क्रिसमस ट्री भूपेन्द्र कुमार दवे
प्रत्येक
महानगर-रूपी विशालवृक्ष की
शाखाओं पर झुग्गी-झोपड़ियों
की बस्ती उसी तरह छा जाती है,
जैसे ऊँची इमारतों के छज्जों
पर मधुमक्खियों के छत्ते। फर्क
सिर्फ इतना है कि मधुमक्खियों
के छत्तों में लोगों को मधुर
शहद दिखता है तो झुग्गी-झोपड़ियों
की बस्ती में गरीबी के घावों
में पनपता मवाद। मधुमक्खियों
को छेड़ो तो वे डंक मारने सामूहिक
रूप में दौड़ पड़ती हैं पर झुग्गी-झोपड़ियों
की बस्ती के रहवासी कुछ देर
फुँफकार मारकर शांत हो जाते
हैं। शहद हासिल करने मधुमक्खियों
के छातों पर जलती मशाल से धुआँ
किया जाता है तो झुग्गी-झोपड़ियों
को हटाने उन्हें जलाया जाता
है।
धूँ
- धूँ कर जलती झोपड़ियाँ अपने
साथ सब कुछ स्वाहा कर जाती हैं
और अग्निशामक गाड़ियाँ आकर राख
को गीला बजबजा कर लौट जाती हैं।
तब सुनने में आता है कि आग पर
काबू पा लिया गया है। विभिन्न
महकमें व्यस्त हो जाते हैं।
कुछ आग लगने के कारणों को जानने
व्यस्त हो जाते हैं। कुछ मृतकों
की संख्या का अनुमान लगाने
तो कुछ घायलों के आंकड़ों में
जूझ जाते हैं। शायद जनता इन्हीं
आंकड़ों की भूखी होती है --
इन्हीं आंकड़ों से शब्दों का
जाल बुनना चाहती है -- और इन्हीं
आंकड़ों के अनुसार तैश में आना
चाहती है।
मृतकों
के आंकड़े तभी थमते हैं जब उनके
और बढ़ने की गुंजाईश नहीं होती।
गिना भी उन्हें जाता है जो शरीर
से घायल हो अस्पताल में ले जाये
जाते हैं। उन्हें नहीं गिना
जाता जिनकी आत्मा घायलावस्था
में तड़पती- झटपटाती रहती है।
झुग्गी-झोपड़ियों में रहनेवालों
की संपत्ति तो होती नहीं, बस
होते हैं अपने रिश्ते जिनके
सहारे वे जिन्दगी जीने की कल्पना
करते रहते हैं। अब उनके खो जाने
से असहाय स्थिति के शिकंजे
में फँसे वे हताश हो लाश की तरह
जिन्दगी बसर करते मजबूर हो
जाते हैं।
इसी
लाश की भीड़ में मैं अपने आप को
घसीटता पाता हूँ। मेरी झोपड़ी
के साथ सब कुछ खाक हो चुका था
और मैं बीवी बच्चों को जीवित
देख ही न पा सका था। मैं बच गया
था क्योंकि मैं मजदूरी कर घर
नहीं पहुँच पाया था। ओव्हर
टाईम की लालच में फैक्टरी में
भिड़ा रहा। जब लौटा तो देखता
ही रह गया मौत को दगा देकर ओव्हर
टाईम जीने को मजबूर अपनी स्वतः
की जिन्दगी -- जिन्दगी जो एक
दुखान्त उपन्यास के अधजले पन्नों
की तरह थी जिसपर लिखा न तो पढ़ा
जा सकता है और न ही उसका कोई
अर्थ निकाला जा सकता है -- जिन्दगी
जिसे घसीटकर उस अनंत की यात्रा
पूरी करनी पड़ती है, जिस अनंत
का नाम है मृत्यु।
मैं
देखता रह जाता हूँ अपने इर्द-गिर्द
जहाँ मैं बैठा हूँ, वहाँ वो बिखरे
पन्ने भी एकत्र हैं जो जीवनगाथा
की जिल्द खुल जाने के कारण कूड़ा-करकट
की शक्ल ले चुके हैं। मैं सोचता
ही रह जाता हूँ कि यहाँ कौन किसको
ढाढ़स देगा? सभी तो दरके कलश हैं।
कौन उनमें शब्द भरेगा और किसमें
सान्त्वना की बूँदें एकत्र
करेगा?
