क्या हम सच सुनना पसंद करते हैं ? - मनोज सिंह

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करेला गुणकारी है मगर खाने में अमूमन पसंद नहीं किया जाता। क्यूं? कड़वापन जिह्ना को भी स्वादपूर्ण नहीं लगता। इसी चक्कर में रोगी की दवाई को भी म...

करेला गुणकारी है मगर खाने में अमूमन पसंद नहीं किया जाता। क्यूं? कड़वापन जिह्ना को भी स्वादपूर्ण नहीं लगता। इसी चक्कर में रोगी की दवाई को भी मीठी या स्वाद में ढालने की कोशिश की जाती है। अर्थात कड़वी दवाई, जीवनदायनी होते हुए भी हमें पसंद नहीं। खाने-पीने की तरह हमें कड़वा सच भी पसंद नहीं। इसे स्वीकार करना तो दूर हम सुनना व समझना भी नहीं चाहते। हम इसका स्वाद नहीं ले पाते। अब क्या करें, कड़वाहट में नमक-मिर्च भी तो नहीं होता। इसलिए इसका मजा नहीं आता। जबकि झूठ मसालेदार व चटपटा होने से हमेशा पसंद किया जाता है। यह भी कड़वा व नंगा सच है कि हम झूठ को जल्दी स्वीकार करते हैं। झूठ में जीना चाहते हैं। सच हमें बर्दाश्त नहीं हो पाता। सच को जानकर हम आगे-पीछे होने लगते हैं। सच को सुनकर मरने-मारने को तैयार हो जाते हैं। मुद्दे की बात यह है कि सच के साथ जी नहीं पाते।
मीडिया विगत कुछ दशकों में बेहद शक्तिशाली हुआ है। इसमें कोई शक नहीं। अब तो बड़े-बड़े राजनीतिज्ञ और पैसे वाले भी इससे डरते और बचते हैं। ये रातों-रात नायक को खलनायक और बदमाश को हीरो बना सकता है। गुमनामी के अंधेरे में जी रहे साधारण इंसान को पलभर में घर-घर पहुंचा सकता है। आम को खास बनाकर उसका जीवन बदल सकता है। जाने-अनजाने ही सही अब तो माननीय न्यायालय भी इनकी बातों का नोटिस लेते प्रतीत होते हैं। प्रमाणित तो नहीं किया जा सकता मगर शत प्रतिशत सच है कि यह आदमी की सोच प्रक्रिया में दखल डालता है। जो दिखता है वो बिकता है, यही सिद्धांत यहां भी लगता है। अर्थात एक ही बात को बार-बार बोलने पर झूठ भी सच साबित हो जाता है। इसके द्वारा किसी के चरित्र पर शंका करते ही दर्शक उसे चरित्रहीन समझने लगते हैं और किसी का गुणगान करते ही आसमान पर बैठा देते हैं। लोकप्रिय सरकारें चुनाव हार जाती हैं और हारा हुआ चुनाव जीता जा सकता है। यही नहीं किसी व्यवसायी को रातोंरात मिट्टी में मिलाया जा सकता है। दूसरी ओर, किसी उत्पादक को कौतूहलता के द्वारा बाजार में बिकवाया जा सकता है। बेकार-बर्बाद बिना सिर-पैर की फिल्म को भी सुपरहिट घोषित करके दर्शकों को सिनेमाघर तक पहुंचाया जा सकता है। इसके कैमरे का कमाल है कि छोटे और मोटे लड़के भी गठीले और आकर्षक लगने लगते हैं और हर दूसरे घर में पाये जाने वाली आम कन्या से भी साधारण रूप-रंग वाली किसी युवती को स्वप्नपरी बनाकर नंबर वन की हीरोइन बनाया जा सकता है। फिर चाहे उसे एक्टिंग का क ख भी न आता हो।
अब मीडिया खबरों के लिए समाज के नायकों का पीछा नहीं करता, खुद अपने नायक पैदा करता है। और फिर मनचाहे खबर की रचना करता है। घटनाओं को अपने ढंग से देखता है। इसे वही सुनना पसंद है जो यह चाहता है। और फिर ये वही बोलता है जो सुना जाता है। अब चूंकि सच सुनने का रिवाज नहीं तो यहां झूठ कई मुलम्मे चढ़ाकर पेश किया जाता है। मीडिया को हर वक्त एक नयी खबर चाहिए। न मिले तो बना ली जाती है। यह हमेशा जल्दी में रहता है। चूंकि इसे हर पल नवीनता चाहिए। इसे गहराई नहीं फैलाव चाहिए। इसके लिए यह लोगों के रसोई घर से लेकर बेडरूम तक प्रवेश कर चुका है और खोजी पत्रकारिता के नाम पर तो शौचालय में भी घुसने को तैयार रहता है।
