मनोज सिंह अपनी बाल्य अवस्था में मैं एक नैसर्गिक नर्तक था। घर-परिवार के सदस्यों के बीच बात-बात पर नाच दिखा देता। संगीत की धुन पर पैर अपने ...
मनोज सिंह |
अपनी बाल्य अवस्था में मैं एक नैसर्गिक नर्तक था। घर-परिवार के सदस्यों के बीच बात-बात पर नाच दिखा देता। संगीत की धुन पर पैर अपने आप थिरकने लगते। स्कूल-कॉलेज में स्टेज पर भी छिटफुट कार्यक्रम दिये। इनमें साथ कई बार लड़कियां भी होंती। वो मेरे शरीर की संगीतबद्ध थिरकन पर आश्चर्य करतीं और मैं उनमें से कइयों की सख्त लकड़ी की तरह बनी हुई शारीरिक संरचना पर हैरान होता। कन्याओं का शरीर लचीला होना चाहिए, ऐसी दिमाग में आम धारणा थी। मगर शनैः शनैः यह समझ में आ गया कि यह भी हर-एक शरीर का अपना-अपना प्राकृतिक गुण है। मैंने अपने इस प्राकृतिक गुण का दोहन करते हुए अपने नृत्य के शौक को दिशा व विस्तार देने के लिए भारतीय पारम्परिक नृत्य की विधिवत कक्षा में प्रवेश लिया। विशेष रूप से भरतनाटयम् एवं कत्थक में जोर-आजमायश की। मेरी ओर से प्रयास में कोई कमी न थी मगर एक सीमा के बाहर मैं इसमें सफल न हो सका। एक स्तर के ऊपर जाना संभव नहीं लगा। यह एक मुश्किल कार्य था। और मैं अपनी युवा अवस्था में एक स्ट्रीट डांसर ही बना रहा। अंत में मन ने यह स्वीकार कर लिया था कि हर एक को एक सुनिश्चित स्तर तक ही कला का नैसर्गिक गुण प्राप्त होता है। नियमित रियाज, अध्ययन व लगन के बावजूद एक सीमित स्तर तक ही इसे बेहतर व निखारा जा सकता है। अब हर कोई यामिनी, सोनल मानसिंह या बिरजू महाराज नहीं बन सकता। यह सत्य है। हिंदी सिनेमा तक में भी ऐसी मुश्किलें नायकों के बीच सदा रही है और शम्मी कपूर से लेकर जितेंद्र व मिथुन तथा वर्तमान के तथाकथित कई लोकप्रिय हीरो को भी स्ट्रीट डांसर ही कहा जाना चाहिए। कमल हसन जैसे कलाकार तो विरले होते हैं। बहरहाल, आज भी इतने वर्षों बाद संगीत की धुन पर पैर थिरकने लगते हैं। ऐसा अमूमन नृत्य जानने वाले हर एक के साथ होता है। आम नृत्य में आपके शरीर की हलचल व गति संगीत के साथ लयबद्ध होनी चाहिए फिर आप जैसे मर्जी डांस करें। बेशक आप बड़े कलाकार न सही लेकिन इस तरह से आप भीड़ में अपनी अलग पहचान आसानी से बना सकते हैं। यही कारण है कि बारात में नाचते-नाचते परिवार के कुछ खास सदस्य लोकप्रिय हो जाया करते हैं क्योंकि अमूमन लोगों को नाचना नहीं आता। और लोग जेब से रूमाल निकालकर उसे दोनों हाथों से पकड़कर किसी तरह से नाचने की खाना-पूर्ति करते हैं। या फिर भंगड़े के प्रारंभिक मूल-ताल को मात्र दिखाकर थोड़ी उछलकूद मचा लेते हैं। कई बार तो ये अपरिभाषित नाच हल्के-फुल्के हंसी-मजाक व मनोरंजन का कार्यक्रम अधिक बन जाते हैं। ठीक इसी तरह से महिला संगीत में भी मोहल्ले की कुछ खास महिलाएं नाचने-गाने में इस तरह से सक्रिय होती हैं कि उनकी हर जगह मांग होती है। फिर चाहे