लेकिन
धीरे-धीरे चारों तरफ सन्नाटा
छा गया। दहाड़ मारकर रोने का
वक्त गुजर चुका था। सिसकियाँ
भी गुँगी हो चुकी थीं। रह गई
थी तो बस निराशा की धुँध क्योंकि
सारे मृतकों को ढूँढ़ लिया गया
था और सबके सामने बिछी गीली
राख ने अपने भीतर कुछ भी छिपाकर
नहीं रख छोड़ा था।
तभी
मेरी नजर पड़ी उस अबोध बालक पर
जो अब भी शायद किसी उम्मीद को
अपने में संजोये अलग-थलक बैठा
था। मैंने गौर से देखा। हाँ,
वह हमारी बस्ती की एकमात्र
ईसाई परिवार का इकलौता चमकता
सितारा ‘चार्ली’ ही तो था।
कल ही उसने आज मनाये जानेवाले
‘बड़े दिन’ की तैयारी में पूरी
बस्ती को अपनी ओर खींच लिया
था। बस्ती के सारे बच्चे दिन
भर व्यस्त रहे थे और चार्ली
के ‘क्रिसमस ट्री’ सजाने की
उधेड़बुन में हम सब को परेशान
करते रहे थे। कल सुबह की ही बात
है, मेरा छोटा बेटा मुझसे मेरी
चाबी में लगा ‘डोनाल्ड डक’
माँगकर ले गया था। उसे वह ‘क्रिसमस
ट्री’ में लगाना चाह रहा था।
वह गया और दूसरे ही क्षण लौटकर
आया और बोला, ‘पापा! मैं भी बड़ा
दिन मनाऊँगा।’ सच, हम गरीबों
की बस्ती में सभी धर्मों का
अर्थ एक ही होता है -- उल्लास
भरी रोशनी में सभी के बीच एकसा
प्यार बाँटना। हमारी बस्ती
हर धर्म के त्यौहारों को एक
ही रूप में मनाती रही है और हर
त्यौहार का नाम होता है ‘उत्सव’।
उत्सव का अर्थ है बिना भेदभाव
के आस्था व श्रद्धा का सम्मान
करना, सभी के विचारों व विवेक
में घनिष्ठ संबंध स्थापित करना,
सभी के हृदय में ईश्वरीय प्रेम
को आल्हादित होने देना, सभी
की अंतरात्मा को आनंदित करना
और सभी में नवस्फूर्ति व उमंग
का संचार करना। जिन्दगी उत्सव
की तरह जीने के लिये ही तो होती
है।
अतः
उस दिन बस्ती के सभी बच्चों
ने अपने पुराने टूटे-फूटे खिलौनों
को जोड़-तोड़कर ‘क्रिसमस ट्री’
के नीचे सजाया था। सभी के चेहरों
पर खुशी की चमक थी और दमक थी
उन प्यारे खिलौनों की जिनका
त्याग करना बच्चों के लिये
बहुत कठिन-सा था। पर चार्ली
के लिये उन्होंने सहर्ष उन्हें
समर्पित कर दिया था। एक ने फटा-पुराना
टेड़ीबियर दिया था जिसकी एक
आँख धागे से बँधी लटक रही थी।
वह टेड़ीबियर उस बच्चे का एकमात्र
खिलौना था और उसे ‘क्रिसमस
ट्री’ के नीचे रखते समय समझ
रहा था कि जैसे उसने अपने दिल
का टुकड़ा प्रभु को समर्पित
करने का महान काम किया हो। एक
बच्चे ने कहा, ‘मैं तो सबसे अच्छी
कार लेकर आया हूँ।’ पर उस साबूत-सी
दिखनेवाली कार पर पेन्ट कम
और जंग ज्यादा लगा हुआ दिख रहा
था। नन्हीं पिंकी अपना पास्टिक
का दुलारा बिल्ली का बच्चा
सजाने के लिये लायी थी, जिसकी
पूँछ गायब थी। ‘क्रिसमस ट्री’
के नीचे सजाकर रखा एक लूला बंदर
भी दिख रहा था परन्तु उसके चेहरे
की मजाकिया मुस्कान तब भी सबको
मोह रही थी। एक बच्चे के कागज
की नाव बनाकर दी थी और उसपर बेढ़ब
अक्षरों से ‘हेप्पी क्रिसमस’
लिखने का प्रयास किया था। कुम्हार
का लड़का ‘बंटी’ मिट्टी के कुत्ता,
बिल्ली, खरगोश बनाकर ले आया
था।
जो
भी हो, खिलौने देनेवाले बच्चों
ने बड़े खुले दिल से अपनी सबसे
