मनोज सिंह इस लेख को पढ़ने के बाद हो सकता है कुछ तथाकथित बुद्धिमान कहें कि लिखने वाले को अर्थव्यवस्था का ज्ञान नहीं। वैसे तो मेरी स्कूल-कॉल...
मनोज सिंह |
इस लेख को पढ़ने के बाद हो सकता है कुछ तथाकथित बुद्धिमान कहें कि लिखने वाले को अर्थव्यवस्था का ज्ञान नहीं। वैसे तो मेरी स्कूल-कॉलेज की किताबी पढ़ाई और डिग्री के हिसाब से यह सत्य भी है। मगर व्यावहारिक ज्ञान अकादमिक बौद्धिकता से सदैव अधिक लोकहितकारी रहा है, इस सच को भी नहीं नकारा जा सकता। बहरहाल, सूचना के युग में तो बिना कुछ गहराई से समझे भी कई लोग कुछ भी कहीं भी कह सकते हैं। और गूगल के सर्च-इंजिन के संक्षिप्त विवरण को पढ़कर किसी भी विषय पर बोलने का अधिकार मान लेते हैं। इसीलिए आशंका है कि आधुनिक युवा वर्ग मुझे पारंपरिक, पिछड़ा और विकास-विरोधी भी घोषित कर सकता है। मुझे गांव वाला कहकर शहर वाले मजाक भी उड़ा सकते हैं। इन सबके बावजूद, विभिन्न अनुभवजनित कारणों से मेरे भीतर कहीं यह विचार मजबूती से स्थापित होता जा रहा है कि हम पढ़-लिखकर अपने मूल से दूर हो रहे हैं। परिणामस्वरूप यह सोच-सोचकर भय उत्पन्न होता है कि वो दिन दूर नहीं जब हमारा अस्तित्व ही मुश्किलों में पड़ जाए। मनुष्य के जीवन की मूल आवश्यकताएं बड़ी सीमित हैं, हवा, पानी और भोजन। मानसिक जरूरतें कुछ हद तक मनुष्य की विशिष्ट हो सकती हैं मगर एक स्तर के बाद अप्राकृतिक की कही जाएगी, परिस्थितिजन्य, जो समय के साथ मनुष्य ने स्वयं विकसित की है। हवा और पानी को अगर हम प्रदूषित और बर्बाद न करें तो प्रकृति के द्वारा यह हमारे लिये पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध है। वैसे तो भोजन की भी समुचित व्यवस्था है। हां, कृषि के द्वारा हमने अपने खान-पान के स्वरूप को बदला जरूर मगर प्रकृति के साथ हमारा सामंजस्य बना रहा। और यही नहीं हमने इसके महत्व को माना और तभी युगों-युगों से, खेत-खलिहान हमारे जीवन, परिवार, समाज व संस्कृति के केंद्र में रहा। यह समस्त व्यवस्था के नींव का पत्थर बना रहा। मगर आज के युग में गौर करें, यह हमारे केंद्र में नहीं। हम दिनभर में अनाज की पैदावार, खाद्यान्न संबंधी खपत व आपूर्ति एवं कृषि क्षेत्र में विकास को लेकर कितनी बातें करते हैं? इन विषयों पर आम लोगों के बीच कितनी चर्चा होती है? हम क्रिकेट के एक-एक रन का हिसाब तो रखते हैं, हार-जीत पर उत्तेजित और चिंतित भी होते हैं लेकिन जिंदा रहने के लिए आवश्यक अन्न प्रदान करने वाला कृषि क्षेत्र हमारे चिंतन का विषय नहीं। अधिकांश शहरी भारतीयों के पास इसकी कोई प्राथमिक जानकारी भी नहीं होगी। आंकड़ों का तो सवाल ही पैदा नहीं होता। ज्यादातर इस पर न तो गौर करते हैं न ही इस मुद्दे पर कभी बात करते देखे जा सकते हैं। हम फाइव स्टार होटल में दसियों पकवान एकसाथ खाने का प्रयास करते हैं और फिर बौद्धिक अहम को पालने व मानसिक भूख को शांत करने के लिए भूखमरी पर सेमिनार कर लेते हैं। बस। हमारे कई देशवासी भाई भूखे पेट सोते हैं, इसके लिए व्रत नहीं रखते, आंदोलन नहीं करते। हां, समाज-सेवा का दिखावा कर सकते हैं। इस विशिष्ट वर्ग के लिए भूख से मरना एक खबर होती है। जो किसी सनसनी से कम नहीं। और फिल्मी ग्लिसरीन से रोने की तरह इनकी संवदेना भी कृत्रिम हो जाती है। मानवीय भावनाएं कब आधुनिक युग की चकाचौंध के बीच गुम हो गयी, पता ही नहीं चला। हम अपने बाजार को देख लें, जितनी दुकानें कपड़ों की है, क्या उतनी ही खाने-पीने की भी हैं? नहीं। भव्य आलीशान फाइव स्टार होटलों