साम्राज्य, पूंजी और धर्म
मनोज सिंह |
सत्ता के सिंहासन पर सम्राट के विराजमान होने से वह सदैव चर्चा में रहे हैं। इन राजाओं को आमतौर पर जय-जयकार मिली तो साथ ही समय-समय पर कटु आलोचना का शिकार भी होना पड़ा। इतिहास के पन्नों पर, अच्छा-बुरा अकेले इन्हीं के नाम पर दर्ज है। सम्राट का साम्राज्य और उसे विस्तार देने वाली नीति 'साम्राज्यवाद', ऐसे कई शब्द शास्त्रों में शताब्दियों से विश्लेषित किये जाते रहे हैं। यूं तो सम्राट और साम्राज्य अलग-अलग शब्द हैं मगर एक स्तर के बाद एक-दूसरे के पर्याय बन जाते हैं। वैसे तो साम्राज्य किसी का भी हो सकता है मगर यह राजनीति और सत्ता से अधिक संदर्भित रहा है। साम्राज्य से सम्राट उसी तरह जुड़ा है जिस तरह से पूंजी से पूंजीपति। बहरहाल, तो क्या सत्ता का सुख सम्राट अकेले ही भोगता है? प्रथम द्रष्टया ऐसा प्रतीत तो होता है, मगर यह सत्य नहीं। सम्राट के साम्राज्य को बरकरार रखने में, पूंजी और धर्म ने भी सदा महत्वपूर्ण रोल अदा किया है। फलस्वरूप दोनों ने बराबरी से सत्ता का सुख भी भोगा है। सच तो यह है कि आमजन को शासित बनाये रखने के लिए, तीनों ने मिलकर कई स्वांग रचे और आज भी इनका नाटक जारी है। और तो और राजसिंहासन पर प्रजातंत्र के विराजमान होने से कुछ विशेष नहीं बदला, मात्र चेहरे बदल गये। कई बार ऐसा महसूस होता है और कई विचारक इस बात के समर्थक भी होंगे कि सिर्फ साम्राज्य ने ही पूंजी और धर्म का सहारा लिया। मगर यह पूर्णतः एकतरफा सत्य है। पूंजी और धर्म ने भी साम्राज्य का जमकर सहयोग लिया व उपयोग किया है, अपनी-अपनी सत्ता बरकरार रखने में। हर काल-खंड में, संपूर्ण सत्ता-व्यवस्था में, इन तीनों की भागीदारी अलग-अलग रूप में हुई है। इनकी महत्वता भी कम-ज्यादा होती रही है। हां, यह दीगर बात है कि पूंजी और धर्म ने सदा साम्राज्य अर्थात सम्राट को आगे रखा। उसे अपना नेता घोषित किया। और आमतौर पर सम्राट का वर्चस्व दिखाई भी देता है। मगर सत्ता के गलियारो में तनिक चहलकदमी करने पर असली तथ्य बाहर आ जाता है। पूंजी और धर्म के सत्ता पर नियंत्रण के तौर-तरीके कई तरह के रहे हैं। और इतिहास के हर पन्ने पर पर्दे के पीछे का खेल चलता रहा। जब-जब साम्राज्य ने सत्ता प्राप्ति के लिए पूंजी और धर्म का उपयोग किया, तो बदले में दोनों ने अपने हिस्से की सत्ता में भागीदारी सुनिश्चित की। इन तीनों के संबंध आपस में इतने गहरे हैं कि कई बार इनको अलग करना संभव नहीं। लेकिन इन तीनों में अंदरूनी प्रतिस्पर्द्धा भी कम नहीं। इनके बीच समय-समय पर वर्चस्व की लड़ाई होती रही। हां, इनमें से किसी ने भी कभी दूसरे का अस्तित्व समाप्त नहीं होने दिया। यह वैसे भी संभव नहीं। तभी तो समय पड़ने पर ये तीनों तुरंत एक भी हो जाते हैं। साम्राज्य की अपनी पूंजी व अर्थव्यवस्था है तो उसका अपना धर्म भी है। ठीक इसी तरह पूंजी का अपना साम्राज्य रहा है और उसका भी अपना धर्म है। इस बात से तो कोई भी इनकार नहीं करेगा कि धर्म का अपना विशाल साम्राज्य है और उसके पास पूंजी की कोई कमी नहीं। दिखाने के लिए ही सही, धर्म ने अपना रास्ता सदा से अलग और विशिष्ट रखा। उसने साम्राज्य और पूंजी से बराबर की दूरी बनाये रखी। फलस्वरूप धर्म ने समाज में खूब आदर-सम्मान पाया। मगर साथ ही उसने सत्ता को कभी भी अपने नियंत्रण से बाहर नहीं जाने दिया। साम्राज्य ने भी इसकी विशिष्टता का खूब उपयोग किया। इस मामले में पूंजी हमेशा साम्राज्य और धर्म से