क्या पुरस्कार सिर्फ प्रतिभा, मौलिकता, गुणवत्ता व उपलब्धियों के आधार पर दिये जाते हैं? होना तो यही चाहिए मगर ऐसा होते हुए लगता नहीं। क्या पुर...
क्या पुरस्कार सिर्फ प्रतिभा, मौलिकता, गुणवत्ता व उपलब्धियों के आधार पर दिये जाते हैं? होना तो यही चाहिए मगर ऐसा होते हुए लगता नहीं। क्या पुरस्कार प्रतिभासंपन्न व्यक्ति के प्रोत्साहन के लिए भी जरूरी है? प्रथम दृष्टि में अति उत्साह में देखने पर यह आवश्यक जान पड़ता है मगर धरातल पर विश्लेषण करने पर कुछ दावे से नहीं कहा जा सकता। इसी तरह के कुछ और सवाल हर स्तर पर बार-बार उठते रहे हैं। हर क्षेत्र में। यूं तो कहने के लिए सर्वश्रेष्ठ को पुरस्कार दिये जाने की बातें सैद्धांतिक रूप से हर जगह कही जाती है। चाहे फिर पुरस्कार की संपूर्ण प्रक्रिया एक सामान्य विद्यालय स्तर पर हो रही हो या विश्व स्तर पर। और फिर अंत में पुरस्कृत व्यक्ति का प्रसन्न होना स्वाभाविक है, मगर वह जाने-अनजाने ही अपने प्रतिद्वंद्वियों की, जो पुरस्कार प्राप्त करने की दौड़ में पिछड़ गए थे, व्यंग्य और ईर्ष्या का कारण भी बन जाता है। जहां एक ओर पुरस्कार लोकप्रियता दिलवाने में अहम भूमिका निभाते हैं वहीं कई बार ये अति नुकसानदायक भी होते हैं। कई व्यक्तियों का पतन पुरस्कारों के बाद शुरू होते देखा गया है। कइयों की प्रतिभाएं अहं का शिकार हुई तो कई पुरस्कारों की ईर्ष्या से जनित दुश्मनों की षड्यंत्र के भेंट चढ़ गये। ये सभी मानवीय स्वभाव हर एक जगह सरेआम मिल जाएंगे। अध्यापक और विद्यालय प्रशासन की व्यक्तिगत पसंद-नापसंद, स्कूलों के योग्य व होनहार छात्रों के बीच भी राजनीति से ग्रसित होकर प्रतिभाओं पर भारी पड़ती रही हैं। इसी तरह के आरोप राष्ट्रीय स्तर से लेकर विश्व पुरस्कारों पर भी लगते रहे हैं। इन मानवजनित सामाजिक सच को सीधे-सीधे स्वीकार कर लेने में भी कोई विशेष मुश्किल नहीं होनी चाहिए। और फिर चुनाव करने वाला भी तो आखिरकार मनुष्य ही होता है। जो अपनी मानवीय कमजोरियों से बच नहीं सकता। कहने को तो इस तरह की तरफदारी और भेदभाव से बचने के लिए कमेटी का सहारा लिया जाता है और बहुमत के आधार पर चुनाव किया जाता है। लेकिन बहुमत अर्थात प्रजातांत्रिक व्यवस्था, और फिर इसके आते ही उसकी कमजोरियां और राजनीति के विभिन्न पहलू और हथकंडे दिखाई देने लगते हैं। बाजारवाद के वर्तमान युग में जब सब कुछ पैसा और लोकप्रियता हो चुकी है। और उसे प्राप्त करने के लिए 'कुछ भी करेगा' का सिद्धांत चल निकला है, ऐसे में हालात बद से बदतर हुए हैं। कहीं-कहीं पर तो स्थिति हिंसात्मक भी हो जाती है। कार्यक्रम का बहिष्कार करना, पेपरबाजी और कंप्लेंटबाजी तो अब आम हो चुकी है। शासकीय