उनका फिल्मी नृत्य, किटी पार्टी से लेकर महिला-संगीत व बच्चे होने के कार्यक्रम तक में उपयोग किया जाए। इन महिलाओं के नृत्य अमूमन और भी मजेदार होते हैं। कमर मटकाने से लेकर घूंघट निकालकर चारों तरफ घूम जाना इनके लिए काफी होता है। बाजार के जबरदस्त प्रभाव में पश्चिमी नृत्य के व्यवसायिक प्रचार के बावजूद उपरोक्त दृश्य देशभर में आम देखे जा सकते हैं। नृत्य, शरीर का संगीत से संबंध जोड़ने की एक स्वाभाविक प्रक्रिया है। हाथ, पैर, मुख व शरीर संचालन का समन्वय। इस दौरान आपका तन उन्मुक्त हो जाता है। इसे करने के लिए शरीर का एक-एक अंग सक्रिय होता है। इसमें ऊर्जा का अच्छा-खासा व्यय होता है। और यह शरीर के सारे अस्थिपंजर को चलायमान अर्थात चुस्त-दुरुस्त रखने में सहायक भी है। यह भाव केंद्रित होते हैं। यही कारण है कि मन भटकने से बचता है। और कुछ देर नाचते रहने से आप धीरे-धीरे मन से भी नृत्य करने लगते हैं। अंत में नाच में डूब जाते हैं। जब तन और मन संगीत के लय पर एकसाथ झूमते हैं तो अलौकिक आनंद की प्राप्ति होती है। आत्मा का परमात्मा से मिलन इसी बिंदु पर संभव है। यह एक यौगिक क्रिया भी है। इसे योग साधना भी कह सकते हैं। यह तंदुरुस्त शरीर के साथ मन-मस्तिष्क को भी स्वस्थ रखता है। यह आदिकाल से मनोरंजन का एक प्रमुख स्रोत रहा है। धर्मग्रंथों तथा सामाजिक व ऐतिहासिक कहानियों में, नृत्य का महत्वपूर्ण स्थान रहा है। नृत्यशास्त्र को भारतीय प्राचीनकाल में नृत्यवेद के नाम से जाना जाता था और इसे पंचमवेद तक कहा गया। संसार की शायद ही कोई सभ्यता हो जहां की संस्कृति में विशिष्ट नृत्य की परंपरा न हो। इसके द्वारा वहां के स्थानीय लोगों की भावनाएं, जीवनशैली, पारिवारिक संरचना एवं अन्य बहुत सारे पक्ष और दृष्टिकोण देखे और समझे जा सकते हैं। यह इतना गहराई तक हमारी संस्कृति में रचा-बसा हुआ है कि प्राचीन धर्म व आदिकाल के ग्रंथों में ईश्वर को भी नृत्य करते दिखाया जाता रहा है। राजाओं-महाराजाओं की नृत्यशालाएं/रंगशालाएं तो हुआ करती थीं, नवाब अौर जागीरदारों के कोठों के किस्से भी कम मशहूर नहीं हैं। आज भी रईसों के प्राइवेट डांस रूम होते हैं। यह एक अपने आप में गहन चिंतन और विश्लेषण का विषय भी है जहां नाचने-गाने को भारतीय संस्कृति के एक दौर में टेढ़ी नजर से देखा जाता था। इन सबके बावजूद यह फलती-फूलती रही। यह एक ऐसी कला है जिसका कोई तोड़ नहीं। यह ईश्वर की ओर से मनुष्य को एक अनमोल भेंट है। इसके माध्यम से ईश्वर के विराटस्वरूप के भी दर्शन हो सकते हैं। नटराज नृत्य की ईश्वरीय परंपरा के रूप में उभरते हैं। हमारे धर्मशास्त्र में शिव के नृत्य की भी चर्चा है। तांडव नृत्य के द्वारा क्रोध का प्रदर्शन होता है। इसे सर्वनाश के रूप में जरूर प्रस्तुत किया जाता है मगर यह नहीं भूलना चाहिए कि विनाश के बाद ही सृजन की प्रक्रिया