मोहन राकेश बहुत-से लोग यहाँ-वहाँ सिर लटकाए बैठे थे जैसे किसी का मातम करने आए हों। कुछ लोग अपनी पोटलिया...
मोहन राकेश |
बहुत-से लोग यहाँ-वहाँ सिर लटकाए बैठे थे जैसे किसी का मातम करने आए
हों। कुछ लोग अपनी पोटलियाँ खोलकर खाना खा रहे थे। दो-एक व्यक्ति
पगडिय़ाँ सिर के नीचे रखकर कम्पाउंड के बाहर सडक़ के किनारे बिखर गये
थे। छोले-कुलचे वाले का रोज़गार गरम था,
और कमेटी के नल के पास एक छोटा-मोटा क्यू लगा था। नल के पास कुर्सी
डालकर बैठा अर्ज़ीनवीस धड़ाधड़ अर्ज़ियाँ टाइप कर रहा था। उसके माथे से
बहकर पसीना उसके होंठों पर आ रहा था,
लेकिन उसे पोंछने की फुरसत नहीं थी। सफ़ेद दाढिय़ों वाले दो-तीन
लम्बे-ऊँचे जाट,
अपनी लाठियों पर झुके हुए,
उसके खाली होने का इन्तज़ार कर रहे थे। धूप से बचने के लिए अर्ज़ीनवीस
ने जो टाट का परदा लगा रखा था,
वह हवा से उड़ा जा रहा था। थोड़ी दूर मोढ़े पर बैठा उसका लडक़ा
अँग्रेज़ी प्राइमर को रट्टा लगा रहा था—सी
ए टी कैट—कैट
माने बिल्ली;
बी ए टी बैट—बैट
माने बल्ला;
एफ ए टी फैट—फैट
माने मोटा...। कमीज़ों के आधे बटन खोले और बगल में फ़ाइलें दबाए कुछ
बाबू एक-दूसरे से छेडख़ानी करते,
रजिस्ट्रेशन ब्रांच से रिकार्ड ब्रांच की तरफ जा रहे थे। लाल बेल्ट
वाला चपरासी,
आस-पास की भीड़ से उदासीन,
अपने स्टूल पर बैठा मन ही मन कुछ हिसाब कर रहा था। कभी उसके होंठ
हिलते थे,
और कभी सिर हिल जाता था। सारे कम्पाउंड में सितम्बर की खुली धूप फैली
थी। चिडिय़ों के कुछ बच्चे डालों से कूदने और फिर ऊपर को उडऩे का
अभ्यास कर रहे थे और कई बड़े-बड़े कौए पोर्च के एक सिरे से दूसरे
सिरे तक चहलक़दमी कर रहे थे। एक सत्तर-पचहत्तर की बुढिय़ा,
जिसका सिर काँप रहा था और चेहरा झुर्रियों के गुंझल के सिवा कुछ नहीं
था,
लोगों से पूछ रही थी कि वह अपने लडक़े के मरने के बाद उसके नाम एलाट
हुई ज़मीन की हकदार हो जाती है या नहीं...?
अन्दर हॉल कमरे में फ़ाइलें धीरे-धीरे चल रही थीं। दो-चार बाबू बीच की
मेज़ के पास जमा होकर चाय पी रहे थे। उनमें से एक दफ़्तरी कागज़ पर लिखी
अपनी ताज़ा ग़ज़ल दोस्तों को सुना रहा था और दोस्त इस विश्वास के साथ
सुन रहे थे कि वह ग़ज़ल उसने
‘शमा’
या ‘बीसवीं
सदी’
के किसी पुराने अंक में से उड़ाई है।
“अज़ीज़
साहब,
ये शेअर आपने आज ही कहे हैं,
या पहले के कहे हुए शेअर आज अचानक याद हो आए हैं?”
