मनोज सिंह एक (नाम यहां महत्वपूर्ण नहीं) खिलाड़ी ने लाखों-करोड़ों का एक अनुबंध साइन किया। जिसके तहत उसने अपना नाम भी संबंधित कंपनी को इस्त...
मनोज सिंह |
एक (नाम यहां महत्वपूर्ण नहीं) खिलाड़ी ने लाखों-करोड़ों का एक अनुबंध साइन किया। जिसके तहत उसने अपना नाम भी संबंधित कंपनी को इस्तेमाल करने के लिए सौंप दिया। अर्थात, सरल शब्दों में कहें तो बेच दिया। क्या यह एक समाचार है? यह किसी भी आम दिन के लिए एक सामान्य खबर तो हो सकती है मगर किसी भी तरह से मुख्य समाचार के रूप में बिल्कुल भी नहीं ली जा सकती। वैसे तो इस घटना को स्वयं में सकारात्मक रूप से नहीं लिया जा सकता। फिर भी अगर ये खबर, संबंधित चित्रों के साथ राष्ट्रीय स्तर के समाचारपत्रों के मुख पृष्ठ पर छपे तो अटपटा लगना स्वाभाविक है। वो भी तब जब देश कई समस्याओं से जूझ रहा हो और अवाम मूलभूत आवश्यकताओं को लेकर संघर्षरत हो। ऐसे में इस तरह के समाचारों का प्रमुखता से छपना, संवेदनशील पाठक के सोचने-समझने की सारी शक्ति समाप्त कर देता है। वरना आम पाठक की विचारशीलता को तो पहले ही बाजार ने नियंत्रित और नियोजित कर रखा है। कुछ वर्ष पूर्व एक अभिनेत्री के स्वयंवर के लिए टीवी पर कार्यक्रम बना डाला गया था। बाद में यह नाटक ही सिद्ध हुआ। उसके बावजूद एक और स्वयंवर टीवी पर रचा गया। शायद यह क्रम आगे भी जारी रहे। स्वयंवर महिला का अधिकार क्षेत्र है। इसमें नारी के स्वतंत्र अस्तित्व की झलक दिखाई देती है। भारतीय संस्कृति में स्वयंवर आदिकाल से प्रचलित है। यहां आपत्ति किसी आम या खास के स्वयंवर से नहीं, उसके टीवी कार्यक्रम को बनाकर पैसा कमाये जाने पर है। ठीक इसी तरह सभ्यता, इतिहास और ऐतिहासिक व्यक्तियों की जानकारी दर्शकों तक पहुंचाना तो अच्छी बात है मगर उसके द्वारा तथ्यों को तरोड़-मरोड़ कर सनसनी पैदा करते हुए मीडिया में व्यवसाय करना चिंता पैदा करता है। आतंकी हमले के अपराध में जेल में बंद अपराधी की मां का पड़ोसी देश से आने की सूचना एक खबर तो हो सकती है, मगर इसे हेडलाइन बनाना आश्चर्यचकित करता है। बॉलीवुड की किसी भी अभिनेत्री के किसी कार्यक्रम में भाग लेने मात्र से संबंधित खबर तमाम समाचारपत्रों में अवश्य छपती है और साथ लगी होती है उससे बड़े आकार की अभिनेत्री की फोटो। मगर किसी सामाजिक जननायक के सकारात्मक प्रयासों को शायद ही अंदर के पृष्ठों पर भी छोटी-सी जगह मिल पाये। किसी लोकप्रिय महिला की प्रसव-गर्भ की खबरें बड़े-बड़े अक्षरों में छापकर लाखों कन्या भू्रणहत्या की खबरों को दबा देना, समाज में किसी भी शुभचिंतक के मन में चिंता पैदा करता है। खबर-तंत्र अब राजनीति के केंद्र में है। विरोधियों की मान-मर्यादा को मिट्टी में मिलाना मिनटों का काम है और यह शासक के लिए एक हथियार का काम करने लगा है। ऐसे सैकड़ों उदाहरण समाचारपत्रों में रोज देखे जा सकते हैं। नकारात्मक रिपोर्टिंग ने खबरों के संसार को अपने कब्जे में ले लिया है। मीडिया प्रतिदिन तथाकथित सिलेब्रिटी को पैदा करता है फिर इनके माध्यम से सनसनियों को जन्म देता है। यह पाठक का ध्यान आकर्षित करता है। आज समाज की व्यवस्था को तोड़कर जीने वाले खबरों के