भ्रष्टाचार का रोग/विचार मंथन

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मनोज सिंह विगत सप्ताह, मित्रों के बीच अन्ना हजारे के आंदोलन को लेकर बेहद उत्साह था। अधिकांश अपनी-अपनी तरह से और कुछ एक सक्रिय भूमिका भी न...

मनोज सिंह
विगत सप्ताह, मित्रों के बीच अन्ना हजारे के आंदोलन को लेकर बेहद उत्साह था। अधिकांश अपनी-अपनी तरह से और कुछ एक सक्रिय भूमिका भी निभा रहे थे। वे सभी भ्रष्ट आचरण से मुक्त हैं, इस पर अंदेशा हो सकता है। ऐसा भी नहीं कि उनमें इस मुद्दे पर कभी आत्मविश्लेषण वाली कोई बात नजर आयी हो। उलटे असामान्य रास्तों से मिलने वाली छोटी-छोटी सुविधाओं और तथाकथित सफलता पर गर्व करते ही पाया गया। इसके बावजूद उनके बीच इस विषय पर किसी भी तरह की चर्चा या मत प्रकट करने कि मानो इजाजत ही नहीं थी। उनकी आंखों में झांककर पढ़ा जा सकता था कि पक्ष में न बोलना अर्थात स्वयं को भ्रष्ट प्रदर्शित करने के समान होगा। इस दौरान नजदीक के बाजार में एक नागरिक ने भी टैंट लगाकर धरना दिया था और अंतिम दिन नगाड़े के साथ बाजार में मिठाई बांट रहा था। एक जानकार दुकानदार से पूछने पर उसने फुसफुसाते हुए कहा था कि हम व्यापारी तो इससे ज्यादा दुखी हैं यह स्थानीय स्तर पर हर तरह से बहुत तंग करता है। कुछ एक परिचित ऐसे भी हैं जिनकी सामाजिक प्रतिष्ठा और अर्जित धन बेहद संशयपूर्ण है मगर वे लोगों के लिए सदा आकर्षण का केंद्र रहे हैं। यह संपूर्ण स्थिति हास्यास्पद है और कहीं भी देखी जा सकती है। मगर सदा दूसरे में दोष देखना उचित नहीं, स्वयं के संदर्भ में इस आंदोलन को देखूं तो अपने संपूर्ण वैचारिक समर्थन के बावजूद मुझे कुछ आशंकाएं थीं फिर भी मौन रहना ही उचित लगा था। और शायद हर दूसरे आम भारतीय की तरह मैं एक बार फिर गलती कर रहा था, जहां छोटी-छोटी छोड़ किसी भी गलत बातों का विरोध नहीं होता और उसके विकराल रूप धारण करने पर ही हम पहले बेचैन और फिर आक्रोशित और आंदोलित होने लगते हैं। यहां भ्रष्टाचार को एक व्यापक अर्थ प्रदान करने की जरूरत है जो कि सिर्फ लेने नहीं देने वाले को भी भ्रष्ट मानता है और आर्थिक के साथ-साथ वैचारिक, सामाजिक और राजनीतिक भ्रष्टता भी स्वीकारता हो। आज के दौर में ऐसे भारतीय को जो इस पैमाने पर शतप्रतिशत खरा उतरता हो ढूंढ़ना मुश्किल होगा और गिने-चुने साफ-सुथरों को देखता हूं तो अपने सामान्य स्वभाव और प्रवृत्ति के कारण ही वे भ्रष्ट नहीं बने, चूंकि इनकी जरूरतें बहुत सीमित और आवश्यक तथा सोच भी सीधी सरल रही है। जबकि जरूरतें, मूलभूत आवश्यकताओं से अधिक और कृत्रिम होना इस बीमारी की जड़ है। खैर, इस आंदोलन के दौरान सबका उत्साह देखते ही बनता था। मगर सर्वप्रथम सवाल उठता है कि क्या हम सब अपने आपको इस आंदोलन के बाद बदल पायेंगे? शायद नहीं। क्योंकि हम अपनी जीवनशैली को भ्रष्ट मानते ही नहीं। हमारे लिये जो पकड़ा गया वही भ्रष्ट है और नोटिस भी उसी का लिया जाता है जहां मामला हजारों-करोड़ों का हो और जो समाचारपत्रों और मीडिया में दिखाया जाये। क्या हम अपना नजरिया बादल पाएंगे? शायद नहीं। बहरहाल, उत्साही माहौल के बीच मन में यही बात उठी थी कि हम लोग किसी महान ऐतिहासिक घटना के प्रत्यक्षदर्शी होते-होते बच गए। 
