सौभाग्य से लेखन के क्षेत्र में वंश परंपरा जैसी कोई बात नहीं। वरना यहां भी राजनीति और फिल्म इंडस्ट्री की तरह नामी खानदान की कमजोर अगली पीढ़ियो...
सौभाग्य से लेखन के क्षेत्र में वंश परंपरा जैसी कोई बात नहीं। वरना यहां भी राजनीति और फिल्म इंडस्ट्री की तरह नामी खानदान की कमजोर अगली पीढ़ियों को झेलना पड़ता। वैसे भी इस क्षेत्र में पैसा-पॉवर-पॉपुलरिटी में से कुछ भी नहीं तो क्यूं अपना दिमाग फोकट में खर्च किया जाए। और इस तरह जाने-अनजाने ही लेखन का क्षेत्र कई आधुनिक सामाजिक संक्रमण रोग से बच गया। मगर क्या इसे स्वच्छ और स्वस्थ कहा जा सकता है? अंदर आने पर ऐसा लगता तो नहीं। जबकि उम्मीद ऐसी ही की जाती है। उलटे तमाम मानवीय अवगुण के कीटाणु यहां खा-पीकर इतने मोटे हो गए कि उनसे टकराने पर चोट खाकर लेखक भ्रमित हो सकता है। यूं तो लिखने-पढ़ने में एकांत मिलता है और ज्ञान की बातों से शांति। मगर यहां तो कोलाहल और धक्का-मुक्की के साथ अंधेरे मोड़ और राह में गड्ढे, लूटपाट के लिए नायक के भेष में खलनायक के चरित्र, विचारवॉर (गैंगवार) में भी आप फंस सकते हो। ईर्ष्या में तो फिर मारे भी जा सकते हो। अहं बेमिसाल। हालत इतनी चिंताजनक है कि दस-पंद्रह लेखकों की गोष्ठी में भी घमासान हो सकता है।
उदाहरणार्थ, पिछले दिनों हिन्दी लेखकों के बीच एक बवंडर उठा। एक विश्वविद्यालय के कुलपति द्वारा महिला लेखकों पर टिप्पणी की गई। मेरे जानते-समझते कम से कम बाजारवाद के वर्तमान युग में, यह पहला मौका था जो राष्ट्रीय अखबार के प्रथम पृष्ठ से लेकर मीडिया में अच्छी-खासी चर्चा हुई। पहली नजर में तो दोनों पक्ष के लिए यह उपलब्धि होनी चाहिए। चूंकि लोकप्रियता एवं आम जनता के बीच में पहचान के लिए तरस रहे लेखकों के लिए यह घटनाक्रम किसी वरदान से कम नहीं। आम पाठक, जो हिन्दी लेखकों को साठ-सत्तर के दशक के बाद धीरे-धीरे बिल्कुल नहीं जानता और बाजार की चकाचौंध में काला चश्मा लगाए घूम रहा है। उसने भी भूले-भटके कुछ लेखकों के चेहरे और नाम जाने-अनजाने ही देख-पढ़ लिये होंगे। अगर यही ध्येय था, दोनों ही संघर्ष कर रहे वर्ग के नेतृत्व का, तो इसमें बहुत हद तक सफलता प्राप्त होती प्रतीत होती है। और इसी रास्ते पर भविष्य में कुछ लोग आगे बढ़ जाएं तो देखकर आश्चर्य नहीं होना चाहिए। अति महत्वाकांक्षी इसका अनुसरण कर सकते हैं। कुछ विशिष्ट को दुःख हुआ होगा कि जब उन्होंने पूर्व में इससे बड़ी हरकतें की थीं तो ऐसा तूफान छोड़ थोड़ी हलचल भी क्यूं नहीं मची थी? हो सकता है उनके शब्दों में प्रहार व आकर्षण की क्षमता न हो? इतना कड़वा न हो कि तकलीफ दे? हो सकता है मीडिया मैनेज न हुआ हो? या फिर सामने वाला बेवकूफ या कमजोर पार्टी हो? या फिर दोनों पार्टी की किस्मत न हो? कुछ भी हो सकता है। और खोजी दिमाग इन्हीं मौकों की तलाश में निकल पड़े होंगे। बहरहाल, सनसनी का स्वाद हिन्दी लेखन ने भी चख लिया। वो बाजार के हथकंडे सीखने की प्रक्रिया में आगे बढ़ा है। ठीक भी है समाज की जो गति एवं दिशा-दशा है ऐसे में हिन्दी लेखक कब तक विमुख रहता?