प्यारी चीजें उस ‘ट्री’ के
नीचे खेलने के कंचों के गोल
घेरे के अंदर सजा कर रखीं थी।
सच कहूँ, मैं भी उत्सुक था वह
नजारा देखने जब बस्ती के सारे
बच्चे खुशी में झूमते इस ‘क्रिसमस
ट्री’ के पास एकत्र होगें और
चार्ली के प्रभू का जन्म होगा
-- झुग्गी-झोपड़ियों के सारे बच्चों
की खुषियों को द्विगुना करता
हुआ -- उन सबको अद्भुत भविष्य
की रोशनी का आभास कराता हुआ।
सच, कितना निर्मल होता है बच्चों
का प्रेम! उनके लिये प्रेम का
अर्थ होता है -- एक दूसरे में
घुल-मिल जाना, एक दूसरे की खुशी
में शामिल हो उसे द्विगुणित
करना और एक दूसरे के जज्वात
की कद्र करना।
भूपेन्द्र कुमार दवे |
परन्तु वह
‘क्रिसमस ट्री’ जो कल का सपना
था अब जलकर खाक हो चुका था और
उस बच्चे को अकेला अनाथ छोड़
गया था। मैं उस बच्चे पर अपनी
निगाह टिका भी न सका और नीचे
बिछी घाँस को अपने पैर के अँगूठे
से कुरेदने लगा। तभी दूर से
बच्चों की टोली आती दिखी। वो
साथ में किसी पेड़ की एक अधजली
शाख लिये हुए थे। ठीक मेरे सामने
कुछ बच्चे उस डाल को गाड़ने की
तैयारी करने लगे और कुछ दौड़कर
चार्ली को बुलाने दौड़ पड़े।
आनन-फानन
‘क्रिसमस ट्री’ लगा दिया गया।
राख में से ढूँढ़कर शायद कुछ
खिलौने जैसी दिखनेवाली चीजें
भी बच्चे बटोर लाये थे और ‘क्रिसमस
ट्री’ के नीचे सजा रहे थे। कुछ
देर तो चार्ली खामोश बैठा यूँ
ही सब एकटक देखता रहा। फिर अचानक
खुशी के साथ ‘क्रिसमस ट्री’
के पास दौड़ आया।
‘चलो,
अब हम चारों ओर घूमकर ‘हेप्पी
क्रिसमस’ गायें,’ किसी बच्चे
ने कहा।
हम
सब जो यह नजारा देख रहे थे, अपनी
अपनी जगह से उठ बच्चों के झुंड़
में शामिल होने खड़े ही हुए थे
कि चार्ली ने सबको रोका, ‘ठहरो,
पहले मेरे मम्मी-पापा को आ जाने
दो।’
मैं
देखता हूँ कि ‘क्रिसमस ट्री’
के चारों ओर यकायक खामोशी छा
गई थी। सब बच्चे सुबक रहे थे।
‘चार्ली!
मेरे मम्मी-पापा भी तुम्हारे
मम्मी-पापा के साथ स्वर्ग चले
गये हैं। अब वे यहाँ नहीं आ सकेंगे।
अब हमें ऐसे ही जीना होगा, परन्तु
देखो, चार्ली ! अब ईश्वर भी हमारे
साथ हैं,’ किसी बच्चे ने सुबकते
हुए कहा।
उसके
ये शब्द जैसे हमें अहसास करा
रहे थे कि नन्हें बच्चों की
वाणी में भगवान बैठे होते हैं।
जब हम बोलते हैं तो उनमें मात्र
शब्द और अर्थ होता है परन्तु
वाणी जो बच्चों के मुख से निकलती
है तो उसमें उनकी आत्मा भी होती
है।
और
फिर खामोशी सहमी-सी आ खड़ी हुई
हमारे सबके बीच, जैसे वह कह रही
हो कि जब ईश्वर दर्द देता है
तो उसे सहन करने की शक्ति भी
मनुष्य को देता है और सच में,
देखते ही देखते चार्ली, सारे
बच्चे और हम सब लोग ‘क्रिसमस
ट्री’ को घेरकर खड़े हो गये और
प्रभु वंदना करने लगे।
यह रचना भूपेंद्र कुमार दवे जी द्वारा लिखी गयी है. आप मध्यप्रदेश विद्युत् मंडल से सम्बद्ध रहे हैं . आपकी कुछ कहानियाँ व कवितायें आकाशवाणी से भी प्रसारित हो चुकी है . 'बंद दरवाजे और अन्य कहानियाँ' ,'बूंद- बूंद आँसू' आदि आपकी प्रकाशित कृतियाँ है .
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