अधिक पुरानी बात नहीं है जब वॉल स्ट्रीट धराशायी हुआ था। विश्व अर्थव्यवस्था की चर्चा करने वालों के बीच दहशत फैल गई थी। ऐसे में, कौन-सी दीवार ग...
अधिक पुरानी बात नहीं है जब वॉल स्ट्रीट धराशायी हुआ था। विश्व अर्थव्यवस्था की चर्चा करने वालों के बीच दहशत फैल गई थी। ऐसे में, कौन-सी दीवार गिरी और किसके सिर पर चोट आयी, पता तो नहीं चला, मगर आम जनता भी भयभीत हो गयी थी।नौकरी से छंटनी, बेरोजगारी के बढ़ने और कइयों के कंगाल और दिवालिया हो जाने की खबरें आती रहती थीं। अमेरिका की राजनीति में तूफान आया जिस पर सवार होकर बराक ओबामा व्हाइट हाउस तक जा पहुंचे। अमेरिकी जनता, जो अभिमान में जीती है, बहुत अधिक परेशान बताई जाती। खबर थी कि मोटे मासिक वेतन पाने वाले कई आर्थिक विशेषज्ञों के पैरों तले जमीन खिसक गई है। अखबारों की रिपोर्टिंग पर यकीन करें तो हजारों-लाखों डॉलर पर भी अपनी शर्त पर काम करने वाला तथाकथित उच्च पदस्थ वर्ग अब किसी भी वेतन पर काम करने के लिए न्यूयार्क की सड़कों पर आम मिल जाएगा। मेरे भी कुछ मित्र जो वर्षों से अमेरिका में अहं का चश्मा लगाकर घूम रहे थे, इस बारे में पूछने पर चुप हो जाते या फिर अंग्रेजी में घुमा देते। और कुछ हो न हो, कार्पोरेट जगत में ब्रांडेड जीवन के साथ अमेरिकी कंपनी का नाम सुबह-शाम जपने वाले, एकाएक मुंह छिपाते फिरते दिखे, जब उनकी तथाकथित विश्वस्तरीय विश्वसनीय कंपनियां रातोंरात दिवालिया घोषित हो गयीं। पता नहीं, बाद में इन महा कंपनी के महान कार्पोरेट सम्राटों व विशेषज्ञों का क्या हुआ?
मंदी का दौर समाप्त हुआ या नहीं? पता नहीं। मगर चर्चा अब कम होती है। ये अर्थव्यवस्था का डूबना-चढ़ना क्या होता है? आम जनता को कहां समझ आना। इस दौरान कोई खेत-खलिहानों में पैदावार तो बढ़ी नहीं। बढ़ भी जाती तो कौन-सी गरीबों में मुफ्त बंटती। एक गरीब के लिए दो वक्त के भोजन से अधिक, जो उसका जन्मसिद्ध अधिकार है, अर्थव्यवस्था का कोई मायने नहीं। मगर हमने इस बाजार के तमाशे को खूब देखा। जब मंदी नहीं थी तब भी भूखे थे, जब थी तब तो तसल्ली रहती थी कि शायद यही कारण है हमारी भूख का। वैसे मंदी के लिए न तो हमारा कोई दोष था न ही रोल था। खैर, हिन्दुस्तान में भी हादसे हुए। देखते-देखते सत्यम में जबरदस्त तूफान आया। किसी को एक दिन पहले तक कानोंकान खबर नहीं थी। शायद मौसम विज्ञान की तरह यहां भी अनिश्चितता होती हो। कहा जाता, भारतीय कंपनियों के भी हाल अच्छे नहीं। वेतन में कटौती व छंटनी सुनाई देती। कालेज से नये-नये निकले छात्रों को नियुक्ति पत्र देने के बाद भी महीनों इंतजार करवाया गया। उस पर भी जरूरी नहीं कि ज्वाइन करने के लिए बुला ही लिया जाये। शंकाएं व्यक्त की जाने लगी थीं। एक कंपनी ने बचत का अनोखा प्रयोग तक किया था। एक राज्य का काम देखने वाले शीर्ष अधिकारियों को अचानक तीन राज्यों का काम देखने को कहा गया, उसी वेतन में। अब पता नहीं, इस हालत में फर्क आया या नहीं, लेकिन मंदी की सनसनी मीडिया से गायब है।
