प्रिय मित्रों , हिन्दीकुंज में मनोज सिंह जी के स्तम्भ विचार - मंथन के अंतर्गत आज प्रस्तुत है - मानवीय विकास प्रकृति विरोधी . इस लेख में आपने...
प्रिय मित्रों , हिन्दीकुंज में मनोज सिंह जी के स्तम्भ विचार - मंथन के अंतर्गत आज प्रस्तुत है - मानवीय विकास प्रकृति विरोधी . इस लेख में आपने प्रकृति विरोधी विकास पर विचार मंथन किया है. हमारा विकास क्या मानवीय सभ्यता ,संस्कृति के लिए उपयुक्त है या नहीं , इस विषय पर आपने प्रकाश डाला है . आशा है कि आप सभी को यह लेख पसंद आएगा . इस सन्दर्भ में आप सभी के सुझाओं की प्रतीक्षा रहेगी .
मानवीय विकास प्रकृति विरोधी
आदिमानव ने अग्नि को अपने नियंत्रण में लेकर उपयोग में लाने से पूर्व एक लंबी कोशिश की होगी। यकीनन यह उसकी पहली चमत्कारिक सफलता रही होगी। इसने उसका जीवन बदलकर रख डाला। प्रकृति में अग्नि तो प्रारंभ से है। मानव के जन्म से भी काफी पहले से उपस्थित सूरज और अन्य तारे आग का गोला ही तो हैं। पृथ्वी पर भी शीत युग की समाप्ति के बाद जंगलों में आग लगा करती होगी। ज्वालामुखी के फटने पर भी अंगारे निकलती थीं। कई स्थानों पर गर्म पानी के स्रोत भी रहे होंगे। यह सब आदि मानव के लिए अचरज की बातें थीं। और वो इन सबसे भयभीत रहता होगा। इसीलिए प्राचीन धर्मों में अग्नि देवता है और उनकी पूजा की जाती है। यह दीगर बात है कि धर्म की स्थापना के पूर्व आदिकाल में ही अग्नि का मानवीय उपयोग प्रारंभ हो गया था। अर्थात अग्नि का भय कायम था जो आज भी है, मगर मनुष्य ने आग से खेलना कभी छोड़ा नहीं। वह आगे बढ़ता चला गया। शुरू-शुरू में उसने आग से अपने शरीर को अतिरिक्त ऊर्जा और जंगली जानवरों से बचाव का प्रबंध किया और फिर पके फल-फूल, कंद-मूल और कच्चा मांस खाने वाला जंगली मानव धीरे-धीरे भूना हुआ आहार लेने लगा। यह मानवीय विकास की पहली पायदान थी और प्रकृति की व्यवस्था से अलग पहला कदम। कालांतर में अग्नि ने हमारी प्राकृतिक जीवनशैली पर गहरा प्रभाव डाला। आज हमारा जीवन पूरी तरह से इस (ऊर्जा) पर निर्भर है। लेकिन हम इसे अवचेतन मन तक में इस तरह से स्वीकार कर चुके हैं कि यह हमें नजर ही नहीं आता कि सारी व्यवस्थाएं प्रकृति के विरोध में है। छोटा-सा उदाहरण, न जाने कितनी अंगीठियां, सिगड़ियां, भट्ठियां, स्टोव, चूल्हे, हीटर चौबीस घंटे आधुनिक मनुष्य की भोजन की व्यवस्था करने मात्र के लिए उपयोग में लाये जाते हैं। यह प्रक्रिया ऊर्जा व्यय करते हुए न जाने कितना कार्बन-डायआक्साइड छोड़ती है, का हिसाब-किताब किया जाए तो अकल्पनीय होगा। यह प्रक्रिया वातावरण को हजारों साल से निरंतर प्रदूषित करती आ रही है। फिर भी हम इसकी चर्चा भी नहीं करते और इसे सैद्धांतिक रूप से अधिकारपूर्वक स्वीकार करके कहीं आगे बढ़ चुके हैं। यह अग्नि ही बाद में विज्ञान के प्रयोगशाला की नींव बनी और मानवीय सभ्यता का मुख्य आधार। बात यहीं नहीं खत्म हो जाती, इसके परिणाम दूरगामी साबित हुए, उदाहरणार्थ इस अप्राकृतिक भोजन को खाने से हमारा शरीर भी मूल रूप से प्रकृति अनुकूल नहीं रहा।