की संख्या तो बढ़ रही है मगर कई जगहों पर आम खाने-पीने के होटलों को बंद करके उसी स्थान को नये लुक के साथ, वहां कपड़े और सौंदर्य प्रसाधन के सामान बेचते दुकानदार देखे जा सकते हैं। समाचारपत्रों में नये-नये मॉडल की गाड़ियों को लांच करते हुए बड़े-बड़े स्टार देखे जा सकते हैं, हमें उसकी जानकारी भी हो जाती है। हम इन प्रॉडक्ट को खरीदें न खरीदें लेकिन उसके एक-एक पहलू को विस्तार से जानते हैं। मगर हम में से कितने हैं जो यह जानते हैं कि गेहूं-ज्वार-बाजरा कैसे पैदा किया जाता है? चावल की कौन-सी नयी किस्म आने वाली है? वो हमारे लिए कितने फायदेमंद हो सकती है? मीडिया संसेक्स के उछाल से तो भरा होता है, राजनीतिक दांव-पेंच भी चलते रहते हैं, पेज थ्री के चमकते सितारों की हर निजी बात को हम बखूबी जानते हैं या जानने की उत्सुकता रखते हैं, लेकिन यह नहीं जानते कि देश में किसान, खेत-खलिहान, खाद्य, नहर व जल व्यवस्था की क्या स्थिति है। हम इसके प्रति कितने जागरूक हैं? क्या बाजार ने कभी इसके प्रति उत्सुकता पैदा करने की कोशिश की? नहीं। और फिर करे भी क्यों। बाजार के क्रूर संचालकों को पता है कि भूख लगने पर खाने का सामान तो बिकेगा ही, तो फिर उसके लिए कोशिश क्यूं की जाए? क्या आवश्यकता है? उनके मतानुसार तो प्रयास वहां किया जाता है जहां जरूरतें पैदा करके जबरन बेचना हो। फिर चाहे वो समाज के लिए नुकसानदायक ही क्यों न हो!! है न विडंबना!! हम अपने मेधावी युवा वर्ग को डॉक्टर-इंजीनियर बनाना चाहते हैं। युवा वर्ग भी मैनेजमेंट की संस्थाओं में प्रवेश पाने के लिए दिन-रात पागल रहता है। क्या यहां सिद्धांत अमृत की तरह पिलाये जाते हैं? बिल्कुल नहीं। उलटे हम पढ़े-लिखे मूर्ख की तरह व्यवहार करते हैं। हम में से कितने पढ़े-लिखे हैं जो किसान बनना चाहेंगे? न के बराबर। कभी-कभी तो लगता है कि अति बौद्धिक जन को उपभोक्ता सामान और खाद्यान्न के बीच की प्राथमिकता का अंदाज ही नहीं!! समाज ने ये कैसी हवा बहा रखी है कि हममें से अधिकांश गांव की ओर जाना भी नहीं चाहते। और गये भी तो पर्यटक की तरह। सभी नौकरी और पैकेज के चक्कर में शहर की गलियों में भागते रहते हैं। मगर ये नहीं समझते कि नौकरी में चाहे जितने लाख का वेतन हो, ये कागज के टुकड़े ही रहेंगे, आखिरकार खाने के लिए रोटी-दाल ही चाहिए। इसे अपनी बौद्धिक भ्रमता और आधुनिक काल की विडंबना ही कहेंगे कि हम अपनी मूल के विस्तार और नींव को मजबूत करने में दिमाग नहीं लगाते। खुली अर्थव्यवस्था का स्वप्निल मायाजाल है कि प्रचार सामग्री व विज्ञापन द्वारा बेचने खरीदने के जंजाल में अच्छे से अच्छे बुद्धिमान को फंसा दिया जाता है। और अधिक हुआ तो आर्थिक जोड़ गुना में धकेल दिया जाता है। सरकारी नौकरी का रुतबा आकर्षित करता है तो आईएएस और आईपीएस की परीक्षा पास करने के लिए कुछ भी करने को तैयार हो जाते हैं। इन सबके लिए हजारों-लाखों खर्च करके कोचिंग की व्यवस्था की जाती है। और फिर भी कुछ न हुआ तो लाखों खर्च कर बच्चे को किसी भी तरह विदेश भेजने की कोशिश की जाती है। क्या आपने कभी किसी मां-बाप को अपने होनहार बेटे-बेटी को खेत-खलिहान संबंधित विषयों में पढ़ने के लिए भेजे जाने में इच्छुक देखा-सुना है? क्या कोई शिक्षक अपनी कक्षा के अव्वल छात्र को कृषि विज्ञान पढ़ने के लिए प्रेरित करता है? यह कैसा समाज है जो अपने योग्य युवाओं को बस इंजीनियर-मैनेजमेंट के क्षेत्र में भेजना चाहता है जहां मुद्रा के चक्रव्यूह को रचने में उसकी बौद्धिक क्षमता का इस्तेमाल