अगर उपरोक्त खबर को कुछ हद तक भी सही माने तो शीर्ष पर बैठे महाशक्तिशाली अमेरिका का जब यह हाल था तो पिछलग्गू देशों का क्या हश्र हुआ होगा। इसकी सिर्फ कल्पना की जा सकती है। सुना है कि पूरा के पूरा देश कर्ज में डूब सकता है। विश्व स्तर पर भी तूफान रुका नहीं था। एक विश्वविख्यात कैनेडियन कंपनी के दिवालिया होने की खबर पढ़ी थी। दो प्रमुख बहुराष्ट्रीय कंपनी डूब चुकी थीं। यह इतने बड़े नाम थे कि इनकी कसमें खायी जाती थीं। इनको कौतूहलता, आश्चर्य व इज्जत से देखा जाता था। इनकी सफलता की कहानी परिकथाओं की तरह हमारे मैनेजमेंट संस्थाओं में पढ़ाई जाती थी। जहां पढ़ने जाने के लिए देश के बुद्धिमान छात्र घोंट-घोंटकर दिन-रात एक कर देते थे। अब इनके गिर जाने से सबसे बड़ी मुसीबत है कि आदमी का विश्वास टूट गया। यह समझना मुश्किल है कि किस पर यकीन करें किस पर नहीं। इतने बड़े हादसे के बाद विश्वभर के निवेशकों व विशेषज्ञों ने यकीनन बाल नोचे होंगे!! मगर क्या यह सत्य है? कई बार शंका होती है। शीर्ष पर बैठा व्यापारी, सच माने तो उसे कोई फर्क नहीं पड़ता। जनता के पैसे पर उसने सदा ऐश मारी है। जो डूबा वो उसका नहीं था, तो फिर काहे की चिंता। हां, नये तरह से पैर जमाकर पैसा कमाने की चिंता उसे जरूर हुई होगी। यहीं मैनेजमेंट गुरु व बड़े-बड़े संस्थानों से निकल कर करोड़ों में बिकने वाले तथाकथित अर्थशास्त्रियों की बुद्धिमत्ता काम आती है। इन चमकदार संस्थानों की सेहत और ऐंठ पर भी कोई असर नहीं दिखा। जिज्ञासा इस बात की है कि सफलताओं की परीकथा के नाम पर ये अब किसकी कहानी सुनाते होंगे? बहरहाल, वे सब मिलकर नये तरीके ढूंढ़ रहे होंगे। बाजार में अब भी चहल-पहल है तो फिर सवाल उठता है कि वो हादसा क्या था? जिसने सबको हिलाकर बेचैन कर दिया था।
बड़ी-बड़ी बातें कहने-सुनने का क्या फायदा? इन बातों का सीधा-सरल निष्कर्ष यह है कि छोटे निवेशकों को जेब से पैसा निकालकर कहीं लगाने से पहले इस बात का विशेष ध्यान रखना चाहिए कि कंपनी का नाम ही सब कुछ नहीं, फिर चाहे वो कितना ही बड़ा क्यूं न हो, अन्य जोखिम फैक्टर को प्राथमिकता से देखा जाना चाहिए। यही नहीं सामान्य उपभोक्ता को चकाचौंध और दिखावे से बचना चाहिए और सतर्कता बनाये रखना चाहिए, अन्यथा झूठ का विज्ञापन दिखा-दिखा कर कब कौन आप को किसी परेशानी में डाल दे, पता ही नहीं चलेगा। आज के फैशन की दुनिया में जब बाजार खुद अपने माल की गारंटी नहीं लेता, ऐसे अविश्वास के बावजूद कारोबार फलाफूला है। ये कैसी अर्थव्यवस्था है जहां इंसान की विश्वसनीयता घटी