मनोज सिंह पिछले दिनों दिल्ली विश्वविद्यालय सुर्खियों में था। किसी चुनावी राजनीति या छात्र आंदोलन को लेकर नहीं, बल्कि कालेजों में इस...
मनोज सिंह |
पिछले दिनों दिल्ली
विश्वविद्यालय सुर्खियों
में था। किसी चुनावी राजनीति
या छात्र आंदोलन को लेकर नहीं,
बल्कि कालेजों में इस वर्ष
का नया दाखिला एक बड़ा मुद्दा
बनकर उभरा था। नये नियमानुसार
प्रत्येक कॉलेज को दाखिलों
के लिए अपना 'कट-ऑफ' मार्क घोषित
करना था। नामी और विशिष्ट कॉलेजों
के लिए आवश्यक प्रतिशत अंक
अत्यधिक ऊंचे और चौंकाने वाले
थे। किसी-किसी महाविद्यालय
में तो शतप्रतिशत अंक वाले
विद्यार्थियों को ही प्रवेश
मिल सकता था। मीडिया ने इस बात
पर अच्छा नोटिस क्या लिया, जमकर
हो-हल्ला तो मचना ही था। दो-तीन
दिन तक खूब चर्चा हुई। कुलपति
ही नहीं, वरिष्ठ मंत्री तक को
अपना वक्तव्य देना पड़ा। हताश
हो रहे नवयुवकों के लिए सांत्वना
के साथ-साथ उत्साहवर्धन भी
जरूरी हो गया था। परेशान छात्रों
को मानो क्षणभर के लिए तिनके
का सहारा मिल गया था; और कुछ
हो न हो आम संवेदनाएं व जनभावनाएं
उनके पक्ष में हुई थीं। अभिभावकों
को भी कहने का मौका मिला और उन्होंने
इसका फायदा उठाया था। टीवी
के कुछ चिर-परीचित चेहरों को
तो किसी भी विषय पर चाहे जब बुलवा
लें। पक्ष-विपक्ष दोनों ओर
से घंटों धाराप्रवाह बोल सकते
हैं। चौबीस घंटे चलने वाले
न्यूज चैनलों को खाली समय भरने
के लिए कुछ तो चाहिए। असल में
इन चैनलों के लिए यह एक खबर मात्र
थी। फास्ट-फूड की तर्ज पर इस
पर फटाफट चर्चा की गई और तुरंत
आनन-फानन में निष्कर्ष निकाल
लिये गये। हो सकता है मीडिया
के दबाव में आकर कुछ एक ताबड़तोड़
फैसले भी लिये जाएं। अब यह अच्छा
होगा या बुरा, यह तो समय ही बताएगा
जो कि भविष्य के गर्भ में छिपा
है। बहरहाल, चर्चा के दौरान
एक और प्रतियोगिता परीक्षा
की बात उभरकर सामने आयी थी।
यह भी हो सकता है कि कुछ सीटें
कॉलेजों में बढ़ा दी जाएं और
कालांतर में कट-ऑफ भी नीचे आ
जाये। मगर शिक्षा जैसे महत्वपूर्ण
मुद्दे पर आवश्यक हो जाता है
कि शांतिपूर्वक बैठकर गहराई
में जाकर व्यवस्थित सोच बनाई
जाए। चंूकि यह सीधे-सीधे समाज
की आत्मा को प्रभावित करने
वाला ज्ञान का क्षेत्र है।
इसीलिए यथासंभव सुनिश्चित
किया जाना चाहिए कि नीतिगत
फैसलों का दूरगामी परिणाम सकारात्मक
ही हों।
प्रथम प्रश्न स्वाभाविक
रूप से आता है कि ऐसा हुआ ही
क्यूं? इसके कई कारण उभरते हैं।
ध्यान से देखें तो सिर्फ कुछ
विशिष्ट महाविद्यालयों के
नाम ही सुर्खियों में हैं।
उंगलियों में गिने जाने वाले
ये कुछ कॉलेज ब्रांड बन चुके
हैं। हर एक अच्छा विद्यार्थी
इनकी ओर ही भागता है। आखिर क्यों?
इस प्रश्न के जवाब में कहा जाएगा,
यह एक स्वाभाविक-सी बात है।
सच तो है, हर एक छात्र अच्छी-सी
अच्छी शिक्षा ग्रहण करना चाहता
है। यही बात संबंधित अभिभावकों
पर भी लागू होगी। बच्चे का भविष्य,
उसका जीवन, सब कुछ इसी तथ्य पर
जो टिका है। तो फिर सवाल आता
है कि अन्य कॉलेजों में ऐसी
स्थिति क्यों नहीं? प्रवेश
के लिए प्रतिस्पर्धा के स्तर
में इनके बीच समरूपता या एक
किस्म की समानता क्यों नहीं?
