मनोज सिंह जापान के इस महाविनाश को टेलीविजन सेट पर देखकर विज्ञान के तथाकथित विकास पर बहस करें या हजारों जापानी भाइयों-बहनों का शोक मनाएं? ...
मनोज सिंह |
जापान के इस महाविनाश को टेलीविजन सेट पर देखकर विज्ञान के तथाकथित विकास पर बहस करें या हजारों जापानी भाइयों-बहनों का शोक मनाएं? दुविधा हुई थी। इससे अच्छा तो काश! हम यह दृश्य न ही देखते। इसने उपरोक्त प्राकृतिक कंपन की तरह हमारे दिलोदिमाग को भी जड़ से बुरी तरह से हिलाकर रख दिया था और मस्तिष्कपटल पर हमेशा के लिए अपने चित्रों को अंकित कर दिया था। यकीनन यह दुर्घटना अकल्पनीय रूप से भयावह है। प्रकृति की शक्ति पर हमें कभी शक नहीं रहा। लेकिन वो इतना आक्रामक रूप धारण कर सकती है, अब भी यकीन नहीं होता। एक पल के लिए पृथ्वी क्रोधित लग रही थी। जिन्हें प्रकृति के इस चरित्र पर विश्वास नहीं उन्होंने इन दृश्यों को देखकर अपने दांतों से उंगलियों को काटा होगा। बहरहाल, इन दृश्यों की कल्पना हमने क्या किसी ने भी नहीं की होगी। अपनी श्रेष्ठता साबित करने वाले कई ऑस्कर विजेता निर्देशक को भी इन दृश्यों को देख-देखकर शर्म आ रही होगी कि वे प्रकृति की सृजनशीलता व विध्वंस शक्ति के यथार्थ से कितनी दूर हैं। यहां हिंदुस्तानी सिनेमा की बात करना व्यर्थ होगा। जहां मनोरंजन के नाम पर अधिकतर नौटंकी परोसी जाती है और दर्शक बात-बात पर ताली पीटने में माहिर हैं। जापानी प्रधानमंत्री के कथनानुसार तो यह द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद वहां की शायद सबसे बड़ी त्रासदी है। लेकिन लगता है कि इस तरह की घटना इतिहास में पहले कहीं और दिखाई नहीं देती, जब तीन-तीन महाविनाश की दुर्घटनाएं एक के बाद एक लगभग एकसाथ एक ही स्थान पर घटित हुए हों। सबसे पहले भूकंप, जिसे शायद जापानी इतिहास में अब तक का सबसे तगड़ा झटका माना जा रहा है उसके तुरंत बाद भयंकर तबाही वाला सुनामी और फिर परमाणु विकिरण की संभावनाओं के साथ फुकुशिमा परमाणु बिजलीघर में विस्फोट। एक अकेला रोग शरीर को तोड़ देता है। एक महामारी पूरे इलाके को साफ कर देती है। ऐसे में तीन-तीन महाविनाशकारी घटनाओं को झेलना असंभव-सा प्रतीत होता है। फिर भी जो कुछ देखा, सुना, पढ़ा वो सब इस आशंका को झुठला रहे थे। जापानी समाज की कार्यशैली, गुणवत्ता के प्रति आसक्ति, आपदा प्रबंधन, अनुशासन, संतुलित व्यवहार, शांतचित्त व लगन के साथ टीमवर्क में कार्य करना और सबसे प्रमुख राष्ट्र-प्रेम, ये सभी गुण एक बार फिर साफ-साफ पहले दिन से ही यहां प्रमाणित हो रहे थे। यह उनका राष्ट्रीय चरित्र है। वे पूर्व में भी ऐसा करते रहे हैं। द्वितीय विश्वयु+द्ध में और उसके पूर्व उनके अंदर की छिपी महत्वाकांक्षा को भुलाया नहीं जाना चाहिए। लेकिन फिर पूरी तरह से टूटकर, हारकर, फिर खड़ा हो जाना इतिहास के पन्नों में अन्यत्र दिखाई नहीं देता। अमूमन सभ्यताएं जल्दी से खड़ी नहीं हो पातीं और कई तो हार और गुलामी को अपनी संस्कृति का हिस्सा बना लेते हैं। जापान ने ऐसा नहीं होने दिया और यह उनका अब स्वभाव ही है जो वे हर बार नियति के साथ पूरी तन्मयता