साक्षात्कार में कहे गए आपत्तिजनक शब्द जब आम जीवन से लेकर नग्नता के स्रोत बॉलीवुड में भी सार्वजनिक रूप से आज भी नहीं कहे जा सकते तो लेखन की दुनिया में इसका कहना तो अनुचित होगा ही। फिर चाहे वह उच्च पदाधिकार छोड़ एक सामान्य लेखक ही क्यों न हो। नारी अपमान का विरोध तो हर हाल में होना चाहिए। और हुआ। पूरे साक्षात्कार को ध्यान से पढ़े तो लगता है कि ये दो-चार अपशब्द किसी आवेश में आकर कहे गए हैं। ईर्ष्याजनित जोश ऊपर से महिला से चोट खाया पुरुष ऐसी गलती अकसर कर जाता है। वरना इन शब्दों को हटा दिया जाए तो साक्षात्कार में कहीं-कहीं सार्थक तथ्य उभरते प्रतीत होते हैं और यह महिलाओं के हक में खड़ा लगता है। संक्षिप्त में कहें तो कुछ दो-चार शब्दों ने सत्यानाश कर दिया। जिस पर महिलाओं द्वारा तीखी आपत्ति दर्ज होनी ही थी। मौके का फायदा उठाते हुए पुरुष लेखकों ने भी सक्रियता दिखाई। पढ़े-लिखे सभ्य कहलाने के लिए नारी अस्मिता, स्वतंत्रता और विमर्श से बेहतर शब्द हिन्दी समाज में नहीं हो सकते और सभी खुद को प्रमाणित करने में लग पड़े। लेखों और वक्तव्य की होड़ मच गयी और लिखने के मोह से इस पंक्ति का लेखक भी नहीं बच पाया। मगर इस आपाधापी में मूल तत्व हवा में उड़ गए। नारी का संदर्भ आते ही हम अमूमन पूर्वाग्रस्त हो जाते हैं, खुलकर बोल नहीं पाते, संकोच में डर कर लिखना तो फिर व्यर्थ है। हम एकतरफा लीपापोती करने लग पड़ते हैं। सवाल उठता है कि नारी किससे मुक्त होना चाहती है? देह से? समाज से? पुरुष से? स्वतंत्रता की तलाश में आधुनिक विकास पथ पर कशमकश के साथ-साथ मंजिल की जगह मृगतृष्णा है जो उसे भ्रमित कर सकती है। इस संक्रमण काल में बैठकर गहराई से चिंतन की आवश्यकता है जिसमें सिर्फ महिलाओं की भागीदारी से निष्कर्ष आधे-अधूरे निकलेंगे। यकीनन ऐसे में पुरुष से संतुलन-संयम-शालीनता की उम्मीद की जानी चाहिए। जहां लेखक-कुलपति व संपादक चूक गए। मगर साथ ही यहां सवाल उठना चाहिए कि क्या इसकी प्रतिक्रिया भी उसी स्तर की करना जरूरी थी? बहरहाल, इसमें भी कोई शक नहीं कि एक लेखक को अपने विचार व्यक्त करने की पूरी स्वतंत्रता होनी चाहिए। फिर चाहे वह अपने समकालीन अन्य लेखकों पर ही चर्चा क्यों न कर रहा हो। लेकिन यह पूरी तरीके से व्यक्तिगत (कुश्ती का अखाड़ा) न होकर सामाजिक संदर्भ में हो, जो साहित्य लेखन की पहली शर्त है। वैसे भी यह कोई बाजार नहीं, विचारों का क्षेत्र है, जहां झूठा दोषारोपण और धोखे का आत्मसम्मान व लोकप्रियता स्वीकार्य नहीं। सत्य हमेशा कड़वा होता है। लेकिन उसका उपयोग दवाई के रूप में होना चाहिए, न कि जहर की तरह मारने के लिए। पहली गलती ने कुलपति के पद की गरिमा को ठेस पहुंचाया बाद में क्षमा ने अंदर बैठे लेखक के अभिमान