है। ऐसे में किसी कंपनी की क्या मिसाल? छोटे-छोटे उदाहरण रोजमर्रा की जिंदगी में यहां-वहां देखे जा सकते हैं। किस्तों पर माल देने वाली कंपनियां आप पर अचानक कोई अतिरिक्त रकम, न जाने किस नये नाम से, थोप सकती हैं। कुछ कंपनियां बेचते समय तो सस्ता होने का दम भरें और बिल आने पर कोई नया छुपा हुआ रेट भी साथ लगा दें, तो कोई आश्चर्य नहीं। बेचने से पूर्व अधिकांश कंपनियां उपभोक्ताओं को लुभाती हैं और फिर बाद में पहचानने से भी इंकार करती हैं। लाखों का सामान शो रूम से बाहर आते ही मिट्टी के मोल हो जाता है। मुफ्त का पानी, मीठा रंगीन बनाकर दसियों रुपये में बेचने के लिए करोड़ों के विज्ञापन दिए जाते हैं। उपभोक्ता को होशियार तो किया जाता है। मगर इस जाल में पढ़े-लिखों को अनपढ़ों से अधिक फंसते हुए देखा जा सकता है। असल में उसका ज्ञान ज्ञान नहीं, सूचना है, जो बाजार की बीमार मानसिकता से पहले ही संक्रमित है। बाजार आदमी की कमजोरियों को जानता है और उसी से खेलता है।
यूं तो उदारीकरण के कुछ सकारात्मक परिणाम भी आये हैं। मुक्त अर्थव्यवस्था ने सेवा के क्षेत्र में उत्साहवर्द्धक परिणाम दिये हैं। उपभोक्ता को बेहतर सुविधाएं मिलने लगी हैं। उपलब्धता भी भरपूर है। प्रतिस्पर्द्धा से कम कीमत पर अच्छी सेवा सुनिश्चित हुई है। परंतु इन सेवाओं ने आदमी को पंगू और अपंग बना दिया। सब कुछ अच्छा ही हो ऐसा जरूरी नहीं। आदमी की सोचने-समझने की शक्ति कुंद हो गयी। जबकि आमतौर पर सेवाएं लेते समय उपभोक्ता को चौंकन्ना रहना चाहिए। बस और ट्रेन का सफर छोड़ हवाई यात्रा करते समय भी कटु अनुभव हो सकता है। जो कि देखने में सामान्य मगर वास्तविकता में अत्यधिक कष्टदायक हो सकता है। दोपहर की लंबी फ्लाइट के दौरान भी स्वादिष्ट भोजन की जगह हल्के नाश्ते के नाम पर दो ब्रेड दे दिया जाए तो आप भूखे बिलबिला सकते हैं। आगे वाली कनेक्टिंग फ्लाइट छूट जाने पर, आप किसी बड़ी परेशानी में फंस सकते हैं। अलग-अलग एयरलाइंस की कनेक्टिंग फ्लाइट होने पर यह मुश्किलें बढ़ जाती हैं और ऐसे में महिला एयर होस्टेस द्वारा कहे गए 'सॉरी' शब्द जख्म पर नमक छिड़कते हैं।
अनुभव जीवन को नये-नये स्वाद चखाता है। यात्राओं में अमूमन खट्टे-मीठे अनुभव होते हैं। एक बार, देर रात स्वच्छ एवं स्वादिष्ट भोजन के चक्कर में जब मैं एक नामी होटल में पहुंचा तो हैरान हुआ था। इस होटल की श्रृंखलाएं देशभर में हैं। इसकी दिल्ली शाखा में मैं आमतौर पर दक्षिण भारतीय भोजन लेना पसंद करता हूं। यहां साफ-सुथरा और स्वादिष्ट भोजन परोसा जाता है। मगर यह देखकर आश्चर्य हुआ था कि उस होटल श्रृंखला के प्रमुख कार्यालय के चेन्नई में उपस्थित होने के बावजूद वहां का वातावरण अपेक्षा के अनुरूप नहीं था। स्वाद में भी वो बात नहीं थी। और फिर उस रात मुझे