विगत सप्ताह हिन्दुस्तान पूर्णतः ओबामामय था। राजनीतिक गलियारों से लेकर व्यावसायिक घराने, मीडिया, यहां तक कि भारतीय मशहूर हस्तियां भी ओबामा दं...
विगत सप्ताह हिन्दुस्तान पूर्णतः ओबामामय था। राजनीतिक गलियारों से लेकर व्यावसायिक घराने, मीडिया, यहां तक कि भारतीय मशहूर हस्तियां भी ओबामा दंपति के रंग में रंग कर उनके साथ कदमताल करती हुई प्रतीत हो रही थीं। हिन्दुस्तानी अवाम यह सब देखकर, पहले तो भौचक्का हुआ फिर हमेशा की तरह प्रभाव में बहता नजर आया। और जाते-जाते ओबामा की लोकप्रियता भारत में एक बार फिर शिखर पर थी। ऐसा ही कुछ-कुछ अमेरिका में भी हुआ था। सिर्फ दो साल पुरानी घटना है। जब बराक ओबामा अपनी लोकप्रियता की आंधी में संवार होकर सर्वोच्च सिंहासन पर जाकर विराजमान हुए थे। इसके पूर्व, अमेरिकी राष्ट्रपति का चुनाव, विश्वस्तरीय खबर तो बनती थी, मगर ऐसा पहली बार हुआ था जब गैर-अमेरिकी आमजन ने इससे अपने आप को सीधे-सीधे जोड़ लिया। यह एक तरह का जाने-अनजाने ही भावनात्मक मामला बन गया था। अधिकांश बुद्धिजीवी भी बहुत हद तक प्रभावित थे। विश्व की तथाकथित महाशक्ति और पश्चिमी गोरो की वर्चस्व वाली रंगीन आधुनिक दुनिया के शीर्ष पर एक अश्वेत का पहुंचना, वास्तव में एक ऐतिहासिक घटनाक्रम और रोमांचक अविश्वसनीय घटना थी। ठीक उसी तरह जिस तरह आज यह यकीन करना मुश्किल होता है कि अमेरिका जैसे देश में अश्वेत दासों की गुलामी पिछली सदी के मध्य तक मौजूद थी। बीसवीं शताब्दी में क्या कोई विश्वास कर सकता था कि इतनी जल्दी कोई अश्वेत आकर सत्ता संभालेगा? सब कुछ इतनी तेजी से घटित हो रहा था कि जो फिर किसी के रुके रुक भी नहीं पा रहा था। तभी तो हिलेरी क्लिंटन जैसी विलक्षण और विदुषी महिला को, जिसके साथ बिल क्लिंटन जैसा चमत्कारी और नामी व्यक्ति भी उन्हें राष्ट्रपति के प्रत्याशी पद की दौड़ में पीछे हटने से रोक नहीं पाया। यहां किसी महिला की प्रथम सशक्त दावेदारी तक को अश्वेत के सदियों के दर्द की दास्तां ने झुकने के लिए मजबूर कर दिया था। यह सच्ची मानवता की दिल से पुकार थी जो अपने अतीत के कलंक को जल्द से जल्द धो देना चाहती थी। यह परिवर्तन की आंधी थी जो अमेरिका ही नहीं विश्व जनमानस के दिलोदिमाग पर छा गयी थी। उस पर से बराक का नारा 'हां हम कर सकते हैं' युवा ही नहीं हर वर्ग-उम्र-नस्ल-रंग की रगों में जोश भर देने के लिए काफी था। अमेरिका में बदलाव की आश्यकता तीव्रता से महसूस की जा रही थी और आमजन शासन की चुहलबाजी से तंग आ चुका था। वे शासक की बयानबाजी को और बर्दाश्त करने के मूड में नहीं था। तभी तो बराक ओबामा के एकमात्र शब्द 'चेंज' ने सारे पूर्वानुमान को झुठलाते हुए, ग्राफ के तमाम गणित की तीव्रता के रिकार्ड को तोड़ते हुए शून्य से शीर्ष पर पहुंचा दिया। अवाम ओबामा में अपना प्रतिबिंब और प्रतिनिधित्व दोनों देखने लगा था। एक आम आदमी लोगों की भीड़ में से निकलकर आगे बढ़ता प्रतीत होता था। तमाम घटनाक्रम कुछ-कुछ हिन्दुस्तान की राजनीति में दलित नेतृत्व के उदय की तरह था। मगर आज वही बराक ओबामा अमेरिका में अपनी लोकप्रियता के गिरते ग्राफ से संघर्ष करते प्रतीत होते हैं। डेमोक्रेट्स के प्रतिनिधि प्रत्याशी, अमेरिकी