रात के दो बजे थे और कायदे से इस वक्त स्टेशन पर सन्नाटा होना चाहिए था। इक्का-दुक्का चाय की ठेलियों को छोड़कर या दो-चार उंघते हुए कुलियों या ...
रात के दो बजे थे और कायदे से इस वक्त स्टेशन पर सन्नाटा होना चाहिए था। इक्का-दुक्का चाय की ठेलियों को छोड़कर या दो-चार उंघते हुए कुलियों या सामान की गांठों और गट्ठरों या प्लेटफार्म पर सोये गरीब फटेहाल लोगों के अलावा कुछ नहीं होना चाहिए था। पर ऐसा नहीं था। पूरे स्टेशन पर ऐसी चहल-पहल थी, जैसे रात के दो नहीं, सात बे हों। आठ-आठ दस-दस की टुकड़ियों में लोग प्लेटफार्म पर इधर-उधर खड़े थे या किसी कोने में गोले बनाये बैठे थे या पानी के नल के पास बैठे चिउड़ा खा रहे थे।
ये सब एक ही तरह के लोग थे। मैली, फटी, उंची धोतियां या लुंगियां और उलटी, बेतुकी, सिलवटें पड़ी कमीजें या कपड़े की सिली बनियानें पहने। नंगे सिर, नंगे पैर, सिर पर छोटे-छोटे बाल। एक हाथ में पोटली और दूसरे हाथ में लाल झंडा।
बिपिन बिहारी शर्मा, मदनपुर गांव, कल्याणपुर ब्लाक, मोतिहारी, पूर्वी चंपारन आज सुबह गांव से उस समय निकले थे जब पूरब में आम के बड़े बाग के उपर सूरज का कोई अता-पता न था। सूरज की हलकी-हलकी लाली उन्हें खजुरिया चौक पहुंचने से कोई एक घंटा पहले दिखाई दी थी, जहां आकर सब जनों ने दातुन-कुल्ला किया था।
इमली, आम और नीम के बड़े-बड़े पेड़ों के नीचे दुबका गांव सो रहा था। इन पेड़ों की अंधेरी परछाइयां इधर-उधर खपरैल के घरों, गलियारों, कच्ची दीवारों पर पड़ रही थीं। बड़े बरगद के पेड़ के पत्ते हवा में खड़खड़ाते तो सन्नाटा कुछ क्षण के लिए टूटता और फिर पूरे गांव को छाप कर बैठ जाता। उपर आसमान के सफेद रुई जैसे बादल उत्तर की ओर भागे चले जा रहे थे। चांद पीला पड़ चुका था और जैसे सहमकर एक कोने में चला गया था।
कुएं में किसी ने बाल्टी डाली और उसकी आवाज़ से कुएं के पास लगे नीम के पेड़ से तोतों का एक झुंड भर्रा मारकर उड़ा और गांव का चक्कर लगाता हुआ उत्तर की ओर चला गया। धीरे-धीरे इधर-उधर के बगानों से कुट्टी काटने की आवाजें आने लगीं। गंडासा चारा काटता हुआ लकड़ी से टकराता और आवाज़ दूर तक फैल जाती। कुट्टी काटने की दूर से आती आवाज़ के साघ्थ कुछ देर बाद घरों से जांता पीसने की आवाज़ भी आने लगी। कुछ देर तक यही दो आवाजें इधर-उधर मंडराती रहीं, फिर बलदेव के घर में आती बाबा बकी फटी और भारी आवाज़, 'भये प्रकट क्रिपाला दीनदयाला. . .' भी कुट्टी काटने और पीसने की आवाजों के साथ मिल गयी। अंधेरा ही था, पर कुछ परछाइयां इधर-उधर आती-जाती दिखायी पड़ने लगी थीं।