साँवले चेहरे और घनी मूँछों वाले एक बाबू ने बायीं आँख को ज़रा-सा
दबाकर पूछा। आस-पास खड़े सब लोगों के चेहरे खिल गये।
“यह
बिल्कुल ताज़ा ग़ज़ल है,”
अज़ीज़ साहब ने अदालत में खड़े होकर हलफिया बयान देने के लहज़े में कहा, “इससे
पहले भी इसी वज़न पर कोई और चीज़ कही हो तो याद नहीं।”
और फिर आँखों से सबके चेहरों को टटोलते हुए वे हल्की हँसी के साथ
बोले, “अपना
दीवान तो कोई रिसर्चदां ही मुरत्तब करेगा...।”
एक फरमायशी कहकहा लगा जिसे
‘शी-शी’
की आवाज़ों ने बीच में ही दबा दिया। कहकहे पर लगायी गयी इस ब्रेक का
मतलब था कि कमिश्नर साहब अपने कमरे में तशरीफ़ ले आये हैं। कुछ देर का
वक्फा रहा,
जिसमें सुरजीत सिंह वल्द गुरमीत सिंह की फ़ाइल एक मेज़ से एक्शन के लिए
दूसरी मेज़ पर पहुँच गयी,
सुरजीत सिंह वल्द गुरमीत सिंह मुसकराता हुआ हॉल से बाहर चला गया,
और जिस बाबू की मेज़ से फ़ाइल गयी थी,
वह पाँच रुपये के नोट को सहलाता हुआ चाय पीने वालों के जमघट में आ
शामिल हुआ। अज़ीज़ साहब अब आवाज़ ज़रा धीमी करके ग़ज़ल का अगला शेअर सुनाने
लगे।
साहब के कमरे से घंटी हुई। चपरासी मुस्तैदी से उठकर अन्दर गया,
और उसी मुस्तैदी से वापस आकर फिर अपने स्टूल पर बैठ गया।
चपरासी से खिड़की का पर्दा ठीक कराकर कमिश्नर साहब ने मेज़ पर रखे
ढेर-से काग़ज़ों पर एक साथ दस्तख़त किए और पाइप सुलगाकर
‘रीडर्ज़
डाइजेस्ट’
का ताज़ा अंक बैग से निकाल लिया। लेटीशिया बाल्ड्रिज का लेख कि उसे
इतालवी मर्दों से क्यों प्यार है,
वे पढ़ चुके थे। और लेखों में हृदय की शल्य चिकित्सा के सम्बन्ध में
जे.डी. रैटक्लिफ का लेख उन्होंने सबसे पहले पढऩे के लिए चुन रखा था।
पृष्ठ एक सौ ग्यारह खोलकर वे हृदय के नए ऑपरेशन का ब्यौरा पढऩे लगे।
तभी बाहर से कुछ शोर सुनाई देने लगा।
कम्पाउंड में पेड़ के नीचे बिखरकर बैठे लोगों में चार नए चेहरे आ
शामिल हुए थे। एक अधेड़ आदमी था जिसने अपनी पगड़ी ज़मीन पर बिछा ली थी
और हाथ पीछे करके तथा टाँगें फैलाकर उस पर बैठ गया था। पगड़ी के सिरे
की तरफ़ उससे ज़रा बड़ी उम्र की एक स्त्री और एक जवान लडक़ी बैठी थीं;
और उनके पास खड़ा एक दुबला-सा लडक़ा आस-पास की हर चीज़ को घूरती नज़र से
देख रहा था,
अधेड़ मरद की फैली हुई टाँगें धीरे-धीरे पूरी खुल गयी थीं और आवाज़
इतनी ऊँची हो गयी थी कि कम्पाउंड के बाहर से भी बहुत-से लोगों का
ध्यान उसकी तरफ़ खिंच गया था। वह बोलता हुआ साथ अपने घुटने पर हाथ मार
रहा था। “सरकार
वक़्त ले रही है! दस-पाँच साल में सरकार फ़ैसला करेगी कि अर्ज़ी मं$जूर
होनी चाहिए या नहीं। सालो,
यमराज भी तो हमारा वक़्त गिन रहा है। उधर वह वक़्त पूरा होगा और इधर
तुमसे पता चलेगा कि हमारी अर्ज़ी मं$जूर
हो गयी है।”
चपरासी की टाँगें ज़मीन पर पुख़्ता हो गयीं,
और वह सीधा खड़ा हो गया। कम्पाउंड में बिखरकर बैठे और लेटे हुए लोग
अपनी-अपनी जगह पर कस गये। कई लोग उस पेड़ के पास आ जमा हुए।
“दो
साल से अर्ज़ी दे रखी है कि सालो,
ज़मीन के नाम पर तुमने मुझे जो गड्ïढा
एलाट कर दिया है,
उसकी जगह कोई दूसरी ज़मीन दो। मगर दो साल से अर्ज़ी यहाँ के दो कमरे ही
पार नहीं कर पायी!”