पुरस्कार भी अब कम विवादास्पद नहीं। फिर चाहे वो वार्ड के स्तर का हो या राज्य व राष्ट्रीय स्तर का। प्राइवेट संस्थानों में तो खुलेआम पैसा देकर पुरस्कार प्राप्त करने की बातें आम सुनाई देती हैं। यह भयावह तथ्य किसी एक क्षेत्र के लिए नहीं बल्कि सभी जगह के लिए सत्य है। स्थिति इतनी बिगड़ चुकी है कि अब तो कुछ समझदार एवं शांतिप्रिय व्यक्ति पुरस्कारों से बचने लगे हैं, कुछ एक को यह अब आफत लगता है तो गिने-चुने ही सही मगर महान व्यक्तियों द्वारा पुरस्कारों को सादर मना करने की प्रथा प्रारंभ हो चुकी है। यह सत्य है कि प्रतिभाओं को पुरस्कारों की आवश्यकता नहीं होती। और सच तो यह भी है कि लोकप्रियता के लिए भी पुरस्कार नहीं चाहिए। बुद्धिजीवियों के क्षेत्र लेखन व साहित्य की स्थिति भी भिन्न नहीं। क्या चेखव से लेकर टॉलस्टॉय तक को इतना अधिक पढ़े जाने के लिए कोई पुरस्कार माध्यम बना था? नहीं। प्रेमचंद को गांव-गांव पहुंचने के लिए क्या किसी पुरस्कार की आवश्यकता पड़ी थी? याद नहीं पड़ता। तुलसीदास की महान रचना को घर-घर पहुंचने के लिए किसी ने नहीं कहा था। कालीदास से लेकर बिहारी और रहीम से कबीर के दोहों को अपनी लोकप्रियता प्राप्त करने के लिए, जन-जन के द्वारा गुनगुनाने के लिए किसी पुरस्कार की आवश्यकता नहीं पड़ी। ऐसे सैकड़ों उदाहरण हर क्षेत्र में मिल जायेंगे, जिन्हें पुरस्कार शायद न मिले हों, लेकिन वे सर्वकालीन और विश्वविख्यात हैं। दिलीप कुमार और देव आनंद अपने जमाने में आज के हीरो से अधिक लोकप्रिय थे, जबकि उन दिनों न तो इतने पुरस्कार थे, न ही मीडिया की अति सक्रियता। कई सामान्य प्रतिभाएं 'मीडियोकर' धांधली व जुगाड़ से पुरस्कार प्राप्त कर लेती हैं लेकिन फिर हंसी का पात्र भी बनती हैं। पुरस्कारों में घपलेबाजी प्रारंभ से है। राजा-रजवाड़े अपने खास लोगों को, अपने दरबारियों को, चमचागिरी करने के लिए उपकृत करते रहते थे। लेकिन फिर गालिब किसी के न चाहते हुए भी आज भी याद किये जाते हैं जबकि बाबर से लेकर औरंगजेब तक के मुगलिया शासनकाल में दरबारी कवियों-शायरों का नाम जानने के लिए रुककर सोचना पड़ता है। दुष्यंत कुमार ने कभी तत्कालीन शासन की कट्टरता को स्वीकार नहीं किया मगर संसद के हर सत्र में उनके शब्द आज भी गूंजते हैं। जबकि उसी दौरान लिखे नये सरकार की वाहवाही में लिखे गए गीतों का अतापता नहीं। विगत सप्ताह नोबल पुरस्कार फिर एक बार चर्चा में थे। समय-समय पर उन पर आरोप-प्रत्यारोप तो प्रारंभ से लगते रहे हैं। यह प्रमाणित तो नहीं मगर व्यवहारिक सच है कि पश्चिमी सभ्यता और अंग्रेजी साम्राज्य ने इनकी लोकप्रियता, प्रतिष्ठा और परंपरा को बहुत हद तक बरकरार रखने में हरसंभव मदद की है। लेकिन