कई वरिष्ठ अधिकारियों व महत्वपूर्ण व्यक्तियों के घर , दीवाली-नये साल आदि के मौकों पर , मेहमानों का तांता लगते हुए देखा-सुना है। अधिकांश के हा...
कई वरिष्ठ अधिकारियों व महत्वपूर्ण व्यक्तियों के घर, दीवाली-नये साल आदि के मौकों पर, मेहमानों का तांता लगते हुए देखा-सुना है। अधिकांश के हाथों में रंग-बिरंगे आकर्षक चमकीले कागजों में लिपटे छोटे-बड़े डिब्बे होते हैं। बिना सच जाने किसी पर शक करना उचित नहीं। लेकिन यह तो कम से कम माना ही जा सकता है कि उसमें से अधिकांश में सूखे मेवे होते होंगे। मिठाइयों के दिन तो अब तकरीबन लद गए। हां, आधुनिक बाजार ने चॉकलेट-बिस्किट और बेकरी का मार्केट जरूर गर्म किया हुआ है। बहरहाल, मुझे इस बात को जानने की हमेशा से कौतूहलता रही है कि इन घरों में आने वाले अनगिनत डिब्बों से निकलने वाली कई किलो सूखे मेवों का क्या किया जाता है? इसे शुद्ध भ्रष्टाचार में न गिनते हुए त्योहार में मिलने-मिलाने और मिठाई खाने-खिलाने की परंपरा से जोड़कर देखा जा सकता है। यह दीगर बात है कि पारंपरिक रूप से घर के बने पकवान आपस में मिल-बांटकर खाने का प्रचलन था जो कालांतर में यहां जा पहुंचा। वैसे, इसे खाकर खत्म करने (आधुनिक युग के पेट) का सामर्थ्य नहीं। ऊपर से आजकल के छोटे से परिवार में तो यह बिल्कुल संभव नहीं। और कई बार अगला साल आते-आते तक यह खाने लायक नहीं रह जाते होंगे। जमींदारों-राजाओं, जहां से यह प्रथा प्रारंभ हुई थी, कि तरह नौकरों-चाकरों की फौज भी आजकल घरों में नहीं रही, जो इसे खाकर मस्त रहे। अब इन्हें गरीबों में बांटते भी अजीब लगेगा। कहां उन्हें रोटी की जरूरत है और हम काजू-किशमिश देने चले। व्यक्तिगत रूप से मुझे मेहमानों के हाथों फूल-फल का लेना-देना अच्छा लगता है। वैसे मैं दूसरों को अपनी लिखी किताबें देना ही पसंद करता हूं। और साथ ही यह कहने से भी नहीं चूकता कि कृपया इसे फेंकना मत। हां, तो हम बात कर रहे थे कि सवाल उठता है कि महत्वपूर्ण व्यक्ति इन मुफ्त के सूखे मेवों का क्या करते होंगे? क्या वे उसे नाली में फेंकते हैं? अब किसी दुकान को तो बेच नहीं सकते और खुद दुकान लगा नहीं सकते। यही कारण है जो मुझे आज इस परंपरा का औचित्य समझ नहीं आता। वो तमाम चीजें जिसकी दैनिक जीवन में जरूरत नहीं या किसी काम की नहीं, व्यर्थ हैं और उससे बचने की कोशिश की जा सकती है। यह इकट्ठा किया हुआ अतिरिक्त अनुपयोगी सामान, फिर चाहे वो पैसा, कपड़ा, गाड़ी और मकान आदि कुछ भी हो सकता है, अगर इनका उपयोग नहीं किया जा पा रहा तो यह कचरा है, जो अनावश्यक जगह घेरता है। जीवन में भी और घर में भी। और सिर पर बोझ लगता है। संक्षिप्त में कहें तो सारा मुद्दा जरूरत पर केंद्रित है।
