मनोज सिंह रजत-जयंती और स्वर्ण-जयंती का आयोजन। पच्चीस और पचास वर्ष। जीवन या संस्था, दोनों ही संदर्भ में, क्या वास्तव में महत्वपूर्ण हैं? अ...
मनोज सिंह |
रजत-जयंती और स्वर्ण-जयंती का आयोजन। पच्चीस और पचास वर्ष। जीवन या संस्था, दोनों ही संदर्भ में, क्या वास्तव में महत्वपूर्ण हैं? अगर हां तो कितना? लेकिन फिर यहां क्या दर्शाने की कोशिश होती है? यह क्या प्रमाणित करता है? जो बीत चुका, वो समृद्धिशाली के साथ लंबा भी था या फिर मन के किसी कोने में छिपी भविष्य के बेहतरी की कामना? बहरहाल, इसे धूमधाम से मनाने की प्रथा हर समाज और संस्कृति में अलग-अलग रूप में विद्यमान है। इसे एक किस्म का बे्रेकिंग सेलिब्रेशन माना जा सकता है। जहां पर रुककर, खड़े होकर, पीछे मुड़कर देखा जा सकता है, गर्व किया जा सकता है अपनी उपलब्धियों पर। वहीं साथ ही आगे बढ़कर आने वाले कल को देखने के लिए नयी ऊर्जा, नये सपने, नयी सोच के साथ चलने की कल्पना। यहां इसमें जोश व उत्साह को रिफिल करने की बात की जा सकती है। मगर यह कुछ सतही तर्क लगता है। ठीक उसी तरह से जिस तरह से मॉल संस्कृति को विकास मानकर भुखमरी खत्म हो जाने का तथाकथित बुद्धिजीवियों द्वारा ऐलान किया जाता है। असल में आदमी में अमर-रस चखने की लालसा आदिकाल से रही है। और यह धार्मिक कथाओं से लेकर लोकगीतों में भी किसी न किसी रूप में दिख जाती है। बात यहां आकर भी कहां रुकती है। वह हर पल ऐसे जीता है मानों सदियों के लिए जी रहा हो। स्मारक व चौराहों के नाम से लेकर अपने बुत को चबूतरों पर ऐसे स्थापित करता-करवाता है मानों उसने समय को गिरवी बना लिया हो। समय के रेतीले व्यवहार के विरोध में मनुष्य ने सदैव अट्टहास लगाने की कोशिश की है। विरक्ति भाव में देखें तो यह उसकी मूर्खता है। साहस और आगे बढ़ने की हिम्मत को आंके तो मनुष्य सब कुछ जानते हुए भी कभी रुका नहीं। मौत के अटल सत्य को मानते हुए भी हर पल भरपूर जीने की कोशिश, हर एक दिन को नवजीवन बना ले जाने का प्रयास, हर मोड़ पर जीवन में रस भर देने का प्रयत्न। वह जानता है कि उसके चारों ओर बहुत कुछ निरंतर घटित हो रहा है। सेकेंड, मिनट, घंटों, दिन, वर्षों और दशकों के साथ उसमें बहुत कुछ परिवर्तित हो जाता है। जिसे वो देख नहीं पाता। पकड़ नहीं पाता। जान भी जाता है तो शायद पहचानना नहीं चाहता। पहचानकर समझता भी है तो उसे एक पर्व में परिवर्तित कर देता है। शायद यह स्वर्ण-जयंती समारोह इसी काल्पनिक विजय के उन्माद को व्यवहारिक जीवन में स्थापित करने की एक मानवीय कोशिश है। वह अदृश्य समय के ऊपर अपने निशान छोड़ना चाहता है। शायद तभी मील के पत्थर के रूप में इन कीलों (दिनों) को रास्तों में ठोकता (ऐतिहासिक यादगार बनाता) जाता है। गफलत ही सही, एक बार फिर से नया जीवन जीने की आस तो दिखाता है। यह दर्शन-शास्त्रियों की जड़ और चेतना से संबंधित नहीं। यह जीवन को रंगों से भरकर मदमस्त कर देने वाली मानव की प्रवृत्ति का प्रतीक है। जिसमें हर दिन एक त्योहार है, और हर मौके पर जश्न मनाने का कोई न कोई बहाना। विगत दिवस अपने कॉलेज मौलाना आजाद नेशनल इंस्टिच्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी, भोपाल की