मोहन राकेश गतांक से आगे ..... बाबू लोग भीड़ को हटाते हुए आगे बढ़ आये और उन्होंने चपरासी को उस आदमी के प...
मोहन राकेश |
बाबू लोग भीड़ को हटाते हुए आगे बढ़ आये और उन्होंने चपरासी को उस
आदमी के पास से हटा लिया। चपरासी फिर भी बड़बड़ाता रहा, “कमीना
आदमी,
दफ़्तर में आकर गाली देता है। मैं अभी तुझे दिखा देता कि...”
“एक
तुम्हीं नहीं,
यहाँ तुम सबके-सब कुत्ते हो,”
वह आदमी कहता रहा,
“तुम
सब भी कुत्ते हो,
और मैं भी कुत्ता हूँ। फर्क़ सिर्फ़ इतना है कि तुम लोग सरकार के
कुत्ते हो—हम
लोगों की हड्डियाँ चूसते हो और सरकार की तरफ़ से भौंकते हो। मैं
परमात्मा का कुत्ता हूँ। उसकी दी हुई हवा खाकर जीता हूँ,
और उसकी तरफ़ से भौंकता हूँ। उसका घर इन्साफ़ का घर है। मैं उसके घर की
रखवाली करता हूँ। तुम सब उसके इन्साफ़ की दौलत के लुटेरे हो। तुम पर
भौंकना मेरा फर्ज़ है,
मेरे मालिक का फरमान है। मेरा तुमसे अज़ली बैर है। कुत्ते का बैरी
कुत्ता होता है। तुम मेरे दुश्मन हो,
मैं तुम्हारा दुश्मन हूँ। मैं अकेला हूँ,
इसलिए तुम सब मिलकर मुझे मारो। मुझे यहाँ से निकाल दो। लेकिन मैं फिर
भी भौंकता रहूँगा। तुम मेरा भौंकना बन्द नहीं कर सकते। मेरे अन्दर
मेरे मालिक का नर है,
मेरे वाहगुरु का तेज़ है। मुझे जहाँ बन्द कर दोगे,
मैं वहाँ भौंकूँगा,
और भौंक-भौंककर तुम सबके कान फाड़ दूँगा। साले,
आदमी के कुत्ते,
जूठी हड्डी पर मरनेवाले कुत्ते दुम हिला-हिलाकर जीनेवाले कुत्ते...!”
“बाबा
जी,
बस करो,”
एक बाबू हाथ जोडक़र बोला,
“हम
लोगों पर रहम खाओ,
और अपनी यह सन्तबानी बन्द करो। बताओ तुम्हारा नाम क्या है,
तुम्हारा केस क्या है...?”
“मेरा
नाम है बारह सौ छब्बीस बटा सात! मेरे माँ-बाप का दिया हुआ नाम खा
लिया कुत्तों ने। अब यही नाम है जो तुम्हारे दफ़्तर का दिया हुआ है।
मैं बारह सौ छब्बीस बटा सात हूँ। मेरा और कोई नाम नहीं है। मेरा यह
नाम याद कर लो। अपनी डायरी में लिख लो। वाहगुरु का कुत्ता—बारह
सौ छब्बीस बटा सात।”
“बाबा
जी,
आज जाओ,
कल या परसों आ जाना। तुम्हारी अर्ज़ी की कार्रवाई तकरीबन-तकरीबन पूरी
हो चुकी है...।”
“तकरीबन-तकरीबन
पूरी हो चुकी है! और मैं खुद ही तकरीबन-तकरीबन पूरा हो चुका हूँ! अब
देखना यह है कि पहले कार्रवाई पूरी होती है,
कि पहले मैं पूरा होता हूँ! एक तरफ़ सरकार का हुनर है और दूसरी तरफ़
परमात्मा का हुनर है! तुम्हारा तकरीबन-तकरीबन अभी दफ़्तर में ही रहेगा
और मेरा तकरीबन-तकरीबन कफ़न में पहुँच जाएगा। सालों ने सारी पढ़ाई
ख़र्च करके दो लफ़्ज ईज़ाद किये हैं—शायद
और तकरीबन।
‘शायद
आपके काग़ज़ ऊपर चले गये हैं—तकरीबन-तकरीबन
कार्रवाई पूरी हो चुकी है!’