अन्य ऐतिहासिक घटनाओं का अवलोकन और विश्लेषण करें तो एक बात साफ नजर आती है कि इस दौरान अवाम किसी न किसी मुद्दे को लेकर अत्यधिक परेशान रहा है। वो मानसिक रूप से व्यथित होता है। और जैसे ही उसे अपने क्रोध को प्रदर्शित करने का मंच मिलता है तो वो नेतृत्व के पीछे हो जाता है। इन दिनों भी अवाम भ्रष्टाचार को लेकर आक्रोशित था। उसका गुस्सा चरम पर था और वो कुछ कर गुजरने के लिए तैयार था। हालत इतने खराब थे कि इस मुद्दे को लेकर अगर कोई भी आगे बढ़ता, जिसकी स्वयं की पहले से कोई बड़ी छवि हो न हो मगर कम से कम खराब न हो तो वो उसे भी अपना मसीहा बनाने में मिनट नहीं लगाता। अवाम को अपनी मुश्किलें दूर करने के लिए यूं भी सदा से अवतार या हीरो की आवश्यकता रही है, जिसके पीछे-पीछे वो कुछ भी करने के लिए तैयार हो जाता है। इसे जनक्रांति का मूल तथ्य व प्रारंभिक बिंदु कह सकते हैं। और जब वो अपने प्रयास से समूची व्यवस्था को बदल देता है, अपने लक्ष्य की प्राप्ति कर लेता है तो वो घटना ऐतिहासिक हो जाती है। अमूमन भीड़ के प्रवाह का विश्लेषण नहीं किया जा सकता, यहां तर्क-वितर्क नहीं चलता, यह तो एक जनआक्रोश है जो सुनामी की तरह रास्ते में आने वाले हर किसी को उखाड़ता चला जाता है। उसे फिर अपने सामने अच्छा-बुरा कुछ नहीं दिखता। इसके दूरगामी परिणाम क्या होंगे? अकसर नहीं सोचा जाता। इसे सोचना मतलब कि क्रांति का जोश पूरे उफान पर नहीं है। यह सवाल सदा उठता रहा है कि क्रांति के बाद क्या मिलता है? जवाब मुश्किल सही, मगर यहां तो यह तय है कि अभी इस आंदोलन को बहुत कुछ करना है फिर भी चलो अन्य क्रांति की भांति यहां भी लोगों के ख्वाब में उपजी परिकल्पना में ही सही, एक बेहतर समाज की अपेक्षा तो की ही गई है।
संक्षिप्त में कहें तो विगत सप्ताह की इस घटना की सफलता के मूल में सही समय का चुनाव है। जनता भ्रष्टाचार के विरुद्ध में तैयार खड़ी थी। इसी दौरान सैकड़ों चैनलों को भी, कुछ एक नये व ज्वलंत मुद्दे की तलाश थी। और भाग्यवश ही सही, यह घटना अचानक उनकी निगाह में आ गयी और फिर सुर्खी बन गयी। सही टाइमिंग पर सटीक मुद्दा, बेचैन मतदाता और सनसनीखेज मीडिया, सब तैयार थे तो एक बड़ी घटना तो बननी ही थी। और फिर यह जंगल में आग की तरह भड़की। जिस तेजी से यह फैली है उसका अंदाज तो स्वयं आंदोलन करने वालों को भी नहीं रहा होगा। लेकिन फिर जिस तरह से समेट भी ली गयी, यह अधिक आश्चर्यभरा रहा।