अगला सवाल उठ सकता है कि क्या मिलने वाली तनख्वाह से उसकी जरूरतें पूरी नहीं हो पाती थीं? जबकि अभी-अभी वेतन में वृद्धि हुई है। क्या वह अपने जीवन से संतुष्ट नहीं था? शायद। और वह उजले भविष्य का इंतजार नहीं कर पाया। सच तो है, आधुनिक युग आज में जीना सिखाता है और उसे चारों ओर कृत्रिम चकाचौंध दिख रही होगी। कहीं वो भी इसे अपनी चाहत तो नहीं बना बैठा? बाजार में बिखरी रंगीनियां उसे ललचा रही होंगी और वह शायद इससे आकर्षित हुआ लगता है।
जीवन में प्राकृतिक जरूरतें सीमित हैं लेकिन मानवीय इच्छाओं का कोई अंत नहीं। भौतिक जरूरतों को हम जितना बढ़ा लें, कम है। क्या हम तीन वक्त से ज्यादा खाना खा सकते हैं? आधुनिकतम जीवनशैली में भी, पहलवान का शरीर होने पर भी खाने के कितने भी शौकीन हों मगर कुछ सैकड़ों रुपयों के अतिरिक्त खर्च नहीं हो सकता। प्रतिदिन फाइव स्टार में खाने वालों को भी अंत में घर का खाना चाहिए। सिर व शरीर छिपाने के लिए एक समय में एक मकान की ही जरूरत होती है। वैसे दुनिया के दस शहरों में दस कोठियां बनाने का औचित्य समझ से बाहर है। कोई कह सकता है कि मकान को भव्य कोठी और ऑलीशान बनाने के लिए भरपूर धन चाहिए। अब ऐसे तो मकानों के ऊपर हेलीपेड और स्वीमिंग पुल भी होना चाहिए। क्या इसकी कोई सीमा है? यूं तो एक समय में एक ही गाड़ी पर बैठा जा सकता है। मगर वाहन के नाम पर महंगी-महंगी कार फिर हेलिकॉप्टर और फिर जेट की कल्पना करने में आज का बाजार प्रेरित भी करता है और इसे चलायमान रखने के लिए वर्तमान व्यवस्था ऐसी अर्थव्यवस्था को बढ़ावा भी दे रही है। तो फिर कौन और क्यूं रुकने लगा? बस यहीं से मुश्किल शुरू होती है। बाजार में बिक रहे सामान को देखकर मन ललचा जाता है। खाने के बर्तन मिट्टी से एल्युमीनियम और स्टील से चांदी और सोने जड़ित तक पहुंच जाते हैं। महंगे बार में शराब के नशे में मुर्गा खाकर गर्मी चढ़ जाने पर सुंदर और बार-बार ललचाते जिस्म और बाजार की बिकाऊ नजरें देखकर कोई कहे कि आप संतुलित रहें, थोड़ा बेमानी होगी। हमारी वर्तमान विश्व-व्यवस्था व्यक्ति को भ्रष्ट बना रही है। रेशम में अमीरों को पलता देख हरेक के मन की इच्छा जागृत हो जाती है। और फिर शुरू होता है इस चक्कर में पड़कर आंकड़ों के आगे जीरो लगाने का खेल। सैकड़ा, हजार, लाख, करोड़, अरब अर्थात एक जीरो कहां से कहां पहुंचा सकता है।
जीरो की हिन्दुस्तान में खोज हुई है। यह किसी भी नंबर के पहले जितना मर्जी लगा दिया जाये इसका कोई महत्व नहीं, लेकिन नंबरों के बाद लगते ही इसकी बाजार में कीमत बढ़ जाती है। और आदमी इस शून्य को अपने पीछे लगाने की जगह उसके पीछे लगकर स्वयं को जीरो कर लेता है। इसकी सबसे बड़ी मुश्किल यह है कि इसकी कोई सीमा नहीं। यह असंख्य संख्या तक बढ़ सकता है। अनगिनत की परिभाषा भी तो हमने ही गढ़ी है। मगर हम भूल जाते हैं कि जीवन सीमित है। हिन्दुस्तानी संस्कृति के पूर्वज मूर्ख नहीं थे। उन्होंने शून्य का आविष्कार बाजार की कीमत के लिए नहीं किया था। यह जीवन की शून्यता के लिए था। यह आकाश के अनंत विस्तार के लिए था। यह अस्तित्वहीनता के लिए था। इसमें अध्यात्म था। यह निराकार था। यह गोलाकार था। यह सर्वत्र विद्यमान था। यह वैचारिक कल्पना थी। जिसे हमने बड़ी आसानी से भुला दिया। और इस शून्य को एक सर्वाधिक बिकाऊ माल बना दिया।