शायद से निकालो और तकरीबन में डाल दो! तकरीबन से निकालो और शायद में
गर्क़ कर दो। तकरीबन तीन-चार महीने में तहक़ीक़ात होगी।...शायद महीने-दो
महीने में रिपोर्ट आएगी।’
मैं आज शायद और तकरीबन दोनों घर पर छोड़ आया हूँ। मैं यहाँ बैठा हूँ
और यहीं बैठा रहूँगा। मेरा काम होना है,
तो आज ही होगा और अभी होगा। तुम्हारे शायद और तकरीबन के गाहक ये सब
खड़े हैं। यह ठगी इनसे करो...।”
बाबू लोग अपनी सद्भावना के प्रभाव से निराश होकर एक-एक करके अन्दर
लौटने लगे।
“बैठा
है,
बैठा रहने दो।”
“बकता
है,
बकने दो।”
“साला
बदमाशी से काम निकालना चाहता है।”
“लेट
हिम बार्क हिमसेल्फ टु डेथ।”
बाबुओं के साथ चपरासी भी बड़बड़ाता हुआ अपने स्टूल पर लौट गया।
“मैं
साले के दाँत तोड़ देता। अब बाबू लोग हाक़िम हैं और हाक़िमों का कहा
मानना पड़ता है,
वरना...”
“अरे
बाबा,
शान्ति से काम ले। यहाँ मिन्नत चलती है,
पैसा चलता है,
धौंस नहीं चलती,”
भीड़ में से कोई उसे समझाने लगा।
वह आदमी उठकर खड़ा हो गया।
“मगर
परमात्मा का हुक्म हर जगह चलता है,”
वह अपनी कमीज़ उतारता हुआ बोला,
“और
परमात्मा के हुक़्म से आज बेलाज बादशाह नंगा होकर कमिश्नर साहब के
कमरे में जाएगा। आज वह नंगी पीठ पर साहब के डंडे खाएगा। आज वह बूटों
की ठोकरें खाकर प्रान देगा। लेकिन वह किसी की मिन्नत नहीं करेगा।
किसी को पैसा नहीं चढ़ाएगा। किसी की पूजा नहीं करेगा। जो वाहगुरु की
पूजा करता है,
वह और किसी की पूजा नहीं कर सकता। तो वाहगुरु का नाम लेकर...”
और इससे पहले कि वह अपने कहे को किये में परिणत करता,
दो-एक आदमियों ने बढक़र तहमद की गाँठ पर रखे उसके हाथ को पकड़ लिया।
बेलाज बादशाह अपना हाथ छुड़ाने के लिए संघर्ष करने लगा।
“मुझे
जाकर पूछने दो कि क्या महात्मा गाँधी ने इसीलिए इन्हें आज़ादी दिलाई
थी कि ये आज़ादी के साथ इस तरह सम्भोग करें?
उसकी मिट्टी ख़राब करें?
उसके नाम पर कलंक लगाएँ?
उसे टके-टके की फ़ाइलों में बाँधकर ज़लील करें?
लोगों के दिलों में उसके लिए नफ़रत पैदा करें?
इन्सान के तन पर कपड़े देखकर बात इन लोगों की समझ में नहीं आती। शरम
तो उसे होती है जो इन्सान हो। मैं तो आप कहता हूँ कि मैं इन्सान नहीं,
कुत्ता हूँ...!”
सहसा भीड़ में एक दहशत-सी फैल गयी। कमिश्नर साहब अपने कमरे से बाहर
निकल आये थे। वे माथे की त्योरियों और चेहरे की झुर्रियों को गहरा
किये भीड़ के बीच में आ गये।
“क्या
बात है?
क्या चाहते हो तुम?”
