मेरी तरह कवि श्री. गजानन माधव मुक्तिबोध का भी उज्जयिनी से अटूट संबंध रहा। मेरा अभी तक का उज्जयिनी-निवास तीन खण्डों में विभाजित है। प्रथम -- ...
मेरी तरह कवि श्री. गजानन माधव मुक्तिबोध का भी उज्जयिनी से अटूट संबंध रहा।
मेरा अभी तक का उज्जयिनी-निवास तीन खण्डों में विभाजित है। प्रथम -- जब मैं 'माधव इंटरमीडिएट कॉलेज' में पढ़ता था; इंटर के द्वितीय-वर्ष में ( सत्र 1942-1943 )। द्वितीय -- जब मैं 'विक्टोरिया कॉलेज, ग्वालियर' से बीए की परीक्षा उत्तीर्ण करके, उज्जैन के 'मॉडल हाई स्कूल' (प्राइवेट संस्था) और 'शासकीय महाराजवाड़ा हाई स्कूल' में भूगोल-हिन्दी अध्यापक बना ( सन् 1945 से 1950)। तृतीय -- जब उज्जैन के 'शासकीय माधव स्नातकोत्तर महाविद्यालय' में, 'शासकीय आनन्द महाविद्यालय,धार' से मेरा स्थानान्तरण हुआ (सन् 1955 से 1960)।
यह एक संयोग है कि मैंने सर्व-प्रथम उसी विद्यालय में अध्यापिकी की; जिसमें श्री ग.मा.मुक्तिबोध कर चुके थे। मैं जब 'मॉडल हाई स्कूल' पहुँचा तब वहाँ मुक्तिबोध जी के दो अनुज भी थे -- अध्यापक ही। श्री. शरच्चंद्र मुक्तिबोध; जो मराठी के यशस्वी कवि हैं (अब स्वर्गीय) और श्री वसंत मुक्तिबोध। श्री शरच्चंद्र मुक्तिबोध फिर नागपुर चले गये।
'मॉडल हाई स्कूल' और उज्जैन में रह कर, बंधु शरद से मेरी मित्रता घनिष्ठ होती गयी। इस प्रकार, मैं मुक्तिबोध-परिवार के निकट आया।
विद्यालय में साथी अध्यापकों से श्री ग.मा. मुक्तिबोध की प्रतिभा से सम्बद्ध अनेक बातें सुनने में आयीं। फलस्वरूप, मैं उनके कर्तृत्व के प्रति आकर्षित हुआ। उन दिनों, मुक्तिबोध जी 'हंस' के सम्पादकीय-विभाग में कार्य करते थे (वाराणसी)। 'हंस' में मैंने सन् 1947 से लिखना प्रारम्भ किया था। मेरा पत्र-व्यवहार, सम्पादक-द्वय श्री अमृतराय जी अथवा श्री त्रिलोचन शास्त्री जी से होता था।
श्री प्रभाकर माचवे जी, उज्जैन 'शासकीय माधव महाविद्यालय' में, तब तर्क-शास्त्र के प्राध्यापक थे । उनसे प्रायः प्रतिदिन मिलना होता था। उनसे ही 'तार-सप्तक' मुझे पढ़ने को मिला। जिसमें मुक्तिबोध जी की कविताएँ भी समाविष्ट हैं। 'तार-सप्तक' से हिन्दी-कविता में नया मोड़ आता है (सन् 1943)। श्री मुक्तिबोध इस संकलन के सर्वाधिक चर्चित कवि थे। कवि मुक्तिबोध को हिन्दी-जगत ने 'तार-सप्तक' से ही जाना।
एक बार, श्री मुक्तिबोध उज्जैन अपने घर आये और तभी श्री. शरच्चंद्र मुक्तिबोध के माध्यम से मुझे उनसे प्रथम साक्षात्कार करने का सुअवसर मिला। सन् व माह ठीक-ठीक याद नहीं -- जून 1950 रहा होगा। उन दिनों वे नागपुर में थे और मेरे कविता-संग्रह 'टूटती शृंखलाएँ (प्रकाशन सन् 1949) की समीक्षा आकाशवाणी-केन्द्र, नागपुर से प्रसारित कर चुके थे। मेरी उनसे पहली भेंट, माधवनगर-उज्जैन स्थित उनके घर पर ही हुई।
उनकी दो बड़ी-बड़ी चमकीली स्निग्ध आँखें, उनका स्मरण करते ही, साकार हो उठती हैं। आँखें -- जिनमें स्नेह और करुणा का सागर लहराता था। जिनकी गहराई अथाह थी। चुम्बकीय ! सम्मोहक ! व्यक्ति मुक्तिबोध से मैं प्रभावित हुआ, अभिभूत हुआ ! ज़रा-सी देर में वे घुल-मिल गये। उनकी जैसी आत्मीयता बहुत कम देखने में आयी।
'टूटती श्रृंखलाएँ' की समीक्षा के माध्यम से मैं उनकी तटस्थता व सहृदयता से परिचित हो चुका था। 'टूटती शृंखलाएँ' मेरा दूसरा प्रकाशित कविता-संग्रह है। श्री गजानन माधव मुक्तिबोध-द्वारा लिखित समीक्षा से तब मुझे बड़ी प्रेरणा मिली। इस समीक्षा का प्रारूप इस प्रकार है :
''पुस्तक के अभिधान से ही सूचित होता है कि कवि वर्तमान युग की विशेष जन-चेतना को लेकर साहित्य-क्षेत्र में उतरा है। वर्तमान युग, इन दो शब्दों में ही भारत के चार-पाँच वर्षों के विभ्राटों तथा घटनाओं की गूँज समा जाती है। प्रस्तुत काव्य-पुस्तक में उनकी भावच्छायाओं ने अपना मूर्तरूप ग्रहण किया है। इस पुस्तक की कुछ कविताएँ ऐसी हैं, जिन्हें कवि के सचेत कवि-जीवन का प्रारम्भिक रूप कहा जा सकता है। उनमें प्रारम्भिकता के सभी लक्षण हैं। छंद और भाषाधिकार की दृष्टि से वे निर्दोष होते हुए भी उनकी हुँकृति इतनी घोर है कि वे साहित्य-विकास की दृष्टि से बासी और पुराने टाइप की हो गई हैं। किन्तु शेष कविताएँ ज़िन्दगी की असलियत को छूने का प्रयास करती हैं, अतः वे अधिक भावपरक और काव्यमय हो गयी हैं।
तरुण कवि वर्तमान युग के कष्ट, अंधकार, बाधाएँ, संघर्ष, प्रेरणा और विश्वास लेकर जन्मा है। उसके अनुरूप उसकी काव्य-शैली भी आधुनिक है।
COMMENTS