होता है। बुद्धि का इस्तेमाल चतुर-चालाकी में लगाकर बाजार की अंधेरी कोठरी को कृत्रिम चकाचौंध से रोशन किया जाता है। उपभोक्ताओं की आंखों को चुंधिया दिया जाता है, जहां उजाला तो है मगर तेजी इतनी कि और कुछ दिखता ही नहीं। इसका प्रभाव इतना गहरा है कि यह जानते हुए भी कि सोने के सिक्के हो या प्लास्टिक करंसी या फिर वर्चुअल कंप्यूटर की काल्पनिक मुद्रा का आदान-प्रदान, इससे पेट नहीं भरता। छूने पर सब कुछ सोना हो जाने के वरदान की कहानी का हश्र हम बचपन से पढ़ चुके हैं लेकिन उसी मृगमरीचिका की ओर भागते हैं। आदमी की फितरत भी ऐसी कि वह अंतरिक्ष में जा सकता है, वैज्ञानिक बन सकता है, एटमबम फोड़ सकता है, नयी-नयी मशीनों की खोज कर सकता है, लेकिन सबका पेट भरने वाले अन्न जल के क्षेत्र में नहीं जाता। विदेश में जाकर होटल में बेयरे का काम कर सकता है, बर्तन साफ कर सकता है, गाड़ी चला सकता है, शौचालय साफ कर सकता है, लेकिन अपने देश में हल नहीं चला सकता। कहा जाता है कि इसमें उतनी कमाई नहीं। तो यहां पूछा जाना चाहिए कि ये कैसी अर्थव्यवस्था है? यह कैसी समाज की संरचना है कि जिसमें वही भूखा रह जाता है जो सबका पेट भरता है। असल में हमारी तमाम वितरण व्यवस्थाओं ने किसानों की कमर को तोड़कर रखा है। यह कोई नहीं समझ रहा कि ऐसे हालात में फिर कौन करेगा खेती? कौन लगायेगा अनाज, फल, फूल? और जब ये न होगा तो हम क्या खायेंगे? कपड़े के बिना तो शायद रहा जा सकता है, गाड़ी के बिना तो पूरी जिंदगी गुजारी जा सकती है, मकान के बिना भी जीवन खत्म नहीं होगा, लेकिन भोजन के बिना तो शायद हम कुछ दिन भी न जी पायें। हम में से कितने हैं जो यह सत्य को स्वीकार करते हैं। हम में से अधिकांश कपड़े, मेकअप व फैशन में पागल हुए जा रहे हैं लेकिन यह भूलते जा रहे हैं कि स्वस्थ शरीर के बिना यह सब व्यर्थ है। सुंदर चेहरा और आकर्षक व्यक्तित्व के लिए चाहिए शुद्ध भोजन। हम मनोरंजन के चक्कर में जीवन लगा देते हैं। लेकिन यह नहीं जानते कि इनका उपभोग करने के लिए मन-मस्तिष्क का स्वस्थ होना ज्यादा जरूरी है। हम अपने बच्चों को चपरासी की नौकरी में लगाने के लिए घूंस देने को तैयार हो जाते हैं लेकिन किसी किसान के साथ काम करने के लिए भेजने से हिचकिचाते हैं, ऐसा क्यों? और अगर इस क्षेत्र में भविष्य सुरक्षित नहीं तो यह कृत्रिम बाजार की मायावी अर्थव्यवस्था का जाल है। होना तो यह चाहिए कि इस क्षेत्र में सर्वश्रेष्ठ बुद्धि लगे, मैनेजमेंट की उत्तम व्यवस्था हो, सबसे अधिक प्रोत्साहन हो, पैसा हो, जिससे युवा आकर्षित हों। लेकिन है उलटा। खेतों को नष्ट कर बड़ी-बड़ी फैक्टरी बनाने वाले हम मानव कब समझेंगे कि पेट लोहे, गाड़ियां, सीमेंट, एल्युमीनियम, प्लास्टिक, कंप्यूटर और सॉफ्टवेयर से नहीं भरता। यह भरता है सीधे जमीन से पैदा होने वाले अनाज से, फल से, सब्जियों से, जिसके बिना एक फैक्टरी का मालिक भी करोड़ों कमाकर जिंदा नहीं रह सकता।
यह लेख मनोज सिंह द्वारा लिखा गया है.मनोजसिंह ,कवि ,कहानीकार ,उपन्यासकार एवं स्तंभकार के रूप में प्रसिद्ध है .आपकी'चंद्रिकोत्त्सव ,बंधन ,कशमकश और 'व्यक्तित्व का प्रभाव' आदि पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी है.
Nice written piece.. Ye meri vicharon se milta julta hai .. Hum andar ja kar samasya ka smadhan nahi dhoondte .. upar se kuch karne ki ksohish karte hain .. usme bhi rajnitik rang chad jata hai..
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