प्रारंभ होती है। नृत्य का आध्यात्मिक पक्ष बेजोड़ है। शायद ही ऐसी कोई दूसरी कला हो जो शरीर, मन, विचार, भाषा, संगीत एवं जीवनमूल्यों को एकसाथ पिरोकर वृहद् रूप में प्रस्तुत कर सके। यहां करुणा की उपस्थिति व दुःख का प्रदर्शन है तो उल्लास और मदमस्त कर देने वाली धड़कनों को प्रेम में परिवर्तित कर देने वाली बातें भी हैं। स्वर्गलोक तक इससे न बच सका और तमाम अप्सराएं नर्तकी के रूप में भी अपनी पहचान बनाती रही हैं। हिंदी सिनेजगत में भी उन नायिकाओं ने विशेष पहचान बनाई जो खूबसूरती और अदाकारी के साथ-साथ नृत्य में भी पारंगत है। नृत्य में कमजोर नायिकाएं इस कुंठा से यकीनन जलकर हरपल भुनती रहती होंगी। वैश्विक बाजार और पश्चिम के अंधानुकरण के बावजूद भारतीय नृत्य आज भी विश्वपटल पर एक अलग पहचान बनाए हुए है। भाषा, रहन-सहन, खान-पान, जातियां जितनी बड़ी संख्या में हमारे यहां हैं शायद और कहीं नहीं। ठीक उसी तरह से नृत्य भी असंख्य प्रकार के हैं। उत्तर भारत का कत्थक, तमिल का भरतनाटयम्, सुदूर केरल के साथ कत्थकली, मोहिनी अट्टम, उड़ीसा का ओडिसी, आंध्रप्रदेश का कुचीपुड़ी आदि-आदि तो पूर्वोत्तर क्षेत्र की मणिपुरी नृत्य की विशिष्ट परंपराएं हैं। हिमाचल की नाटी नृत्य हो या कश्मीर का पारंपरिक नृत्य, मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ में फैले आदिवासियों का स्थानीय नृत्य। हर एक निराली छटा बिखेरता है। कत्थकली में जहां कथा कहने की परंपरा है, इसे नृत्यनाटिका भी कह सकते हैं, वहीं भरतनाटयम् की नाटकशैली तो मन को मोह लेती है। कत्थक में तालबद्ध पदचाप और विहंगम चक्कर अद्भुत होते हैं। इसने अपने अंदर मुगलों के शाही प्रभाव को भी आत्मसात् किया है। इन नृत्यों में अदा और नजाकत के साथ अदब है एवं सौंदर्य का गरिमामय प्रदर्शन भी है। यहां शरीर को छुपाया जरूर अधिक जाता है मगर सौंदर्य स्वाभाविक रूप में उभरता है। बिना कहे ही बहुत कुछ कह देना यहां संभव है। यहां आंखें बात करती हैं। भावनाएं चेहरे पर तैरती हैं और ये अधिक प्रभावशाली और गहरी होती है। देखने में ये नृत्य अत्यंत सरल लगते हैं मगर उतने हैं नहीं। इसमें अमूमन संगीत का शोर नहीं होता और वाद्य यंत्र अपने पारंपरिक रूप में सरलता से उपस्थित होते हैं। यहां तक कि महाराष्ट्र के लेझिम और पंजाब के भंगड़ा में मदमस्त कर देने वाली उल्लासपूर्ण ऊर्जा के साथ-साथ कमाल की लयबद्धता है। यही नहीं हर राज्य के हर छोटे-छोटे क्षेत्रों में पले बसे लोकनृत्य की अपनी कहानी और परंपरा है। पूर्व में यह परंपराएं स्थानीय संस्कृति के साथ पलती और बढ़ती थीं। राजघरानों से इन्हें संरक्षण प्राप्त होता था। इनकी अपनी एक वंशावली हुआ करती थी। ऐसा नहीं कि सिर्फ आज के नाचने-गाने वाले ही लोकप्रिय होते हैं। उस जमाने में भी कला व नृत्य की राजदरबार तक पूछ होती थी। जयपुर से लेकर