आंतरिक राजनीति में कई मोर्चे पर हार रहे हैं। बराक ओबामा की वाक्पटुता व व्यक्तित्व का जादू अब चल नहीं पा रहा। उनके नारे अब भीड़ को जुनून में बदलने से पहले ही दम तोड़ते से प्रतीत होते हैं। ओबामा स्वयं भी अचंभित होंगे। रातोंरात चढ़ाव और फिर अचानक उतार, मीडिया द्वारा बुना हुआ संसार नहीं, बल्कि धरातल की वास्तविकता है, जो अमेरिका की धरती पर घटित हो रहा है। असल में बराक ओबामा की ताजपोशी अमेरिकी जनता के दिल का मामला जरूर बना, मगर यह उसका स्वाभाविक गुण नहीं। अमेरिकी नागरिक व्यवहारिक अधिक हैं। और बुद्धि के सक्रिय होते ही उसने हकीकत से सवाल-जवाब शुरू कर दिए। अमूमन मनुष्य को सपने देखना पसंद है और वह सपनों की दुनिया से सम्मोहित हो जाता है। लेकिन नींद से जागते ही वास्तविकता से वास्ता पड़ने पर व्यथित भी हो जाता है। अमेरिका जितना जल्दी सपनों में जाता है उतना ही जल्दी उसे पाना भी चाहता है। वह दिल की जगह दिमाग से अधिक काम लेता है। सच तो यह भी है कि बराक ओबामा सत्ता में आने के बाद कोई खास अपेक्षित परिवर्तन नहीं ला पाये, सिर्फ इसके कि व्हाइट हाउस में एक काला राष्ट्रपति विराजमान है। मगर आम अमेरिकी भारतीय जनमानस से भिन्न है। वो पश्चिमी सभ्यता और आधुनिक संस्कृति का प्रतीक है। उसके साथ बहुत दिनों तक दिल से नहीं खेला जा सकता। ओबामा का व्हाइट हाउस पहुंचना तो ठीक था मगर बस इतने से ही वह संतुष्ट नहीं। वो इसके आगे जाना चाहता है। वो प्रतिक्रियात्मकं है। आज अमेरिका अर्थव्यवस्था से जूझ रहा है। वह इराक और अफगानिस्तान से पूरी तरह निपटकर निकल नहीं पाया है। अमेरिकी आमजन आज की युवा पीढ़ी का प्रतिनिधित्व करता है, जिसकी इच्छाएं असीिमत हैं, जो जल्दी में सब कुछ पाना चाहता है। ऊपर से मंदी का दौर खत्म होने का नाम नहीं ले रहा। अर्थात अमेरिकी वोटर की अपेक्षा पूरी नहीं हो पायी। ऐसे में, बराक ओबामा की लोकप्रियता के साथ जो कुछ हुआ वो तो होना थी था। इस तरह की लोकप्रियता मुट्ठी में रेत की तरह है जिसे सत्ता के गलियारे में बैठकर बहुत देर तक बंद हाथों में संभाले रखना मुश्किल है। सामाजिक व्यवस्था में एक हद से अधिक सबकी अपेक्षाएं और इच्छाएं कभी भी पूरी नहीं की जा सकती। प्रकृति भी जरूरी आवश्यकताओं को ही पूरा करती है। लालच का उसके पास भी कोई इलाज नहीं। चाहे फिर जो हो जाए। इस सर्वविदित सत्य के बावजूद बराक ओबामा ने वो सपने दिखाए थे जो समुद्र किनारे बने रेत के महल की तरह थे। जो कि एक भी लहर नहीं झेल पाते। बराक ओबामा की कई चुनावी बातें महज आदर्शवादी कथन थीं जो अमेरिकी जीवनशैली से मेल नहीं खाती। बराक के वचन और अमेरिका के सिद्धांत में मूल रूप से अंतर्विरोध हैं। सच तो यह है कि दूसरे के घर में दखलंदाजी किए बिना आप विश्व नेतृत्व की कुर्सी पर कब्जा कैसे बरकरार रख सकते हो? अगर युद्ध नहीं होंगे तो युद्ध का साजो-सामान कैसे बिकेगा? आदि-आदि। बस यहीं ओबामा चक्रव्यूह में फंस गए। प्रजातांत्रिक व्यवस्था में वैसे भी एक शासक से अकेले अमूमन कुछ खास नहीं बदलता। अब्राहम लिंकन को भी मूल्य चुकाना पड़ा था। शासक को तो हर बार शब्दों के साथ खेलने की चमत्कारिक शक्ति आनी चाहिए। लेकिन फिर बड़े-बड़े