इतने शक्तिशाली होने के कारण ही बड़े से बड़ा नेता-अभिनेता इनके साथ बनाकर चलते हैं। व्यवसायी इन पर पैसा खर्च करते हैं। सुना और देखा गया है कि चोट खाये प्रभावशाली व्यक्तियों ने मीडिया व्यवसाय के अंदर भी इसी कारण से प्रवेश किया। अब तो हर तरह के लोग इस क्षेत्र में घुस आये हैं। पत्रकार-रिपोर्टर-संपादक को छोड़िए, अब तो पूरे समाचारपत्र ही क्यों चैनल तक को खरीदे जाने की खबर छन-छनकर आने लगी है। हफ्तावसूली की बात करना बचकानी हरकत होगी, अब इसका रूप-स्वरूप व जंजाल विकृत व विकराल रूप धारण कर चुका है। एक तरफ मीडिया का आकर्षण पागलपन की हद तक है तो दूसरी तरफ अंदरखाते इसका आतंक चारों ओर फैल गया है। शरीफ आदमी तो हर किसी से डरता है मगर गुंडे-बदमाश पुलिस से कम मीडिया से अधिक डरने लगे हैं। और इसी चक्कर में सफेदपोश बन चुके हैं। कुछ लोग जो इसकी चपेट में आकर इसका स्वाद चख चुके हैं कई बार इसके द्वारा की जाने वाली चर्चा को मीडिया ट्रायल नाम देने लगे हैं। इसकी एकतरफा होने की बातें अब आम हो चुकी है। विडंबना है कि मीडिया जितना प्रभावशाली हुआ है उतनी ही अपनी विश्वसनीयता खो चुका है। सच है कि बदनामी का थर्मामीटर मई-जून की गर्मी की तरह रिकार्ड तोड़ रहा है।
जहां गुड़ होगा वहां चींटी पहुंचेगी ही। कहावतें गलत नहीं होंती। चूंकि ये जमीन और जीवन से बनती हैं। सच है, सत्ता आदमी को अंधा बना देती है और ताकतवर अमूमन बेरहम हो जाता है। संपूर्ण शक्ति के साथ जिम्मेदारी न हो तो यह अराजक भी हो सकती है। जीवन के इन मूल सिद्धांतों से मीडिया के सशक्त होने की प्रक्रिया कैसे बच सकती थी? हम यह क्यूं नहीं मानते कि अच्छे और बुरे समाज में हैं तो मीडिया में भी होंगे? व्यवसाय हमारे खून में आ चुका है और लाभ कमाना लक्ष्य तो मीडिया इससे कैसे बचेगा? सवाल उठता है कि जब हर व्यक्ति स्वार्थी हो चुका है तो मीडियामैन कैसे बच सकते हैं? हर दूसरा आदमी महत्वाकांक्षी है तो मीडिया का आदमी क्यों नहीं बन सकता? सब अपना घर भरने में लगे हुए हैं तो मीडिया का क्षेत्र कैसे छूट सकता है? चारों ओर अव्यवस्था का आलम है तो मीडिया के क्षेत्र में उसका असर कैसे नहीं होगा? फास्ट-फूड का जमाना है तो मीडिया पैसेंजर की चाल से कैसे चल सकता है? षड्यंत्र आजकल हर जगह हो रहा है तो यहां अपना प्रभाव क्यों नहीं दिखाएगा? और अंत में, जब हम झूठ सुनना पसंद करते हैं तो फिर मीडिया झूठ क्यों नहीं बोलेगा? इन सभी संदर्भों का एक ही स्पष्टीकरण है कि आखिरकार मीडिया भी तो समाज से ही है।