भूखे पेट ही सोना पड़ा था। चूंकि वहां से निकलकर दूसरे होटल में फिर से भोजन के लिए जाना पैसे के साथ-साथ समय की बर्बादी थी। आज सिर्फ होटल क्या किसी भी चीज में सिर्फ नाम से ही विश्वास नहीं किया जा सकता। और फिर पूछताछ करने पर भी सदैव सही जानकारी मिले आवश्यक नहीं। बताने वाले की सोच व अपेक्षाएं आपकी जरूरत के अनुरूप हो जरूरी नहीं। इसके लिए बताने वाले और पूछने वाले का विभिन्न स्तर पर एक समान सोचना अति आवश्यक है। बाजार इसका भी फायदा उठाता है।
ज्यादा बुद्धि लगाने पर दिमाग भ्रमित और यह समझना मुश्किल हो जाता है कि दो सौ से लेकर पांच हजार तक की शर्ट बाजार में कैसे उपलब्ध है? पचास प्रतिशत तक की सेल कैसे लग जाती है? पेट भरने के लिए दस रुपये से लेकर दस हजार तक का भोजन किया जा सकता है। यह कौन-सा अर्थशास्त्र है? ऊपर से, महंगी से महंगी ब्रांडेड दुकान में खरीद के दौरान जिस तरह से स्वागत किया जाता है, उसके उलट किसी भी कारण से माल को लेकर वापस जाने पर दुकानदार का व्यवहार देखने लायक होता है। कई बड़े-बड़े संस्थाओं में क्या व्यवसाय होता है, दावे से नहीं कहा जा सकता। माल बेचने वाले विज्ञापनों पर शत-प्रतिशत विश्वास करने पर धोखा खाने के लिए तैयार रहना चाहिए। इस चालाक-चतुर बाजार को नियम के साथ खेलना भी आता है। शर्त और जरूरी सूचना इतनी जल्दी और संक्षिप्त में कही जाती है कि आप समझ ही नहीं सकते। शिक्षा के क्षेत्र में गजब की मार्केटिंग है। चाहे जितनी बेरोजगारी हो, शत-प्रतिशत रोजगार मिलने का दावा करने वाली शैक्षणिक संस्थाएं आम मिल जाएंगी। बाजार ने अपनी दुकानों में धर्म को भी अविश्वसनीय बना दिया, तभी तो पक्की भविष्यवाणी और दुःखों से छुटकारे वाले बाबाओं के प्रवचन में भी सामान बिकते नजर आएंगे। ठीक तो है बाजार का एक ही काम है, माल बेचना और सिर्फ बेचना। किसी भी कीमत पर खरीदने वाले को मजबूर कर देना। इस कार्य के लिए वो मुक्त है और यही मुक्त अर्थव्यवस्था है।
मनोज सिंह
E-mail: manoj@manojsingh.com
Mobile 9417220057
मंदी का दौर समाप्त हुआ या नहीं? पता नहीं। मगर चर्चा अब कम होती है। ये अर्थव्यवस्था का डूबना-चढ़ना क्या होता है? आम जनता को कहां समझ आना। इस दौरान कोई खेत-खलिहानों में पैदावार तो बढ़ी नहीं। बढ़ भी जाती तो कौन-सी गरीबों में मुफ्त बंटती। एक गरीब के लिए दो वक्त के भोजन से अधिक, जो उसका जन्मसिद्ध अधिकार है, अर्थव्यवस्था का कोई मायने नहीं। मगर हमने इस बाजार के तमाशे को खूब देखा। जब मंदी नहीं थी तब भी भूखे थे, जब थी तब तो तसल्ली रहती थी कि शायद यही कारण है हमारी भूख का। वैसे मंदी के लिए न तो हमारा कोई दोष था न ही रोल था। खैर, हिन्दुस्तान में भी हादसे हुए। देखते-देखते सत्यम में जबरदस्त तूफान आया। किसी को एक दिन पहले