मनोज सिंह आम जानवरों के दबाव में आकर अंत में जंगल की सभा ने यह प्रस्ताव स्वीकार किया कि एक प्रतिनिधिमंडल को शहर में मनुष्यों के बीच भेजकर...
मनोज सिंह |
आम जानवरों के दबाव में आकर अंत में जंगल की सभा ने यह प्रस्ताव स्वीकार किया कि एक प्रतिनिधिमंडल को शहर में मनुष्यों के बीच भेजकर उनकी व्यवस्था का अध्ययन किया जाएगा। वैसे तो जंगल में कोई परेशानी नहीं थी लेकिन कई जानवर मानवीय सभ्यता व उनके विकास के किस्से सुन-सुनकर बेचैन होने लगे थे। खासकर युवा जानवरों में अधिक उत्सुकता थी। सभी ने विचार-विमर्श कर फैसला किया कि क्यों न शहर जाकर एक बार प्रत्यक्ष रूप में देख लिया जाए और जो भी अच्छा हो उसे जंगल में भी अपना लिया जाए। और फिर कुछ दूर के रिश्तेदार भी तो शहर में हैं। उनका भी सहयोग लिया जा सकता है। इसी तरह के कुछ और भी विचार लेकर जंगल का प्रतिनिधिमंडल शहर पहुंचा तो उन्हें अपने रिश्तेदार आसानी से नहीं मिले थे। जो दो-चार दिखे भी तो वे इतने कमजोर और अपने में व्यस्त थे कि बात तक नहीं की। यह थोड़ा-सा अजीब लगा था। लेकिन फिर शहर की चकाचौंध ने ध्यान बांटा था। खासकर सबसे पहले सड़क और उसके ऊपर ट्रैफिक की व्यवस्था ने सबको अपनी ओर आकर्षित किया था। देखा कि सभी लोग सड़क पर एक तरफ से चल रहे थे, चौराहों पर लालबत्ती होते ही रुक जाते और हरीबत्ती के चमकते ही चलने लगते। ट्रैफिक पुलिसवाले को देखकर तो सभी जानवरों का हैरान होना स्वाभाविक था। उसके एक इशारे पर सभी लोग रुक जाते और अगले इशारे पर ही एक दिशा में जाने वाले चलने लग पड़ते। इसे अमल में लाया जा सकता है, अभी यह विचार आ ही रहा था कि तभी देखा कि एक नौजवान मोटरसाइकिल चालक नियमों का उल्लंघन करके भागा था। अगले चौराहे पर भी वह इसी तरह से कुछ करता तभी किसी दूसरी गाड़ी से भिड़ गया था। उसे गंभीर चोटें आयी थीं। और झगड़ा शुरू हो गया था। यह देखकर जानवरों को दुःख हुआ। थोड़ा आगे बढ़े तो देखा एक सड़क पर आमने-सामने की टक्कर से दो गाड़ियां में सवार सभी लोग मर चुके हैं। और आगे तो मीलों लंबा जाम था। राहगीर परेशान लग रहे थे। घोड़ा जो अब तक अपनी तीव्र गति के कारण इस व्यवस्था को अपनाने की तरफदारी कर रहा था, अचानक चुप कर गया। धीरे से बुदबुदा जरूर रहा था, हमें क्या जरूरत है इसकी, हमारे यहां तो ऐसी कोई दुर्घटना होती ही नहीं जबकि यहां तो कुछ भी ट्रैफिक नहीं है। जंगल में तो असंख्य जानवर हैं। मगर घोड़ा घोड़े से तो हिरण हिरण से या एक-दूसरे से कभी नहीं टकराते। आगे बढ़े तो देखा न्यायालय का एक अति विशाल भवन था। पता चला कि यहां मुजरिम को गलत कार्य करने की सजा सुनाई जा रही थी। यह तो बहुत अच्छा है। हमारे यहां ऐसा क्यों नहीं? हमें भी न्यायालय खोलना चाहिए, जहां गलत कार्य करने वालों को सजा सुनाई जा सके। युवा जानवरों का मत आया था। वे जोश में थे। उत्सुकता बढ़ने लगी तो सभी न्यायालय की कार्यवाही को देखने के लिए अंदर जा पहुंचे। पता चला कि एक व्यक्ति ने अपने भाई का खून कर दिया था, जमीन हड़पने के लिए। दूसरे केस में एक आदमी ने कम उम्र की लड़की के साथ जबरदस्ती बलात्कार किया था। और फिर सुना कि उसे मार भी दिया था। तीसरा केस तो सुनकर सबको बड़ा ताज्जुब हुआ था। एक अफसर ने गलत कार्य करने के लिए लाखों रुपए की रिश्वत ली थी। इस सब केसों में, अलग-अलग जजों के सामने काले कोट पहने दो आदमियों के बीच बहस चल रही थी। जानवरों को यह बात अटपटी लगी थी। अगर गलत किया