असल में मीडिया पब्लिक ओपिनियम और भीड़ की नब्ज जानता है। वो कोई साधु-महात्मा नहीं। आज जब धर्म के रखवाले और आध्यात्मिक बाबा भी शंका के घेरे में आने लगे हैं तो मीडिया से दूध का धुला होने की उम्मीद क्यों की जाती है? उससे सदैव अच्छे बने रहने की अपेक्षा ही क्यों की जाती है? वो भी किस अधिकार से? समाज की सभी आदर्श संस्थाएं रोगग्रस्त हो चली हैं तो सिर्फ मीडिया से स्वस्थ रहने की बातें करना अटपटी लगती हैं। सामाजिक प्रतिबद्धता और दर्शनशास्त्र सिर्फ उन पर ही क्यों? वो भी बाजार में आखिरकार अपने किसी उद्देश्य से आया है। मीडिया तो वही दिखाता-बताता है जो वो जानता है कि देखा जाएगा, सुना जाएगा, पढ़ा जाएगा अर्थात शुद्ध शब्दों में बिक सकेगा। सादी दाल-रोटी व उबली सब्जी स्वास्थ्य के लिए लाभप्रद होती है। सलाद और फल-फूल भी खानपान के लिए बेहतर होते हैं। सब जानते हैं। मगर हमें बाजार का मसालेदार-जायकेदार, चाइनीज, फास्ट-फूड, पीजा-बर्गर आदि खाना अच्छा लगता है। फिर चाहे ये महंगे हों, स्वास्थ्य के लिए नुकसानदायक हों और मिलावटी हों। घर का खाना कभी पसंद नहीं आता। अब आदमी के स्वाद का क्या किया जाए? इसका फायदा अगर होटल उठा सकता है तो मीडिया क्यों नहीं? हां, तबीयत खराब होने पर दवाई लेनी पड़ती है। ठीक है, समाज के बीमार पड़ने पर उसे भी दवा-दारू की जरूरत पड़ सकती है। लेकिन अमूमन अच्छा होते ही हम फिर चाट की दुकान पर पहुंच जाते हैं। आईसक्रीम और तला हुआ खाते हैं। क्या करें इंसानी फितरत है। ऐसा ही कुछ तो मीडिया और समाज के रिश्तों के बीच भी है। मीडिया समाज का हिस्सा है तो समाज की बीमारी के कीटाणु मीडिया में भी उपस्थित होंगे, दूसरी तरफ मीडिया समाज को प्रभावित करता है ऐसे में उसकी बीमार निगाहों का और अधिक बुरा असर समाज पर पड़ता है। इस तरह से इस प्रक्रिया में फंसकर बीमारी चक्रवर्ती ब्याज की तरह बढ़ रही है। ऊपर से स्पीड का जमाना है। बुराई का चक्र तेजी से घूम रहा है। चारों ओर त्राहि-त्राहि मची हुई है।
आरोप-प्रत्यारोप के बीच में, समाज में अंदरखाते, मीडिया पर जमकर प्रहार हो रहे हैं। यह पूरी तरह ठीक नहीं। सच तो यह है, जो कि कड़वा भी है, कि हम स्वयं अपनी जिम्मेवारियों से बचते हैं और दूसरों से अच्छे बने रहने की उम्मीद करते हैं। एक बार के लिए यह मान भी लिया जाये कि मीडिया पूरी तरह सच और यथार्थ दिखाने लगे, तो क्या हम उसे देखना पसंद करेंगे? ऐसा समाचारपत्र क्या कोई पढ़ेगा जो अर्धनग्न फोटो व चटपटी खबर न छापता हो? ऐसा चैनल कोई नहीं देखेगा, जो जिस्म के सौंदर्य से न लुभाये, सनसनी न फैलाये। मीडिया भी क्या करे, मन का सौंदर्य पर्दे पर दिखाना मुश्किल है ऊपर से दर्शक के पास इसे समझने का वक्त नहीं। और फिर किसी के न देखने-पढ़ने पर चैनल-अखबार कुछ ही दिनों में बंद हो जाएगा। ऐसे में यह इल्जाम लगाना कि मीडिया सच नहीं बोलता, स्वयं में एक प्रश्नचिह्न खड़ा करता है।
बात हमने करेले से शुरू की थी। उम्र के साथ अमूमन करेले का स्वाद पसंद आने लगता है। डायबीटीस से पीड़ित व्यक्ति मजबूरी में इसे खाते-पीते हैं। और जो नहीं लेते उन्हें ये मीठी बीमारी और अधिक कष्ट देती है। समाज को भी अपना इलाज जल्द करना होगा। स्वादपूर्ण झूठ की मिठास उसके खून में आ चुकी है। सच के कड़वेपन से इसका इलाज जरूरी हो गया है। वरना मीठा रोग (डायबीटीस) शरीर को अंदर से खोखला कर सभी इंद्रियों को कमजोर कर देगा।

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क्या हम सच सुनना पसंद करते हैं ? - मनोज सिंह
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