सब्जबाग दिखाकर कोई शासक लंबे समय तक टिक भी नहीं सकता। और फिर आप प्रभावशाली ढंग से बोलकर अच्छे वक्ता तो बन सकते हैं मगर लोकप्रिय शासन भी कर सके, जरूरी नहीं। एक साधु अच्छा शासक बन सकता है। मगर उसे अपनी साधना छोड़ शासक बनना होगा। यह व्यवहारिक सत्य है कि शासक साधु नहीं हो सकता। आखिरकार सभी को खुश नहीं किया जा सकता। कुछ कठोर और कड़वे सच को स्वीकार करना पड़ता है। और फिर व्यवस्था चलाने के लिए दर्शनशास्त्र नहीं कर्म-शास्त्र पर ध्यान केंद्रित करना होता है। बराक ओबामा को गांधी और किंग बहुत भाते हैं। और वे उन्हें याद भी करते रहते हैं। मगर वे भूल जाते हैं कि ये शासक नहीं थे। वे चाहे उन्हें जो नाम दे दें मगर ये महान पुरुष सत्ता की किसी कुर्सी पर विराजमान नहीं थे। और यही उनकी सबसे बड़ी शक्ति थी। वे जनता के लिए शासन का विरोध कर सकते थे, मांग कर सकते थे, असहयोग कर सकते थे, आंदोलन कर सकते थे। मगर क्रांतियां परिवर्तन की वाहक तो बन सकती हैं मगर स्वयं से सृजन नहीं करतीं। उन्हें किसी उत्पादन का लक्ष्य समय पर नहीं पूरा करना होता। भूख और गरीबी के लिए लड़ तो सकती हैं मगर उसे मिटा नहीं सकती। सत्ता के साथ अपेक्षाएं जुड़ जाती हैं और उसके लिए व्यवस्था को क्रियाशील करना होता है। जबकि शासन-तंत्र स्वयं के भार से निष्क्रिय और जटिल होता है। शीर्ष के बदल जाने से कई बार कवर पेज तो बदल जाता है मगर अंदर के शब्द वहीं जमा होते हैं। लोकप्रियता लोकलुभावन मखमली घास पर चलती है जबकि सुशासन जमीन की कठोर सत्यता है।
बराक बुद्धिमान हैं वे अपनी लोकप्रियता के गिरने के मामूली मगर प्रमुख कारणों को जानते हैं। तभी तो उन्होंने भारत से एशिया की यात्रा प्रारंभ की। आज यह दुनिया का सबसे बड़ा बाजार है। ऊपर से आम हिन्दुस्तानी सहिष्णु, संयमी और सरल स्वभाव का धनी भी है। वो चंद प्यारे भरे शब्दों और मेहमान की सहजता मात्र से मोहित हो सकता है। आसानी से सम्मोहित हो जाता है और सब कुछ दे भी सकता है। विदेशी मेहमानों का हिन्दुस्तान आने का लंबा इतिहास है। सब कुछ जानते-समझते भी न समझने का हमारा अपना जीवन-दर्शन है। और हम इस कमजोरी के साथ पूरी शान से आज भी खड़े हैं। तभी तो होटल ताज में रुककर, हुमायूं के मकबरे में जाकर, गांधी, विवेकानंद, टैगोर और अंबेडकर का मात्र नाम लेकर ओबामा ने हमें प्रेम से अपने में समेट लिया। हम उनकी बातों से कुछ यूं वशीभूत हुए कि अपनी संस्कृति भूल पश्चिमी सभ्यता में आगमन की औपचारिकता प्रचारित करने लगे। और कुछ हो न हो मगर यह सत्य है कि 'जय हिन्द' बोलने मात्र से बराक ने आम भारतीय के दिल में जगह बना ली। आखिरकार अतिथि देवो भवः का भाव हमने एक बार फिर चरितार्थ किया। बाकी रही अपनी बात तो हम हर हाल में खुश हैं। यह भी तो हमारा गुण है जो हमारी संस्कृति बहुल सभ्यता में स्वभाव बन चुका है।
यह लेख मनोज सिंह द्वारा लिखा गया है जो कि वर्तमान में उपमहानिदेशक (डिप्टी डायरेक्टर जनरल) विजीलेंस एवं टेलीकॉम मॉनिटरिंग, पंजाब व चंडीगढ़ के प्रमुख के पद पर कार्यरत हैं। आप एक उपन्यासकार, स्तंभकार, कवि, कहानीकार आदि के रूप में प्रसिद्ध है।
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