तक कानोंकान खबर नहीं थी। शायद मौसम विज्ञान की तरह यहां भी अनिश्चितता होती हो। कहा जाता, भारतीय कंपनियों के भी हाल अच्छे नहीं। वेतन में कटौती व छंटनी सुनाई देती। कालेज से नये-नये निकले छात्रों को नियुक्ति पत्र देने के बाद भी महीनों इंतजार करवाया गया। उस पर भी जरूरी नहीं कि ज्वाइन करने के लिए बुला ही लिया जाये। शंकाएं व्यक्त की जाने लगी थीं। एक कंपनी ने बचत का अनोखा प्रयोग तक किया था। एक राज्य का काम देखने वाले शीर्ष अधिकारियों को अचानक तीन राज्यों का काम देखने को कहा गया, उसी वेतन में। अब पता नहीं, इस हालत में फर्क आया या नहीं, लेकिन मंदी की सनसनी मीडिया से गायब है।
अगर उपरोक्त खबर को कुछ हद तक भी सही माने तो शीर्ष पर बैठे महाशक्तिशाली अमेरिका का जब यह हाल था तो पिछलग्गू देशों का क्या हश्र हुआ होगा। इसकी सिर्फ कल्पना की जा सकती है। सुना है कि पूरा के पूरा देश कर्ज में डूब सकता है। विश्व स्तर पर भी तूफान रुका नहीं था। एक विश्वविख्यात कैनेडियन कंपनी के दिवालिया होने की खबर पढ़ी थी। दो प्रमुख बहुराष्ट्रीय कंपनी डूब चुकी थीं। यह इतने बड़े नाम थे कि इनकी कसमें खायी जाती थीं। इनको कौतूहलता, आश्चर्य व इज्जत से देखा जाता था। इनकी सफलता की कहानी परिकथाओं की तरह हमारे मैनेजमेंट संस्थाओं में पढ़ाई जाती थी। जहां पढ़ने जाने के लिए देश के बुद्धिमान छात्र घोंट-घोंटकर दिन-रात एक कर देते थे। अब इनके गिर जाने से सबसे बड़ी मुसीबत है कि आदमी का विश्वास टूट गया। यह समझना मुश्किल है कि किस पर यकीन करें किस पर नहीं। इतने बड़े हादसे के बाद विश्वभर के निवेशकों व विशेषज्ञों ने यकीनन बाल नोचे होंगे!! मगर क्या यह सत्य है? कई बार शंका होती है। शीर्ष पर बैठा व्यापारी, सच माने तो उसे कोई फर्क नहीं पड़ता। जनता के पैसे पर उसने सदा ऐश मारी है। जो डूबा वो उसका नहीं था, तो फिर काहे की चिंता। हां, नये तरह से पैर जमाकर पैसा कमाने की चिंता उसे जरूर हुई होगी। यहीं मैनेजमेंट गुरु व बड़े-बड़े संस्थानों से निकल कर करोड़ों में बिकने वाले तथाकथित अर्थशास्त्रियों की बुद्धिमत्ता काम आती है। इन चमकदार संस्थानों की सेहत और ऐंठ पर भी कोई असर नहीं दिखा। जिज्ञासा इस बात की है कि सफलताओं की परीकथा के नाम पर ये अब किसकी कहानी सुनाते होंगे? बहरहाल, वे सब मिलकर नये तरीके ढूंढ़ रहे होंगे। बाजार में अब भी चहल-पहल है तो फिर सवाल उठता है कि वो हादसा क्या था? जिसने सबको हिलाकर बेचैन कर दिया था।