सुखवा काका की घर की ओर से एक परछाइयाँ भागी चली आ रही थी। पास आया तो दिखायी पड़ा दीनदयाला। उसने कमीज कंधे पर रखी हुई थी, एक हाथ में जूते, दूसरे में चिउड़ा की पोटली थी। माई के थान पर कई लोग लगा थे। दीनदयाला भी माई के थान पर खड़ी परछाइयों में मिल गया। नीचे टोली से 'ललकारता` रघुबीरा चला आ रहा था। अब इन लोगों की बातें करने की आवाज़ों में दूसरी आवाज़ें दब गयी थीं।
खजुरिया चौक से सिवान स्टेशन के लिए बस मिलती है, पर बस के पैसे किसके पास थे? दातुन-कुल्ला के बाद वे फिर चल पड़े थे। अब सिवार रह ही कितना गया है, बस बीस 'किलोमीटर`! बीस किलोमीटर कितना होता है। चलते-चलते रफ़्तार सुस्त पड़ने लगी तो बिपिनजी कहते, 'लगाइए ललकारा।' ललकारा लगाया जाता और सुस्त पड़े पैर तेज जो जाते। ग्यारह बजते-बजते सिवान स्टेशन पहुंच गये तो गाड़ी मिलेगी। और फिर पटना।
ट्रेन दनदनाती हुई प्लेटफार्म के नजदीक आती जा रही थी। इंजन के उपर बड़ी बत्ती की तेज रोशनी में रेल की पटरियां चमक रही थी। ट्रेन पूरी गरिमा और गंभीरता के साथ नपे-तुले कदम भरती स्टेशन के अंदर घुसती चली आयी। रफ़्तार सुस्त पड़ने लगी और दरवाजों पर लटके हुए आदमी प्लेटफार्म की सफेद रोशनी में नहा गये।
इंतजार करते लोगों में इधर-से-उधर तक बिजली-सी दौड़ गयी कि अगर यह ट्रेन निकल गयी तो कल शाम तक दिल्ली नहीं पहुंच पायेंगे। कल शाम तक उसको दिल्ली पहुंचना है, किसी भी हालत में। पोटली में बंधे मकई के सत्तू, चिउड़ा और भूजा इसी हिसाब से रखे गये हैं। ऐसा नहीं है कि दस-पन्द्रह दिन चलते रहेंगे और ऐसा भी नहीं कि गाड़ी नहीं पकड़ पाने का बहाना लेकर लौट जायेंगे। कल शाम दिल्ली जरूर पहुंचना है। सबको। हर हालत में।
ट्रेन खड़ी हो गयी। इस्पात, बिजली के तारों और लकड़ी के टुकड़ों से बनी ट्रेन एक चुनौती की तरह सामने खड़ी थी। यहां से वहां तक ट्रेन देख डाली गयी। पर बैठने क्या, खड़े होने क्या, सांस लेने तक की जगह नहीं है। सेकेंड क्लास के डिब्बे उसी तरह के लोगों से भरे हैं। उनको भी कल किसी भी हालत में दिल्ली पहुंचना है।
'अब क्या होगा बिपिनजी?' यह सवाल बिपिन बिहारी शर्मा से किसी ने पूछा नहीं, पर उन्हें लग रहा था कि हज़ारों बार पूछा जा चुका है।