वह आदमी अब जैसे एक मजमे में बैठकर तकरीर करने लगा, “इस
कमरे से उस कमरे में अर्ज़ी के जाने में वक़्त लगता है! इस मेज़ से उस
मेज़ तक जाने में भी वक़्त लगता है! सरकार वक़्त ले रही है! लो,
मैं आ गया हूँ आज यहीं पर अपना सारा घर-बार लेकर। ले लो जितना वक़्त
तुम्हें लेना है!...सात साल की भुखमरी के बाद सालों ने ज़मीन दी है
मुझे—सौ
मरले का गड्ïढा!
उसमें क्या मैं बाप-दादों की अस्थियाँ गाड़ूँगा?
अर्ज़ी दी थी कि मुझे सौ मरले की जगह पचास मरले दे दी—लेकिन
ज़मीन तो दो! मगर अर्ज़ी दो साल से वक़्त ले रही है! मैं भूखा मर रहा
हूँ,
और अर्ज़ी वक़्त ले रही है!”
चपरासी अपने हथियार लिये हुए आगे आया- माथे
पर त्योरियाँ और आँखों में क्रोध। आस-पास की भीड़ को हटाता हुआ वह
उसके पास आ गया।
“ए
मिस्टर,
चल हियां से बाहर!”
उसने हथियारों की पूरी चोट के साथ कहा,
“चल...उठ...!”
“मिस्टर
आज यहाँ से नहीं उठ सकता1”
वह आदमी अपनी टाँगें थोड़ी और चौड़ी करके बोला, “मिस्टर
आज यहाँ का बादशाह है। पहले मिस्टर देश के बेताज बादशाहों की जय
बुलाता था। अब वह किसी की जय नहीं बुलाता। अब वह खुद यहाँ का बादशाह
है...बेलाज बादशाह7 उसे कोई लाज-शरम नहीं है। उस पर किसी का हुक्म
नहीं चलता। समझे,
चपरासी बादशाह!”
“अभी
तुझे पता चल जाएगा कि तुझ पर किसी का हुक्म चलता है या नहीं,”
चपरासी बादशाह और गरम हुआ,
“अभी
पुलिस के सुपुर्द कर दिया जाएगा तो तेरी सारी बादशाही निकल जाएगी...।”
“हा-हा!”
बेलाज बादशाह हँसा।
“तेरी
पुलिस मेरी बादशाही निकालेगी?
तू बुला पुलिस को। मैं पुलिस के सामने नंगा हो जाऊँगा और कहूँगा कि
निकालो मेरी बादशाही! हममें से किस-किसकी बादशाही निकालेगी पुलिस?
ये मेरे साथ तीन बादशाह और हैं। यह मेरे भाई की बेवा है—उस
भाई की जिसे पाकिस्तान में टाँगों से पकडक़र चीर दिया गया था। यह मेरे
भाई का लडक़ा है जो अभी से तपेदिक का मरीज़ है। और यह मेरे भाई की लडक़ी
है जो अब ब्याहने लायक हो गयी है। इसकी बड़ी कुँवारी बहन आज भी
पाकिस्तान में है। आज मैंने इन सबको बादशाही दे दी है। तू ले आ जाकर
अपनी पुलिस,
कि आकर इन सबकी बादशाही निकाल दे। कुत्ता साला...!”
अन्दर से कई-एक बाबू निकलकर बाहर आ गये थे।
‘कुत्ता
साला’
सुनकर चपरासी आपे से बाहर हो गया। वह तैश में उसे बाँह से पकडक़र
घसीटने लगा,
“तुझे
अभी पता चल जाता है कि कौन साला कुत्ता है! मैं तुझे मार-मारकर...”
और उसने उसे अपने टूटे हुए बूट की एक ठोकर दी। स्त्री और लडक़ी सहमकर
वहाँ से हट गयीं। लडक़ा एक तरफ़ खड़ा होकर रोने लगा।
शेष अगले अंक में ....
आगे का इंतजार है
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