स्वर्ण-जयंती समारोह में शामिल होने का सुअवसर मिला। कॉलेज के प्रांगण में ही भव्य आयोजन किया गया था। प्राचीन शासकीय शैक्षणिक संस्थानों के पास लंबी-चौड़ी जमीन होती है। चारों ओर दूर-दूर तक फैली घास के साथ वीरानगी। शांत वातावरण, पढ़ने के लिए उपयुक्त माना जाता। ऐसे में यह कार्यक्रम जंगल में मंगल के समान ही था। देश-विदेश से हजारों छात्र शामिल हुए थे। उनमें कई अपने परिवार के साथ भी थे तो कुछ एक की तीन पीढ़ियां साथ थीं। हम में से भी कई ठीक पच्चीस वर्ष बाद मिल रहे थे। इसे इत्तफाक ही कहेंगे कि रजत जयंती समारोह के दौरान हम कॉलेज के छात्र हुआ करते थे और स्वर्ण-जयंती समारोह में खुद पूर्व छात्र बनकर उपस्थित थे। ढाई दशक मानवीय जीवन के लिए एक लंबा अरसा होता है। इस दौरान एक नयी पीढ़ी जन्म लेकर तैयार हो चुकी थी। प्रकृति हर जगह सतरंगी है। रहस्यपूर्ण। दोस्तों में भी कई विभिन्न क्षेत्रों की ऊंचाइयों को छू रहे थे तो कुछ जीवन से संघर्ष करते हुए प्रतीत हुए। किसी के चेहरे पर ललाई थी तो किसी के होंठ सूखे हुए थे। मगर समाज की अर्थशास्त्र के इस गड़बड़झाला के बावजूद जिस गर्मजोशी से सब मिले, काबिलेतारीफ बात थी। कुछ पल के लिए ही सही सब एक रंग में रंगे लग रहे थे। जात, धर्म और अर्थ एक बार फिर मौन थे। यह एक अद्भुत नजारा था। इसमें कोई शक नहीं कि सामाजिक जीवन और व्यवस्था बहुत जालिम है। लेकिन यह इस बात का प्रमाण था कि इससे भी पार पाया जा सकता है। कार्यक्रम में पहुंचते ही बूढ़े हो रहे पूर्व छात्रों में लड़कपन पुनर्जीवित हो रहा था तो न जाने कहां से बालपन अचानक जाग्रत हुआ। एक बार फिर अधिकांश लोग पुराने रंग-रूप में व्यवहार करने लग पड़े थे। मौसम देखकर रंग बदलने की बीमारी संक्रामक रोग की तरह फैल रही थी और हर एक से यही अपेक्षा भी थी। जीवन की गति कभी रुकती नहीं। समय के कालचक्र को बांधकर पीछे घुमाया भी नहीं जा सकता है। लेकिन इसे याद जरूर किया जा सकता है। और फिर याद करने के बहाने और तरीके कई हो सकते हैं। यही कारण है जो मेरे उपन्यास 'हॉस्टल के पन्नों से' का यहां लोकार्पण होना सभी के लिए एक सुखद अनुभव था। इस दौरान तकरीबन पचास बैच के सैकड़ों छात्रों के बीच में उन्हीं से संदर्भित, उन्हीं के लिए, उन्हीं की यादें, ताजा हो रही थीं। भूतकाल को पृष्ठभूमि से उठाकर वर्तमान में सामने ला खड़ा करने में सफल होता देख मुझे जिस सुख की अनुभूति हुई थी उसे मैं बयान नहीं कर सकता। यह मेरे लिए भी एक नया अनुभव था। कई बिंदु महत्वपूर्ण बन रहे थे। अमूमन कार्यक्रमों में स्थानीय गवर्नर मुख्य अतिथि के रूप में उपस्थित होते हैं। मगर यहां पर मध्य प्रदेश के साथ-साथ विशेष रूप से छत्तीसगढ के गवर्नर भी उपस्थित थे। यह यकीनन कुछ पूर्व छात्रों के विशेष प्रयास से ही संभव हुआ होगा। कालेज से निकलकर छात्रों का राजनीति में जाना आम बात है। लेकिन वे सक्रिय राजनीति में सफल भी रहें और फिर अपने ही संस्था में अतिथि बनकर आयें, यकीनन विशिष्ट होता है। यूं तो पूर्व छात्रों में कई शीर्ष नौकरशाह, टेक्नोक्रेट, वैज्ञानिक, उद्योगपति और अभिनेता भी थे। मगर प्राथमिकता सदा की तरह पैसे और पॉवर की ही दिखाई दे रही थी। बेटा