को तोड़ दिया। शब्द-संयम द्वारा इस पूरे घटनाक्रम से बचा जा सकता था। दूसरी तरफ, अगर कथन में तथ्य नहीं था तो फिर किसी को इतनी धमा-चौकड़ी मचाकर बेवजह शरारती तत्व को (अ)लोकप्रिय होने का मौका नहीं देना चाहिए। संक्षिप्त में असामान्य परिस्थिति में भी सामान्य-सहज व्यवहार अपेक्षित है। मगर हिन्दी लेखकों के बीच वो सब कुछ हुआ जो उम्मीद से परे था। एक बार फिर शब्दवॉर (गैंगवार) शुरू हुई जिसने लिंग संघर्ष का रूप ले लिया। और इस भगदड़ में कुछ एक चतुर चालक नारी-भोगी पुरुष, नारीवादी होने का सफल प्रयोजन कर सके। यह पहला वाक्या नहीं था। ऐसी घटना-दुर्घटना अलग-अलग स्तर पर व्यक्तियों और समूहों के बीच में चलती रहती है। यह चिंतनीय है।
नर एवं नारी के बीच परस्पर प्रेम और संघर्ष आदिकाल से चला आ रहा है। दो विपरीत ध्रुवों के बीच आकर्षण से ऊर्जा उत्पन्न होती है ओर वो एक-दूसरे की ओर खिंचे चले आते हैं। इनके मिलन में भी टकराहट है। मगर यहां विनाश नहीं नवजीवन के रूप में प्रकाश व बिजली उत्पन्न होती है। जरा-सा संतुलन बिगड़ने पर विध्वंस भी हो सकता है। बेहतर जीवन के लिए इनका सामंजस्य जरूरी है। इससे प्रेरित होकर ही अर्द्धनारीश्वर तक की कल्पना की गई।
असल में लेखन में विभिन्न मुद्दों पर स्वस्थ चिंतन की समाज अपेक्षा करता है। यही कारण है जो लेखक आम नहीं होते, व्यवसायी राजनीतिज्ञ खिलाड़ी नहीं होते। वे लालची, महत्वाकांक्षी व सांसारिक मायामोह से बच सकें, उम्मीद होती है। लेखक अमूमन सत्य के पुजारी, दार्शनिक, समाज-सेवी और प्रकृति प्रेमी होते है। या कह सकते हैं, होने चाहिए। इनके विचारों में मनुष्य जाति की चिंता होती है। समाज का आईना अगर अशुद्ध होगा तो चेहरा विकृत दिखेगा। हम (लेखक) स्वयं का चेहरा क्यूं नहीं देखते? उपरोक्त घटनाक्रम में क्या हम इनमें से किसी भी शब्दार्थ के नजदीक हैं? लगता नहीं। बौद्धिक स्तर पर समाज के गुरु का ओहदा हथियाने के लिए लालायित इस वर्ग से निष्पक्ष, निडर, निराकार, निस्वार्थ होना अपेक्षित है तभी तो वे लेखन में न्याय कर सकते हैं। मगर हिन्दी लेखन में गुटबाजी के अन्याय की कोई सीमा नहीं। विचारों से वफादारी के नाम पर हम इतनी बेहूदी लड़ाई लड़ते हैं कि अनपढ़ों से लेकर बेवफाओं की बस्ती में भी शर्म फैल जाए। शब्दों से खेलते-खेलते उसका दुरुपयोग करने लग पड़ते हैं। कभी-कभी विचार अणु-परमाणु बम से अधिक घातक होते हैं। क्या इनकी आवश्यकता है? बहस को लेखकों का लोकतंत्र कहा जाता है। मगर जब झुंडो और गुंडों की शैली, आम राजनीति को इतना गंदा कर रही हो, कि समाज बेचैन है तो लेखकों को बेहतर विकल्प की तलाश करनी चाहिए। कहते हैं कि लेखक भी तो समाज से ही आता है तो उसकी बुराइयां इसमें क्यों नहीं होगी? यह सही है मगर फिर इस क्षेत्र में शुद्धीकरण की आवश्यकता अधिक है। दवाई में मिलावट अधिक घातक होती है।
