुएँ से कहा, ‘मुझे पानी पीना है, -लोटे से निकाल रहा- निकाल लूँगा।’
लड़की- ‘परसों तक।’
स्त्री बोली, ‘तो हम पानी पिला दें। ला भाग्यवन्ती, गगरी उठा ला। इनको पानी पिला दें।’
लड़की गगरी उठा लाई और बोली, ‘ले मामी के पालतू, पानी पी ले, शरमा मत, तेरी बहू से नहीं कहूँगी।’
इस पर सब स्त्रियाँ खिलखिलाकर हँस पड़ीं। रघुनाथ के चहरे पर लाली दौड़ गई। उसने यह दिखाना चाहा कि मुझे कोई देख नहीं रहा, यद्यपि दस-बारह स्त्रियाँ उसके भौचक्केपन को देख रही थीं। सृष्टि के आदि से कोई अपनी झेंप छिपाने को समर्थ न हुआ, न होगा। रघुनाथ उल्टा झेंप गया।
‘नहीं, नहीं, मैं आप ही-’ लड़की- ‘कुएँ में कूद के।’
इस पर एक और हँसी का फौवारा फूट पड़ा।
रघुनाथ ने कुछ आँखें उठाकर लड़की की ओर देखा। कोई चौदह-पंद्रह बरस की लड़की, शहर की छोकरियों की तरह पीली और दुबली नहीं, हष्ट-पुष्ट और प्रसन्नमुख। आँखों के डेले, काले सफेद, नहीं कुछ मटिया नीले और पिघलते हुए। यह जान पड़ता था कि डेले अभी पिघलकर बह जाएँगे। आँखों के चौतरंग हँसी; ओठों पर हँसी और सारे शरीर पर निरोग स्वास्थ्य की हँसी। रघुनाथ की आँखें और नीची हो गईं।
स्त्री ने फिर कहा, ‘पानी पी लो जी, लड़की खड़ी है।’
रघुनाथ ने हाथ धोये। एक हाथ मुँह के आगे लगाया; लड़की गगरी से पानी पिलाने लगी। जब रघुनाथ आधा पी चुका था तब उसने श्वास लेते-लेते आँखें ऊँची कीं। उस समय लड़की ने ऐसा मुँह बनाया कि ठि-ठि करके रघुनाथ हँस पड़ा, उसकी नाक में पानी चढ़ गया और सारी आस्तीन भीग गई। लड़की चुप।
रघुनाथ को खाँसते, डगमगाते देखकर वह स्त्री आगे चली आई और गगरी छीनती हुई लड़की को झिड़ककर बोली- ‘तुझे रात-दिन ऊतपन ही सूझता है। इन्हें गलसूंड चला गया। ऐसी हँसी भी किस काम की। लो, मैं पानी पिलाती हूँ।’
लड़की- ‘दूध पिला दो, बहुत देर हुई; आँसू भी पोंछ दो।’
सच्चे ही रघुनाथ के आँसू के आँसू आ गए थे। उसने स्त्री से जल लेकर मुँह धोया और पानी पिया। धीरे से कहा, ‘बस जी, बस।’
लड़की- ‘अब के आप निकाल लेंगे।’
रघुनाथ को मुँह पोंछते देखकर स्त्री ने पूछा, ‘कहाँ रहते हो?’
‘आगरे।’
‘इधर कहाँ जाओगे?’
लड़की- (बीच ही में)- ‘शिकारपुर! वहाँ ऐसों का गुरुद्वारा है।’ स्त्रियाँ खिलखिला उठीं।
रघुनाथ ने अपने गाँव का नाम बताया। ‘मैं पहले कभी इधर आया नहीं, कितनी दूर है, कब तक पहुँच जाऊँगा?’ अब भी वह सिर उठाकर बात नहीं कर रहा था।
लड़की- ‘यही पंद्रह-बीस दिन में। तीन-चार सौ कोस तो होगा।’
स्त्री- ‘छिः, दो-ढाई भर है, अभी घंटे भर में पहुँच जाते हो।’
‘रास्ता सीधा ही है न?’
लड़की- ‘नहीं तो बाएँ हाथ को मुड़कर चीड़ के पेड़ के नीचे दाहिने हाथ को मुड़ने के पीछे सातवें पत्थर पर फिर बाएँ मुड़ जाना, आगे सीधे जाकर कहीं न मुड़ना; सबसे आगे एक गीदड़ की गुफा है, उससे उत्तर को बाड़ उलाँघकर चले जाना।’
स्त्री- ‘छोकरी तू बहुत सिर चढ़ गई है, चिकर-चिकर करती ही जाती है! नहीं जी एक ही रास्ता है; सामने नदी आवेगी; परले पार बाएँ हाथ को गाँव है।’
लड़की- ‘नदी में भी यों ही फाँसा लगाकर पानी निकालना।’
स्त्री उसकी बात अनसुनी करके बोली, ‘क्या उस गाँव में डाक-बाबू होकर आए हो?’