इसमें कोई शक नहीं कि यह एक शुरुआत है, अंत नहीं। और शायद यही इसका सकारात्मक पक्ष भी कि उसने दूसरी क्रांतियों की तरह नयी व्यवस्था की अनुपस्थिति में पुराने को जड़ से हटाकर देश में अस्थिरता नहीं पैदा की। बल्कि धीरे-धीरे परिवर्तन की नयी राह खोली। और सुनिश्चित ध्येय रखकर चलना शुरू किया। मगर आश्चर्य तो आगे भी कम नहीं हुआ, जिस तेजी से इसकी लोकप्रियता चढ़ी उसी गति से मीडिया में दूसरे दिन से ही सवाल खड़े होने लगे। विचारों व सिद्धांतों से बंधे हुए और अपने-अपने स्वार्थसिद्धि में लगे बुद्धिजीवियों के छोटे से छोटे समूह को भी मानो अचानक काम मिल गया और वे सक्रिय हुए। ऐसे-ऐसे सवाल कि देखकर अचरज हो जाता है। शब्दों की जादूगरी से लैस होकर हर किसी को तार-तार कर देने वालों ने यहां भी कोई कमी नहीं रखी। नये-नये दृष्टिकोण, तर्क-वितर्क, क्रिया-प्रतिक्रिया, तुलना, अंदेशा, संदेह और न जाने क्या-क्या? अभी तो सफर शुरू भी नहीं हुआ था और रास्ते में रोड़े आने लगे। सत्य है, जो मीडिया सिर पर बैठा सकता है वो कठघरे में भी उतनी ही जल्दी खड़ा भी कर देता है। मिह्ल के तहरीर चौक को दिन-रात दिखाने वाला अंतर्राष्ट्रीय मीडिया आज उन्हीं प्रदर्शनकारियों पर चलने वाली गोलियों को लेकर चुप है। क्या अब यह उसके लिए महत्वपूर्ण नहीं रहा? यहां सवाल उठता है। मगर पूछे कौन? पूछे भी तो जवाब देने वाला इसकी जरूरत नहीं महसूस करता। उस पर कोई बाध्यता नहीं। तभी तो यहां भी अजीबो-गरीब सवाल, कथन का काल्पनिक मायावी शब्दार्थ, शब्दार्थ के बीच में से भावार्थ और फिर राई का पहाड़ बनाने की प्रक्रिया शुरू हो चुकी थी। मीडिया को तो मुद्दा चाहिए और निरंतर बने रहने वाला दर्शक, लेकिन प्रदर्शनकारी हैरान-परेशान। वो पूरी तरह जीत का जश्न भी नहीं मना पाया कि भ्रमित होने लगा। और कइयों ने हमेशा की तरह तुरंत इसके फुस्स होने का ऐलान भी कर दिया। कुछ एक ने आशंका प्रकट करते हुए कहा कि धीरे से घेरकर अब इस मुद्दे को ही समाप्त कर दिया जाएगा। और न जाने क्या-क्या? मगर इन सबके बीच जो बात उभरकर सामने आयी वो थी कि अन्ना हजारे अपने लक्ष्य प्राप्ति को लेकर आत्मविश्वास से भरे नजर आये। 
उपरोक्त घटनाक्रम के दौरान यह शंका मन में जरूर उभरी कि क्या बिल से वास्तव में कुछ होगा? इसमें कोई शक नही कि कानून अभी भी कम नहीं हैं। समस्या उसके क्रियान्वयन को लेकर है। यह सर्वविदित है कि मशीन की सफलता उसे चलाने वाले मशीनमैन पर निर्भर करती है। ऐसे में क्या वास्तव में नये नियम की आवश्यकता है? हो सकता है यह अधिक प्रभावशाली और व्यापक स्तर पर लागू हो। मगर क्या फिर उपलब्ध कानून की व्यवस्थाओं और संस्थाओं में कोई कमी है? नहीं। तो फिर? असल बात तो यह है कि आज भ्रष्टाचार एक संक्रामक रोग बनकर पूरी व्यवस्था में फैल चुका है जिसकी रोकथाम की कोई व्यवस्था नहीं। आमतौर पर बीमारी का इलाज भी हम मूल में जाकर कहां करते हैं? उसके सिर्फ सिमटम मात्र को दबा देते हैं। यह बुखार की गोली खाने जैसा हुआ, मगर बुखार क्यूं हो रहा है? अमूमन नहीं देखते। यहां एक तरह से कंप्यूटर के आउटपुट पर नजर रखी जा रही है जबकि इनपुट ज्यादा महत्वपूर्ण है और