वर्तमान को उत्तर आधुनिक काल का नाम देकर हमने कई कागज काले और शब्द-समय बोलने में व्यर्थ किए। जीवन आगे बढ़ रहा है और नयी परिभाषा गढ़ रहा है मगर हमनें चारों ओर और ऊंची-ऊंची दीवारें खड़ी कर ली। कुएं में घुटन पैदा कर दी। बाहरी लोगों का प्रवेश वर्जित है। ऐसे में ताजी हवा के झोंके कहां से आएंगे? हम बोल तो सकते हैं लेकिन सुन नहीं सकते। हम अपनी बातों पर इतना अडिग रहते हैं कि सत्य भी शरमा जाए। घमंड में चूर हमारी आंखें बंद है, हमें यह भी नहीं पता कि हमारा प्रवचन सुनने वाला हमारा शिष्य व श्रोतागण सामने से नदारद है। दूसरों से शालीनता की उम्मीद करने वाले व्यवहारिक जीवन में दिन-रात समाज की सारी हदें पार करते हैं। यदाकदा हमारा व्यवहार व जीवन निर्लज्जता का ऐसा उदाहरण बन जाता है कि हम बद से भी बदतर हो जाते हैं। मंच से हम ऐसी बड़ी-बड़ी बात करते हैं, किसी पर भी व्यक्तिगत टिप्पणी करने से नहीं चूकते, जबकि हमारे साथ दुराचारियों-दुर्जनों की फौज होती है। जो इस शब्द युद्ध में मदद करती है। जाति-वर्ग, धर्म-क्षेत्र और वाद में बंटकर हमारी सामाजिक प्रतिबद्धता संदिग्ध हो जाती है। इन चक्करों में मुख्यधारा से हम कब कट गए पता ही नहीं चला। सवाल उठता है कि अगर यही सब करना था तो और भी क्षेत्र हैं। पान से लेकर परचून की दुकान तक में लाखों कमाया जा सकता है। नग्नता के साथ तो आज सेलिबेरिटी स्टेटस पाया जा सकता है। गालियों और शब्दों से खेलकर तो अच्छे राजनीतिज्ञ बना जा सकता है। ऐसे में लेखन के क्षेत्र में आने का क्या फायदा? यह तो संतों, चिंतकों, विचारक और समाजसेवी के लिए सुरक्षित था। कम से कम इस क्षेत्र को बख्श देना चाहिए। समाज के लिए साहित्य जरूरी है।
उदाहरणार्थ, पिछले दिनों हिन्दी लेखकों के बीच एक बवंडर उठा। एक विश्वविद्यालय के कुलपति द्वारा महिला लेखकों पर टिप्पणी की गई। मेरे जानते-समझते कम से कम बाजारवाद के वर्तमान युग में, यह पहला मौका था जो राष्ट्रीय अखबार के प्रथम पृष्ठ से लेकर मीडिया में अच्छी-खासी चर्चा हुई। पहली नजर में तो दोनों पक्ष के लिए यह उपलब्धि होनी चाहिए। चूंकि लोकप्रियता एवं आम जनता के बीच में पहचान के लिए तरस रहे लेखकों के लिए यह घटनाक्रम किसी वरदान से कम नहीं। आम पाठक, जो हिन्दी लेखकों को साठ-सत्तर के दशक के बाद धीरे-धीरे बिल्कुल नहीं जानता और बाजार की चकाचौंध में काला चश्मा लगाए घूम रहा है। उसने भी भूले-भटके कुछ लेखकों के चेहरे और नाम जाने-अनजाने ही देख-पढ़ लिये होंगे। अगर यही ध्येय था, दोनों ही संघर्ष कर रहे वर्ग के नेतृत्व का, तो इसमें बहुत हद तक सफलता प्राप्त होती प्रतीत होती है। और