है तो फिर किस बात की चर्चा? कैसा तर्क-वितर्क? अपराधी को बचाने की कोशिश, सोचकर ही उनके दिमाग में बेचैनी बढ़ी थी। सबसे पहले तो इस तरह के कांड हमारे यहां होते ही नहीं, तो फिर हमें इसकी आवश्यकता कहां। प्रतिनिधिमंडल आगे बढ़ा तो देखता है कि सामने रास्ते पर एक जुलूस चला जा रहा था। सभी लोग कतार में चलते-चलते, भजन गाते हुए, पास के मैदान में इकट्ठा हो रहे थे। किसी धार्मिक गुरु का प्रवचन था। धर्मगुरु का बेसब्री से इंतजार हो रहा था। पंडाल भरा हुआ था। इस धर्म ने ही मनुष्य को हमसे अलग विशिष्ट बनने में मदद की है। सुन-सुन कर बुजुर्ग जानवरों के कान पक चुके थे। इस विषय पर तो उन्हें जानने और समझने का विशेष आकर्षण था इसीलिए वे तुरंत अपना स्थान सुनिश्चित कर ध्यान से सुनना चाहते थे। सभा के प्रवेशद्वार पर दान के नाम पर चंदा इकट्ठा किया जा रहा था। धार्मिक किताबों की प्रदर्शनी भी थी। किताबों की बिक्री अच्छी हो रही थीं। हिरण ने इसे खरीदना चाहा तो लोमड़ी ने समझाया था कि आगे पुस्तकालय है वहां पढ़ लेंगे। धर्मगुरु बाबा आये तो देखकर जानवरों को खुशी हुई थी। खिचड़ी दाढ़ी, लंबे-लंबे बाल के कारण अपने से लग रहे थे। ऊंचे आसन पर बैठकर उन्होंने अपने धर्म की बातें करनी शुरू की थी। सभी जानवर सुनकर प्रभावित हुए थे। शांति, दया, प्रेम व मोक्ष। और भी कई सारे शब्द थे जिन्हें सुनकर जानवर के दिल में कुछ-कुछ होने लगा था। सभा समाप्त होते ही सभी विचारों में डूबे हुए चुपचाप आगे बढ़े तो देखा कि अगले मैदान में किसी और धर्म का कार्यक्रम चल रहा है। अब तक धर्म से विशेष लगाव हो चुका था। क्यों न इसे भी सुना जाए। और वे सब एक बार फिर धार्मिक सभा में थे। यहां भाषा बदली हुई थी, धर्मगुरु की वेशभूषा भी अलग थी। मूल बात लेकिन वही थी। अबकी बार तो जानवरों को आसानी से समझ आ गयी थी। वे सब यहां से निकलकर आगे बढ़े तो एक धर्म के बाद दूसरे फिर तीसरे धर्म के बारे में सुनकर थोड़ा दुविधा में जरूर थे। सब एक ही हैं तो फिर अलग-अलग की आवश्यकता क्यूं? सवाल उठा था। अभी कुछ देर ही हुआ था कि एक चौराहे पर भीड़ थी। पता चला कि मारा-पीटी हो रही है। जानवरों का प्रतिनिधिमंडल किसी तरह से वहां पहुंचा तो देखा कि दोनों धर्मों के लोग आपस में हथियार लेकर लड़ रहे थे। तमाम अधर्म की बातें हो रही थीं। जब तक पुलिस पहुंचती कई लोगों की जान चली गयी थी। देखते-देखते शहर में कर्फ्यू लग गया था। मगर जानवरों के लिए तो आजादी थी। घूमते-घूमते देखा कि शाम को टेलीविजन पर राजनीतिक नेताओं, बुद्धिजीवियों व पत्रकारों के वक्तव्य आ रहे थे। इनमें भी गुटबाजी है, साफ दिख रहा था। फर्क आसानी से समझा जा सकता था। सभी शब्दों से खेल रहे थे। इससे चारों ओर अफवाहों का बाजार उलटे गर्म हो रहा था। बात दूसरे शहरों में भी फैल गई थी। कई जगह पर हथियारों से लैस एक वर्ग ने दूसरे वर्ग पर तो दूसरे कस्बे में दूसरे वर्ग ने पहले वर्ग पर हमला बोल दिया था। तो ये हथियार इन्होंने केवल हमारे लिये ही नहीं बनाए, ये तो आपस में भी लड़ते हैं। यही सोचते हुए परेशान होकर हिरण ने कहा था, हमें क्या जरूरत ऐसे धर्म की जहां सारा अधर्म होता हो। ऐसा व्यवहार तो हमारे साथ शेर भी नहीं करता। हम तो बिना धर्म के ही ठीक हैं। सबको हताश होता देख भालू ने कहा, चलो एक काम करते हैं इनकी किताबों को लेकर वापस चलते हैं। इनके ज्ञान की बातें तो काम की होंगी। इन्होंने जो सालों साल में कमाया है, लिखा है, उसे