कल्लू /भूपेन्द्र कुमार दवे की कहानी

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मैं पाठशाला से बाहर आया तो लोहे के फाटक को थामे वह खड़ा था। मुझे देखकर वह एक ओर दुबक कर खड़ा हो गया। मैंने पूछा -
‘क्या है ?’
‘कुछ नहीं।’
मैंने फिर प्रश्न किया, ‘किसी बच्चे का इन्तजार है ?’
‘जी नहीं।’
‘किसी से कुछ काम है ?’ मैंने पूछा।
‘जी नहीं।’
‘फिर क्यूँ खड़े हो ?’
मेरे इस प्रश्न पर वह पैर के अंगूठे से जमीन कुरेदने लगा, पर कुछ बोला नहीं।
मैंने फिर पूछा, ‘क्या नाम है ?’
‘कल्लू’
‘यहाँ क्यूँ खड़े हो ?’
वह पुनः नीची नजर किए जमीन कुरेदने लगा। मैंने शब्दों में कठोरता का पुट देते हुए पूछा -
‘चोरी-वोरी करने का इरादा तो नहीं ?’
‘जी नहीं,’ उसने कहा और अनायास उसकी आँखें नम हो गई।
‘ फिर भी, यहाँ खड़े रहने की कुछ तो वजह होगी।’
‘ जी...... मैं पढ़ना चाहता हूँ।’
‘ कहाँ से आए हो ?’
‘ घर से,’ उसने कहा।
‘ भागकर आए हो ?’
‘ जी’  यहाँ उसका उत्तर अधूरा था, पर उत्सुकता जगाने वाला था। मेरी लेखन रुचि ने मुझे इशारा किया कि यह फटी चड्डी बनियान पहना लड़का किसी कहानी या उपन्यास का मासूम पात्र तो नहीं है।
‘ अच्छा, तो तुम घर से भागकर आए हो और पढ़ना चाहते हो।’
‘ जी,’ फिर वही हिचक भरा छोटा-सा उत्तर मिला।
मैंने न जाने क्या सोचकर उसे अपने साथ चलने कहा। मैंने देखा कि वह मेरे साथ चलने उत्सुक था, पर उसके पैर शायद थके हुए थे। वह मेरे बराबर होने के लिये दूरी अपने नन्हें पैरों से दौड़कर पूरी करता चल रहा था।
मैं उसे अपने घर ले आया। बैठने को कहा तो वह फर्श पर ही बैठ गया और बड़ी-बड़ी आँखों से कमरे की चीजें देखने लगा। कल्लू गाँव से भागकर आया था। उसके पिता खेतीहर मजदूर थे। मजदूर -- जो दूसरों की जमीन पर खेती करते हैं और मजदूरी कमाते हैं और इसीलिये किसान कम मजदूर ज्यादा होते हैं। कल्लू की माँ भी मजदूर थी और कल्लू को भी कई छोटे-छोटे काम करने पड़ते थे। गाँव के जमींदार के यहाँ, जिसमें गाय-भैंस चराना प्रमुख काम था।
        ‘ और बदले में तुझे क्या मजदूरी मिलती है ?’ मैंने पूछा।
‘ रोटी।’
‘ रोटी ! बासी या ताजी ?’ मैंने पूछा तो कल्लू ने कहा, ‘ रोटी।’
सच है, जिसने ताजी रोटी ही न चखी हो, वह कैसे जानता कि रोटियाँ भी दो किस्म की होती हैं।
‘ और रोटी के साथ अचार या सब्जी भी मिलती है ?’ मैंने यह भी पूछा।
‘ जी नहीं, सिर्फ रोटी।’
‘ सूखी रोटी तू कैसे खाता है ?’
‘ पानी के साथ,’ उसने बड़ा मासूम-सा जवाब दिया।
भूपेन्द्र कुमार दवे
आगे और पूछने पर कल्लू से मालूम हुआ कि उसे मजदूरी के रूप में दिन भर झिड़कियाँ और पिटाई भी मिलती थी।
‘ इसकी कोई वजह?’ मैंने जानना चाहा।
‘ जी, क्योंकि .....’ वह कुछ कहते-कहते रुक गया, जैसे डर रहा हो।
‘ हाँ, हाँ, बोलो,’ मैंने ढाँढस बँधाया। ‘ जी, बोलूँगा तो वो मारेंगे।’
‘ क्यों ?’
‘ जी, बापूजी कहते हैं कि कभी किसी को न बताना। मालिक मारेंगे।’
‘ क्यों नहीं बताने कहा है तुम्हारे बापूजी ने ?’ मेरे इस प्रश्न पर भी कल्लू चुप रहा और सहमी-सहमी आँखों से चारों ओर देखने लगा।
‘ बता बेटा, क्यों बताने की मनाही है ? डर नहीं, यहाँ और कोई नहीं है।’
‘ जी, बापूजी ने मुझे मालिक को बेच दिया है।’
‘ उफ्, तो यह बात है। अच्छा बता, तू पढ़ना क्यों चाहता है ?’
‘ जी, पढ़ना अच्छा लगता है,’ वह बोला।
‘ तो क्या तू कुछ पढ़ना जानता है ?’
‘ नहीं।’
‘ फिर ?’
‘ अ, आ, इ, ई तक लिखता हूँ। बाकी देख कर लिख सकता हूँ।’
