मनोज सिंह रॉसोगुल्ला, मिष्ठी-दही, छेने की मिठाई, चमचम आदि अर्थात बंगाली मिठाइयां, इस विशिष्ट शहर के हर चौराहे के आम होटलों पर आसानी से उ...
मनोज सिंह |
रॉसोगुल्ला, मिष्ठी-दही, छेने की मिठाई, चमचम आदि अर्थात बंगाली मिठाइयां, इस विशिष्ट शहर के हर चौराहे के आम होटलों पर आसानी से उपलब्ध। सरसों के तेल में छोंकी हुई विभिन्न मछलियों का स्वादिष्ट माद्देर झोल और उसके साथ भात खाने का यहां मजा ही कुछ और है। सड़कों के ऊपर सरकती अति प्राचीन ट्राम तो जमीन के नीचे भागती आधुनिक अंडरग्राउंड मेट्रो। गुरुदेव रवींद्र नाथ टैगोर, शरत चंद्र, बकिम चंद्र, डॉ. नजरूल इस्लाम से लेकर आधुनिक युग में देखें तो महाश्वेता देवी। स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास में सुभाष चंद्र बोस तो समाज सेवा में विश्व प्रसिद्ध मदर टैरेसा। समाजशास्त्र में अर्थशास्त्री के लिए प्रसिद्ध अमर्त्य सेन। रवींद्र संगीत से प्रारंभ कर हेमंत दा, एसडी बर्मन से होते हुए आरडी बर्मन ही क्यों घर-घर में गीत-संगीत का दीवानापान। विमल दा, बासु दा, सत्यजीत रे जिन्होंने परदे के पीछे अपना विशिष्ट प्रभुत्व रखा तो परदे पर ज्वाय मुखर्जी से लेकर चुलबुली शर्मिला और खूबसूरत राखी, मौसमी चटर्जी, सशक्त अभिनेत्री अपर्णा सेन आदि-आदि ने सिल्वर स्क्रीन पर अपना सौंदर्य बिखेरा। हिन्दी सिनेमा में बंगाली संस्कृति का इतना जबरदस्त प्रभाव रहा कि पक्के पंजाबी राजेश खन्ना भी यहां की कई फिल्मों में बाबू मोशाय लगते। कालीघाट मंदिर की मान्यता। दुर्गा पूजा में लाखों-करोड़ों का जनसमूह। मानों कि पूरा शहर ही नौ दिनों के लिए सड़कों पर उतर आता हो। इसी शहर में एक से बढ़कर एक प्रतिष्ठित शैक्षणिक संस्थान। अंग्रेजों की आज भी चारों ओर बिखरी शताब्दी पुरानी विरासत। यह उनकी पहली पसंदीदा जगह थी। अंग्रेजों के लंबे प्रभाव के बावजूद देशी संस्कृति व संस्कार के लिए आज भी एक मजबूत गढ़। अपनी मजबूत इच्छाशक्ति और मानसिक दृढ़ता के लिए पहचाने जाने वाला वर्ग, जहां बसता हो, दसियों वर्षों से विशिष्ट विचारधारा से प्रेरित शहर। सदा सक्रिय, सजग व प्रतिक्रियात्मक एवं आंदोलित मगर साथ ही सभ्य व सुसंस्कृत भी। इतनी सारी विशेषताओं के बाद किसी और वर्णन की आवश्यकता रह जाती है? इतने सारे विश्लेषण हिन्दुस्तान के किसी अन्य शहरों से अमूमन जोड़े भी नहीं जा सकते। शायद तभी यह विश्व के प्रमुख शहरों में से एक है। नाम भी तो प्रचलन में कई हैं कोलकाता, कलकत्ता, कैलकटा। शायद उपरोक्त विशिष्ट विवरणात्मक विश्लेषण में एक प्रमुख आकर्षण अब भी छूट गया। कोलकाता का विश्व पुस्तक मेला। क्या आपने कभी किताब खरीदने के लिए आम जनता को लाइन में खड़े होकर इंतजार करते देखा है? और वो भी सैकड़ों की तादाद में। देखना तो दूर इस तरह की बात सोचना भी आम भारतीय के लिए संभव नहीं। शायद पुस्तक प्रेमियों का इतना बड़ा जनसमूह किसी और जगह एशिया में देखने को न मिले। कोलकाता पुस्तक मेला में गजब संस्कृति का बेमिसाल दृश्य प्रस्तुत होता है। यह सचमुच अद्भुत है। बंगालियों में पुस्तक-प्रेम की कोई सीमा नहीं। पूरा के पूरा परिवार एक बार पुस्तक मेला जरूर जाता है। अपनी सीमा में रहकर पुस्तक खरीदता भी है। यह उनके लिए मात्र एक बार पढ़ने की वस्तु नहीं। तभी शायद यहां पर पुस्तक के पेपर बैक संस्करण का प्रचलन नहीं। जिसे एक स्टेशन पर खरीदा और यात्रा में पढ़कर मंजिल पर पहुंचकर फेंक दिया। यह शायद पश्चिमी संस्कृति की देन है। मगर बंगाल में तो पुस्तकें दिल से लगाकर सहेजकर तमामउम्र रखी जाती हैं। लेखकों का घर-घर सम्मान होता है। उन्हें बार-बार पढ़ा जाता है। पुस्तकें अगली पीढी+ को विरासत में दी जाती हैं। कहते हैं कि जब किसी को किसी से प्रेम हो जाए तो वह फिर समय और दूरियां नहीं देखता। कोलकाता पुस्तक मेला के स्थान परिवर्तन होने के बावजूद जनता की असंख्य उपस्थिति इस बात का प्रमाण है कि यहां का पाठक कितना बड़ा पुस्तक-प्रेमी है। शहर के हृदय-स्थल से दूर जाने पर भी पुस्तक मेला उतना