रघुनाथ- नहीं, मैं तो प्रयाग में पढ़ता हूँ।’
लड़की- ‘ओ हो, पिरागजी में पढ़ते हैं! कुएँ से पानी निकालना पढ़ते होंगे?’
स्त्री- ‘चुप कर, ज्यादा बक-बक काम की नहीं; क्या इसीलिए तू मेरे यहाँ आई है?’
इस पर महिला-मण्डल फिर हँस पड़ा। रघुनाथ ने घबराकर इलाही की ओर देखा तो वह मजे में पेड़ के नीचे चिलम पी रहा था। इस समय रघुनाथ को हाजी इलाही से ईर्ष्या होने लगी। उसने सोचा कि हज से लौटते समय समुद्र में खतरे कम हैं, और कुएँ पर अधिक।
लड़की – ‘क्यों जी, परागजी में अक्कल भी बिकती है?’
रघुनाथ ने मुँह फेर लिया।
स्त्री- ‘तो गाँव में क्या करने जाते हो?’
लड़की- ‘कमाने-खाने।’
स्त्री- ‘तेरी कैंची नहीं बंद होती! यह लड़की तो पागल हो जाएगी।’
रघुनाथ- ‘मैं वहाँ के बाबू शोभारामजी का लड़का हूँ।’
स्त्री- ‘अच्छा, अच्छा, तो क्या तुम्हारा ही ब्याह है?’
रघुनाथ ने सिर नीचा कर लिया।
क्या करें, दुविधा में जान है। एक ओर तो हिन्दी का यह गौरवपूर्ण दावा है कि इसमें जैसा बोला जाता है वैसा लिखा जाता है और जैसा लिखा जाता है वैसा ही बोला जाता है। दूसरी ओर हिन्दी के कर्णधारों का अविगत शिष्टाचार है कि जैसे धर्मोपदेशक कहते हैं कि हमारे कहने पर चलो, हमारी करनी पर मत चलो, वैसे ही जैसे हिन्दी के आचार्य लिखें वैसे लिखो, जैसे वे बोलें वैसे मत लिखो, शिष्टाचार भी कैसा? हिन्दी-साहित्य-सम्मेलन के सभापति अपने व्याकररकषायित कंठ से कहें ‘पर्सोत्तमदास’ और ‘हर्किसन्लाल’ और उनके पिट्ठू छापें ऐसी तरह की पढ़ा जाए – ‘पुरुषोत्तम अ दास अ’ और ‘हरि कृष्णलाल अ!’
अजी जाने भी दो, बड़े-बड़े बह गए और गधा कहे कितना पानी! कहानी कहने चले हो, या दिल के फफोले फोड़ने?
अच्छा, तो हुकुम। हम लालाजी के नौकर हैं, बैंगनों के थोड़े ही हैं। रघुनाथप्साद त्रिवेदी अब के इंटरमीडिएट परीक्षा में बैठा है। उसके पिता दारसूरी के पहाड़ के रहने वाले और आगरे के बुझातिया बैंक के मैनेजर हैं। बैंक के दफ्तर के पीछे चौक में उनका तथा उनकी स्त्री का बारहमासिया मकान है बाबू बड़े सीधे, अपने सिद्धांतों के पक्के और खरे आदमी हैं जैसे पुराने ढंग के होते हैं। बैंक के स्वामी इन पर इतना भरोसा करते हैं कि कभी छुट्टी नहीं देते और बाबू काम के इतने पक्के हैं कि छुट्टी माँगते नहीं। न बाबू वैसे कट्टर सनातनी हैं कि बिना मुँह धोए ही तिलक लगाकर स्टेशन पर दरभंगा महाराज के स्वागत को जाएँ, और न ऐसी समाजी ही हैं कि खंजड़ी लेकर ‘तोड़ पोपगढ़ लंका का’ करनह दौड़ें। उसूलों के पक्के हैं।
हाँ, उसूलों के पक्के हैं। सुबह एक प्याला चाय पीते हैं तो ऐसा कि जेठ में भी नहीं छोड़ते और माघ में भी एक के दो नहीं करते। उर्द की दाल खाते हैं, क्या मजाल है कि बुखार में भी मूँग की दाल का एक दाना खा जाएँ। आजकल के एम.ए., बी.ए. पास वालों पर हँसते हैं कि शेक्सपीयर और बेकन चाट जाने पर भी वे दफ्तर के काम की अँग्रेजी चिट्ठी नहीं लिख सकते। अपने जमाने के साथियों को सराहते हैं जो शेक्सपीयर के दो-तीन नाटक न पढ़कर सारे नाटक पढ़ते थे, डिक्शनरी से अँग्रेजी शब्द के लैटिन धातु याद करते थे। अपने गुरु बाबू प्रकाश बिहारी मुकर्जी की प्रशंसा रोज करते थे कि उन्होंने ‘लाइब्रेरी इम्तहान’ पास किया था। ऐसा कोई दिन ही बीतता होगा (निगोशिएबल इन्स्ट्रूमेंट एक्ट के अनुसार होने वाली तातीलों को मत गिनिए) कि जब उनके ‘लाइब्रेरी इम्तहान’ का उपाख्यान नए बी.