पीछे ही रहा। लेकिन समय-समय पर उसने इन दोनों को अपनी महत्ता स्वीकार करवाई। बहरहाल, साम्राज्य तो बना ही सत्ता-सुख के लिए है मगर बाकी दोनों की सत्ता की भूख भी कभी कम नहीं हुई। इन सबकी सत्य कहानियां इतिहास के पन्नों पर दर्ज हो जाये तो पढ़ने में अविश्वसनीय प्रतीत होंगी। लिखित इतिहास कहता है, ऐसा बताया और समझा भी जाता है कि अधिकांश युद्ध साम्राज्य और उसके विस्तार के लिए लड़े गये। जबकि यह सतही सत्य है। युद्ध अनेक बार धर्म और पूंजी के लिए भी लड़े गये। यह दीगर बात है कि बदनाम हमेशा साम्राज्यवाद को किया गया। असल में देखें तो धर्म विस्तार के किस्से तो अत्यधिक भयावह और अमानवीय रहे हैं। जितनी निरंकुशता, अत्याचार व मारकाट धर्म को लेकर की गयीं, उतनी तो शायद किसी भी अन्य कारण के लिए नहीं की गई होंगी। प्रारंभिक काल से ही धर्म तो विभिन्न राजनैतिक साम्राज्य की सीमाओं से बाहर निकल चुका है, उल्टे कालांतर में उसने कई साम्राज्यों को अपने प्रभाव में लिया। इस घटनाक्रम में क्या कुछ नहीं हुआ। इतिहास इस बात पर खुलकर नहीं कहता और न ही सम्राटों की तरह धर्म-प्रबंधकों की बखिया उघेड़ता है। वह सदा इस मुद्दे पर मौन रहता आया है और आज भी चुप है। उधर, पूंजी ने अपना खेल सदा पर्दे के पीछे से खेलने की कोशिश की है। उन्होंने सम्राटों की तिजोरी पर नजर रखी, फलस्वरूप साम्राज्य अपने आप नियंत्रण में आ गया। इतिहास गवाह है कि कई बार तो राजा-महाराजा दिवालिया घोषित हो जाते थे, और सेठ-साहूकार उन्हें आर्थिक सहयोग कर पुनर्स्थापित करते थे। यह सिलसिला आज भी जारी है। पूंजी ने भी स्वयं को किसी साम्राज्य के भीतर सीमित करके नहीं रखा। जब-जब जरूरत हुई तब-तब साम्राज्य का कवच तो पहन लिया वरना दूसरे साम्राज्य में घुसने की उसकी सदा से कोशिश रही है। आधुनिक काल में तो इसे बहुराष्ट्रीय स्वरूप देकर इसका ओहदा भूखंडीय साम्राज्य से भी ऊपर कर दिया गया। रोमन साम्राज्य से प्रारंभ होकर ब्रिटिश साम्राज्यवाद से होते हुये, अमेरिकी आधुनिक साम्राज्यवाद के वैभवपूर्ण इतिहास की चकाचौंध में हम अकसर कुछ और ठीक से देख-समझ नहीं पाते। जबकि कटु सत्य है कि इस दौरान भी सदा संदर्भित धर्म और पूंजी का महत्वपूर्ण रोल रहा है। इन सभी कालखंड के दौरान पश्चिम के, विशेष रूप से ईसाई धर्म ने, अपना विस्तार तो किया ही, साथ ही बदले में पश्चिमी साम्राज्यवाद को सुदृढ़, सुव्यवस्थित व सुविस्तारित करने में अपना योगदान भी दिया। फिर चाहे यह अप्रत्यक्ष ही क्यों न रहा हो। पश्चिमी साम्राज्यवाद में पूंजीवाद का रोल तो सदा से अति सक्रिय रहा है। ईस्ट इंडिया कंपनी और ब्रिटिश साम्राज्यवाद का आपसी तालमेल तो इतिहास में मोटे अक्षरों से दर्ज है। पूंजीवाद द्वारा साम्राज्यवाद के विस्तार को रास्ता दिखाने वाले ऐसे उदाहरण कम ही देखने को मिलते हैं। बहरहाल, पश्चिमी साम्राज्य को बदले में पूंजी को हरसंभव संरक्षण तो देना ही था। और इस तरह इन तीनों ने मिलकर विश्वस्तर पर सालोंसाल सत्ता का सुख भोगा। मध्ययुगीन काल में पश्चिमी एशिया और पूर्वोत्तर यूरोप से प्रारंभ होकर, फिर विश्वस्तर पर इस्लाम के तीव्र विस्तार को थोड़ा अलग हटकर देखना व समझना होगा। यहां उसने किसी एक साम्राज्य के विस्तार में उतना सहयोग नहीं दिया जितना स्वयं को फलने-फूलने व फैलाने में सब कुछ दांव पर लगा दिया। पूंजी ने अपना योगदान तो यहां भी दिया, मगर उतना नहीं। असल वर्चस्व तो धर्म का ही बना रहा। और फिर