बड़ी-बड़ी बातें कहने-सुनने का क्या फायदा? इन बातों का सीधा-सरल निष्कर्ष यह है कि छोटे निवेशकों को जेब से पैसा निकालकर कहीं लगाने से पहले इस बात का विशेष ध्यान रखना चाहिए कि कंपनी का नाम ही सब कुछ नहीं, फिर चाहे वो कितना ही बड़ा क्यूं न हो, अन्य जोखिम फैक्टर को प्राथमिकता से देखा जाना चाहिए। यही नहीं सामान्य उपभोक्ता को चकाचौंध और दिखावे से बचना चाहिए और सतर्कता बनाये रखना चाहिए, अन्यथा झूठ का विज्ञापन दिखा-दिखा कर कब कौन आप को किसी परेशानी में डाल दे, पता ही नहीं चलेगा। आज के फैशन की दुनिया में जब बाजार खुद अपने माल की गारंटी नहीं लेता, ऐसे अविश्वास के बावजूद कारोबार फलाफूला है। ये कैसी अर्थव्यवस्था है जहां इंसान की विश्वसनीयता घटी है। ऐसे में किसी कंपनी की क्या मिसाल? छोटे-छोटे उदाहरण रोजमर्रा की जिंदगी में यहां-वहां देखे जा सकते हैं। किस्तों पर माल देने वाली कंपनियां आप पर अचानक कोई अतिरिक्त रकम, न जाने किस नये नाम से, थोप सकती हैं। कुछ कंपनियां बेचते समय तो सस्ता होने का दम भरें और बिल आने पर कोई नया छुपा हुआ रेट भी साथ लगा दें, तो कोई आश्चर्य नहीं। बेचने से पूर्व अधिकांश कंपनियां उपभोक्ताओं को लुभाती हैं और फिर बाद में पहचानने से भी इंकार करती हैं। लाखों का सामान शो रूम से बाहर आते ही मिट्टी के मोल हो जाता है। मुफ्त का पानी, मीठा रंगीन बनाकर दसियों रुपये में बेचने के लिए करोड़ों के विज्ञापन दिए जाते हैं। उपभोक्ता को होशियार तो किया जाता है। मगर इस जाल में पढ़े-लिखों को अनपढ़ों से अधिक फंसते हुए देखा जा सकता है। असल में उसका ज्ञान ज्ञान नहीं, सूचना है, जो बाजार की बीमार मानसिकता से पहले ही संक्रमित है। बाजार आदमी की कमजोरियों को जानता है और उसी से खेलता है।
यूं तो उदारीकरण के कुछ सकारात्मक परिणाम भी आये हैं। मुक्त अर्थव्यवस्था ने सेवा के क्षेत्र में उत्साहवर्द्धक परिणाम दिये हैं। उपभोक्ता को बेहतर सुविधाएं मिलने लगी हैं। उपलब्धता भी भरपूर है। प्रतिस्पर्द्धा से कम कीमत पर अच्छी सेवा सुनिश्चित हुई है। परंतु इन सेवाओं ने आदमी को पंगू और अपंग बना दिया। सब कुछ अच्छा ही हो ऐसा जरूरी नहीं। आदमी की सोचने-समझने की शक्ति कुंद हो गयी। जबकि आमतौर पर सेवाएं लेते समय उपभोक्ता को चौंकन्ना रहना चाहिए। बस और ट्रेन का सफर छोड़ हवाई यात्रा करते समय भी कटु अनुभव हो सकता है। जो कि देखने में सामान्य मगर वास्तविकता में अत्यधिक कष्टदायक हो सकता है। दोपहर की लंबी फ्लाइट के दौरान भी स्वादिष्ट भोजन की जगह हल्के नाश्ते के नाम पर दो ब्रेड दे दिया जाए तो आप भूखे बिलबिला सकते हैं। आगे वाली कनेक्टिंग फ्लाइट छूट जाने पर, आप किसी बड़ी परेशानी में फंस सकते हैं। अलग-अलग एयरलाइंस की कनेक्टिंग फ्लाइट होने पर यह मुश्किलें बढ़ जाती हैं और ऐसे में महिला एयर होस्टेस द्वारा कहे गए 'सॉरी' शब्द जख्म पर नमक छिड़कते हैं।
