प्रतीक्षा / भूपेन्द्र कुमार दवे की कहानी
वह 94-96 वर्ष का था। उसमें दो-तीन वर्ष जोड़ भी दिये जावें, तो भी वह पूरे सौ बरस का नहीं हुआ ही माना जावेगा। पर उसे गौर से देखा जावे तो उसकी हालत फ्रिज में चार माह से रखे
सेव की तरह थी, सूखी-सी सेव जिसके सिकुड़ने के कारण उस पर झुर्रियाँ भरी पड़ी थीं अपनी पूर्व की आकृति से घटकर आधी हुई-सी। ऊँगलियों पर उभरी गाँठें उसके हाथ को केकड़े की शक्ल में बदल चुकीं थीं। सारे शरीर पर सूखे के कारण दरकती जमीन की सी आकृति प्रतिबिंबित थी। फिर भी उसे देखकर हम कह सकते हैं कि नब्बे साल से ऊपर तक व्यस्त रहा उसका शरीर खंडहरों की तरह अपने कुछ कुछ स्मृति-चिन्हों को जिन्दा रख सकने में कामयाब रहा था।
पर जहाँ जीने की इच्छा भरभराकर गिरने लगती है, तो दुनिया की कोई शक्ति उसे रोक नहीं पाती। ऐसे व्यक्ति को सामने पाकर अच्छे अस्पताल के नामी डाक्टर भी मूक दर्शक बनकर रह जाते हैं --- और तब मृत्यु के दक्ष हाथ ईश्वर की इस एक और अद्भुद कलाकृति को नष्ट करने में व्यस्त हो जाते हैं।
‘डाक्टर, अब गाड़ी आगे नहीं चल पावेगी,’ उस वृद्ध ने इन निराशा भरे शब्दों को अपने शुष्क ओठों पर सजाने की कोशिश की।
डाक्टर वर्मा अपने मरीजों से ऐसी बातें सुनने के आदी थे। वे इस समय भी चुप रहते परन्तु न जाने किस अलौकिक शक्ति ने उन्हें उकसाया और वे बोल पड़े, ‘आपको तो जिन्दगी का शतक पूरा करना है।’
‘याने तीन साल, आठ माह ग्यारह दिन,’ वह बोला, ‘मैं हर रोज का हिसाब रखता हूँ। रखूँ भी क्यूँ नहीं! बस यूँ दिन गिनना ही तो जीवन का एकमात्र मकसद रह गया है। अब और जी कर भी करना क्या है? किसे मेरी जरूरत है?’
डाक्टर वर्मा ने उसे याद दिलाया, ‘आपकी जरूरत है आपके बेटा अनिवेश को। बेचारा सात समुन्दर पार कनेडा में बैठा है। उसे क्यूँ भूल रहे हैं?’
अनिवेश का नाम सुनते ही पलंग पर लेटे जसवंत छाबड़ाजी ने उठकर बैठने की कोशिश की, ‘उसे मैं नहीं भूल रहा, पर वह मुझे भूल गया है। आप ही जानते हैं कि मैं कितने समय से इस अस्पताल में हूँ। पर उसने कभी मेरी खोज-खबर नहीं ली। मैं इस मोबाइल को सिराहने रखता हूँ। हर वक्त उस पर कान लगाये रहता हूँ। किन्तु वह पत्थर की मूरत की तरह गूँगा बना रहता है। डाक्टर साहब, इतना निष्ठुर तो पत्थर का भगवान भी नहीं होता।’
‘बेटा है, याद तो करता ही होगा। व्यस्त होगा या फिर और कोई मजबूरी होगी। देखना एक दिन वह तपाक से आपके सामने आ धमकेगा,’ डाक्टर ने कहा।
‘हाँ, वह आवेगा। मैं भी अच्छी तरह से जानता हूँ। लेकिन कब? जब मेरी जगह उसे मेरी जायजाद की याद आवेगी, तब। हाँ, तीस करोड़ रुपये उसे खींच लायेंगे मेरे पास। वह सोचता है कि उसकी परवरिश मैंने नहीं बल्कि पैसों ने की है। वह तो मुझे मात्र एक तिजोरी ही समझता है --- एक निर्जीव लोहे का बक्सा, जिसे जब चाहे तब लूटा जा सकता है। डाक्टर, लोग जैसे शरीर को पाकर भगवान को भूल जाते हैं, उसी तरह वह तिजोरी पाकर मुझे भूल बैठा है। वह नहीं जानता कि एक बाप तिजोरी में जो भरता है, वह वास्तव में क्या होता है?’ इतना सब एक साथ कहकर वह हाँफने लगा। उसकी साँसें बेकाबू होकर फैफड़ों की दीवार पर सिर पटकने लगीं।
‘बस, अब आप चपुचाप सो जाईये और ये सब बेकार की बातें सोचना बंद करिये।’ इतना कहकर डाक्टर ने उन्हें आराम से लिटा दिया। डाक्टर वर्मा जानते थे कि उनका यह मरीज वृद्ध ही नहीं, हृदय रोगी भी था। उसे अस्थमा के दौरे भी पड़ते थे। रक्त चाप कभी भी उतरने का नाम ही न लेता था। और भी न जाने कितनी बीमारियों ने उनके शरीर में घरोंदे बना रखे थे। पर छाबड़ाजी में ही खासियत थी कि वे अपने आप को मजबूत बनाये रखे थे।
लेकिन अस्पताल में भर्ती होने के बाद उनके अंदर की शक्ति क्षीण हो चली थी और वे प्रायः कह उठते थे, ‘अब मेरी जरूरत किसे है?’