ए. हेड क्लर्क को उसके मन और बुद्धि की उन्नति के लिए उपदेश की तरह नहीं सुनाया जाता हो। लाट साहब ने मुकर्जी बाबू को बंगाल-लाइब्रेरी में जाकर खड़ा कर दिया। राजा हरिश्चंद्र के यज्ञ में बलि के खूँटे में बँधे हुए शुन शेप की तरहबाबू अलमारियों की ओर देखने लगे। लाट साहब मनचाहे जैसी अलमारियों से मन चाहे जैसी किताब निकालकर मन चाहे जहाँ से पूछने लगे। सब अलमारियाँ खुल गईं, सब किताबें चुक गईं, लाट साहब की बाँह दुख गई, पर बाबू कहते-कहते नहीं थके; लाट साहब ने अपने हाथ से बाबू को एक घड़ी दी और कहा कि मैं अँग्रेजी-विद्या का छिलका ही भर जानता हूँ, तुम उसकी गिरी खा चुके हो। यह कथा पुराण की तरह रोज कहती जाती थी।
इन उसूल धन बाबूजी का एक उसूल यह भी था कि लड़के का विवाह छोटी उमर में नहीं करेंगे। इनकी जाति में पाँच-पाँच वर्ष की कन्याओं के पिता लड़के वालों के लिए वैसे मुँह बाए रहते हैं जैसे पुष्कर की झील में मगरमच्छ नहाने वालों के लिए; और वे कभी-कभी दरवाजे पर धरना देकर आ बैठते थे कि हमारी लड़की लीजिए, नहीं तो हम आपके द्वार पर प्राण दे देंगे। उसूलों के पक्के बाबूजी इनके भय से देश ही नहीं जाते थे और वे कन्या पिता-रूपी मगरमच्छ अपनी पहाड़ी गोह को छोड़कर आगरे आकर बाबूजी की निद्रा भंग करते थे। रघुनाथ की माता को सास बनने का बड़ा चाव था। जहाँ वह कुछ कहना आरंभ करती कि बाबूजी बैंक की लेजर-बुक खोलकर बैठ जाते, या लक्रडी उठाकर घूमने चल देते। बहस करके स्त्रियों से आज तक कोई जीता, पर पुष्ट मारकर जीत सकता है।
बाबू के पड़ोस में एक विवाह हुआ था। उस घर की मालकिन लाहना बाँटती हुई रघुनाथ की माँ के पास आई। रघुनाथ की माँ ने नई बहू को आसीस दी और स्वयं मिठाई रखने तथा बहू को गोद में भरने के लिए कुछ मेवा लाने भीतर गई। इधर मुहल्ले की वृद्ध ने कहा- ‘पंद्रह बरस हो गए लाहना लेते-लेते। आज तक एक बतासा भी इनके यहाँ से नहीं मिला।’ दूसरी वृद्ध, जो तीन बड़ी और दो छोटी पतोहू की सेवा से इतनी सुखी थी कि रोज मृत्यु को बुलाया करती थी, बोली, ‘बड़े भागों से बेटों का ब्याह होता है।’
तीसरी ने नाक की झुलनी हिलाकर कहा- ‘अपना खाने-पहरने का लोभ कोई छोटे तब तो बेटे की बहू लावे। बहू के आते ही खाने-पहनने में कमी जो हो जाती है।’ चौथी ने कहा- ‘ऐसे कमाने-खाने को आग लगे। यों तो कुत्ते भी अपना पेट भर लेते हैं।’ इसके पति ने चारों बेटों के विवाह में मकान और जमीन गिरवी रख दिए थे और कम-से-कम अपने जीवन भर के लिए कंगाली कम्बल ओढ़ लिया था।
अवश्य ही ये सब बातें रघुनाथ की माँ को सुनाने के लिए कही गई थीं। रघुनाथ की माँ भी जान्तथी कि ये मुझे सुनाने को कही जा रही हैं। परंतु उसके आते ही मुहल्ले की एक और ही स्त्री की निंदा चल पड़ी और रघुनाथ की माँ यह जानकर भी कि उस स्त्री के पास जाते ही मेरी भी ऐसी निंदा की जाएगी, हँसते-हँसते उनकी बातों में सम्मति देने लग गई। पतोहुओं से सुखिनी बुढ़िया ने एक हलके से अनुदात्त से कहा- ‘अब तुम रघुनाथ का ब्याह इस साल तो करोगी?’ उसके चाचा जानें, गहने तो बनवा रहे हैं’- रघुनाथ की माँ ने भी वैसे ही हलके उदात्त से उत्तर दिया। उसके अनुदात्त को यह समझ गई, और इसके उदात्त को वे सब। स्वर का विचार हिंदुस्तान के मर्दों की भाषा में भले ही न रहा हो, स्त्रियों की भाषा में उससे अब भी कई अर्थ प्रकाश किए जाते हैं।
‘मैं तुम्हें सलाह देती हूँ कि जल्दी रघुनाथ का ब्याह कर लो। कलयुग के दिन हैं, लड़का बोर्डिंग में रहता है, बिगड़ जाएगा। आगे तुम्हारी मर्जी, क्यों बहन सच है न? तू क्यों नहीं बोलती?’