साथ ही इस इल्जाम को भी सिरे से नहीं झुठलाया जा सकता कि यह यूरोप केंद्रित और राजनीति से प्रभावित रहा है। फिर सच को प्रमाण की क्या आवश्यकता। किसींजर से लेकर बराक ओबामा तक विभिन्न अमेरिकी राजनायिकों को दिये जाने वाले नोबल शांति पुरस्कार अपने-अपने समय में विवाद से लेकर आलोचना के शिकार होते रहे हैं। किसींजर के समय तो उनके साथ पुरस्कार प्राप्त करने वाले वियतनामी सहभागी ले थो ने तो पुरस्कार लेने से ही साफ-साफ मना कर दिया था। और यह कहने से भी नहीं चूके थे कि उनके देश वियतनाम में कोई शांति स्थापित नहीं हुई थी। फिलीस्तीन-इस्राइल मुद्दे पर यासर अराफात, शिमोन पेरिस और रेबिन को दिया गया 1994 का शांति पुरस्कार सदैव प्रश्नों से घिरा रहा कि क्या फिलीस्तीन इस्राइल समस्या का समाधान वास्तव में किया गया था? इन सब विवादों को मीडिया में अधिक हवा तब मिली जब नोबल कमेटी के सदस्यों ने त्यागपत्र और अपने स्वतंत्र वक्तव्य देने शुरू किए। मुश्किलें तो नोबल शांति की उस वक्त सर्वाधिक बढ़ चुकी थी जब हिन्दुस्तान के गांधी को विश्व का शांति पुरस्कार नहीं दिया गया। साहित्य के नोबल पर तो सदैव ही प्रश्नचिह्न लगता रहा। यह सर्वाधिक यूरोप में बांटा जाता रहा। विज्ञान की एक बार बात मान भी लें कि पश्चिम में आविष्कार अधिक हुए मगर साहित्य तो विश्व के हर कोने में सदियों से रचा जा रहा है। यही नहीं यूरोप के भीतर भी साहित्य का नोबल निर्विवाद न रह सका। लोकप्रिय प्रतिभाएं नकारी जाती रहीं। स्टीफन स्वाइग जैसे जर्मन यहूदी लेखक जो हिटलर के सामने भी मुखर लेखन करते रहे, कभी भी नोबल के नजदीक नहीं आ पाये जबकि फ्रांस के एनाटोले फ्रांस, जिनकी सामान्य नजर आने वाली रचनाएं जो आज भी अन्य की तुलना में कम प्र्रभावित करती हैं, नोबल प्राप्त करने में सफल रहे। क्या सिर्फ इसलिए कि वो एक सफल प्रकाशक व पुस्तक विक्रेता के परिवार से संबंधित थे? बहरहाल, इस बार का साहित्य का पुरस्कार लेटिन अमेरिका में पेरु मूल के लेखक मारियो लोसा को देकर नोबल ने स्वयं को यूरोप केद्रिंत होने से बचा तो लिया लेकिन शांति पुरस्कार चीन के मानवतावादी नेता लू श्याबाओ को देकर एक नया अध्याय खोल दिया। इसमें कोई शक नहीं कि लू मानव अधिकार के लिए लड़ने वाले अहिंसा के पुजारी हैं। उनमें संवेदनशील लेखक और जिम्मेदार अध्यापक के गुण हैं। वे प्रजातांत्रिक मूल्यों के समर्थक और उदारवादी हैं। उनके विचारों को मानने वाले चीन में भी हजारों की तादाद में है। मगर यह भी सच है कि वो अपने ही राष्ट्र्र की शासन व्यवस्था के द्वारा आरोपित ही नहीं जेल में भी बंद हैं। यह चीन की अपनी आंतरिक राजनैतिक व्यवस्थाएं और उससे उत्पन्न समस्याएं और