भूपेन्द्र कुमार दवे |
यह वाक्य सुनते-सुनते डाक्टर ऊब चुके थे। झुँझलाकर वे बोल पड़े थे, ‘किसी और को आपकी जरूरत हो या ना हो, पर मुझे तो आपकी जरूरत है।’
‘आपको मेरी जरूरत!’ वे चौंक पड़े थे या खीज उठे थे, समझना कठीन था। बुढ्ढे लोगों के साथ यही मुसीबत है कि उनका खीजना, चौंकना, खुश होना, क्रोधित होना आदि सब एक-सा लगता है। यह तो उनके मुख से निकले शब्द ही बता पाते हैं कि वे किस मूड में हैं। उस दिन उन्होंने डाक्टर को आड़े हाथ लेकर कहना शुरू किया था, ‘हाँ, मैं जानता हूँ कि आपको मेरी जरूरत है, क्योंकि मैं बीमार हूँ, पैसेवाला हूँ। ऐसे ही मरीज को पाकर डाक्टर लोग खुश होते हैं और चाहते हैं कि वह वर्षों यूँ ही बीमार बना रहे। अभी तुम ही कह रहे थे कि तुम मुझे सौ बरस तक जिन्दा रखोगे। अरे, पैसे ही चाहिये तो सीधा-सीधा कहो। पैसे लो और मेरी छुट्टी करो।’
डाक्टर वर्मा मरीजों पर उखड़नेवालों में से नहीं थे। उन्हें ऐसी आड़ी-तिरछी बातें सुनने की आदत थी। इसलिये बात को मजाकिया मोड़ देते हुए बोले, ‘अगर आपको सौ वर्ष की उमर तक न पहुँचा दूँ, तो मेरा नाम बदल दीजियेगा ताकि आपकी करोड़ों की संपत्ति यह अंश आपके पुत्र के ही काम आ सके।’
‘ठीक कहते हो। संपत्ति का कुछ अंश काम आ गया तो मुझे अवश्य तसल्ली होगी। सो, तुम मुझे सौ बरस तक जिन्दा रखो और यदि ऐसा कर सके तो मैं अपनी सारी तीस करोड़ की संपत्ति तुम्हारे नाम कर दूँगा। बोलो, मंजूर है।’
यह सुन डाक्टर के मुख से अनायास निकल पड़ा, ‘मैं इतने पैसों का क्या करूँगा?’