‘मैं क्या कहूँ, मेरे रघुनाथ का-सा बेटा होता तो अब दत्तक पोता खिलाती।’ यों और दो-चार बातें करके यह स्त्री-दल चला गया और गृहिणी के हृदय समुद्र को कई विचारों की लहरों से छलकाता हुआ छोड़ गया।
सायंकाल भोजन करते समय बाबू बोले, ‘इन गर्मियों में रघुनाथ का ब्याह कर देंगे।’
स्त्री ने अपने ही लेजर और छड़ी छिपाकर ठान ली थी कि आज बाबूजी को दबाऊँगी कि पड़ोसियों की बोलियाँ नहीं सही जातीं। अचानक रंग पहले चढ़ गया। पूछने लगी- ‘हैं, आज यह कैसे सूझी?’
‘दारसूरी से भैया की चिट्ठी आई है। बहुत कुछ बातें लिखी हैं। कहा है कि तुम तो परदेशी हो गए। यहाँ चार महीने बाद वृहस्पति सिंहस्थ हो जाएगा; फिर डेढ़-दो वर्ष तक ब्याह नहीं होंगे। इसलिए छोटी-छोटी बच्चियों के ब्याह हो रहे हैं, वृहस्पति के सिंह के पेट में पहुँचने के पहले कोई चार-पाँच वर्ष की लड़की कुँवारी बचेगी। फिर जब वृहस्पति कहीं शेर की दाढ़ में से जीता-जागता निकल आया तो न बराबर का घर मिलेगा, न जोड़ की लड़की। तुम्हें क्या है, गाँव में बदनाम तो हम हो रहे हैं। मैंने अभी दो-तीन घर रोक रखे हैं। तुम जानो, अब के मेरा कहने न मानोगे तो मैं तुमसे जन्म-भर बोलने का नहीं।’
‘भैया ठीक तो कहते हैं।’
‘मैं भी मानता हूँ कि अब लड़के का उन्नीसवाँ वर्ष है। अब के इंटरमीडिएट पास हो जाएगा। अब हमारी नहीं चलेगी देवर-भौजाई जैसा नचाएँगे, वैसा ही नाचना पड़ेगा। अब तक मेरी चली, यही बहुत हुआ।’
‘भैया की को, मेरा कहना तो पाँच वर्ष से जो मान रहे हो।’
‘अच्छा अब जिदो मत। मैंने दो महीने की छुट्टी ली है। छुट्टी मिलते ही देश चलते हैं। बच्चा को लिख दिया है कि इम्तहान देकर सीधा घर चला आ। दस-पंद्रह दिन में आ जाएगा। तब तक हम घर भी ठीक कर लें। और दिन भी। अब तुम आगरे बहू को लेकर आओगी।’
स्त्री ने सोचा, बताशेवाली बुढ़िया का उलहना तो मिटेगा।
(2)
‘बाछा’ मेरे हाल में आपका क्या जी लगेगा? गरीबों का क्या हाल? रब रोटी देता है, दिन भर मेहनत करता हूँ, रात पड़ रहता हूँ। बाछा, तुम जैसे साईं लोगों की बरकत से मैं हज कर आया, ख्वाजा का उर्स देख आया, तीन नेले नमाज पढ़ लेता हूँ, और मुझे क्या चाहिए? बाछा, मेरा काम ट्टू चलाना नहीं है। अब तो इस मोती की कमाई खाता हूँ, कभी सवार ले जाता हूँ, कभी लाता; ढाई मण कणक पा लेता हूँ, तो दो पौली बच जाती है। रब की मरजी, मेरा अपना घर था; सिंहों के वक्त की काफी जमीन थी, नाते पड़ोसियों में मेरा नाम था; मैं धामपुर के नवाब का बनाता था और मेरे घर में से उसके जनाने में पकाती थी।एक रात को मैं खाना बना खिला के अपनी मंजड़ी पर सोया था कि, मेरे मौला ने मुझे आवाज दी- ‘लाही, लाही हज कर आ।’ मैं आँखें मल के खड़ा हो गया, पर कुछ दिखा नहीं। फिर सोने लगा कि फिर वही आवाज आई कि ‘लाही, तू मेरी पुकार नहीं सुनता? जा हज कर आ।’ मैं समझा, मेरा मौला मुझे बुलाता है। फिर आवाज आई- ‘लाही, चल पड़; मैं तेरे नाल हूँ, मैं तेरा बेड़ा पार कहूँगा।’ मुझसे रहा नहीं गया। मैंने अपना कम्बल उठाया और आधी रात को चल पड़ा। बा’छा, मैं रातों चला दिनों चला, भीख माँगकर चलते-चलते बंबई पहुँचा। वहाँ मेरे पल्ले टका नहीं था, पर एक हिन्दू भाई ने मुझे टिकट ले दिया। काफले के साथ मैं जहाज पर चढ़ गया। वहीं मुझे छह महीने लगे। पूरी हज की। जब लौटे तो रास्ते में जहाज भटक गया। एक चट्टान पानी के नीचे थी, जो उससे टकरा गया। उसके पीछे की दोनों लालटेनें ऊपर आ गईं और वे हमें शैतान की-सी आँखें दिखाई देने लगीं। सब ने समझा मर जाएँगे, पानी में गोर बनेगी। कप्तान ने छोटी किश्तियाँ खोली और उनमें हाजियों को बिठाकर छोड़ दिया। मर्द का बच्चा आप अपनी जगह से नहीं टला, जहाज के नाल डूब गया। अँधेरे में कुछ सूझता नहीं था। सवेरा होते ही हमने देखश कि दो किश्तियाँ बह रही हैं और न जहाज है, न दूसरी किश्तियाँ। पता ही नहीं, हम कहाँ से किधर जा रहे थे। लहरें हमारी किश्तियों को उछालती, नचाती, डुबोती, झकोड़ती थीं। जो लमहा बीतता था, हम खैर मनाते थे। पर मेरे मालिक ने करम किया, मेरे अल्लाह ने, मेरे मौला ने जैसे उस रात को कहा था, मेरा बेड़ा पार किया। तीन दिन तीन रात हम बेपते बहते रहे- चौथे दिन माल के जहाज ने हमको उठा लिया और छठे दिन कराची में हमने दुआ की नमाज पढ़ी। पीछे सुना कि तीन सौ हाजी मर गए।
‘वहाँ से मैं ख्वाजा की जियारत को चला, अजमेर शरीफ में दरगाह का दीदार पाया। इस तरह, बा’छा साढ़े सात महीने पीछे मैं घर आया। आकर घर देखता क्या हूँ कि सब पटरा हो गया है। नवाब जब सवेरे उठा तो उसने नाश्ता माँगा। नौकरों ने कहा कि इलाही का पता नहीं। बस वह जल गया। उसने मेरा घर फुँकवा दिया, मेरे जमीन अपनी रखवाल के भाई को दे दी और मेरी बीवी को लौंडी बनाकर कैद कर लिया। मैं उसका क्या ले गया था, अपना कम्बल ले गया था। और पिछले तीन महीने की तलब अपनी पेटी में उसके बावर्चीखाने में रख गया था। भला, मेरा मौला बुलावे और मैं न जाऊँ? पर उसको जो एक घंटा देर से खाना मिला इससे बढ़कर और गुनाह क्या होता?
‘इसके पंद्रहवें दिन जनाने में एक सोने की अँगूठी खो गई। नवाब ने मेरी घरवाली पर शक किया। उससे पूछा तो वह बोली कि मेरा कौन-सा घर और घरवाला बैठा है कि उसके पास अँगूठी ले जाऊँगी। मैं तो यही रहती हूँ। सीधी बात थी, पर उससे सुनी नहीं गई। जला-भुना तो था ही, बेंत लेकर लगा मारने, बा’छा, मैं क्या कहूँ, मौला मेरा गुनाह बख्शे, आज पाँच बरस हो गए हैं, पर जब मैं घरवाली की पीठ पर पचासों दागों की गुच्छियाँ देखता हूँ, तो यही पछतावा रहता है कि रब ने उस सूर का (तोबा! तोबा!) गला घोटने को यहाँ क्यों न रखा। मारते-मारते जब मेरी घरवाली बेहोश हो गई तब डरकर उसे गाँव के बाहर फिंकवा दिया। तीसरे दिन वह वहाँ से घिसकती-घिसकती चलकर अपने भाई के यहाँ पहुँची।
‘रघुनाध ने रुँधे गले से कहा, ‘तुमने फरयाद नहीं की?’