हम पढ़कर ग्रहण कर लेंगे। बात सभी को जंची थी। और तुरंत किताबें ली गयी थीं। रहा न गया तो रास्ते में रुककर सब पढ़ने लगे थे। सीधी सच्ची बातें लिखी हुई थीं। सवाल-जवाब भी थे, तर्क के साथ। सबसे पहले राजनीति शास्त्र में दी गयी सभी शासन व्यवस्था पढ़ ली गयी थी। पूंजीवाद, साम्यवाद, राजतंत्र, प्रजातंत्र व तानाशाही। ये सब युवा जानवरों के दिमाग को आंदोलित कर रहा था। दूसरी तरफ कविताएं पढ़कर तो जानवर रोने लगे थे तो दर्शनशास्त्र ने दिमाग को हिला दिया था। भूगोल की जानकारी से सब हैरान थे कि इतनी सारी चीजें हमारे पास हैं। इसकी तो हमें जानकारी भी नहीं थी। अचानक इतिहास की किताब हाथ लगी थी। पढ़ना शुरू किया तो जानवरों की आंखें हैरानी में डूब गयी थीं। ये मनुष्य प्रजाति के लोग आपस में हजारों साल से लड़ते आ रहे हैं। पिछली शताब्दी में तो दो-दो विश्वयुद्ध लड़े और आज भी तरह-तरह से लड़ रहे हैं। इतनी ज्ञान की बातें होने पर भी इनकी लड़ाई में कोई कमी नहीं। इनकी कोई स्थायी शासन व्यवस्था नहीं। कुछ दिनों बाद सभी शासक आलोचना के घेरे में आ जाते हैं, चाहे जो भी आ जाए। हर शासन में राज करने वालों के नाम बदलते हैं, चेहरे बदलते हैं मगर लोगों की मूल जरूरतें पूरी नहीं होती। लेकिन हमारे यहां न तो कोई शासक है न ही कोई शासित। ऊपर से ऐसा युद्ध कभी नहीं होता। छोटे-मोटे झगड़े वो भी मिनट दो मिनट के लिए। सिर्फ भोजन को लेकर। पेट भरा तो वो भी खत्म। यहां तो विश्वयुद्ध हो जाता है। ऐसा ज्ञान किस काम का? ऐसी शासन व्यवस्था किस काम की? जानवरों का प्रतिनिधिमंडल यह सब जानकर अंदर से हिल गया था। हमें इन सब बातों की आवश्यकता नहीं। हम इसके बिना ही खुश और संतुष्ट हैं। वापस जाते-जाते कुत्ते ने कहा कि मेरे कई भाई आदमियों के घर में रहते हैं। उनसे सुना है कि बड़ा अच्छा-अच्छा खाने को मिलता है। क्यों न हम इनसे कम से कम खाने-पीने के नये-नये व्यंजन सीख लें? ठीक है। सबने अनमने ढंग से कहा था। अब तक हताशा होने लगी थी। ढूंढ़ने निकले तो आगे शहर के रास्ते में बड़े-बड़े होटल बने हुए थे। चूहे ने एक होटल में प्रवेश किया तो देखा अनगिनत स्वादपूर्ण भोजन से रेस्टोरेंट भरा हुआ था। चुपके से अंदर घुसे चूहे ने कुछ माल चट किया और स्वाद चखाने के लिए बाहर खड़े साथियों को भी लाकर दिया। अच्छा लगा तो जंगल ले जाने के लिए भी रख लिया। कुछ ही देर में चूहे को पेटदर्द हुआ था। खाना पचना मुश्किल हो रहा था। यह खाना तो हमारे पचाने के सामर्थ्य से बाहर है। इससे तो बीमार हो जाएंगे, जानकर साथ ले जा रहे भोजन काे जानवरों ने रास्ते में ही फेंकने की सोची। देखा तो वहां झुग्गी-झोपड़ियो का एक मोहल्ला था। देखते ही देखते आदमी-औरत उस खाने पर टूट पड़े थे। जिज्ञासावश वहां गलियों में अंदर घुसे तो देखा कई बच्चे भूख से बिलख रहे थे। यह तो सरासर अन्याय है। अच्छा हुआ जो हमने इन मनुष्यों की एक भी बात नहीं सुनी। कम से कम हमारे यहां कोई भूखा तो नहीं होता। बस ऐसा ही कुछ सोचकर सभी जानवर वापस जंगल की ओर भागे थे। इस प्रण के साथ कि वे फिर कभी शहर में आने की जिद नहीं करेंगे।
यह लेख मनोज सिंह द्वारा लिखा गया है.मनोजसिंह ,कवि ,कहानीकार ,उपन्यासकार एवं स्तंभकार के रूप में प्रसिद्ध है .आपकी'चंद्रिकोत्त्सव ,बंधन ,कशमकश और 'व्यक्तित्व का प्रभाव' आदि पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी है.
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