‘ ये कहाँ से सीखा ?’ मैंने प्रश्न किया।
‘ मालिक के माली से --- चोरी छिपे।’
‘ चोरी छिपे क्यों ?’
‘ पढ़ाई की मनाही है, मार पड़ती है।’
‘ ओफ्।’
मैंने पूछा कि गाँव से भागकर आया है तो क्या वह डरा नहीं। मालिक को पता चलेगा तब क्या होगा। इस संकेत पर कल्लू फफक कर रो पड़ा। मैं अपने किए प्रश्न पर लज्जित-सा हो उठा। उसका मन बदलने के लिये मैंने बात बदली।
‘ अच्छा बता, क्या तू सच में पढ़ना चाहता है ?’ उसने रोते हुए हामी में सिर हिला दिया।
‘ मेरे पास रहना पसंद करेगा ?’
‘ जी।’
‘ पहले पुलिस थाने में सब सच लिखवाना होगा, तभी यह संभव है, समझे।’
वह चुप रहा।
‘ चोरी तो नहीं करेगा ?’
‘ भगवान कसम,’ वह तड़ाक से बोला।
        ‘ याने तू भगवान से डरता है ?’
‘ जी नहीं।’
‘ तो ?’
‘ माँ ने कहा था कि बस वही मेरा साथी है।’
‘ कौन साथी है ?’ मैंने पूछा।
‘ भगवान,’ उसने कहा।
         सच है, जब माँ अपने बेटे से बिछुड़ती है तो स्वयं की असहाय स्थिति का निराकरण प्रायः इसी तरह करती है। माँ की जगह भगवान ‘स्टेपनी’ का काम करते हैं, हमारी हर असहाय अवस्था में। कठिन पेपर आने पर बच्चे उत्तर पुस्तिका को भगवान के नाम से भर देते हैं, जैसे वही एक दयालू है -- शिक्षक नहीं। पर क्या कल्लू को भगवान-रूपी साथी देकर उसकी माँ सच में निश्चिंत हो गई होगी। मेरे इस प्रश्न का उत्तर कौन दे सकता है, भला ?
खैर, मैं कल्लू को वहीं बैठा छोड़कर अंदर कमरे में गया। एक थाली में चार रोटी और कुछ प्रायमरी की किताबें लेकर आया और उसके सामने उखड़ूँ बैठ गया। मैंने एक ओर रोटी की थाली रखी और दूसरी तरफ किताबें और तब प्रश्न किया ....
‘ देख कल्लू, मेरे यहाँ इन दो में से एक ही चीज मिल सकती है। बोल, तू किसे चुनता है?
इस प्रश्न पर कल्लू भौंचक्का-सा मुझे देखने लगा। शायद इस दुविधा का उसे पूर्वाभास नहीं था। वह नजर घुमाकर कभी रोटी, कभी किताबों को टुकुर-टुकुर देखता रहा। मैं इस दुविधापूर्ण प्रश्न उस मासूम के सामने रख, गर्व महसूस कर रहा था। एक शिक्षक विधार्थी के सामने पेचीदा प्रश्न रखकर और विधार्थी को निरूत्तर पाकर गर्व ही तो करता है। पर सोचता हूँ कि यह कितनी विड़म्बना है कि जब भगवान इंसान की ऐसी परीक्षा पहेली गूढ़कर करता है, तो मनुष्य उसे निष्ठुर, कठोर, अन्यायी और क्या कुछ नहीं कहता है।
मैंने कल्लू को देखा। उसकी दयनीय दृष्टि मुझ पर टिकी थी। जैसे उसकी आँखें कहना चाहती हों कि मैं प्रश्न का स्वरूप ही बदल दूँ। शायद जब मेरे ओंठ हिले तो इसी उम्मीद में पल भर के लिये उसकी आँखें पुलकित हो उठीं। मैंने कहा,‘ बेटा, चुनो। एक चीज चुनो। सोच क्या रहे हो ?’
कल्लू रूआँसा हो उठा और फिर न जाने किस निश्चय से उसने अपने दोनों हाथ रोटी और किताब दोनों पर रख दिए और मेरी ओर ललचाई नजर से देखने लगा।
‘ नहीं बेटे, एक ही चीज चुनना है, दोनों नहीं।’
कल्लू अब किसी भी क्षण रो पड़ने की स्थिति में था। मेरी आँखें उस समय कल्लू की कौतूहलपूर्ण अवस्था का  लुत्फ ले रही थीं।
टकटकी लगाये वो मुझे देखता रहा। मैंने देखा कि उसका दायाँ हाथ जो किताबों पर रखा था, धीरे-धीरे उतर रहा था, फिर एक झटके से वह रोटी पर रखा हाथ हटाकर बोला,
‘ बाबूजी, मैं तीन दिन से भूखा हूँ।’
यहाँ मेरी लेखनी यकायक रुक जाती है। मैं रोशनी में अपने हाथ का बालपेन देखता हूँ। स्याही खत्म हो चुकी है। बालपेन को भी ‘रीफिल’ की जरूरत है जैसे कल्लू को रोटी की।