विकृत्तियां हो सकती हैं। लेकिन फिर यह नहीं भूला जाना चाहिए कि चीन एक स्वतंत्र राष्ट्र है। क्या इसे किसी अन्य राष्ट्र के अंदर दखल के रूप में नहीं देखा जाना चाहिए? क्या इससे उस राष्ट्र की शांति व्यवस्था में असर नहीं पड़ेगा? ऐसे कुछ सवाल है जिसका जवाब भावनाओं से नहीं दिया जा सकता। इस प्रकरण को तिब्बत के धार्मिक गुरु दलाई लामा व बर्मा की राजनीतिक शक्ति आंग सान सू की को मिले नोबल शांति से भी जोड़कर नहीं देखा जाना चाहिए। चूंकि इनके क्षेत्रों में संघर्ष और विवाद के कई पक्ष तथा बाहरी शक्तियों के हस्तक्षेप की कई कहानियां हैं। यह भी व्यवहारिक सच है कि पुरस्कार देने से पूर्व संबंधित राष्ट्र से पूर्वानुमति लेने की प्रक्रिया डालते ही इसका पूरी तरह राजनीतिकरण हो जाएगा। लेकिन राजनैतिक विवादों से बचने के रास्ते ढूंढ़े जा सकते हैं। और फिर प्रजातांत्रिक मूल्यों की बात करने वालों को तो इसका विशेष मान रखना होगा। आज भी विश्व में अनेक राजनैतिक विचारधाराएं और शासन पद्धतियां हैं। सबकी अपनी विशेषताएं और खामियां हैं। प्रजातंत्र को भी शत-प्रतिशत दोषमुक्त शासन व्यवस्था नहीं कहा जा सकता, न ही अन्य के बारे में टीका-टिप्पणी करने का उसे अधिकार प्राप्त होना चाहिए। ऐसे में नार्वे और स्वीडन में एक खोजी व्यवसायी नोबल के द्वारा स्थापित नोबल प्राइज किस हद तक विश्वस्तरीय हो पाया है, यह परंपरा और पहचान की हद तक तो ठीक है। लेकिन सवाल उठता है कि विश्व के सभी राष्ट्रों के द्वारा क्या यह पूरी तरह स्वीकार्य है? नहीं। क्या यह शत-प्रतिशत पारदर्शी हैं? नहीं। चूंकि पश्चिम ने विश्व के कई हिस्सों पर लंबे समय तक शासन किया है, इसलिए आज भी हर क्षेत्र में उसका असर यहां पर दिखाई देता है। पश्चिमी प्रभुत्व वाले अंग्रेजी मीडिया पर भी इसका प्रभाव है। ऐसी परिस्थिति में इस तरह के प्रयोग, जिसे एकतरफा करार दिया जा सकता है एक नयी मुश्किल विश्व स्तर पर पैदा करने के लिए काफी हो सकती है। सवाल यहां आकर रुक जाता है कि क्या किसी अन्य राष्ट्र और उनके समूह द्वारा अमेरिका में किया गया इसी तरह का प्रयास सराहा जाएगा? 'पुरस्कारों में राजनीति' से लेकर 'पुरस्कारों की राजनीति' तक तो समाज झेल रहा है मगर 'पुरस्कारों से राजनीति' के दूरगामी परिणाम होंगे। मनोज सिंह E-mail: manoj@manojsingh.com Mobile 9417220057
पुरूस्कारों को विवादित होना कोई नई बात नहीं रही है. हमेशा ही सिक्के के दो पहलू रहे हैं.
जवाब देंहटाएंबेहतरीन अभिव्यक्ति !
जवाब देंहटाएंविजयादशमी की बहुत बहुत बधाई !!
विस्तृत और जानकारी भरा आलेख .पुरस्कारों में ये सब तो हमेशा ही बना रहा है .
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