लखनऊ और बनारस के घराने इतने अधिक लोकप्रिय थे कि विभिन्न महाराजाओं के बड़े-बड़े जलसों की रौनक बढ़ाने के लिए इन्हें विशेष रूप से आमंत्रित किया जाता था। यह सिर्फ मनोरंजन मात्र के लिए नहीं थे, यह भक्ति के रास्ते अध्यात्म की ओर भी बढ़ जाते थे तो मानवीय प्रेम के प्रतीक भी बने रहते थे। यह दीगर बात है यहां संदर्भित भी कि नारी शोषण के प्रतीक के रूप में मुजरेवाली व देवदासियों के साथ घुटन का एक लंबा सफर इन नृत्यों ने शताब्दियों में तय किया है। जिसकी अपनी कहानी और लंबा इतिहास है। आज भारतीय जीवन में पश्चिम संगीत के साथ-साथ वहां की जीवनशैली का भी पूरा आधिपत्य है। फिल्म से लेकर टेलीविजन तक घर-घर में डिस्को और ब्रेक डांस से होकर हिप-हॉप व सालसा करते हुए बोनियम व माइकल जैक्सन से लेकर शकीरा और शबीना का हिन्दुस्तानी रूपांतरन घर-घर में पाये जा सकते हैं। संगीत, नृत्य या किसी भी कला की आपस में तुलना नहीं की जा सकती। कम-ज्यादा, अच्छा और बुरा घोषित नहीं किया जा सकता है। लेकिन इतना सत्य है कि ये आधुनिक नृत्य पारंपरिक भारतीय नृत्य के सामने कुछ आसान नजर आते हैं। यकीन न हो तो किसी भी सौ भारतीय से आधुनिक विदेशी नाच का प्रयास कराएं फिर भारतीय नृत्य का। इन नये नाच-गाने में नियम एवं परंपराओं की सख्त पाबंदी नहीं है। यह हमारे घर-घर में किए जाने वाले रूमाल नृत्य और घूंघट-कमरतोड़ नृत्य का बेहतर रूप कहे जा सकते हैं। इनकी सरलता और खुलापन विशेषता है जो उन्हें लोकप्रिय बनाने में सहायक है तो साथ ही कमजोरी भी जो उन्हें क्लासिकल का दर्जा हासिल नहीं हो पाता। अंधा बांटे रेवड़ी अपने-अपने को दे, के रूप में हम चाहे जितने राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कार इन नृत्यों में मिल-बांट लें इनकी अपनी लंबी पहचान संदिग्ध ही रहेगी। इनमें आत्मा का स्पंदन नहीं महसूस होता। हम यहां प्राचीन पश्चिमी पारंपरिक नृत्य की बात नहीं कर रहे। नये-नये नृत्यों में प्रयोग के नाम पर आप अपने हाथ-पैर जैसे मर्जी चलाएं, लेकिन अंत में कई बार यह नृत्य से अधिक जिम्नेजियम प्रतीत होते हैं। और उछल-कूद बनकर रह जाते हैं। ऐसा नहीं कि इन नृत्यों में कुछ नहीं होता। लेकिन इस बात को भी नहीं नकारा जा सकता कि यह देखने वाले को आनंद नहीं पल भर की मस्ती देते है। जो अंतर मस्ती और आनंद का हो सकता है, वही अंतर पश्चिमी आधुनिक नृत्य और भारतीय पारंपरिक नृत्य में महसूस किया जा सकता है। अब यह आपके हाथ में है कि आप आनंद चाहते हैं या मस्ती।
यह लेख मनोज सिंह द्वारा लिखा गया है.मनोजसिंह ,कवि ,कहानीकार ,उपन्यासकार एवं स्तंभकार के रूप में प्रसिद्ध है .आपकी'चंद्रिकोत्त्सव ,बंधन ,कशमकश और 'व्यक्तित्व का प्रभाव' आदि पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी है.
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