मनोज सिंह अकादमिक रूप से देखें तो उपरोक्त शीर्षक के संदर्भ में एक पूरी किताब लिखी जा सकती है। इस विषय पर अब तक सैकड़ों शोधपत्र लिखे जा च...
मनोज सिंह |
अकादमिक रूप से देखें तो उपरोक्त शीर्षक के संदर्भ में एक पूरी किताब लिखी जा सकती है। इस विषय पर अब तक सैकड़ों शोधपत्र लिखे जा चुके होंगे और भारी-भरकम ग्रंथों की पुस्तकालय में कमी न होगी। लेकिन ये सभी आमजन के लिए उबाऊ होंगी। अकादमिक श्रेष्ठता जमीनी स्तर पर कितनी उपयोगी और अर्थपूर्ण होती है, एक अलग बहस का विषय है। लेकिन इस तरह का क्लिष्ट लेखन सामान्य पाठकों को छोड़ भाषा के नियमित छात्रों की भी समझ से अमूमन बाहर हुआ करता है। सुनने-पढ़ने में यह अजूबा लगे मगर यही सत्य है। साहित्य-कला के क्षेत्र की स्कूल-कॉलेज की पढ़ाई में भी घोटा लगाकर परीक्षा में उत्तीर्ण होने का प्रयास किया जाता है। उत्तर-पुस्तिका जांचने वाला ऐसी उम्मीद भी करता है। यही नहीं, नयी सोच और नयी विचारधारा को अनदेखी करते हुए उसे ही बेहतर घोषित किया जाता है जो किताब से नकल उतारकर शब्दशः उत्तर में लिखा गया हो। यह सृजन के क्षेत्र की शिक्षा का नंगा सत्य है। कोई माने या न माने मगर हकीकत यही है कि वो साहित्य जो पठनीय न हो आम पाठक के द्वारा समझा न जा सके, निरर्थक और व्यर्थ ही है। ऐसा ही कुछ कहानी के बारे में भी कहा जा सकता है। सरलता और सहजता इसके मूल गुण होने चाहिए। प्रवाह में निरंतरता किसी भी कहानी के लिए आवश्यक हैं। इसके टूट जाने पर पाठक को अटपटा लगता है। और पढ़ने वाला ऐसे में रुकावट महसूस करता है। फिल्मों में ऐसा होने पर हम इसे संपादन की समस्या कहकर इसकी जमकर आलोचना करते हैं। ऐसे में फिल्में फ्लाप तक हो जाती हैं। ठीक ऐसा ही कुछ उपन्यास के पढ़ने के दौरान भी महसूस किया जाता है। एक यात्रा के दौरान साथ चल रहे एक मित्र ने एक कहानी सुनाई थी। यह कहानी उसने अपनी दादी से सुनी थी। ताज्जुब की बात थी कि इतने वर्ष बीत जाने के बाद भी वो उसे पूरी तरह से याद थी। उस युग में बड़े-बुजुर्ग अमूमन ऐसी कहानियां सुनाया करते थे। वे स्वयं भी इसे अपने बचपन के दौरान सुन-सुनकर आगे तमामउम्र याद रखते थे। इस तरह यह पारंपरिक कहानियां पीढ़ी-दर-पीढ़ी चला करती थीं। इसमें समय काल के हिसाब से आवश्यकतानुसार जाने-अनजाने ही परिवर्तन भी हो जाता था। ये कहानियां वास्तविक जीवन के कितने नजदीक और संदर्भित हुआ करती थीं, यह एक दीगर सवाल है। और यह बच्चों के लिए महत्वपूर्ण नहीं। फिर भी वो अगर इसकी चाहत रखता था और जिद्द किया करता था, तो स्पष्ट है कि उसे यह पसंद आया करती थीं। बालक-मन अत्यंत जिज्ञासु होता है। उसे प्रभावित कर नियंत्रण में लेना आसान नहीं। उसे कोई चीज पसंद आये यह एक कठिन कार्य होता है। माताएं बच्चे को कैसे संभालती है? यह सिर्फ वही जानती हैं। ऐसे में नादान और चंचल बच्चे अपनी दादी-नानी से युगों-युगों तक हर रात कहानी सुना करते थे तो यकीनन उसमें कुछ न कुछ ऐसा जरूर होता होगा जिसे हमें समझने की जरूरत है। हमारे बहुत सारे सवालों का जवाब इसमें उपस्थित हो सकता है। यह सत्य है कि इन कहानियों में सीधे-सीधे कोई शिक्षा या संदेश नहीं हुआ करता था। आज ही नहीं सदा से, कोई भी व्यक्ति, खास रूप से बालक या युवक, सीधे-सीधे ज्ञान देने वाले को पसंद नहीं करता। वह उसमें अपनी तौहीन समझता है। असहजता महसूस करता है। वो इसे अपने आत्मविश्वास को दी जा रही चुनौती के रूप में लेता है। शायद यही कारण है कि धर्म में भी शिक्षाएं विभिन्न कथाओं के माध्यम से प्रसारित की जाती रही हैं। देवताओं एवं राक्षसों की जीवनी और घटनाओं पर आधारित कथाएं बनाकर अप्रत्यक्ष रूप से संदेश दिया जाता रहा है। ऐसे में लोककथाएं कई बार संदेशविहीन जान पड़ती हैं। जबकि वास्तविकता में देखें तो यह सत्य नहीं है। वो अपने हल्के-फुल्के अंदाज में ही बहुत कुछ कह जाती हैं। चूंकि ये सरल और सहज होती हैं इसलिए लोगों के जुबान पर चढ़ी होती है और बिना किसी प्रचार एवं विज्ञापन के यह देश-विदेश में