‘कचहरियाँ गरीबों के लिए नहीं हैं बाछा, वे तो सेठों के लिए हैं। गरीबों की फरयाद सुनने वाला सुनता है उसने पंद्रह दिन में सुनकर हुकुम भी दे दिया। मेरी औरत को मारते-मारते उस पाजी के हाथ की अँगुली में एक बेंत की सली चुभ गई थी। वही पक गई। लहू में जहर हो गया। पंद्रहवें दिन मर गया। हज से आकर मैंने सारा हाल सुना। अपने जले हुए घर को देखा और अपने परदादे की सिंहों की माफी जमीन को भी देखा। चला आया। मसजिद में जाकर रोया। मेरे मौला ने मुझे हुकुम दिया, ‘लाही, मैं तेरे नाल हूँ, अपनी जोरू को धीरज दे।’ मैं साले के यहाँ पहुँचा। उसने पचीस रुपए दिए, मैं टट्टू मोल लेकर पहाड़ चला आया और यहाँ रब का नाम लेता हूँ और आप जैसे साईं लोगों की बंदगी करता हूँ। रब का नाम बड़ा है।’
रघुनाथ इम्तहान देकर रेल से घराठनी तक आया। वहाँ तीस मील पहाड़ी रास्ता था। दूरी पर चूने के-से चमकते दिखने लगे, जो कभी न पिघलने वाली बर्फ के पहाड़ थे। रास्ता साँप की तरह चक्कर खाता था। मालूम होता कि एक घाटी पूरी हो गई, पर ज्यों ही मोड़ आते, त्यों ही उसकी जड़ में एक और आधी मील का चक्कर निकल पड़ता। एक ओर ऊँचा पहाड़, दूसरी ओर ढाई सौ फुट गहरी खड्ड। और किराए के ट्टुओं की लत कि सड़क के छोर पर चलें जिससे सवार की एक टाँग तो खड्ड पर ही लटकती रहे। आगे वैसा ही रास्ता, वैसी ही खड्ड, सामने वैसी ही कोने पर चलने वाली टट्टू। जब धूप बढ़ी और जी न लगा तो मोती के स्वामी इलाही से रघुनाथ से उसका इतिहास पूछा। उसने जो सीधी और विश्वस से भरी, दुःख की धाराओं से भीगी और विश्वास से भरी, दुःख की धाराओं से भीगी हुई कथा कही, उससे कुछ मार्ग कट गया। कितने गरीबों का इतिहास ऐसी चित्र-घटनाओं की धूप-छाया से भरा हुआ है। पर हम लोग प्रकृति के इन सच्चे चित्रों को न देखकर उपन्यासों की मृगतृष्णा में चमत्कार ढूँढ़ते है।
धूप चढ़ गई थी कि वे एक ग्राम में पहुँचे। गाँव के बाहर सड़क के सहारे एक कुआँ था और उसी के पास एक पेड़ के नीचे इलाही ने स्वयं और अपने मोती के लिए विश्राम करने का प्रस्ताव किया। ‘घोड़े को न्हारी देकर और पानी-वानी पीकर धूप ढलते ही चल देंगे और बात-की-बात में आपको घर पहुँचा देंगे।’ रघुनाथ को भी टाँगें सीधी करने में कोई उज्र न था। खाने की इच्छा बिलकुल न थी। हाँ, पानी की प्यास लग रही थी। रघुनाथ अपने बक्स में से लोटा-डोर निकालकर कुएँ की तरफ चला।
(3) कुएँ पर देखा कि छह-सात स्त्रियाँ पानी भरने और भरकर ले जाने की कई दशाओं में हैं। गाँवों में परदा नहीं होता। वहाँ सब पुरुष सब स्त्रियों से और सब स्त्रियाँ सब पुरुषों से निडर होकर बातें कर लेती हैं। और शहरों के लम्बे घूँघटों के नीचे जितना पाप होता है, उसका दसवाँ हिस्सा भी गाँवों में नहीं होता। इसी से तो कहावत में बाप ने बेटे को उपदेश दिया है कि लंबे घूँघट-वाली से बचना। अनजान पुरुष किसी भी स्त्री से ‘बहन’ कहकर बात कर लेता है और स्त्री बाजा में जाकर किसी भी पुरुष से ‘भाई’ कहकर बोल लेती है। यही वाचिक संधि दिन भर के व्यवहारों में ‘पासपोर्ट’ का काम दे देती है। हँसी-ठट्ठा भी होता है, पर कोई दुर्भाव नहीं खड़ा होता। राजपूताने के गाँवों में स्त्री ऊँट पर बैठी निकल जाती है और खेतों के लोग ‘मामीजी, मामीजी’ चिल्लाया करते हैं न उनका अर्थ उस शब्द से बढ़कर कुछ होता है और न वह चिढ़ती है। एक गाँव में बारात जीमने बैठी। उस समय स्त्रियाँ समधियों को गाली गाती हैं। पर गालियाँ न गाई जाती देख नागरिक-सुधारक बराती को बड़ा हर्ष हुआ। वह ग्राम के एक वृद्ध से कह बैठा, ‘बड़ी खुशी की बात है कि आपके यहाँ इतनी तरक्की हो गई है।’ बुड्ढा बोला, ‘हाँ साहब, तरक्की हो रही है। पहले गालियों में कहा जाता था, फलाने की फलानी के साथ और अमुक को अमुक के साथ। लोग-लुगाई सुनते थे, हँस देते थे। अब घर-घर में वे ही बातें सच्ची हो रही हैं। अब गालियाँ गाई जाती हैं तो चोरों की दाढ़ी में तिनके निकलते हैं। तभी तो आंदोलन होते हैं कि गालियाँ बाद करो, क्योंकि वे चुभती हैं।