‘देखा, पीछे हट गये। तुम जानते हो कि मैं कुछ ही दिनों में ‘टाँय’ होनेवाला हूँ इसलिये ये शर्त लगाने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहे हो।’
पर डाक्टर वर्मा समझ गये थे कि उनके इस मरीज में अब और जीने की चाह जाग गई है, इसलिये उन्होंने कहा, ‘आप करोड़ों की बात अलग रखिये। पर मेरी वाणी सच ही निकलेगी। आप सौ साल जियेंगे और इसकी जिम्मेदारी मैं लेता हूँ।’
किन्तु छाबड़ाजी नहीं माने। उन्होंने चुपचाप अपने वकील को बुलवाया और वसीयत में लिख दिया कि यदि डाक्टर उन्हें सौ बरस तक जिन्दा रख सके तो डाक्टर उनकी सारी संपत्ति के हकदार होंगे।
और तब एक दिन उन्होंने डाक्टर को बुलाकर वकील से वह वसीयत पढ़कर सुनाने कहा। डाक्टर वसीयत सुन भैंचक्के से कभी छाबड़ाजी तो कभी वकील का चेहरा देखने लगे। ‘आप यह क्या कर रहे हैं,’ वे यह कहना चाहते थे, पर शब्द ओठ तक आने के पहले ही ‘कोमा’ में चले गये। उन्हें लगा जैसे उनकी काबिलियत को चुनौती दी जा रही थी, या उनके पेशे का मखौल उड़ाया जा रहा था या फिर उनकी कर्तव्यनिष्ठ व्यक्तित्व की कुड़की कर बोली लगायी जा रही थी।
वसीयत के एक एक शब्द उनके कानों में हथौड़े की तरह प्रहार कर रहे थे। छाबड़ाजी ने लिखा था, ‘मैं अपने पूरे होश-हवास में लिख रहा हूँ। मैं न तो अपनी जिन्दगी का सौदा कर रहा हूँ और न ही डाक्टर को लालच के मायाजाल में फँसाने का प्रयास कर रहा हूँ। डाक्टर वर्मा को मैं अपना बेटा मानता हूँ --- ऐसा बेटा जो अपने बाप को जिन्दगी के पूरे सौ बरस तक जिन्दा रखने के लिये स्वयं वचनबद्ध हो रहा है। और उनकी काबिलियत का हौसला बढ़ाने के लिये और स्वतः की जिन्दा रहने की ख्वाईश को पूरा करने के लिये यह वसीयत में उल्लेख करना चाहता हूँ कि यदि वह मुझे सौ बरस की उम्र तक जिन्दा रखने में सफल होते हैं तो वह मेरी सारी संपत्ति के हकदार होगा। वैसे उनकी कर्तव्यनिष्ठा के आगे मेरी यह संपत्ति भी तुच्छ है। और डाक्टर को पूर्ण अधिकार होगा कि वे जैसा चाहें वैसा इसका उपयोग कर सकता है, सिर्फ एक शर्त के कि उसे यह अधिकार नहीं होगा कि उसका एक छोटा-सा भी हिस्सा मेरे पुत्र अनिवेश दे।’
यह आखरी वाक्य सुन डाक्टर की नसें यकायक फड़फड़ा उठीं। उन्हें लगा जैसे वह मानवीयता की हत्या का दस्तावेज था। उनकी अंतरात्मा विचलित हो उठी। मन कहने लगा, ‘मेरा अपना परिवार है --- पत्नी है और दो बच्चे हैं। कहीं इस दस्तावेज की आँच उन पर ना आ जावे। किसकी जिन्दगी कब थम जावे, किसको पता है? कहीं यह संपत्ति चुभते नुकीले हीरे की कणकियों-सी ना बन जावे।’
वह एकदम बोल पड़ा, ‘देखिये, इस दस्तावेज को कानून की जंजीरें पहनाने की कोशिश न करें तो अच्छा होगा। इसे चीरकर फेंक दीजिये। मैं तो वचनबद्ध हूँ, आपको पूरे सौ वर्ड्ढ तक जिन्दा रखने के लिये। फिर इसे स्वार्थ की परतों में संजोने का क्या प्रयोजन?’
बहस काफी देर तक चली। डाक्टर की जिद्द पर छाबड़ाजी वसीयत में यह लिखने तैयार हो गये कि यदि सौ वर्ष पूरे होने के पहले वे चल बसे तो उनकी सारी संपत्ति का अधिकारी उनका पुत्र अनिवेश ही होगा। लेकिन वसीयत पर हस्ताक्षर करने के पहले डाक्टर को घूरकर देखा और बोले, ‘इसका मतलब यह नहीं कि तुम मेरे बेटे अनिवेश के खातिर, मुझे सौ वर्ष पूर्ण होने के पहले ही ....’ वे कुछ कहते-कहते रुक गये। फिर खुद को संयत करते हुए बोले, ‘तुम डाक्टर हो, जब चाहे तब कुछ भी कर सकते हो। मैंने तो सिर्फ तुम्हारा विश्वास जीतने का प्रयास किया है। आगे ईश्वर की इच्छा।’