'बैठना तो है ही। काहे नहीं प्रथम श्रेणी में जायें।' प्रथम श्रेणी का लंबा-सा डिब्बा बहुत सुरक्षित है। इस्पात के दरवाजे पूरी तरह से बंद। अंदर अलग-अलग केबिनों के दरवाजे पूरी तरह से बंद।
'दरवाजा खुलवा बाबूजी!' धड़-धड़-धड़। 'बाबूजी दरवाजा खोलवा!' धड़-धड़-धड़। 'नीचे बैठ गइले बाबूजी!' धड़-धड़-धड़। 'बाबूजी दिल्ली बहुत जरूरी पहुंचना बा!' धड़-धड़-धड़।
तीन-सौ आदमी बाहर खड़े दरवाजा खोलने के लिए कह रहे थे और जवाब में इस्पात का डिब्बा हंस रहा था। समय तेजी से बीत रहा था। अगर यह गाड़ी भी निकल गयी तो कल शाम तक दिल्ली पहुंच सकेंगे।
'दरवाजे के पास वाली खिरकी तोरते हैं।' बिपिनजी खिड़की के पास आ गये और फिर पता नहीं कहां से आया, किसने दिया, उनके हाथ में एक लोहे का बड़ा सा टुकड़ा आ गया। पूरा स्टेशन खिड़की की सलाखें तोड़ने की आवाज़ से गूंजने लगा।
'कस के मार-मार दरवाजा तोड़े का पड़ी। हमनी बानी एक साथ मिलके चाइल जाई तो. . .' भरपूर हाथ मारने वालों में होड़ लग गयी। दो। सलाखें टूट गयीं तो उनसे भी हथौड़े का काम लिया जाने लगा।
'अरे, ये आप क्या करता हे, फर्स्ट क्लास का डिब्बा है,' काले कोट वाले बाबू ने बिपिन का हाथ पकड़ लिया। बिपिनजी ने हाथ छुड़ाने की कोशिश नहीं की। उन्होंने पूरी ताकत से नारा लगाया।
'हर जोर जुल्म की टक्कर में' तीन सौ आदमियों ने पूरी ताकत से जवाब दिया: 'संघर्ष हमारा नारा है।'
काले कोट वाले बाबू को जल्दी ही अपने दोनों कानों पर हाथ रखने पड़े। 'संघर्ष हमारा नारा है' प्रतिध्वनियां इन लोगों के चेहरों पर कांप रही थी। काले कोट वाले बाबू को समझते देर न लगी कि स्थिति विस्फोटक है। वे लाल झंड़ों और अधनंगे शरीरों के बीच से मछली की तरह फिसलते निकल गये और सीधे स्टेशन मास्टर के कमरे में घुस गये।
कुछ देर बाद उधर से एक सिपाही डंडा हिलाता हुआ आया और सामने खड़ा हो गया। 'क्या तुम्हारे बाप की गाड़ी है?' सिपाही ने बिपिनजी से पूछा। 'नहीं, तुम्हारे बाप की है?' सिपाही ने बिपिन शर्मा को उपर से नीचे तक देखा। चमड़े की घिसी हुई चप्पल। नीचे से फटा पाजामा, उपर खादी का कुर्ता और कुर्ते की जेब में एक डायरी, एक कलम।
'तुम इनके नेता हो?' 'नहीं।' 'फिर कौन हो?' 'इन्हीं से पूछिए।'
सिपाही ने बिपिन बिहारी शर्मा को फिर ध्यान से देखा। उम्र यही कोई तेईस-चौबीस साल। अभी दाढ़ी-मूंछ नहीं निकली है। आंखों में ठहराव और विश्वास। 'तुम्हारा नाम क्या है?' 'अपने काम से काम रखिए। हमारा नाम पूछकर क्या करेंगे?'