असल परेशानी तो कंप्यूटर में वायरस है। आज भ्रष्टाचार हमारे जीवन का अंग बन चुका है। वर्तमान सामाजिक-आर्थिक व्यवस्था उसके सूत्रधार हैं। जब जीवन-आदर्श आपको अधिक पाने के लिए जाग्रत करेंगे तो आप उसके लिए उत्प्रेरित होंगे। सभी को सब कुछ कभी नहीं मिलता मगर बाजार देने (बेचने) पर तुला है उसने हर व्यक्ति को उपभोक्ता बनाकर खरीदने के लिए तैयार कर दिया है। वो उसके सामर्थ्य में है भी या नहीं, यह कोई नहीं समझना चाहता। यहां से शुरू होती है भ्रष्टाचार की नींव। पूंजीवाद ने बाजार में वैचारिक भ्रष्टता की लहर फैला रखी है। यह व्यवस्था पश्चिमी सभ्यता में कुछ हद तक कारगर हो सकती है वहां जनसंख्या कम और प्रकृति के ह्लोत भरपूर हैं। मगर यहां विशाल जनसंख्या है। इतने बड़े मार्किट को माल बेचने पर बाजार के लिए तो फायदे का सौदा ही है, मगर यह व्यावहारिक रूप में संभव नहीं। इस पर उत्पन्न हुई असमानता ऊपर से आधी-अधूरी जागरूकता ने क्लिष्टता बढ़ाई है। अधिकार की बात ज्यादा कर्तव्य नदारद है। छीन लेने की प्रवृत्ति बढ़ी है। जनता भी क्या करे, ट्रेन में सीट से अधिक यात्री हैं, फिल्म व क्रिकेट को देखने वालों की लंबी कतार है, अच्छी शिक्षा प्राप्त करने वाली संस्थाएं सीमित आदि। सप्लाई और डिमांड में अंतर है, ऐसे में प्रतिस्पर्धा और फिर साम-दाम-दंड-भेद के साथ पाने के लिए कुछ भी करेगा का सिद्धांत जीवन का मूल बन गया। अर्थात एक नये तरह की जीवनशैली। प्रकृति का दोहन भी तो सीमित है तो खान-पान में भ्रष्टाचार शुरू हो गया। सड़क-चौराहों से लेकर हर ऑफिस में नीचे से ऊपर तक भ्रष्टाचार। इसे रोकने व सतर्क करने वाले लोगों को भी तो बाजार जाना है, उनकी भी तो असीमित इच्छाएं हैं, वो भी इसी समाज से हैं और इसीलिए भ्रष्ट हो जाते हैं। धर्म, कला, खेल सब जगह भ्रष्टाचार का बोलबाला है। जिस तरह का ग्लैमर दिन-रात मीडिया द्वारा परोसा जाता है, इस जीवन से कौन आकर्षित नहीं होगा? शिखर पर बैठे धर्मगुरु, फिल्म अदाकार, व्यापारी, राजनीतिज्ञ से लेकर खिलाड़ी का जीवनस्तर देखकर, वहां कौन नहीं पहुंचना चाहेगा? इन रास्तों में भ्रष्टाचार न हो यह कैसे संभव है? अवमूल्यन, इतना कि उपदेश और विचार भी भ्रष्ट हुए हैं। इस आपाधापी में परिवार के रिश्ते नष्ट और संपूर्ण जीवन भ्रष्ट हुआ। संस्कार व संस्कृति का अस्तित्व नहीं बचा। समाज को कारपोरेट हाउस बना दिया गया। पूंजी ने जीवन-मूल्यों को शिखर से हटा दिया। जो बोया है वही तो काटोगे। ऐसे में हम किसे पकड़ने जा रहे हैं? यह तो हमारी ही छाया है जो सामाजिक सूर्यास्त में लंबी होती जा रही है।
 

यह लेख मनोज सिंह द्वारा लिखा गया है.मनोजसिंह ,कवि ,कहानीकार ,उपन्यासकार एवं स्तंभकार के रूप में प्रसिद्ध है .आपकी'चंद्रिकोत्त्सव ,बंधन ,कशमकश और 'व्यक्तित्व का प्रभाव' आदि पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी है.

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