आखिरकार आपस में तुलनात्मक
स्तर क्यों नहीं? क्या अन्य
महाविद्यालयों में सक्षम फैकल्टी
नहीं है? इसका जवाब तो न ही होना
चाहिए। चूंकि विश्वविद्यालय
के कॉलेजों में लेक्चरर/प्रोफेसर
की नियुक्ति एक ही शर्तों व
गुणवत्ता के आधार पर की जाती
है। तो फिर आचार्य-प्रचार्य
की क्षमताओं पर प्रश्न उठना
ही नहीं चाहिए। तो कहीं कॉलेज
का मैनेजमेंट महाविद्यालयों
को नामी व उत्कृष्ट बनाने में
प्रमुख भूमिका तो अदा नहीं
करता? हो सकता है। दुविधा तो
यह भी होती है कि कहीं यह बाजारवाद
का खेल तो नहीं!! जहां नाम बिकता
है। असल में यह एक चक्र है। जहां
अच्छे बच्चे जाएंगे फिर चाहे
वहां अच्छी पढ़ाई न भी हो तो
भी वहां के रिजल्ट अच्छे तो
आएंगे ही, और फिर नाम होगा तो
अगले वर्ष भी अच्छे ही बच्चे
प्रवेश लेंगे। अर्थात एक बार
नाम हो जाए तो फिर ज्यादा कुछ
करने की आवश्यकता नहीं रह जाती।
फिर व्यवस्था को यथास्थिति
में चलाने से भी काम चल सकता
है।
मगर एक सवाल इसमें
से भी निकलता है कि अच्छे परिणाम
की परिभाषा क्या है? वर्तमान
में देखें तो उत्तर होगा, अच्छी
नौकरी!! अच्छा पैकेज!! बस, इस चक्र
में कुछ एक विशिष्ट विषय अधिक
डिमांड में आ जाते हैं। बाजार
का युग है। सब कुछ बेचना है।
क्रय-विक्रय ही समाज का आधार
बनता जा रहा है। पैसा मुख्य
केंद्र बिंदु है। ऐसे में तो
कॉमर्स और इकोनॉमिक्स का बोलबाला
स्वाभाविक है। यही कारण है
जो इन विषयों के लिए छात्रों
के बीच मारामारी मची हुई है।
तो क्या शिक्षा और व्यापार
साथ-साथ खड़े हो चुके हैं? बहुत
हद तक शिक्षा बाजार की दुकानों
में सुशोभित हो चुकी है। बिकने
के लिए तैयार। यहां ज्ञान-विद्या
जैसे शब्दों का प्रयोग करना
उचित न होगा। सच तो यह है कि
डिग्री का उद्देश्य सिर्फ पैसा
कमाना बन चुका है। यह अहम व विचारणीय
मुद्दा है। जिसकी व्याख्या
छात्र नहीं कर सकते। इसकी जिम्मेदारी
के साथ-साथ जवाब भी समाज और व्यवस्था
को ही देना होगा। अभिभावक भी
इसमें क्या कर सकते हैं? जिस
तरह की चकाचौंध भरे रास्ते
पर दुनिया चल रही है, प्रतिभाएं
तो इस ओर जाएंगी ही। मगर बड़ों
से पूछा जाना चाहिए कि समाज
के अस्तित्व और विकास के लिए
क्या व्यापार ही एकमात्र क्षेत्र
बचा रह जाता है? क्या उन्नति
का कोई और मार्ग शेष नहीं? बिल्कुल
है। संस्कृति, कला, भाषा, इतिहास,
दर्शन उसके मूल तत्व हैं, और
बने रहेंगे। जीवन बाजार नहीं
बन सकता। उसका स्पंदन दिल से
संचालित होता है। यह दीगर बात
है कि हम अर्थशास्त्र के चक्र
में पड़कर सबको भूलते जा रहे
हैं। भावनाओं के साथ खिलवाड़
कर रहे हैं। भविष्य में यह अनदेखी
महंगी और उत्पन्न हुई असमानता
बड़ी भारी पड़ेगी।
सबसे बड़ मुद्दा
तो यहां यह है कि क्या किसी एक
परीक्षा में प्राप्त अंक की
प्रतिभा का पैमाना हो सकता
है? शतप्रतिशत वाला 99 अंक वाले
से अधिक प्रतिभाशाली होगा,
क्या यह जरूरी है? वो भी मात्र