बातचीत सुनने के लिए भीड़ खिसक आयी थी। रामदीन हजरा ने चिउड़ा की पोटली बगल में दबाकर सोचा, यही साली पुलिस थी जिसने उसे झूठे डकैती के केस में फंसाकर पांच-सौ रुपये वसूल कर लिये थे। बलदेव तो पुलिस को मारने की बात बचपन से सोचता है। जबसे उसने अपने पिता के मुंह पर पुलिस की ठोकरें पड़ती देखी हैं, तबसे उसके मन में आता है, पुलिस को कहीं जमके मारा जाये। आज उसे मौका मिला है। उसने डंडे मे लगे झंडे को निकालकर जेब में रख लिया और अब उसके हाथ में डंडा-ही-डंडा रह गया।
'ठीक से जवाब नहीं देंगे तो तुम्हें बंद कर देंगे साले,' सिपाही ने डंडा हवा में लहराते हुए कहा।
'देखो भाई साहब, बंद तो हमें तुम कर नहीं सकते। और ये जो गाली दे रहे हैं, तो हम आपको मारे-पीटेंगे नहीं। आपको वर्दी-पेटी उतारकर वैसे ही छोड़ देंगे।'
सिपाही ने सिर उठाकर इधर-उधर देखा। चारों तरफ काले, अधनंगे बदनों और लाल झंड़ों की अभेद्य दीवार थी। अब उसके सामने दो ही रास्ते थे, नरम पड़ जाता या गरम। नया-नया लगा था, गरम पड़ गया।
'मादर. . .कानून. . .' फिर पता नहीं चला कि उसकी टोपी, डंडा, कमीज, हाफ पेंट, जूते और मोजे कहां चले गये, क्योंकि यदि बीस हाथ डंडा, कमीज, हाफ पेंट, जूते और मोजे कहां चले गये, क्योंकि यदि बीस हाथ डंडा छीनने के लिये बढ़े हों, दस हाथों ने टोपी उतारी हो, सात-आठ आदमी कमीज पर झपटे हों, तीन-चार लोगों ने जूते और मोजे उतारे हो, तो इस काम में कितना समय लगा होगा? अब सिपाही, सिपाही से आदमी बन चुका था। उसके चेहरे पर न रोब था, न दाब। सामने खड़ा था बिलकुल नंगा। इस छीना झपटी में उसकी शानदार मूंछ छोटी, बहुत अजीब लग रही थी। लोग हंस रहे थे।
पता नहीं कहा से विचार आया बहरहाल एक बड़ा-सा लाल झंडा सिपाही के मुंह और सिर पर कसकर लपेटा और फिर पतली रस्सी से पक्का करके बांध दिया गया। उसी रस्सी के दूसरे कोने से सिपाही के हाथ बांध दिये गये।
खोपड़ा और चेहरा लाल, शरीर नंगा। दु:ख, भुखमरी और जुल्म से मुरझाये चेहरों पर हंसी पहाड़ी झरनों की तरह फट पड़ी। उन चेहरों पर हंसी कितनी अच्छी लगती है, जिन पर शताब्दियों से भय, आतंक के कांटे लगे हों।
फिर सिपाही के नंगे चूतड़ पर उसी का डंडा पड़ा और वह प्लेटफार्म पर भागता चला गया। इन मनोरंजन के बाद काम में तेजी आयी। बाकी बची दो सलाखें जल्दी ही टूट गयीं। शीशा टूटने में कितनी देर लगती है? अब रास्ता साफ था। एक लड़का बंदर की तरह खिड़की में से अंदर कूद गया। अंदर से उसने दरवाजे के बोल्ट खोल दिये।
सारे लोग जल्दी-जल्दी अंदर चढ़े। बत्ती हरी हो चुकी थी और ट्रेन रेंगने लगी थी। लंबे डिब्बे की पूरी गैलरी खचाखच भर गयी। और अब भी लोग दरवाजे के डंडे पकड़े लटक रहे थे। अब केबिन भी खुलना चाहिए। अंदर बैठने की ज्यादा जगह होगी।
बिपिनजी पहले केबिन के बंद दरवाजे के सामने आये। 'देखिए, हमने आपके डिब्बे का बड़ा लोहा वाला दरवाजा तोर दिया है, भीतर आ गइले। केबिन का दरवाजा खोल दीजिए। नहीं तो इसे तोड़ने में क्या टैम लगेगा।' अंदर से कोई साहब नहीं आया।
'आप अपने से खोल देंगे तो हम केवल बैठभर जायेंगे। और जो हम तोर कर अंदर आयेंगे तो आप लोगों को मारेंगे भी।' केबिन का दरवाजा खुला। धरीदार कमीज-पाजामा पहने-आदमी ने खोला था। अंदर मद्धिम नीली बत्ती जल रही थी, पर तीनों लोग जगे हुए थे और इस तरह सिमटे-सिकुड़े बैठे थे कि सीटों पर बैठने की काफी जगह हो गयी थी।
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