केंद्र में होते हैं। असंतुलित विचारों से ग्रसित कई व्यक्ति आये दिन असामाजिक कार्य करके और दूषित विचार व्यक्त करते हुए राजनीति में स्थान बना रहे हैं तो कई सामान्य नैन-नक्श वाली मगर कैमरे के ग्लैमर से उभारी गयीं मीडिया-जनित सुंदरियां बिना किसी विशिष्ट अभिनय के भी बॉलीवुड में निरंतर किसी न किसी तरह चर्चा के केंद्र में रहती हैं। पुराने जमाने के उद्योगपतियों को छोड़िए, शराब और सुंदरी को साथ लेकर चलने वाले आज के कई आधुनिक व्यवसायी हर क्षेत्र में आगे रहने के चक्कर में रहते हैं। मीडिया इन लोगों को मुख पृष्ठ पर छापकर स्वयं की पीठ थपथपाता है और ये बड़ी शान से घूमते देखे जा सकते हैं। कुछ सफल और लोकप्रिय खिलाड़ियों को भगवान का दर्जा दिया जाता है जिसे देखकर ऊपर बैठे भगवान को भी हैरानी होती होगी मगर इन समाचारपत्रों को ऐसा लिखने में जरा भी हिचकिचाहट नहीं होती। इन लोगों के बारे में अगर यह पूछा जाये कि समाज के लिए इनका क्या योगदान रहा है? तो जवाब देना मुश्किल हो जाएगा। इन्होंने इसी जनता से भरपूर पैसे कमाये होते हैं। क्योंकि ये दिखते हैं इसलिए बिकते हैं। यहां इन सिलेब्रिटीस का दोष कम बल्कि मीडिया के दिवालियेपन का प्रमाण अधिक है। इसे हमारी दूषित हो रही मानसिकता और संकुचित हो रही सोच के एक छोटे-से उदाहरण के रूप में भी देखा जा सकता है। इसे मीडिया द्वारा अवाम की विचारधारा को नियंत्रित करना भी कहा जा सकता है। सिर्फ मीडिया में ही नहीं सामाजिक मूल्यों की समाप्ति की घोषणा करने में अब हम भी गर्व करते हैं। लज्जा तो हमें अब आती ही नहीं। अनैतिक शब्द का अब अस्तित्व ही नहीं बचा। लोकप्रियता और पैसे के लिए कुछ भी करेगा की विचारधारा प्रबल है। इसके अतिरिक्त कुछ भी महत्वपूर्ण नहीं। यहां तक कि बच्चों का बालपन बेचने में भी पिता के साथ-साथ अब तो माताओं को भी ऐतराज नहीं। उलटे बाजार की चकाचौंध में आधुनिक मम्मियां अपनी बेटियों की जवानी को प्रदर्शित करने से भी नहीं हिचकिचाती। परिवार बिखर रहे हैं और तलाक आम बात हो गयी है। अकेलापन बीमारी बनकर हर व्यक्ति को चूस रहा है मगर हम इसके सामान्य कारणों को अनदेखा कर डॉक्टरों के चक्कर लगाते हैं। एक छोड़ दो-दो सिम वाले मोबाइल को खरीदने की होड़ मची है मगर अपनों से बात करने की हमें फुर्सत नहीं। न जाने किस मृगमरीचिका के लिए सारा दिन दौड़ने में बीत जाता है। हम पढ़े-लिखे मूर्ख की भांति व्यवहार करते हैं। मातृभाषा का आये दिन अपमान और मातृभूमि के साथ खिलवाड़ और अनदेखी की खबरें सुनने की अब आदत-सी पड़ती जा रही है और विदेश के प्रति आकर्षण मानो नयी पीढ़ी के लिए गर्व करने का एक दौर है। इस घोर अंधे काल में मर्यादाओं का टूटना उतना दर्दनाक नहीं जितना उसके टूटने पर अट्टहास लगाना अधिक तकलीफदायक होता है। सभ्यता और संस्कृति तो वैसे भी आदिकाल से निरंतर परिवर्तनशील रहे हैं और उसे समय के हिसाब से बदलना भी चाहिए मगर अपनी विरासत को हेय दृष्टि से देखना और उसका मजाक उड़ाना आश्चर्य पैदा करता है। अलग हटकर जीना हर समाज में सदैव आकर्षण का केंद्र रहा है। इसके लिए शक्ति, सामर्थ्य और आत्मबल चाहिए। मगर प्रश्न उठता है कि यह अलग हटकर