एक प्रश्नपत्र आधारित परीक्षा
के कारण? अजीब विडंबना है। ऐसे
कई उदाहरण मिल जाएंगे जहां
छात्र कक्षा प्रथम से लेकर
बारहवीं तक पढ़ाई में सर्वश्रेष्ठ
बना रहा, मगर किसी कारणवश किसी
एक प्रतियोगिता परीक्षा में
एक-दो नंबरों से चूक गया और आगे
की श्रेष्ठ शिक्षा के क्षेत्र
से बाहर हो गया। दूसरी ओर, एक
छात्र ने सिर्फ अंतिम परीक्षा
में पूरी शक्ति से दौड़ लगा
दी और भाग्यवश जीत भी गया। यहां
पूरी जिंदगी मेहनत करने वाले
उस प्रतिभावान छात्र के हतोत्साहित
होने की कोई सीमा नहीं बताई
जा सकती। हमने किसी-किसी परीक्षा
को इतना महत्वपूर्ण बना दिया
कि यह भी अपने आप में जटिलता
की पहचान बनकर उभरता जा रहा
है। प्रतिष्ठा से जोड़कर इसे
छात्रों के बीच जीवन-मरण बना
दिया गया है। दबाव इतना अधिक
हो जाता है कि छात्रों की मन:स्थिति
के बारे में कुछ भी कहना कम होगा।
अध्ययन-अध्यापन के क्षेत्र
में ही नहीं छात्र जीवन में
यह तंग सुरंग का काम करता है
'बोटल नेक!' जहां आकर सब ठहर जाते
हैं। जो निकल गया वह आगे बढ़
जाता है। जो रुक गया वह अंदर
ही अंदर हीनभावना से ग्रस्त
होकर अस्तित्वहीन हो जाता है।
किसी भी व्यवस्था में किसी
एक बिंदु को अत्यधिक महत्वपूर्ण
बना देना किसी भी दृष्टि से
उचित नहीं हो सकता। यह सारी
व्यवस्था को कमजोर बनाता है।
यह कई तरह की बीमारियों को जन्म
दे सकता है और इसके प्रभावित
होने से पूरी व्यवस्था पर असर
पड़ता है। यही नहीं, शिक्षा
के क्षेत्र में अधिकांश बोर्ड
व विद्यालय-कक्षा की पारंपरिक
परीक्षाओं के मायने खत्म होते
जा रहे हैं। स्कूल की पढ़ाई
की ओर ध्यान ही नहीं दिया जाता।
सब कोचिंग की ओर भागते हैं।
यह एक तरह का बिना मजबूत नींव
के सुंदर मकान बनाने जैसा काम
है। मगर इसकी ऊपरी चमक से बचना
मुश्किल हो चुका है। इन्हीं
प्रतियोगी परीक्षाओं ने कोचिंग
के चक्र में शिक्षा को भी व्यापार
बना डाला और प्रतिभा खोज को
एक कंप्यूटराइज्ड मशीन की प्रणाली।
यह प्रतिभाएं शिक्षा ग्रहण
करने के उद्देश्य से नहीं सिर्फ
सफलता के लिए परीक्षा में बैठती
हैं। पैकेज और नौकरी पर ध्येय
बनाया जाता है। इन्हें ज्ञान
के मूल तत्व से मतलब नहीं होता।
ऐसा करने पर हम उसके परिणाम
से कैसे बच सकते हैं? शायद तभी
भारत की कोई भी संस्थान अच्छे
कर्मचारी और प्रोफेशनल तो पैदा
कर देती है, वैज्ञानिक-शोधकर्ता
और ज्ञानी इतिहास पुरुष नहीं
रचती। और फिर हम बहस करते हैं
कि हमारे यहां से किसी भी क्षेत्र
में खोज क्यूं नहीं होती? नोबल
पुरस्कार क्यूं नहीं मिलता?
इतिहास क्यूं नहीं रचा जाता?
यह लेख मनोज सिंह द्वारा लिखा गया है.मनोजसिंह ,कवि ,कहानीकार ,उपन्यासकार एवं स्तंभकार के रूप में प्रसिद्ध है .आपकी'चंद्रिकोत्त्सव ,बंधन ,कशमकश और 'व्यक्तित्व का प्रभाव' आदि पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी है.
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