अगर बड़ा हो जाए और कमाने लगे तो खुशी होती है। उसमें से कुछ अपने घर पर भी खर्च करे तो किसे बुरा लगेगा। और रकम आवश्यकता से अधिक हो तो बेटे की सफलता पर फख्र किया जा सकता है। कॉलेज के दो पूर्व छात्रों (उद्योगपतियों) ने एक-एक करोड़ रुपये संस्थान को दिये ताकि आने वाले समय में एक ओपन ऑडिटोरियम और एक अनुसंधान केंद्र की स्थापना की जा सके। ये दोनों मंच पर विशेष रूप से विराजमान थे। शायद यह देखकर इसके बाद तो मानो सहयोग राशि देने वालों की कतार लग गई थी। कुछ एक ने शिक्षा के क्षेत्र में उत्कृष्ट प्रदर्शन के लिए छात्रों के बीच नियमित रूप से गोल्ड मैडल बांटने की पेशकश भी की। यह सिलसिला शायद लंबा चलता मगर कॉलेज के डायरेक्टर ने इसे वहीं रोक दिया था। सच तो है, इंसान की दिखाने की फितरत कहां रुकती है। फिर चाहे वो घर हो या बाजार।
लेखक होने की हैसियत से मेरे लिए कई नये-नये अनुभव हो रहे थे। इसने कई चरित्रों से मुलाकात करवाई तो कई जीवन-चित्र खींच दिये। मुझे पढ़ाने वाले अधिकांश प्रोफेसर सेवानिवृत्त हो चुके थे। हां, महत्वपूर्ण बात हुई कि उनमें से एक वर्तमान में कालेज के डायरेक्टर पद पर सुशोभित थे। उनकी उपस्थिति यादों को ताजा करने में सहायक सिद्ध हो रही थी। इतने सारे महानुभावों के साथ-साथ, भव्य कार्यक्रम व विशाल आयोजन के बीच किसी पुस्तक का लोकार्पण किसी भी लेखक में ऊर्जा भरने के लिए काफी होता है। और फिर जब उपन्यास का विषय सामने बैठी दर्शकदीर्घा के युवा काल से संदर्भित और संबंधित हो, तो यह मसालेदार और रोचक हो सकता है। सभी अपने चरित्र को उपन्यास में ढूंढ़ने के लिए लालायित थे। कुछ आशंकित थे तो कुछ विश्वस्त, अपने किरदार की भूमिका को लेकर। बात पत्नी और बच्चों के सामने पोल खुलने की भी थी। बहरहाल, यह दो पीढ़ी के छात्रों की कहानी है। जिसमें पुरानी पीढ़ी के अनुभव, उनके प्रयोग, नये पीढ़ी को आगे बढ़ने के लिए न केवल प्रेरित करते हैं बल्कि सही रास्ता भी दिखाते हैं। यह एक किस्म से पुराने दिनों में लौटने के समान है। और हर एक पूर्व छात्र उपन्यास के कथासूत्र से अपने आप को जोड़ सकता है। देश-विदेश से आये हुए छात्रों के बीच में बाद में यह चर्चा का विषय अधिक बना। मैं उपन्यास को लेकर होने वाली निरंतर बहस व तर्क-वितर्क से स्वयं को जीवंत महसूस कर रहा हूं। यह मेरे लिये विशिष्ट है। यूं तो कथानक पूर्णतः काल्पनिक है मगर कल्पनाएं भी तो यथार्थ से ही जन्म लेती हैं। अपने ही जीवन के घटनाक्रम को पहले दर्शक बनकर देखना फिर विश्लेषित कर कुछ नया सृजन करना, मुश्किल मगर मजेदार काम होता है। हां, स्वयं को सही ठहराने का खतरा बराबर बना रहता है। दोस्तों के चेहरे पर उभर रही शरारती मुस्कान को देख-देखकर मैं भी अंदर से मदमस्त हूं। और स्वर्ण-जयंती के बाद की जीवन योजना को लेकर निष्फिक्र हूं।
यह लेख मनोज सिंह द्वारा लिखा गया है.मनोजसिंह ,कवि ,कहानीकार ,उपन्यासकार एवं स्तंभकार के रूप में प्रसिद्ध है .आपकी'चंद्रिकोत्त्सव ,बंधन ,कशमकश और 'व्यक्तित्व का प्रभाव' आदि पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी है.
बहुत रोचक लेख !
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