इसी रास्ते पर भविष्य में कुछ लोग आगे बढ़ जाएं तो देखकर आश्चर्य नहीं होना चाहिए। अति महत्वाकांक्षी इसका अनुसरण कर सकते हैं। कुछ विशिष्ट को दुःख हुआ होगा कि जब उन्होंने पूर्व में इससे बड़ी हरकतें की थीं तो ऐसा तूफान छोड़ थोड़ी हलचल भी क्यूं नहीं मची थी? हो सकता है उनके शब्दों में प्रहार व आकर्षण की क्षमता न हो? इतना कड़वा न हो कि तकलीफ दे? हो सकता है मीडिया मैनेज न हुआ हो? या फिर सामने वाला बेवकूफ या कमजोर पार्टी हो? या फिर दोनों पार्टी की किस्मत न हो? कुछ भी हो सकता है। और खोजी दिमाग इन्हीं मौकों की तलाश में निकल पड़े होंगे। बहरहाल, सनसनी का स्वाद हिन्दी लेखन ने भी चख लिया। वो बाजार के हथकंडे सीखने की प्रक्रिया में आगे बढ़ा है। ठीक भी है समाज की जो गति एवं दिशा-दशा है ऐसे में हिन्दी लेखक कब तक विमुख रहता?
साक्षात्कार में कहे गए आपत्तिजनक शब्द जब आम जीवन से लेकर नग्नता के स्रोत बॉलीवुड में भी सार्वजनिक रूप से आज भी नहीं कहे जा सकते तो लेखन की दुनिया में इसका कहना तो अनुचित होगा ही। फिर चाहे वह उच्च पदाधिकार छोड़ एक सामान्य लेखक ही क्यों न हो। नारी अपमान का विरोध तो हर हाल में होना चाहिए। और हुआ। पूरे साक्षात्कार को ध्यान से पढ़े तो लगता है कि ये दो-चार अपशब्द किसी आवेश में आकर कहे गए हैं। ईर्ष्याजनित जोश ऊपर से महिला से चोट खाया पुरुष ऐसी गलती अकसर कर जाता है। वरना इन शब्दों को हटा दिया जाए तो साक्षात्कार में कहीं-कहीं सार्थक तथ्य उभरते प्रतीत होते हैं और यह महिलाओं के हक में खड़ा लगता है। संक्षिप्त में कहें तो कुछ दो-चार शब्दों ने सत्यानाश कर दिया। जिस पर महिलाओं द्वारा तीखी आपत्ति दर्ज होनी ही थी। मौके का फायदा उठाते हुए पुरुष लेखकों ने भी सक्रियता दिखाई। पढ़े-लिखे सभ्य कहलाने के लिए नारी अस्मिता, स्वतंत्रता और विमर्श से बेहतर शब्द हिन्दी समाज में नहीं हो सकते और सभी खुद को प्रमाणित करने में लग पड़े। लेखों और वक्तव्य की होड़ मच गयी और लिखने के मोह से इस पंक्ति का लेखक भी नहीं बच पाया। मगर इस आपाधापी में मूल तत्व हवा में उड़ गए। नारी का संदर्भ आते ही हम अमूमन पूर्वाग्रस्त हो जाते हैं, खुलकर बोल नहीं पाते, संकोच में डर कर लिखना तो फिर व्यर्थ है। हम एकतरफा लीपापोती करने लग पड़ते हैं। सवाल उठता है कि नारी किससे मुक्त होना चाहती है? देह से? समाज से? पुरुष से? स्वतंत्रता की तलाश में आधुनिक विकास पथ पर कशमकश के साथ-साथ मंजिल की जगह मृगतृष्णा है जो उसे भ्रमित कर सकती है। इस संक्रमण काल में बैठकर गहराई से चिंतन की आवश्यकता है जिसमें सिर्फ महिलाओं की भागीदारी से निष्कर्ष आधे-अधूरे निकलेंगे। यकीनन ऐसे में पुरुष से संतुलन-संयम-शालीनता की उम्मीद की जानी