रघुनाथ यदि चाहता तो किसी भी पानी भरने वाली से पीने को पानी माँग लेता। परंतु उसने अब तक अपनी माता को छोड़कर किसी स्त्री से कभी बात नहीं की थी। स्त्रियों के सामने बात करने को उसका मुँह खुल न सका। पिता की कठोर शिक्षा से बालकपन से ही उसे वह स्वभाव पड़ गया था कि दो वर्ष प्रयाग में स्वतंत्र रहकर भी वह अपने चरित्र को, केवल पुरुषों के समाज में बैठकर, पवित्र रख सका था। जो कोने में बैठकर उपन्यास पढ़ा करते हैं, उनकी अपेक्षा खुले मैदान में खेलने वालों के विचार अधिक पवित्र रहते हैं- इसीलिए फुटबॉल और हॉकी के खिलाड़ी रघुनाध को कभी स्त्री विषयक कल्पना ही नहीं होती थी; वह मानवी सृष्टि में अपनी माता को छोड़कर और स्त्रियों के होने या न होने से अनभिज्ञ था। विवाह उसकी दृष्टि में एक आवश्यक किन्तु दुर्ज्ञेय बंधन था जिसमें सब मनुष्य फँसते हैं और पिता की आज्ञानुसार वह विवाह के लिए घर उसी रुचि से आ रहा था जिससे कि कोई पहले-पहल थिएटर देखने जाता है। कुएँ पर इतनी स्त्रियों को इकट्ठा देखकर वह सहम गया, उसके ललाट पर पसीना आ गया और उसका बस चलता तो वह बिना पानी पिये ही लौट जाता। अस्तु, चुपचाप डोर लोटा लेकर एक कोने पर जा खड़ा हुआ और डोर खोलकर फाँसा देने लगा।
प्रयाग के बोर्डिंग की टोटियों की कृपा से, जन्म भर कभी कुएँ से पानी नहीं खींचा था, न लोटे में फाँसा लगाया था। ऐसी अवस्था में उसने सारी डोर कुएँ में बखेर दी और उसकी जो छोर लोटे से बाँधी, वह कभी तो लोटे को एक सौ बीस अंश के कोण पर लटकाती और कभी सत्तर पर। डोर के जब बट खुलते हैं तब वह पहुँच पेंच खाती है। इन पेंचों में रघुनाथ की बाँहें भी उलझ गईं। सिर नीचा किए ज्यों ही वह डोर को सुलझाता था, त्यों ही वह उलझती जाती थी। उसे पता नहीं था कि गाँव की स्त्रियों के लिए वह अद्भुत कौतुक नयनोत्सव हो रहा था।
धीरे-धीरे टीका-टिप्पणी आरंभ हो गई। एक ने हँसकर कहा, ‘पटवारी है, पैमाइश की जरीब फैलाता है।’
दूसरी बोली, ‘ना, बाजीगर है, हाथ-पाँव बाँधकर पानी में कूद पड़ेगा और फिर सूखा निकल आएगा।’
तीसरी बोली, ‘क्यों लल्ला, घरवालों से लड़कर आए हो?’
चौथी ने कहा, ‘क्या कुएँ में दवाई डालोगे? इस गाँव में तो बीमारी नहीं है।’
इतने में एक लड़की बोली, ‘काहे की दवाई और कहाँ का पटवारी? अनाड़ी लोटे में फाँसा देना नहीं आता। भाई, मेरे घड़े को मत कुएँ में डाल देना, तुमने तो सारी मेंड़ ही रोक ली!’ यों कहकर वह सामने आकर अपना घड़ा उठाकर ले गई।
पहली ने पूछा, ‘भाई तुम क्या करोगे?’
लड़की बात काटकर बोल उठी, ‘कुएँ को बाँधेंगे।’
पहली- ‘अरे! बोल तो।’ लड़की- ‘माँ ने सिखाया नहीं।’
संकोच, प्यास, लज्जा और घबराहट से रघुनाथ का गला रुक रह था; उसने खाँसकर कण्ठ साफ करना चाहा। लड़की ने भी वैसी ही आवाज की। इस पर पहली स्त्री बढ़कर आगे आई और डोर उठाकर कहने लगी, ‘क्या चाहते हो? बोलते क्यों नहीं?’
लड़की -’फारसी बोलेंगे।’
रघुनाथ ने शर्म से कुछ आँखें ऊँची कीं, कुछ मुँह फेरकर कुएँ से कहा, ‘मुझे पानी पीना है, -लोटे से निकाल रहा- निकाल लूँगा।’
लड़की- ‘परसों तक।’
स्त्री बोली, ‘तो हम पानी पिला दें। ला भाग्यवन्ती, गगरी उठा ला। इनको पानी पिला दें।’
लड़की गगरी उठा लाई और बोली, ‘ले मामी के पालतू, पानी पी ले, शरमा मत, तेरी बहू से नहीं कहूँगी।’