किया गया कार्य समाज के कितने हित में है? किसी के लाभार्थ है भी या नहीं? व्यवस्था के लिए कितना सार्थक है? क्रांति और आतंक में यूं तो क्रियात्मक रूप से कोई अंतर नहीं होता मगर दोनों का मूल उद्देश्य बिलकुल भिन्न होता है। जो फिर दोनों को नदी के दो पाट की तरह भिन्न कर देता है। कहने का तात्पर्य है कि किसी भी सामाजिक कार्य से अवाम को कितना फायदा होगा और कितना नुकसान, देखा जाना चाहिए? इसके दूरगामी परिणाम पर विचार किया जाना चाहिए। यहां समाज के विचारक और चिंतक अपना रोल अदा किया करते थे मगर अब ये भी कारपोरेट के पे रोल पर आ चुके प्रतीत होते हैं। सब कुछ हार कर पश्चिम का नेतृत्व आश्चर्यभरी निगाहों से पूर्व की ओर देख रहा है और हम आंखें बंद किये हुए पश्चिमी जीवनशैली की ओर भाग रहे हैं। तभी तो अब हमारे यहां भी वर्तमान युग के तथाकथित कुछ अभिनेत्रियों के कपड़े उतारने की घोषणा सुर्खियां बन जाती हैं। क्या यह समाज के हित में हो सकता है? किसी भी सभ्यता के लिए फायदेमंद हो सकता है? और अगर इसका सीधा-सा जवाब चाहिए तो कल्पना करे, समाज में हर एक अगर सार्वजनिक स्थल पर कपड़े उतारने लगे तो क्या यह ठीक होगा? आज फैशन के नाम पर युवा वर्ग आधे से अधिक कपड़े उतारने भी लगा है। लेकिन फिर उसके दुष्परिणाम भी समाज को ही भोगने पड़ते हैं। इसे महिला के अधिकार का हनन कहें या इस विचारधारा को नारी स्वतंत्रता के खिलाफ आरोपित करे। लेकिन यह सत्य है कि शारीरिक नग्नता समाज में बुरे परिणाम पैदा करने में अपना योगदान करती है। सामान्य शब्दों में कहें तो देखने वाले को उत्तेजना की हद तक प्रेरित कर असामाजिक कार्य करवा सकती है। शरीर को शालीनता से ढककर चलने मात्र से आदमी या औरत पिछड़ा और अनपढ़ नहीं कहा जा सकता। वहीं अर्धनग्न अवस्था वाले युवक-युवती को आधुनिक कह देना गलत होगा। ट्रैफिक नियमानुसार भारत में रोड के बाएं ओर से चलना चाहिए। लेकिन अगर सभी अपने मन-माफिक किसी भी दिशा में चलने लगें तो सड़क का यातायात अवरुद्ध हो जाएगा। समाज भी एक व्यवस्था है जिसके तहत जिंदगी सुकून से काटी जा सकती है, सुरक्षित रखी जा सकती है। यहां कमजोर को भी जीने का हक होता है। लेकिन नियमों को तोड़ा जाएगा तो व्यवस्था खत्म होगी, समाज अव्यवस्थित होगा, जिसका दुष्परिणाम फिर उसमें रहने वालों को ही झेलना होगा। आज हमने अपने जीवन में सकारात्मक रोल के स्थान पर नकारात्मक पक्ष को अधिक उठाया है। घर बाजार बन चुका है और जीवन मात्र उपभोग के लिए बना दिया गया है। व्यक्ति की सोच पर विज्ञापन का असर है। नैतिक मूल्य समाप्त हो चुके हैं। अनुशासन का अस्तित्व नहीं। संयम शब्द का औचित्य खत्म हो चुका है। कानून तोड़ने के लिए बनाये गये प्रतीत होते हैं। ऐसे में कुछ पल रुककर सोचें, हम किसलिये जी रहे हैं? यकीनन इसका जवाब हमें झकझोर देगा।
यह लेख मनोज सिंह द्वारा लिखा गया है.मनोजसिंह ,कवि ,कहानीकार ,उपन्यासकार एवं स्तंभकार के रूप में प्रसिद्ध है .आपकी'चंद्रिकोत्त्सव ,बंधन ,कशमकश और 'व्यक्तित्व का प्रभाव' आदि पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी है.
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