ही सफल है। कोलकाता वासी इसके लिए मीलों दूर से पैदल चलकर आने के लिए भी तैयार है। और इसके लिए उमड़ता जनसैलाब सड़कों पर ट्रैफिक जाम तक की स्थिति पैदा कर देता है। विगत दिवस कोलकाता पुस्तक मेला देखने का सुअवसर मिला। कारण था उपन्यास 'बंधन' का बंगला अनुवाद वहां के बड़े प्रकाशक 'पत्र भारती' ने प्रकाशित किया था। मुझे लोकार्पण समारोह के लिए विशिष्ट रूप से आमंत्रित किया गया था। यहां आने पर पहली बार तो यकीन ही नहीं हुआ। मगर फिर इस असंभव से लगने वाले दृश्य का अनोखा नजारा देखकर मैं अतिरिक्त ऊर्जा से भर उठा। शब्द और साहित्य के लिए इतना जबरदस्त लगाव कि भीड़ में लोगों के कंधे से कंधे टकरा रहे थे। बड़े प्रकाशकों के स्टॉल पर सैकड़ों की तादाद में लोग कतारबद्ध बाहर खड़े हुए थे। यूं तो बंगाली भाषा के अतिरिक्त अन्य कई भाषा व देशों के स्टॉल भी यहां लगे हुए थे और हिन्दी के कुछ प्रमुख और बड़े प्रकाशकों ने भी अपना स्टॉल यहां लगाया हुआ था। मगर इनमें यहां कम भीड़ का होना स्वाभाविक है और उसका कारण आसानी से समझ में आता है। मगर ये अपने-अपने क्षेत्रों में भी इतनी भीड़ कहां आकर्षित कर पाते हैं। बहरहाल, पुस्तक मेले में विभिन्न आयोजनों के लिए बड़े-बड़े, एक को तो विशाल कहा जाना चाहिए, हॉल बनाये गये थे। जिनमें निरंतर प्रेस कांफ्रेंस, चर्चाएं, गोष्ठियां और पुस्तकें लोकार्पित की जा रही थीं। पुस्तक मेले के मुख्य हॉल में सैकड़ों की भीड़ के बीच में अपने उपन्यास बंधन के बंगला रूपांतरन को लोकार्पित होते हुए देख, मैं स्वयं को पहली बार अति भाग्यशाली समझ रहा था और आनंद में डूबा हुआ था। चूंकि इतने समृद्ध साहित्य के बीच अपनी पहचान का प्रयास भी, अपने आप में एक गर्व करने वाली बात हो सकती है। यहां एक बात उल्लेखनीय है कि हिन्दी साहित्य का बहुत कम रूपांतरण बांग्ला में हुआ जबकि बंगला साहित्य से हिन्दी-प्रेमी अनजान नहीं। बंगाल की सभ्यता प्रारंभ से ही कला-प्रेमी रही है। इनका अपनी भाषा के प्रति प्रेम भी विशिष्ट है। बेहद अटूट लगाव है। लिखने और पढ़ने की परंपरा यहां अति प्राचीन है। आज भी अधिकांश बड़े राजनैतिक हस्तियों को यहां लेखन के क्षेत्र में भी प्रयासरत देखा जा सकता है। लेखकों का यहां जनसमूह में विशेष आकर्षण है और वे इज्जत की दृष्टि से देखे जाते हैं। अपनी भाषा से इतना प्रेम कि ये संस्कृति भाषा से पहचानी जाती है। जात और धर्म से नहीं। बंगाली पहले बंगाली है, हिन्दू-मुस्लिम या कुछ और बाद में। शायद तभी बंगाल के साहित्य ने इतना प्रसार पाया और फली-फूली। जहां अपनी भाषा का सम्मान नहीं वहां आत्मा कैसे बस सकती है। और जहां आत्मा का निवास नहीं वह निर्जीव है, स्थिर है, अविकासशील है। जबकि बंगाल की संस्कृति में जीवंता है, स्पंदन है, ऊर्जा है, स्वप्न है। इन सब आत्ममुग्धता के बावजूद इन्होंने अपने दरवाजे कभी बंद नहीं किये। विश्व साहित्य से खूब लिया तो भरपूर दिया भी। अगर रवींद्र नाथ टैगोर हिन्दुस्तान के साथ-साथ यूरोप में भी बराबर से लोकप्रिय हैं। तो कोलकाता पुस्तक मेला में बंगलादेश से लेकर अमेरिका-इंग्लैंड-जर्मन-फ्रांस, यहां तक कि वियतनाम भी अपनी-अपनी भाषा और साहित्य को लेकर न केवल उपस्थित होते हैं बल्कि उन्हें खूब पढ़ा और सराहा जाता है। संक्षिप्त में कहे तो यह भव्य कार्यक्रम एक सामाजिक, सांस्कृतिक व साहित्यिक समन्वय के समारोह के रूप में शहर के मुख्य आकर्षण का केंद्र भी बनता है। इस विशाल शहर को अब तक सुव्यवस्थित सुसंस्कृति और सुसज्जित रूप में बांधे रखने में इस पुस्तक प्रेम का बहुत बड़ा योगदान रहा है। शायद हम इस महत्व को शब्दों में रेखांकित न कर सकें। हां, चाहें तो समझ सकते हैं।
यह लेख मनोज सिंह द्वारा लिखा गया है.मनोजसिंह ,कवि ,कहानीकार ,उपन्यासकार एवं स्तंभकार के रूप में प्रसिद्ध है .आपकी'चंद्रिकोत्त्सव ,बंधन ,कशमकश और 'व्यक्तित्व का प्रभाव' आदि पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी है.
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