चाहिए। जहां लेखक-कुलपति व संपादक चूक गए। मगर साथ ही यहां सवाल उठना चाहिए कि क्या इसकी प्रतिक्रिया भी उसी स्तर की करना जरूरी थी? बहरहाल, इसमें भी कोई शक नहीं कि एक लेखक को अपने विचार व्यक्त करने की पूरी स्वतंत्रता होनी चाहिए। फिर चाहे वह अपने समकालीन अन्य लेखकों पर ही चर्चा क्यों न कर रहा हो। लेकिन यह पूरी तरीके से व्यक्तिगत (कुश्ती का अखाड़ा) न होकर सामाजिक संदर्भ में हो, जो साहित्य लेखन की पहली शर्त है। वैसे भी यह कोई बाजार नहीं, विचारों का क्षेत्र है, जहां झूठा दोषारोपण और धोखे का आत्मसम्मान व लोकप्रियता स्वीकार्य नहीं। सत्य हमेशा कड़वा होता है। लेकिन उसका उपयोग दवाई के रूप में होना चाहिए, न कि जहर की तरह मारने के लिए। पहली गलती ने कुलपति के पद की गरिमा को ठेस पहुंचाया बाद में क्षमा ने अंदर बैठे लेखक के अभिमान को तोड़ दिया। शब्द-संयम द्वारा इस पूरे घटनाक्रम से बचा जा सकता था। दूसरी तरफ, अगर कथन में तथ्य नहीं था तो फिर किसी को इतनी धमा-चौकड़ी मचाकर बेवजह शरारती तत्व को (अ)लोकप्रिय होने का मौका नहीं देना चाहिए। संक्षिप्त में असामान्य परिस्थिति में भी सामान्य-सहज व्यवहार अपेक्षित है। मगर हिन्दी लेखकों के बीच वो सब कुछ हुआ जो उम्मीद से परे था। एक बार फिर शब्दवॉर (गैंगवार) शुरू हुई जिसने लिंग संघर्ष का रूप ले लिया। और इस भगदड़ में कुछ एक चतुर चालक नारी-भोगी पुरुष, नारीवादी होने का सफल प्रयोजन कर सके। यह पहला वाक्या नहीं था। ऐसी घटना-दुर्घटना अलग-अलग स्तर पर व्यक्तियों और समूहों के बीच में चलती रहती है। यह चिंतनीय है।
नर एवं नारी के बीच परस्पर प्रेम और संघर्ष आदिकाल से चला आ रहा है। दो विपरीत ध्रुवों के बीच आकर्षण से ऊर्जा उत्पन्न होती है ओर वो एक-दूसरे की ओर खिंचे चले आते हैं। इनके मिलन में भी टकराहट है। मगर यहां विनाश नहीं नवजीवन के रूप में प्रकाश व बिजली उत्पन्न होती है। जरा-सा संतुलन बिगड़ने पर विध्वंस भी हो सकता है। बेहतर जीवन के लिए इनका सामंजस्य जरूरी है। इससे प्रेरित होकर ही अर्द्धनारीश्वर तक की कल्पना की गई।
असल में लेखन में विभिन्न मुद्दों पर स्वस्थ चिंतन की समाज अपेक्षा करता है। यही कारण है जो लेखक आम नहीं होते, व्यवसायी राजनीतिज्ञ खिलाड़ी नहीं होते। वे लालची, महत्वाकांक्षी व सांसारिक मायामोह से बच सकें, उम्मीद होती है। लेखक अमूमन सत्य के पुजारी, दार्शनिक, समाज-सेवी और प्रकृति प्रेमी होते है। या कह सकते हैं, होने चाहिए। इनके विचारों में मनुष्य जाति की चिंता होती है। समाज का आईना अगर अशुद्ध होगा तो चेहरा विकृत दिखेगा। हम (लेखक) स्वयं का चेहरा क्यूं नहीं देखते? उपरोक्त घटनाक्रम में क्या हम इनमें से किसी भी शब्दार्थ के नजदीक हैं? लगता नहीं। बौद्धिक