और समय का चक्र सदा की तरह घूमता रहा। डाक्टर वर्मा जी-जान से छाबड़ाजी के इलाज में लगे रहे। दुनिया के ख्यातिप्राप्त डाक्टरों से सलाह-मशविरा करने और उन्हें भारत में बुलाकर मदद लेने में अपने ही पैसा बहाने लगे। सारी कमाई को लुटाने के साथ-साथ जब वे अपने ही स्वास्थ के प्रति उदासीन होने लगे तो एक दिन उनकी पत्नी को कहना ही पड़ा, ‘ये करोड़ों की संपत्ति को छोड़िये और अपनी सेहत का ख्याल रखिये।’ पर डाक्टर ‘हाँ, हूँ’ कर बात टाल गये।
और आखिरकार वह दिन आ गया जिसका उन्हें बेसब्री से इंतजार था। वे दौड़कर छाबड़ाजी के पास गये और बोले, ‘तो कल आपकी सौवीं वर्षगाँठ है।’
‘डाक्टर यू आर मॉय रियल सन,’ कहकर छाबड़ाजी डाक्टर की ओर देखने लगे और वात्सल्यता के उद्वेग में बहते आँसू उनकी आँखों की कोर से टपकने लगे। तभी उनका मोबाईल बज उठा। तकिये के नीचे से उसे बाहर निकालकर छाबड़ाजी उसे कान के पास ले गये। दूसरी ओर से कोई उनसे बात कर रहा था, पर वे बिना कुछ बोले गुमसुम सुनते रहे। मोबाईल को ‘ऑफ’ कर वे डाक्टर से बोले, ‘अनिवेश भारत आ गया है। कल सुबह तक यहाँ आ जावेगा। डाक्टर, तुमने सौ बरस की जिन्दगी पूरी करने का मौका देकर, मुझे अपने बेटे से मिलने के काबिल बना दिया। मैं तुम्हारा यह अहसान कभी नहीं भुला पाऊँगा।’
यह सुनते ही डाक्टर अचानक किसी अन्य लोक में उतर गये। ‘अपने बेटे से मिलने की ख्वाईश को अपने मन में संजोये रखकर ही छाबड़ाजी इतने बरस तक मृत्यु से लड़ते रहे। उन्हें जिन्दा रखने में मेरा आखिर क्या योगदान रहा? यह तो वात्सल्यता थी जो उन्हें शक्ति देती रही। मेरी सेवा, मेरी मेहनत तो मात्र माध्यम बनी हुईं थीं। और कल जब इनका बेटा सामने होगा तब कंकाल बनी यह सौ वर्ष पूर्ण कर चुकी तप्त आत्मा खाली हाथों से बेटे को क्या आशीर्वाद देगी? मुझे कोसने के सिवा इसके पास बचा ही क्या होगा?
एक विचित्र अन्तर्द्वन्द की लपटों ने डाक्टर को घेर लिया और वे तेजी से बाहर चले गये।
और, दूसरे दिन डाक्टर जब छाबड़ाजी के कमरे में गये तो वे सो रहे थे। जन्मदिन की बधाई देने का उतावलापन कुछ देर ठिठककर रह गया। तभी कमरे में अनिवेश ने प्रवेश किया और आते ही डाक्टर से बोला, ‘आप डाक्टर वर्मा हैं?’
‘जी, और आप?’ डाक्टर ने कहा।
‘हाँ, मैं ही अनिवेश हूँ और आपको यह भी बताना चाहता हूँ कि अब वसीयत कोई मायने नहीं रखती। आप उसे जला डालिये।’ डाक्टर ने देखा कि अनिवेश के मुख पर एक व्यंगात्मक मुस्कान उभर रही थी।
डाक्टर बिना कुछ कहे पलंग की ओर बढ़े और छाबड़ाजी की नब्ज टटोलने लगे।
‘अब क्या देख रहे हैं डाक्टर साहब?’ अनिवेश ने कहा।
‘बस, यही देख रहा हूँ कि इनके चेहरे पर अपने बेटे से मिलने का उतावलापन किस तरह सौ बरस तक जीने की चाहत लिये मुस्कान बिखेरता प्रतीक्षारत रहा था।’
यह रचना भूपेंद्र कुमार दवे जी द्वारा लिखी गयी है. आप मध्यप्रदेश विद्युत् मंडल से सम्बद्ध रहे हैं . आपकी कुछ कहानियाँ व कवितायें आकाशवाणी से भी प्रसारित हो चुकी है . 'बंद दरवाजे और अन्य कहानियाँ' ,'बूंद- बूंद आँसू' आदि आपकी प्रकाशित कृतियाँ है .
kahani bahut achi lagi. kahani choti thi per eke eke sabda prabhavsahli tha. doctor jo nekdil tha. kahani ka pramukh nayak bhi vahi laga.
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जवाब देंहटाएंIS KAHANI KE EK EK SHABD AISA LAGA KI HEERE SE JARE HO.....BEHTARIN SHABDO AUR BHAWNAO KA SHANGRAH
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