      
यह रचना भूपेंद्र कुमार दवे जी द्वारा लिखी गयी है. आप मध्यप्रदेश विद्युत् मंडल से सम्बद्ध रहे हैं . आपकी कुछ कहानियाँ व कवितायें आकाशवाणी से भी प्रसारित हो चुकी है . 'बंद दरवाजे और अन्य कहानियाँ' ,'बूंद- बूंद  आँसू' आदि आपकी प्रकाशित कृतियाँ है .
              

COMMENTS

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  1. ----झूठी बानाई हुई कहानी है....जिसने जिसके बाप ने कभी स्कूल नाम की चीज न सुनी हो , पैदा होते ही रोटी के लिए काम कर रहा हो उसे पढाई व स्कूल की पता होगा ...

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  2. हर डॉक्टर इंजिनियर या कोई पढ़े लिखे के वंश में एक ना एक पायदान पर एक ऐसा पूर्वज तो होता ही जिसने स्कूल का नाम ही न सुना हो . फिर मेरी कहानी का पात्र तो उस जगह बेचा गया था जहाँ स्कूल था . उसने दूसरे बच्चों को स्कूल जाते देखा ही होगा . क्या कोई माली अ आ इ ई किसी बच्चे को नहीं सिखा सकता . क्या आदम ने जिस सेव को खाया उसमें स्कूल पहले से लिखा था।क्या डा मिश्रा यह कहना चाह रहें हैं कि देश में प्रजातंत्र बनावटी है क्योकि जिसने जिसके बाप ने स्कूल का नाम नहीं सुना और जो रोटी कमाने शुरू से लग गया हो ,वह चुनाव और वोट क्या जानेगा . उसे तो वोट क्या है नहीं मालूम , वह वोट क्या देगा और उसे वोट देने का अधिकार भी नहीं होना चाहिए .

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  3. pahale to kahoon ki aap ka naam vah bhi photo ke saath dekh kar bahut sukh mila. kitani hi purani baatein yaad aane lagi. Fir Kalloo padhi, bahut achhi lagi. maarmik kathaa hein. Dr Shyam Gupta ki baat ajib lagi kahani to kinhin sandarbhon par aadharit hoti hein. Kahani jhooti aur sachhi nahin hoti , katha-sar sachha aur marmik hein. Dave Ji mein Sagar mein Hoon 94254 51508. Baat kareinge to achha lagega. aap ke to sagar mein sambandh bhi honge, kabhi aanaa hota hei kya?----n.c. jain ex-CE

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  4. आँखें अनायास नम हो गईं... कहानी सच्ची हो या झूठी...पर हर पल दुनिया मे बचपना इससे भी गहन दुख और अभाव सह रहा है। कहानी का कथ्य अंत तक बाँध कर रखता है और अपनी बात पाठक तक पहुंचाने मे पूरी तरह सक्षम है।

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  5. एक बात समझ नहीं आयी रोटी या पुस्तक (पुस्तक ना हो तो मजदूरी क्र पेट पर रोटी ना हो
    पेट की अग्नि इतनी भयंकर है जो कभी नही बुझती

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