अनुभव जीवन को नये-नये स्वाद चखाता है। यात्राओं में अमूमन खट्टे-मीठे अनुभव होते हैं। एक बार, देर रात स्वच्छ एवं स्वादिष्ट भोजन के चक्कर में जब मैं एक नामी होटल में पहुंचा तो हैरान हुआ था। इस होटल की श्रृंखलाएं देशभर में हैं। इसकी दिल्ली शाखा में मैं आमतौर पर दक्षिण भारतीय भोजन लेना पसंद करता हूं। यहां साफ-सुथरा और स्वादिष्ट भोजन परोसा जाता है। मगर यह देखकर आश्चर्य हुआ था कि उस होटल श्रृंखला के प्रमुख कार्यालय के चेन्नई में उपस्थित होने के बावजूद वहां का वातावरण अपेक्षा के अनुरूप नहीं था। स्वाद में भी वो बात नहीं थी। और फिर उस रात मुझे भूखे पेट ही सोना पड़ा था। चूंकि वहां से निकलकर दूसरे होटल में फिर से भोजन के लिए जाना पैसे के साथ-साथ समय की बर्बादी थी। आज सिर्फ होटल क्या किसी भी चीज में सिर्फ नाम से ही विश्वास नहीं किया जा सकता। और फिर पूछताछ करने पर भी सदैव सही जानकारी मिले आवश्यक नहीं। बताने वाले की सोच व अपेक्षाएं आपकी जरूरत के अनुरूप हो जरूरी नहीं। इसके लिए बताने वाले और पूछने वाले का विभिन्न स्तर पर एक समान सोचना अति आवश्यक है। बाजार इसका भी फायदा उठाता है।
ज्यादा बुद्धि लगाने पर दिमाग भ्रमित और यह समझना मुश्किल हो जाता है कि दो सौ से लेकर पांच हजार तक की शर्ट बाजार में कैसे उपलब्ध है? पचास प्रतिशत तक की सेल कैसे लग जाती है? पेट भरने के लिए दस रुपये से लेकर दस हजार तक का भोजन किया जा सकता है। यह कौन-सा अर्थशास्त्र है? ऊपर से, महंगी से महंगी ब्रांडेड दुकान में खरीद के दौरान जिस तरह से स्वागत किया जाता है, उसके उलट किसी भी कारण से माल को लेकर वापस जाने पर दुकानदार का व्यवहार देखने लायक होता है। कई बड़े-बड़े संस्थाओं में क्या व्यवसाय होता है, दावे से नहीं कहा जा सकता। माल बेचने वाले विज्ञापनों पर शत-प्रतिशत विश्वास करने पर धोखा खाने के लिए तैयार रहना चाहिए। इस चालाक-चतुर बाजार को नियम के साथ खेलना भी आता है। शर्त और जरूरी सूचना इतनी जल्दी और संक्षिप्त में कही जाती है कि आप समझ ही नहीं सकते। शिक्षा के क्षेत्र में गजब की मार्केटिंग है। चाहे जितनी बेरोजगारी हो, शत-प्रतिशत रोजगार मिलने का दावा करने वाली शैक्षणिक संस्थाएं आम मिल जाएंगी। बाजार ने अपनी दुकानों में धर्म को भी अविश्वसनीय बना दिया, तभी तो पक्की भविष्यवाणी और दुःखों से छुटकारे वाले बाबाओं के प्रवचन में भी सामान बिकते नजर आएंगे। ठीक तो है बाजार का एक ही काम है, माल बेचना और सिर्फ बेचना। किसी भी कीमत पर खरीदने वाले को मजबूर कर देना। इस कार्य के लिए वो मुक्त है और यही मुक्त अर्थव्यवस्था है।
मनोज सिंह
E-mail: manoj@manojsingh.com
Mobile 9417220057
महंगी से महंगी ब्रांडेड दुकान में खरीद के दौरान जिस तरह से स्वागत किया जाता है, उसके उलट किसी भी कारण से माल को लेकर वापस जाने पर दुकानदार का व्यवहार देखने लायक होता है।
जवाब देंहटाएंबस लाभ से मतलब है आज के दुकानारों को !!