युगों-युगों तक आमजन के बीच प्रचलन में रहती हैं। इससे यह निष्कर्ष बड़ी आसानी से निकाला जा सकता है कि किसी भी कहानी में शिक्षा या संदेश का होना न होना अति आवश्यक गुण नहीं है। और अगर है भी तो इसे सीधे-सीधे बिल्कुल भी नहीं दिया जाना चाहिए। इन दादी-नानी की कहानियों में सरलता तो होती ही थी, प्रवाह भी होता था, साथ ही शब्दों के क्लिष्ट होने का तो कोई सवाल ही नहीं। क्योंकि ऐसे में बच्चा समझ ही नहीं पायेगा। हां, इसमें नयी-नयी जानकारियां जरूर हुआ करती थीं। लेकिन वह कुछ इस तरह उपस्थित होती थीं कि मानो दूध में शक्कर की तरह घुलीमिली हों। मगर सबसे महत्वपूर्ण बात कि ये कहानी के मूलधारा की प्रवाह में रुकावट बनकर कभी नहीं आया करती थीं। उपरोक्त सभी गुण लोकप्रिय कहानी के लिए आवश्यक तो हैं मगर वरीयताक्रम में प्रथम स्थान पर दिखाई नहीं देते। माना कि बालक को इन गुणों के न होने पर कहानी सुनाई ही नहीं जा सकती। मगर इनके होने मात्र से वो कहानी सुनने के लिए स्वयं से उत्साहित हो, कतई जरूरी नहीं। वो गुण या अवयव जो उसे कहानी सुनने के लिए प्रेरित करे या जिस कारण से वह स्वयं कहानी की मांग करे, वो कुछ और होना चाहिए, और वो हैं बालक के अंदर की जिज्ञासा को बढ़ाना। ध्यान से देखें तो दादी-नानी की कहानियां पग-पग पर कौतूहलता पैदा करती थीं। ये कहानियां अंत तक बच्चे को बांधे रखती थीं। उसके मन में कई सवाल निरंतर उठते रहते थे। अब आगे क्या होगा? प्रश्न हमेशा खड़ा रहता था। ऐसे में उसका बाल सुलभ मन कल्पनाएं भी करने लग पड़ता था। उसे उत्सुकता होती और अंत तक बनी रहती थी। और इसी कारण से वह परीलोक या परिकल्पनाओं में विचरण करने लगता था। ऐसा करते-करते वह कब नींद के आगोश में चला जाता था उसे होश ही नहीं रहता था। कई बार उसकी जिज्ञासा इतनी बढ़ जाती थी कि वह सो ही नहीं पाता था। और बड़े-बुजुर्गों के लिए कहानी सुनाना उलटा एक मुसीबत बन जाती थी। वह जिद्द किया करता था। पूरी कहानी सुनने के लिए। और अगर न सुन पाये तो अगले दिन सुबह से ही इसके पीछे पड़ जाता था। आगे की संभावित कहानी के संदर्भ में कई सवाल उसके दिलोदिमाग पर दिनभर उभरते रहते थे। और वो इधर-उधर से पूछने की कोशिश भी करता था। जिस दिन भी कहानी में रोचकता नहीं होती वह तुरंत बोर भी हो जाता था। और फिर अच्छी कहानी सुनाने के लिए जिद्द करने लगता था। आज भी कुछ नहीं बदला। कंप्यूटर और टीवी ने दादी और नानी का स्थान जरूर ले लिया हो लेकिन उपरोक्त गुण इन कार्यक्रम में आज भी उतने ही आवश्यक हैं। जिसे हम तमाम कार्टून फिल्मों में देख सकते हैं। ऐसा न होने पर वे फ्लॉप शो हो जाते हैं। इसमें हैरानी जैसी कोई बात नहीं, मगर सत्य है कि ऐसा ही कुछ-कुछ बड़ी उम्र के लोगों के साथ भी होता है। उन्हें भी कहानियों और उपन्यास में उत्सुकता व जिज्ञासा एक आवश्यक गुण के रूप में चाहिए। ऐसा ही कुछ टेलीविजन के सीरियल और फिल्मों में भी देखा जा सकता है। वो कहानियां जो पाठक को बांध न सके, सोचने के लिए मजबूर न करे, जिसमें आगे जानने की इच्छा जाग्रत न हो, पसंद नहीं की जाती। आम पाठक उसे बीच में पढ़ते-पढ़ते ही छोड़ सकता है। ऐसे सीरियल देखे नहीं जाते। यहां दर्शक स्वयं को उबाना नहीं चाहता। यहां मनोरंजन ही एकमात्र उद्देश्य नहीं। जबकि नाटकीयता भी एक सीमा तक ही स्वीकार्य हो पाती है। हां, सार्थकता भी उतनी ही जरूरी है। लेकिन क्लिष्ट होने के हद तक नहीं वरना कहानी बोझिल होने लगती है। संक्षिप्त में कहें तो सत्य यही है कि बड़े होने के बावजूद भी हमारे अंदर का बाल-मन कहीं न कहीं जिंदा रहता है। और हम तमामउम्र वही सब चाहते हैं जो बातें बचपन में पसंद आया करती थीं।
यह लेख मनोज सिंह द्वारा लिखा गया है.मनोजसिंह ,कवि ,कहानीकार ,उपन्यासकार एवं स्तंभकार के रूप में प्रसिद्ध है .आपकी'चंद्रिकोत्त्सव ,बंधन ,कशमकश और 'व्यक्तित्व का प्रभाव' आदि पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी है.
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