के साथ जूझने लग पड़ते हैं। इसमें कोई शक की गुंजाइश नहीं रह जाती कि जापान अपने इस महाविनाश के दुःख से उबरकर, उभरते हुए एक बार फिर खड़ा हो जाएगा। हिरोशिमा-नागासाकी ने संसार को एक सबक दिया था और इसके बाद ही विश्वयुद्ध व परमाणु युद्ध से हम सब बचने लगे। भीषण तबाही के बाद जापान ने विकास की कहानी का पाठ विश्व को पढ़ाया। इसी कड़ी में जापान की वर्तमान दुर्घटना भी कई सबक लेकर आई प्रतीत होती है। कई सवाल पैदा करती है। जिसे सिर्फ उन्हीं के संदर्भ में सीमित करके देखना उचित नहीं होगा। प्रकृति की मार को हम चाहे जो कहें मगर वो कभी इतनी निर्दयी नहीं हो सकती। उसने अपनी व्यवस्थाओं का जाल फैला रखा है, जहां सभी का अस्तित्व उसके हाथों सुरक्षित है। उसने हर एक का उपाय भी बता रखा है। यह तो मनुष्य की अनंत इच्छाओं और चाहतों का नतीजा है कि पहले वह शीशे के महल को खड़ा करता है और फिर उसके टूट जाने पर इल्जाम कंकड़ों को लगाने लग पड़ता है। उपरोक्त महाप्रलय में मनुष्य के जानमाल की हानि को तो यहां आंकना शायद ठीक नहीं होगा लेकिन बर्बादी का जो दृश्य दिखाई दिया वो और कुछ नहीं बल्कि हमारे आलीशान भवनों, भव्य इमारतों, सड़क और उस पर दौड़ती महंगी-महंगी कारों, हवा में उड़ने वाले उड़नखटोलों और समुद्र पर तैरते जहाजों के जमावड़े के बहने से उत्पन्न हुआ था। हमारे तथाकथित विकास व आरामतलबी के प्रतीक-साधन को जब खिलौने के माफिक सुनामी की मार में बहते हुए देखा तो सबका दर्द और अधिक बढ़ गया। अगर ये सब न होते तो हम पेड़ की किसी शाखा पर बैठकर समुद्र के रौद्र रूप को, भयभीत होकर ही सही, देख रहे होते। आपने कभी जानवरों का, प्राकृतिक आपदाओं के दौरान, व्यवहार देखा है? पशु-पक्षी को प्रकृति के साथ सामंजस्य बनाना आता है। बस मानव ने अपनी अलग राह बना ली। यहां तक भी सब ठीक है मगर फिर अब परमाणु विकिरण के विनाश को कौन झेले? जिसकी मार प्राकृतिक आपदाओं से अधिक पीड़ादायक है। प्रकृति के थपेड़ों से शायद हम एक बार बच भी जाएं मगर इस स्वरचित मौत के इंतजाम का क्या करें? घर जलाकर होने वाले उजालों से अंधेरे भले, ऐसी बिजली किस काम की जहां हमारी कई पीढ़ियों के लाखों लोग घिसट-घिसट कर जीने के लिए मजबूर हो जाएं। मैंने भी अपने जीवन में दो महाविनाशकारी घटनाओं को देखा और झेला है। दुर्भाग्यपूर्ण इन घटनाओं में, संयोग से एक मनुष्यजनित थी तो दूसरी प्रकृतिजनित। भोपाल गैस त्रासदी और जबलपुर के भूकंप को मैंने इन्हीं आंखों से घटित होते देखा है। अगर मौत के आंकड़ों को छोड़कर बचे हुए लोगों में जीवन की गुणवत्ता को पैमाने पर रखकर इन दो घटनाओं को देखता हूं तो मनुष्यजनित दुर्घटनाएं मुझे प्रकृति के सामने अधिक विनाशकारी और हानिकारक महसूस होती हैं। प्रकृति के विनाश में कभी भी अमानवीयता महसूस नहीं होती। जो पालन-पोषण करता है उसे क्रोधित होने का भी अधिकार है। ऊपर से प्रकृति कभी अपना संयम नहीं खोती, अप्रत्याशित व्यवहार तो कतई नहीं करती। जबकि मानवीय विनाश एक शैतान के खूनी पंजों जैसा महसूस होता है। यह कई तरह का हो सकता है। युद्ध को इसी दृष्टि