“आपसे
मिलना चाहता हूँ,
साहब,”
वह आदमी साहब को घूरता हुआ बोला,
“सौ
मरले का एक गड्ढा
मेरे नाम एलाट हुआ है। वह गड्ढा
आपको वापस करना चाहता हूँ ताकि सरकार उसमें एक तालाब बनवा दे,
और अफ़सर लोग शाम को वहाँ जाकर मछलियाँ मारा करें। या उस गड्ढे में
सरकार एक तहख़ाना बनवा दे और मेरे जैसे कुत्तों को उसमें बन्द कर
दे...।”
“ज़्यादा
बक-बक मत करो,
और अपना केस लेकर मेरे पास आओ।”
“मेरा
केस मेरे पास नहीं है,
साहब! दो साल से सरकार के पास है—आपके
पास है। मेरे पास अपना शरीर और दो कपड़े हैं। चार दिन बाद ये भी नहीं
रहेंगे,
इसलिए इन्हें भी आज ही उतारे दे रहा हूँ। इसके बाद बाकी सिर्फ़ बारह
सौ छब्बीस बटा सात रह जाएगा। बारह सौ छब्बीस बटा सात को मार-मारकर
परमात्मा के हु$जूर
में भेज दिया जाएगा...।”
“यह
बकवास बन्द करो ओर मेरे साथ अन्दर आओ।”
और कमिश्नर साहब अपने कमरे में वापस चले गये। वह आदमी भी कमीज़ कन्धे
पर रखे उस कमरे की तरफ़ चल दिया।
“दो
साल चक्कर लगाता रहा,
किसी ने बात नहीं सुनी। ख़ुशामदें करता रहा,
किसी ने बात नहीं सुनी। वास्ते देता रहा,
किसी ने बात नहीं सुनी...।”
चपरासी ने उसके लिए चिक उठा दी और वह कमिश्नर साहब के कमरे में दाख़िल
हो गया। घंटी बजी,
फ़ाइलें हिलीं,
बाबुओं की बुलाहट हुई,
और आधे घंटे के बाद बेलाज बादशाह मुस्कराता हुआ बाहर निकल आया।
उत्सुक आँखों की भीड़ ने उसे आते देखा,
तो वह फिर बोलने लगा,
“चूहों
की तरह बिटर-बिटर देखने में कुछ नहीं होता। भौंको,
भौंको,
सबके-सब भौंको। अपने-आप सालों के कान फट जाएँगे। भौंको कुत्तो,
भौंको...”
उसकी भौजाई दोनों बच्चों के साथ गेट के पास खड़ी इन्तज़ार कर रही थी।
लडक़े और लडक़ी के कन्धों पर हाथ रखते हुए वह सचमुच बादशाह की तरह सडक़
पर चलने लगा।
“हयादार
हो,
तो सालहा-साल मुँह लटकाए खड़े रहो। अर्ज़ियाँ टाइप कराओ और नल का पानी
पियो। सरकार वक़्त ले रही है! नहीं तो बेहया बनो। बेहयाई हज़ार बरकत
है।”
वह सहसा रुका और ज़ोर से हँसा।
“यारो,
बेहयाई हज़ार बरकत है।”
उसके चले जाने के बाद कम्पाउंड में और आस-पास मातमी वातावरण पहले से
और गहरा हो गया। भीड़ धीरे-धीरे बिखरकर अपनी जगहों पर चली गयी।
चपरासी की टाँगें फिर स्टूल पर झूलने लगीं। सामने के कैंटीन का लडक़ा
बाबुओं के कमरे में एक सेट चाय ले गया। अर्ज़ीनवीस की मशीन चलने लगी
और टिक-टिक की आवाज़ के साथ उसका लडक़ा फिर अपना सबक दोहराने लगा।
“पी
ई एन पेन—पेन
माने कलम;
एच ई एन हेन—हेन
माने मुर्गी;
डी ई ऐन डेन—डेन
माने अँधेरी गुफा.
**समाप्त **
आज ऐसा ही करना पडेगा तभी बात बनेगी।
जवाब देंहटाएंbahut achchha
जवाब देंहटाएंyah soch kar achha lagta hai ki Mohan Rakesh ji us waqt bhi itne achhe vichar likh gaye hain. yah desh ki vidambana hai ki itne saalon baad aaj bhi desh ki halat wahi bani huyi hai. isliye aaj Anna Hazare jaise logon ko apne haq ki ladaki ke liye anshan karna pad raha hai. Sarkari offices ki haalat aaj se 50 saal pehle jo thi, aaj bhi wahi hai.
जवाब देंहटाएंi am glad to be here and thanks to ur site to do the job for hindi kindly attach a hindi typewriter in this colum so we can type our views in hindi
जवाब देंहटाएंrajeev srivastava
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Yug beeta beete nahi hori ke haalaat....wahi phoos kee jhopari wahi poos ki raat
जवाब देंहटाएंkailash
मेरी प्रिय एवं पसंदीदा कहानियों मेँ यह विशेष स्थान रखती है .... मैं इसे आगरा मेँ आज़माया भी हूँ.... सफलता भी मिली है... ।
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