मेरे मन में एक सवाल प्रारंभ से गूंजता रहा है कि आदमी पैसा कमाता क्यूं है? आज सभी पुराने मुनीम की तरह तिजोरी भरने में क्यूं लग गए? एक मजेदार किस्सा याद आता है। कुछ साल पूर्व की बात है, एक गंजा दोस्त था। उसने काफी इलाज कराया पर सिर पर बाल नहीं आ पाते थे। वह पैसे का इतना प्रेमी था कि हमेशा जोड़-तोड़ में लगा रहता। और इसके लिए कुछ भी करने को तैयार। मैं एक बार उससे भी यह सवाल पूछ बैठा कि तुम आखिरकार इन पैसों का करोगे क्या? वह अपनी ढेर सारी मुस्कुराहट के साथ बहुत कुछ कहने की कोशिश में दिखाई दिया। भविष्य, सुरक्षा, सुविधाओं व बच्चों की बात आदि-आदि। अंत में मजाक में मैं एक सवाल पूछ बैठा कि कल किसने देखा है मगर आज क्या तुम इन पैसों से अपने सिर के बाल उगा सकते हो? अगर नहीं तो सब कुछ व्यर्थ है। इस बात पर वह कुछ देर के लिए रुका था और फिर हम दोनों जाने-अनजाने ही हंस पड़े थे। बाद में मैं अपने से बात करने लगा था। शायद वो भी सोचने को मजबूर हुआ हो। बहरहाल, आधुनिक युग में पैसे के समर्थन में बहुत कुछ कहा जा सकता है। साधन, सहूलियत, समृद्धि व बुढ़ापे की योजना की बात की जा सकती हैं। मगर फिर भी ऐसा बहुत कुछ हो जाता है जिसकी हम कल्पना भी नहीं कर सकते। जीवन सदैव हमारे आगे शून्य के रूप में चलता रहता है। यह एक अजीब पहेली है। हम जितना अपने साथ शून्य को जोड़ने के लिए आगे बढ़ते चले जाते हैं उतना ही शून्य हमारे सामने आकर खड़ा हो जाता है और फिर हम उसे पकड़ने के लिए आगे बढ़ जाते हैं। यह एक परिस्थितिजन्य कुचक्र है जिससे निकल पाना मुश्किल हैं। इस चक्रव्यूह से मानसिक रोग हो जाता है। इस दौड़ में शामिल होने पर आप निकल नहीं सकते। रुकने पर रौंद दिये जाओगे। सुस्त होने पर धकिया दिये जाओगे और तेज दौड़ने पर हांफने लगोगे। सबसे महत्वपूर्ण बात तो यह है कि इस अंधी दौड़ से जो किनारा कर गया वही जीवन का सुख वास्तव में ले पाया है।
यह लेख मनोज सिंह द्वारा लिखा गया है.मनोजसिंह ,कवि ,कहानीकार ,उपन्यासकार एवं स्तंभकार के रूप में प्रसिद्ध है .आपकी'चंद्रिकोत्त्सव ,बंधन ,कशमकश और 'व्यक्तित्व का प्रभाव' आदि पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी है.
भ्रष्टाचार का रोग व्यवस्था की उपज -----
जवाब देंहटाएं----और व्यवस्था स्वयं मनुष्य ने बनाई, मनुष्य संचालित करता है, मनुष्य के लिये--अतः जब तक मनुष्य स्वयं को नहीं सुधारेगा, आचरणशील नहीं बनेगा --कुछ नहीं सुधरेगा...शून्य के पीछे भागना बन्द करें....अच्छा आलेख....
जैसे आजकल कुंजी से पढ़ाना आम बात है, भ्रष्टाचार भी ठीक वैसे ही है आज. भले ही कल तक कुंजी व ट्यूशन छुपाने वाली बातें थीं.
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