यही धीरे-धीरे उसके गुणों में शामिल होता चला गया, जिसे एक पहचान के रूप में इस विशाल धर्म में आज भी देखा जा सकता है। इधर, पूर्वी देशों में चीन और जापान के साम्राज्य विस्तार की अपनी कहानियां और लंबा इतिहास रहा है। पूंजी के मामले में भी वे सदा से सक्रिय रहे हैं। मगर धर्म के मामले में वे कहीं न कहीं भारतीय उपमहाद्वीप से प्रभावित होते नजर आते हैं। हिन्दुस्तान में मौर्य वंश का शासन काल, साम्राज्यवाद का उत्कृष्ट उदाहरण के रूप में पेश किया जा सकता है। चंद्रगुप्त ने हिन्दुस्तान को एक राष्ट्र के रूप में (पुनः) स्थापित किया तो अशोक ने इसे सुदूर प्रदेशों में विस्तारित किया। ऐसा प्रतीत होता है कि इस दौरान पूंजी का अहम रोल नहीं था। और तभी साम्राज्य विस्तार का स्वरूप अंत तक, बहुत हद तक, राजनैतिक ही रहा। मगर साथ ही इस सत्य को भी पूरी तरह से नकारा नहीं जा सकता कि बुद्ध धर्म का विस्तार इसी युग में विश्व में चारों ओर फैला। बुद्ध धर्म के इस प्रयास व प्रक्रिया को हम दूसरे नये धर्मों के विस्तारवाद से अलग करके नहीं देख सकते। यह दीगर बात है कि इतिहास के प्रमाणों के हिसाब से उसके रास्ते बहुत हद तक अहिंसात्मक ही थे। जबकि कालांतर में, हर नये धर्म ने अपने विस्तार के लिए तरह-तरह के जतन व प्रयोग किये। यहां हर एक के विस्तारवाद की अपनी कहानी रही है। ठीक इसी तरह पूंजी के विस्तार व अधिक से अधिक लाभ के लालच में पूंजीपति सुदूर क्षेत्रों में व्यापार के लिए सदियों से जाया करते रहे हैं। आधुनिक युग में अमेरिकी साम्राज्यवाद को समझना उतना मुश्किल नहीं। यह सर्वविदित है कि इस दौरान पूंजीवाद अपना खेल ज्यादा अधिक सक्रिय रूप में खेल रहा है। अब इसे संयोग नहीं कह सकते कि पूंजीपतियों ने अपने मोहरे हर जगह बैठाने शुरू कर दिये हैं। फिर चाहे यह काम बड़ी चतुराई और सफाई से ही क्यों न हो रहा हो। अब तो कई राष्ट्रों में शीर्ष स्थानों पर विराजमान कई गणमान्य स्वयं पूंजीपति तो कई विश्व पूंजीपतियों के पुराने सहयोगी व समर्थक हैं। ये सभी मिलकर विश्वस्तर पर एक-दूसरे का हित साधते हैं। राजनैतिक साम्राज्य पर पूंजी का इतना अधिक नियंत्रण पूर्व में कभी नहीं रहा। इतिहास पर नजर डालें तो पूंजीपतियों ने, स्वयं कभी भी, कुछेक अपवादों को छोड़ दें तो, सत्ता पर विराजमान होने की कोशिश नहीं की। इनके स्वयं के मतानुसार सत्ता के सारे सुख, कांटोंभरे राजसिंहासन पर बैठने के बिना ही प्राप्त हो रहे हों तो इतना दुःख-दर्द और मुसीबत लेने की क्या जरूरत? ऐसा ही कुछ धर्म ने भी किया। जबकि इन दोनों ने अपने स्वार्थ के लिए, राजाओं की तलवारें तक निकलवा दीं, मगर कभी खुद सामने नहीं आये। यह पृष्ठभूमि का खेल सदियों से चला आ रहा था और अवाम इस पीड़ा को झेलने का आदी हो चुका था। मगर अब पूंजी के अत्यधिक हस्तक्षेप से सत्ता का संतुलन बिगड़ रहा है। साम्राज्य पूंजी के सामने कमजोर हो रहा है। पूंजी का विस्तारवाद चरम पर है। फलस्वरूप आम जनता किस तरह से, किस हद तक शासित से शोषित होती चली जा रही है, यह आने वाले समय में इतिहास अपने पन्नों में दर्ज करेगा।
यह लेख मनोज सिंह द्वारा लिखा गया है.आप ,कवि ,कहानीकार ,उपन्यासकार एवं स्तंभकार के रूप में प्रसिद्ध है .आपकी 'चंद्रिकोत्त्सव ,बंधन ,कशमकश और 'व्यक्तित्व का प्रभाव' आदि पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी है .
achha hai
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