वेद प्रताप वैदिक मेरे पासपोर्ट पर भारत एक मात्र ऐसा देश है, जिसका छापा उसकी अपनी ज़बान में नहीं है। मैंने क़रीब आधा दर्जन हवाई कंपनियो...
वेद प्रताप वैदिक |
मेरे पासपोर्ट पर भारत एक मात्र ऐसा देश है, जिसका छापा उसकी अपनी ज़बान में नहीं है। मैंने क़रीब आधा दर्जन हवाई कंपनियों से विभिन्न देशों की यात्रा की लेकिन उन सब में केवल अपने देश की हवाई कंपनी, एयर इंडिया की विमान परिचारिकाएँ ही एक मात्र ऐसी विमान परिचारिकाएँ थीं जो अपने देशवासियों के साथ परदेसी भाषा में बात करती थीं। यदि इस प्रकार की घटनाओं से किसी देश के नागरिकों का सिर ऊँचा होता हो तो सचमुच भारतीय लोग अपना सिर आसमान तक ऊँचा उठा सकते हैं।
हमारे देश में यह आम धारणा है कि विदेशों में अंग्रेज़ी ही चलती है, अंग्रेज़ी के बिना हम विदेशों से संपर्क नहीं रख सकते, अंग्रेज़ी के जरिए ही विदेशी मुल्कों ने विज्ञान और तकनीक के क्षेत्र में उन्नति की है। इस तरह की दकियानूसी और पिछड़ेपन की बातों पर लंबी बहस चलाई जा सकती है लेकिन यहाँ मैं केवल उन छोटे-मोटे अनुभवों का वर्णन करूँगा जो पूरब और पश्चिम के देशों में भाषा को लेकर मुझे हुए।
मैं एशियाई देशों में अफ़ग़ानिस्तान, ईरान और तुर्की गया, यूरोपीय देशों में रूस, चेकोस्लोवेकिया, इटली, स्विटजरलैंड, ऑस्ट्रेलिया, फ्रांस, जर्मनी तथा ब्रिटेन गया तथा यात्रा का अधिकांश भाग अमेरिका और कनाडा में बिताया। इन देशों में से एक भी ऐसा देश नहीं था जिसकी सरकार का काम-काज उस देश की जनता की ज़बान में नहीं होता हो।
अफ़ग़ानिस्तान जैसा देश, जहाँ राजशाही थी और जहाँ राज-परिवार के अधिकांश सदस्यों की शिक्षा पेरिस या लंदन में हुई है, वहाँ भी शासन का काम या तो फारसी (दरी) या पश्तो में होता है। मैंने अफ़ग़ानिस्तान के लगभग सभी प्रांतों की यात्रा की और सभी दूर शासकीय दफ़्तरों में जाने का अवसर मिला, कहीं भी किसी भी दफ्तर में अंग्रेज़ी का इस्तेमाल होते हुए नहीं देखा। आप चाहे विदेश मंत्रालय में चले जाएँ या गृह मंत्रालय या पुलिस चौकी या किसी राज्यपाल के दफ्तर में, आप पाएँगे कि बड़े से बड़ा अधिकारी अपनी देश-भाषा का प्रयोग करता है। अफ़ग़ानिस्तान में मैं विदेशी था लेकिन अफ़ग़ान विदेश मंत्रालय ने राज्यपालों के नाम मेरे लिए जो पत्र दिए वे दरी में थे, अंग्रेज़ी में नहीं।
इसी प्रकार सोवियत रूस में 'इंस्तीतूते नरोदोफ आजी के निदेशक ने मस्क्वा के विभिन्न पुस्तकालयों के नाम मुझे जो पत्र दिए, वे रूसी भाषा में थे। इस संस्था के निदेशक प्राचार्य गफूरोव जो कि रूस के श्रेष्ठतम विद्वानों में से एक थे, अंग्रेज़ी नहीं जानते। उनके अलावा अंतर्राष्ट्रीय मामलों के ऐसे अनेकों रूसी विद्वानों से भेंट हुई जो अंग्रेज़ी नहीं जानते। जो अंग्रेज़ी जानते हैं, वे भी अपनी रचनाएँ रूसी भाषा में ही लिखते हैं और फिर उनका अनुवाद होता है। अंग्रेज़ी या फ़्रांसीसी उनके लिए आकलन की भाषा है, सूचना देनेवाला एक माध्यम है, उनकी अभिव्यक्ति को कुंठित करने वाला गलाघोंटू उपकरण नहीं है। मस्क्वा में सैकड़ों भारतीय विद्यार्थी विज्ञान और इंजीनियरिंग का उच्च अध्ययन कर रहे हैं। उन्हें सारी शिक्षा रूसी भाषा के माध्यम से ही दी जाती है। मस्क्वा में एक-बार हम लोग विज्ञान और तकनीक की प्रदर्शनी देखने गए। वहाँ मालूम पड़ा कि जिस वैज्ञानिक ने अंतरिक्ष यान आदि के आविष्कार किए हैं, उसने अपनी रचनाएँ रूसी भाषा में लिखी हैं।
इसी प्रकार जर्मनी और फ्रांस के विश्वविद्यालयों में ऊँची पढ़ाई उनकी अपनी भाषाओं में होती है। विश्वविद्यालयों के कई महत्वपूर्ण प्राचार्य अंग्रेज़ी नहीं बोल सकते थे। ऑस्ट्रिया में मैं वियना के एक विश्वविद्यालय में दर्शन के कुछ अध्यापकों से मिलना चाहता था। मेरे साथ कोई दुभाषिया नहीं था। कोई आधा घंटा परेशानी होने के बाद एक आदमी ऐसा मिला जो मेरी बात का जर्मन भाषा में तर्जुमा कर सकता था।