इस पर सब स्त्रियाँ खिलखिलाकर हँस पड़ीं। रघुनाथ के चहरे पर लाली दौड़ गई। उसने यह दिखाना चाहा कि मुझे कोई देख नहीं रहा, यद्यपि दस-बारह स्त्रियाँ उसके भौचक्केपन को देख रही थीं। सृष्टि के आदि से कोई अपनी झेंप छिपाने को समर्थ न हुआ, न होगा। रघुनाथ उल्टा झेंप गया।
‘नहीं, नहीं, मैं आप ही-’ लड़की- ‘कुएँ में कूद के।’
इस पर एक और हँसी का फौवारा फूट पड़ा।
रघुनाथ ने कुछ आँखें उठाकर लड़की की ओर देखा। कोई चौदह-पंद्रह बरस की लड़की, शहर की छोकरियों की तरह पीली और दुबली नहीं, हष्ट-पुष्ट और प्रसन्नमुख। आँखों के डेले, काले सफेद, नहीं कुछ मटिया नीले और पिघलते हुए। यह जान पड़ता था कि डेले अभी पिघलकर बह जाएँगे। आँखों के चौतरंग हँसी; ओठों पर हँसी और सारे शरीर पर निरोग स्वास्थ्य की हँसी। रघुनाथ की आँखें और नीची हो गईं।
स्त्री ने फिर कहा, ‘पानी पी लो जी, लड़की खड़ी है।’
रघुनाथ ने हाथ धोये। एक हाथ मुँह के आगे लगाया; लड़की गगरी से पानी पिलाने लगी। जब रघुनाथ आधा पी चुका था तब उसने श्वास लेते-लेते आँखें ऊँची कीं। उस समय लड़की ने ऐसा मुँह बनाया कि ठि-ठि करके रघुनाथ हँस पड़ा, उसकी नाक में पानी चढ़ गया और सारी आस्तीन भीग गई। लड़की चुप।
रघुनाथ को खाँसते, डगमगाते देखकर वह स्त्री आगे चली आई और गगरी छीनती हुई लड़की को झिड़ककर बोली- ‘तुझे रात-दिन ऊतपन ही सूझता है। इन्हें गलसूंड चला गया। ऐसी हँसी भी किस काम की। लो, मैं पानी पिलाती हूँ।’
लड़की- ‘दूध पिला दो, बहुत देर हुई; आँसू भी पोंछ दो।’
सच्चे ही रघुनाथ के आँसू के आँसू आ गए थे। उसने स्त्री से जल लेकर मुँह धोया और पानी पिया। धीरे से कहा, ‘बस जी, बस।’
लड़की- ‘अब के आप निकाल लेंगे।’
रघुनाथ को मुँह पोंछते देखकर स्त्री ने पूछा, ‘कहाँ रहते हो?’
‘आगरे।’
‘इधर कहाँ जाओगे?’
लड़की- (बीच ही में)- ‘शिकारपुर! वहाँ ऐसों का गुरुद्वारा है।’ स्त्रियाँ खिलखिला उठीं।
रघुनाथ ने अपने गाँव का नाम बताया। ‘मैं पहले कभी इधर आया नहीं, कितनी दूर है, कब तक पहुँच जाऊँगा?’ अब भी वह सिर उठाकर बात नहीं कर रहा था।
लड़की- ‘यही पंद्रह-बीस दिन में। तीन-चार सौ कोस तो होगा।’
स्त्री- ‘छिः, दो-ढाई भर है, अभी घंटे भर में पहुँच जाते हो।’
‘रास्ता सीधा ही है न?’
लड़की- ‘नहीं तो बाएँ हाथ को मुड़कर चीड़ के पेड़ के नीचे दाहिने हाथ को मुड़ने के पीछे सातवें पत्थर पर फिर बाएँ मुड़ जाना, आगे सीधे जाकर कहीं न मुड़ना; सबसे आगे एक गीदड़ की गुफा है, उससे उत्तर को बाड़ उलाँघकर चले जाना।’
स्त्री- ‘छोकरी तू बहुत सिर चढ़ गई है, चिकर-चिकर करती ही जाती है! नहीं जी एक ही रास्ता है; सामने नदी आवेगी; परले पार बाएँ हाथ को गाँव है।’
लड़की- ‘नदी में भी यों ही फाँसा लगाकर पानी निकालना।’
स्त्री उसकी बात अनसुनी करके बोली, ‘क्या उस गाँव में डाक-बाबू होकर आए हो?’
रघुनाथ- नहीं, मैं तो प्रयाग में पढ़ता हूँ।’
लड़की- ‘ओ हो, पिरागजी में पढ़ते हैं! कुएँ से पानी निकालना पढ़ते होंगे?’
स्त्री- ‘चुप कर, ज्यादा बक-बक काम की नहीं; क्या इसीलिए तू मेरे यहाँ आई है?’
इस पर महिला-मण्डल फिर हँस पड़ा। रघुनाथ ने घबराकर इलाही की ओर देखा तो वह मजे में पेड़ के नीचे चिलम पी रहा था। इस समय रघुनाथ को हाजी इलाही से ईर्ष्या होने लगी। उसने सोचा कि हज से लौटते समय समुद्र में खतरे कम हैं, और कुएँ पर अधिक।
लड़की – ‘क्यों जी, परागजी में अक्कल भी बिकती है?’
रघुनाथ ने मुँह फेर लिया।
स्त्री- ‘तो गाँव में क्या करने जाते हो?’
लड़की- ‘कमाने-खाने।’
स्त्री- ‘तेरी कैंची नहीं बंद होती! यह लड़की तो पागल हो जाएगी।’
रघुनाथ- ‘मैं वहाँ के बाबू शोभारामजी का लड़का हूँ।’
स्त्री- ‘अच्छा, अच्छा, तो क्या तुम्हारा ही ब्याह है?’
रघुनाथ ने सिर नीचा कर लिया।
COMMENTS