स्तर पर समाज के गुरु का ओहदा हथियाने के लिए लालायित इस वर्ग से निष्पक्ष, निडर, निराकार, निस्वार्थ होना अपेक्षित है तभी तो वे लेखन में न्याय कर सकते हैं। मगर हिन्दी लेखन में गुटबाजी के अन्याय की कोई सीमा नहीं। विचारों से वफादारी के नाम पर हम इतनी बेहूदी लड़ाई लड़ते हैं कि अनपढ़ों से लेकर बेवफाओं की बस्ती में भी शर्म फैल जाए। शब्दों से खेलते-खेलते उसका दुरुपयोग करने लग पड़ते हैं। कभी-कभी विचार अणु-परमाणु बम से अधिक घातक होते हैं। क्या इनकी आवश्यकता है? बहस को लेखकों का लोकतंत्र कहा जाता है। मगर जब झुंडो और गुंडों की शैली, आम राजनीति को इतना गंदा कर रही हो, कि समाज बेचैन है तो लेखकों को बेहतर विकल्प की तलाश करनी चाहिए। कहते हैं कि लेखक भी तो समाज से ही आता है तो उसकी बुराइयां इसमें क्यों नहीं होगी? यह सही है मगर फिर इस क्षेत्र में शुद्धीकरण की आवश्यकता अधिक है। दवाई में मिलावट अधिक घातक होती है।
वर्तमान को उत्तर आधुनिक काल का नाम देकर हमने कई कागज काले और शब्द-समय बोलने में व्यर्थ किए। जीवन आगे बढ़ रहा है और नयी परिभाषा गढ़ रहा है मगर हमनें चारों ओर और ऊंची-ऊंची दीवारें खड़ी कर ली। कुएं में घुटन पैदा कर दी। बाहरी लोगों का प्रवेश वर्जित है। ऐसे में ताजी हवा के झोंके कहां से आएंगे? हम बोल तो सकते हैं लेकिन सुन नहीं सकते। हम अपनी बातों पर इतना अडिग रहते हैं कि सत्य भी शरमा जाए। घमंड में चूर हमारी आंखें बंद है, हमें यह भी नहीं पता कि हमारा प्रवचन सुनने वाला हमारा शिष्य व श्रोतागण सामने से नदारद है। दूसरों से शालीनता की उम्मीद करने वाले व्यवहारिक जीवन में दिन-रात समाज की सारी हदें पार करते हैं। यदाकदा हमारा व्यवहार व जीवन निर्लज्जता का ऐसा उदाहरण बन जाता है कि हम बद से भी बदतर हो जाते हैं। मंच से हम ऐसी बड़ी-बड़ी बात करते हैं, किसी पर भी व्यक्तिगत टिप्पणी करने से नहीं चूकते, जबकि हमारे साथ दुराचारियों-दुर्जनों की फौज होती है। जो इस शब्द युद्ध में मदद करती है। जाति-वर्ग, धर्म-क्षेत्र और वाद में बंटकर हमारी सामाजिक प्रतिबद्धता संदिग्ध हो जाती है। इन चक्करों में मुख्यधारा से हम कब कट गए पता ही नहीं चला। सवाल उठता है कि अगर यही सब करना था तो और भी क्षेत्र हैं। पान से लेकर परचून की दुकान तक में लाखों कमाया जा सकता है। नग्नता के साथ तो आज सेलिबेरिटी स्टेटस पाया जा सकता है। गालियों और शब्दों से खेलकर तो अच्छे राजनीतिज्ञ बना जा सकता है। ऐसे में लेखन के क्षेत्र में आने का क्या फायदा? यह तो संतों, चिंतकों, विचारक और समाजसेवी के लिए सुरक्षित था। कम से कम इस क्षेत्र को बख्श देना चाहिए। समाज के लिए साहित्य जरूरी है।
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