दूसरा बड़ा क्रांतिकारी परिवर्तन मानव की सभ्यता में कृषि के कारण आया। जमीन को समतल बनाना (कृषि योग्य), अपनी इच्छानुसार खेती करना, नये-नये कृषि-यंत्रों और प्रक्रिया विकसित करना अर्थात जमीन का दोहन, यह भी तो प्रकृति की मूल व्यवस्था के विरोध में ही है। आज इसी खेती ने अपने लिये हजारों बांध बनवाए, नहरें खुदवा दीं, रसायनिक खाद का उपयोग, जमीन से पानी निकालना, और फिर जेनेटिक मॉडिफाइड (आनुवंशिक संशोधित फसल), प्लांट ब्रीडिंग और हाइब्रिड फल-अनाज का उत्पादन, यह सब कुछ आज अति उत्साही मानवीय विकास के शानदार कारनामे दिखाई देते हैं, हरित क्रांति हो या कृषि विश्वविद्यालय की प्रयोगशाला में उत्पन्न नयी खोज, बढ़ती आबादी के लिए खाद्यान्न का अतिरिक्त उत्पादन को हम चाहे जितना न्यायोचित ठहरायें, मगर है तो प्रकृति विरोधी ही। और यह सिलसिला चलता चला जा रहा है। कहने का तात्पर्य है कि मनुष्य के विकास की हर कड़ी प्रकृति के सामानांतर अपनी एक नयी व्यवस्था की स्थापना थी और आज भी है। यह प्रकृति को अप्रत्यक्ष चुनौती भी है। यह सच है कि प्रारंभ में यह मद्धिम गति से चला और दिखाई (महसूस) नहीं देता मगर इससे प्राकृतिक संतुलन तो प्रारंभ से ही यकीनन बिगड़ता चला आ रहा है। आज आणविक ऊर्जा पर हम अधिक शोर-शराबा करते हैं (शायद सीधे-सीधे तुरंत मौत का डर सताता है) मगर तंदूर से लेकर इस्पात के फरनेश पर चुप्पी साधे रहे। जबकि है तो सब प्रकृति के विरोध में। कम-ज्यादा हानि की बात यहां नहीं हो रही। यही नहीं, संस्कृति-सभ्यता के नाम पर मनुष्य की सामाजिक व्यवस्थाओं ने धर्म की स्थापना की। ऐसी कोई व्यवस्था प्रकृति में है? नहीं। इसने मानवीय जीवन को सैद्धांतिक रूप में बदला। चाहे जितना कहा जाए, यह प्राकृतिक नहीं हो सकता।
परिवर्तन के नियम के अंतर्गत प्रकृति में सब का एक समय के बाद नष्ट होना आवश्यक है मगर मानवनिर्मित शस्त्र-अस्त्र अप्राकृतिक हैं। इसके द्वारा फिर चाहे दूसरे का संहार हो या स्वयं का सर्वनाश, यह विनाश प्राकृतिक नहीं हो सकता। प्राचीन तलवार से लेकर आधुनिक मिसाइल कुछ भी प्राकृतिक नहीं। देश की अवधारणा, राष्ट्र का निर्माण, और फिर उसकी सुरक्षा में लगी सेना, शासक व शासन व्यवस्था, जमीन के बंटवारे, ये सब मनुष्य के विकास की स्व-गठित कहानियां हो सकती हैं मगर उनमें से कोई भी प्रकृति के सिद्धांत के साथ खड़ी नहीं होती। नदियां दो देशों के बीच में कई बार घूम जाती हैं। बहते पानी को रोका तो जा सकता है लेकिन फिर यह प्रकृति विरोधी तो हुआ न। अब तो वायु को भी सीमाओं में कैद किया जाने लगा है और वायुयान दुश्मनों की सीमा में प्रवेश नहीं कर सकते। क्या यह प्राकृतिक है?
जंगल काटने पर प्रकृति से खिलवाड़ की बात आज जोर-शोर से की जाती है। मगर यह काम आदिकाल से चला आ रहा है और विकास के प्रारंभिक चरण से ही जीवनशैली का प्रमुख आवश्यक अंग रहा है। हां, यह जरूर है कि पिछली सदी से यह कुछ तीव्र हुआ है। यह तीव्रता अब हर क्षेत्र में दिखने लगी है। वाहनों का प्रदूषण बेहिसाब बढ़ा है। प्लास्टिक ने जमीन पर कब्जा कर लिया तो टीवी-मोबाइल की अदृश्य तरंगों ने वायुमंडल को भर दिया। जिस तेजी से विकास के इन नये रूपकों ने चारों ओर अपनी उपस्थिति दर्ज की उतनी ही तेजी से इनका विरोध भी हुआ। मगर इस विरोध के मूल में भी कहीं न कहीं भय है। वरना इसके विरोधी भी इसका उपभोग जमकर करते हैं।