से देखा जाना चाहिए। यह अधिक नुकसानदायक और लंबे समय के लिए कष्ट देता है। फिलहाल यह सोच-सोचकर परेशानी अधिक बढ़ रही है कि ईश्वर न करे लेकिन ऐसा ही कुछ हिंदुस्तान के किसी क्षेत्र को झेलना पड़ जाए तो क्या होगा? यहां कुछ बताने की आवश्यकता नहीं। अपने चरित्र का विश्लेषण करके बार-बार मजाक उड़ाने का स्वयं को भी कोई हक नहीं। सत्य है कि हम किसी भी कार्य में लंबे समय के लिए गंभीर नहीं हो पाते। मतभिन्नता को प्रजातंत्र का स्वाभाविक गुण मानकर हम खुश होते रहते हैं। फिर चाहे इससे तमाम काम ही रुक जाएं। यह हमारा स्वभाव बन चुका है। हम भावावेश में कुछ पल के लिए एकजुट हो सकते हैं मगर फिर एक-दूसरे का सिर फोड़ने या टांग खिंचने की आपाधापी में लग जाते हैं। हर तरह के हथकंडे यहां भी शुरू हो जाते हैं। अंत में हमारा कुप्रबंधन ही बचता है जो बाकी बचे का सर्वनाश करने के लिए काफी है। कुछ एक उदाहरणों को छोड़ दें तो हम लोग मानवीय सेवाओं में भी जज्बातों से काम करते हैं। कुछ घंटे तक के लिए तो यह ठीक रहता है मगर जब मामला महाविनाश का हो तो झंडे या पोस्टर लगाकर फोटो खिंचवाते हुए हम देखे जा सकते हैं। मगर हकीकत में सबके साथ तारतम्य बिठाते हुए चुपचाप काम करने की हमारी नियति नहीं। अधिक दूर जाने की जरूरत नहीं, जिस समय सारा विश्व जापान की दुर्घटनाओं पर दिनभर व्यथित था, स्तब्ध था, आंसू बहा रहा था, अपनी संवेदना प्रकट कर रहा था, जो कि उनके टेलीविजन चैनलों पर प्रमुखता से पूरे-पूरे दिन प्रसारित हो रहा था, हमारा मीडिया कुछ दो-चार स्क्रीन की सुंदरियों को लेकर क्रिकेट के रिटायर्ड खिलाड़ियों के साथ बैट-बॉल से निकले रनों का हिसाब-किताब बना रहा था और दर्शक टकटकी लगाएं यूं ताक रहे थे मानो जीवन का सार इस कार्यक्रम के अंत में जरूर मिलेगा। खेल की जीत और हार से घर में जीवन-मरण जैसा माहौल बना रखा था। जब कभी बीच में जापान को दिखाया भी गया तो यह मात्र एक ब्रेकिंग न्यूज थी। जिसका प्रभाव क्रिकेट के चौकों और छक्कों के सामने कम दिखाई दे रहा था। वैसे मनुष्य का स्वभाव भी गजब है, दुनियाभर में अधिकांश जन धीरे-धीरे अपनी ही धुन में मस्त हो रहे होंगे। यह कुछ-कुछ मृत्यु-दर्शन की तरह है जहां आदमी श्मशानघाट से निकलते ही मौत से एक बार फिर नजरें चुराकर तेरी-मेरी में लीन हो जाता है। यूं तो जीवन की सततधारा के लिए यह जरूरी है मगर मृत्यु को पूरी तरह भुलाकर स्वयं को अमर समझते हुए जीना जहां मूर्खता है वहीं किसी की मौत के तुरंत बाद मदमस्त हो जाना असंवेदनशीलता प्रकट करता है। बाजार के द्वारा यह कैसी सभ्यता विकसित हो रही है? संस्कृति व मानवीयता के लिए पहचाने जाने वाले इस महान देश को क्या हो गया है? क्या आने वाली पीढ़ियां हम पर गर्व कर सकेंगी?
यह लेख मनोज सिंह द्वारा लिखा गया है.मनोजसिंह ,कवि ,कहानीकार ,उपन्यासकार एवं स्तंभकार के रूप में प्रसिद्ध है .आपकी'चंद्रिकोत्त्सव ,बंधन ,कशमकश और 'व्यक्तित्व का प्रभाव' आदि पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी है.
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