लंदन में लंदन स्कूल ऑफ इकॉनामिक्स की ओर से एक अंतर्राष्ट्रीय परिसंवाद हुआ। उसमें यूरोप के विभिन्न देशों से अनेक विद्वान आए थे। या तो हिंदुस्तानी विद्वान अंग्रेज़ी बोलते थे या हमारे पुराने स्वामी अंग्रेज़ी बोलते थे। यूरोप के विद्वान या तो ज़्यादातर चुप बैठे रहते थे या टूटी-फूटी अंग्रेज़ी में बोलते थे। जब इटली के गांधी श्री दानियेल दोल्वी ने अपना भाषण इतालवी जुबान में किया तो मेरी भी हिम्मत बढ़ी। मैंने अपनी बात हिंदी में कही जिसका तर्जुमा श्री निर्मल वर्मा ने किया। तत्पश्चात जो अन्य यूरोपीय लोग वहाँ चुप बैठे थे, वे भी अपनी-अपनी भाषाओं में बोलने लगे। और किसी न किसी ने उनके भाषणों का भी तर्जुमा कर दिया। वहाँ लगभग आधा दर्जन भारतीय थे और एकाध सज्जन को छोड़कर सभी लोग त्रुटिपूर्ण और भद्दी अंग्रेज़ी बोल रहे थे लेकिन अपनी ज़बान का ठीक इस्तेमाल करने की हिम्मत किसी की भी नहीं हो रही थी।
चेकोस्लोवेकिया में वहाँ के प्रसिद्ध जन-नेता और संसद के अध्यक्ष डॉ. स्मरकोवस्की से जब मैं मिलने गया तो उनके विदेश मंत्रालय ने एक ऐसा दुभाषिया भेजा, जो अंग्रेज़ी से चेक में अनुवाद करता था। मैंने कहा, मैं भारतीय हूँ, मेरे लिए अंग्रेज़ी वाला दुभाषिया क्यों भेजा? उन्होंने कहा, आपके देश से आने वाले विद्वान, नेता और कूटनीतिज्ञ अंग्रेज़ी का ही प्रयोग करते हैं। यहाँ ध्यान देने योग्य बात यह है कि डॉ. स्मरकोवस्की जैसे राष्ट्र नेता यूरोपीय होने के बावजूद भी अंग्रेज़ी का प्रयोग नहीं करते। इसी प्रकार अफ़ग़ानिस्तान के भूतपूर्व प्रधानमंत्री सरदार दाऊद, जो कि अपने देश के इतिहास में सबसे बड़े शासकों में से एक माने जाते हैं, अंग्रेज़ी में बात नहीं कर सकते थे। उनके साथ मेरी बातचीत दरी में ही हुई।
सौजन्य -हिन्दी विकिपीडिया
Kash ye baat wo kayar maun-mohan aur brastachari sonia samajh pati.
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर प्रस्तुति। ।
जवाब देंहटाएंबदलते समय के साथ साथ हिंदी का चलन भी बढ़ रहा है, यह एक अच्छी बात है. भारत के विभिन्न स्थानों पर जहाँ लोग हिंदी नहीं समझते, वहाँ भी अब हिंदी बोलने से कम चलने लगा है. हिंदी के भविष्य के प्रति ये सब बातें आशा जगाती हैं.
जवाब देंहटाएंAaj hindi mai itna kuch dekh kar aacha lag raha hai.hum sub ko hindi pe garv hona chaiea.
जवाब देंहटाएंहमारे देश के कहेलाये जाने वाले जयादातर विद्रान भोंपुं मासतर हे । अपने मुंह से बजा भोंपुं दुनिया के जयादा से जयादा लोग सुने ऐसी ससति पबलिसीटी की चाहत से पिडीत ये लोग राषट्रभाषा तो कया ? अपनी मात्रुभाषा मे बात करने मे भी शर्म महेसुश करते हे । इनकी जयादातर रचनाये अंग्रेजी मे होती हे जो कि जयादातर देशवासीयो के लीऐ बेकार बराबर हे । इससे भी बडे दुःख की बात तो ये हे की आज के मातापिता ने अपनि संतान से अपनी मातृलीपि तक छिन ली हे । सोशियल नेट पर अपनी मातृभाषा मे बातचीत करनेवाला कोइ वयकित अगर ये कहे की मे अपनी लीपि नही जानता तब मुझे बहूत दुःख होता हे । इन से बडे अनपढ ओर जाहिल किसे समजना चाहिये ?
जवाब देंहटाएंहमारे देश के कहेलाये जाने वाले ज्यादातर विद्रान भोंपुं मास्तर हे । अपने मुंह से बजा भोंपुं दुनिया के ज्यादा से ज्यादा लोग सुने ऐसी सस्ती पबलिसीटी की चाहत से पिडीत ये लोग राष्ट्रभाषा तो कया ? अपनी मातृभाषा मे बात करने मे भी शर्म मेहसुश करते हे । इनकी ज्यादातर रचनाये अंग्रेजी मे होती हे जो कि ज्यादातर देशवासीयो के लीऐ बेकार बराबर हे । इससे भी बडे दुःख की बात तो ये हे की आज के माता-पिता ने अपनि संतान से अपनी मातृलीपि तक छिन ली हे । सोशियल नेट पर अपनी मातृभाषा मे बातचीत करनेवाला कोइ वयक्ति अगर ये कहे की मे अपनी लीपि नही जानता तब मुझे बहूत दुःख होता हे । इन से बडे अनपढ ओर जाहिल किसे समजना चाहिये ?
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