इन सब प्रकृति-विरोधी विकास पर चाहे जितनी बहस और कागज काले किए जायें मगर सीधे शब्दों में पूछें तो क्या हम इन्हें रोक पायेंगे? नहीं। छोटा-सा उदाहरण, क्या हम प्लास्टिक को अपने दैनिक जीवन से अलग हटा पायेंगे? बिल्कुल नहीं। जनसंख्या वृद्धि, बाजार का दबाव, हमारी बढ़ती जरूरतें, इच्छाएं, महत्वकांक्षाएं चाहे जो कहें, सब कुछ जानते हुए भी आगे बढ़ते रहने के लिए हम मजबूर हैं। कहने का तात्पर्य यह है कि मानवीय विकास की कहानी का प्रारंभ प्रकृति को चुनौती देकर ही शुरू हुआ था। प्रकृति के समानांतर एक नयी व्यवस्था खड़ी करने की कल्पना के साथ हुआ था। यह आगे भी जारी रहेगा। कितनी ही मुश्किलों के बावजूद मनुष्य रुका नहीं बढ़ता चला गया। और भविष्य में भी बढ़ता रहेगा। यह उसकी फितरत है और सिलसिला जारी रहेगा। सेवा, चिकित्सा, मनोरंजन, सूचना के क्षेत्र में क्रांतिकारी काम हुआ है। खानपान में आर्गेनिक, इन-आर्गेनिक, सिंथेटिक, जेनेटिक, हाइब्रिड एक कड़वा सत्य है तो मनुष्य का शरीर भी इसके साथ-साथ आवश्यकतानुसार परिवर्तित हो रहा है। जिसका संक्रमणकाल निरंतर जारी है। हर युग में एक नयी बीमारी के साथ इसका सामना होता है। उसका फिर उपचार भी खोज लिया जाता है। मगर फिर समय के साथ एक नयी बीमारी आ खड़ी होती है। एक तरह से प्रकृति और मनुष्य डाल-डाल और पात-पात हो रहे हैं। अब तो मनुष्य के शरीर की संरचना के डीएनए और जींस की विस्तृत थ्योरी की खोज के बाद जनन प्रक्रिया में भी एक बड़ा परिवर्तन आने वाला है। शारीरिक अंगों का प्रत्यारोपण यथार्थ बन चुका है। अंतरिक्ष में कॉलोनी का निर्माण अब हमारी कल्पनाओं से कागजों में उतरने लगा है। माताओं को बच्चा पैदा करने में कष्ट उठाने की जरूरत नहीं। वीर्य, स्पर्म, क्रोमोसोम्स, अंडबिंब, शुक्राणु अब फ्रीजर में रखे जाते हैं। सेरोगेट मदर का विकल्प आ चुका है। परखनली शिशु पैदा होने लगे हैं।
आगे प्रकृति के साथ मनुष्य का यह खेल और तीव्र होगा। अब तक के हालात को देखकर यही निष्कर्ष निकलता है कि मनुष्य हर कदम पर सफल हो रहा है और बढ़ती आबादी उसकी विजयगाथा गा रही है। यह तो नहीं कहा जा सकता कि मनुष्य पूर्ण रूप से अपना स्वतंत्र अस्तित्व बना पायेगा या नहीं? लेकिन वह प्रकृति के विरोध में अब और तेजी से बढ़ता चला जाएगा। आज तक का मनुष्य का सुरक्षित इतिहास इस बात का प्रमाण है कि प्रकृति भी इस खेल में उसका साथ दे रही है। हो सकता है आगे आने वाली पीढ़ियों के दांत धीरे-धीरे कम हों, नाखून खत्म हो जाएं। सहवास (सेक्स) के नये रूप गढ़ दिये जाएं। हो सकता है कि जानवरों और आदमी का हाइब्रिड प्राणी की कल्पना भी साकार रूप ले ले। क्लोनिंग तो आज प्रमाण के साथ उपलब्ध है ही। एक नयी तरह के जीव की प्रजाति जो कि खाना नहीं खायेगी। उसके लिए अध्ययन की शायद आवश्यकता ही न पड़े। संवेदना ही नहीं होगी तो कला-साहित्य व्यर्थ होंगे। वह विभिन्न सूचनाओं से लैस होगा, मगर हो सकता है बाकी सभी प्राकृतिक शारीरिक क्रियाएं चुनौती के रूप में समाप्त कर दी जाएं। मनुष्य इस तथाकथित विकास की यात्रा में अब रुकने वाला नहीं। हम चाहे कितनी बातें कर ले, इतनी विशाल जनसंख्या को आगे बढ़ते देने के अतिरिक्त और कुछ गुजारा भी नहीं। उसकी आवश्यकताओं को पूरा करने में ही उसके विकास की कहानी छुपी हुई है। देखना तो यह है कि यह संघर्ष कहां जाकर खत्म होगा? और कब होगा? खत्म होगा भी या नहीं? हां अगर उसने मौत पर विजय प्राप्त कर ली तो शायद यह उसकी प्रकृति के विरुद्ध अंतिम बड़ी जीत होगी। लेकिन फिर जीवन की नयी परिभाषाएं भी गढ़नी होंगी। सोचना तो यह है कि प्रकृति मनुष्य को इस हद तक जीतने का मौका देगी कि नहीं? कहीं अचानक बढ़ी विकास की तीव्रता दीये के बुझने से पूर्व भभकने की कहानी के समान तो नहीं? कहीं हम प्रकृति द्वारा छूट दिये जाने के चतुर-चालाक योजना में स्वयं ही तो नहीं फंसते जा रहे? जहां आगे भस्मासुर की कहानी वाला अंत हो।
बहुत बढ़िया .
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