बुढ़ापा आने पर एक बात की खुशी होती है कि हम मृत्यु के नजदीक पहुँच गये होते हैं। दाँत गिरना, बाल झरना, आँख में मोतियाबिन्दी होना, ...
बुढ़ापा
आने पर एक बात की खुशी होती
है कि हम मृत्यु के नजदीक पहुँच
गये होते हैं। दाँत गिरना, बाल
झरना, आँख में मोतियाबिन्दी
होना, शरीर के जोड़ों में दर्द
होना, रह रह कर चिड़चिड़ाना आदि
बातों तक बुढ़ापा अपने आने की
सूचना देता रहे तो ठीक है, पर
जब शरीर को खंडहर समझ कर मृत्यु
चमगादड़ की तरह मंड़राने लगे
तो ऐसा लगता है कि मृत्यु यातनाओं
और पीड़ा का मुखौटा पहनकर जीवन
का मखौल उड़ा रही है। मृत्यु
के इन आघतों से शरीर व आत्मा
पहले ही टूट जाती हैं और जीवन
का कोई मकसद नहीं रह जाता है।
बस रह जाता है यह जानना कि देखें
यह मृत्यु इस लाश को किस चिता
पर जलाकर जिन्दा रखना चाहती
है।
परन्तु
डाक्टर कहे जाते हैं कि मृत्यु
के पहले पूरा जीना जरूरी है
और दार्शनिक कहते हैं कि यूँ
मरते दम तक जीना ही मृत्यु की
शान है। कहने को तो मैंने भी
दिवाकर से कहा था कि हमें जीना
है पूरे समारोह के साथ -- उमंग,
उत्साह, उल्लास को शिथिल किये
बगैर -- एक क्षण के लिये भी उदास
हुए बगैर क्योंकि न जाने कब
हमें मृत्यु के समारोह के आयोजन
में लग जाना पड़े। पर ऐसा कहने
के तुरन्त बाद मुझे लगा कि सूखते
पेड़ को पानी देकर हम क्या करते
हैं -- बस एक तसल्ली कर लेते हैं
अपने कर्तव्य पालन की, आशा की
डोर को पकड़े रहने की, ईश्वर के
प्रति अपनी आस्था को मजबूत
करने की। पर हमारे सामने होती
है साँस लेती प्राणहीन-सी काया
जो अपने कफन को अपनी आँखों के
सामने तार तार होती देखती रहती
है और कहती जाती है कि मैं जिन्दा
हूँ -- ऐ मृत्यु ! थोड़ा और सब्र
कर।
मृत्यु
सब्र करती है और सुनती है कि
दिवाकर कह रह था, ‘मैं तुम्हैं
इतना प्यार करता हॅँ कि तुम्हारे
बिना एक पल भी नहीं
रह सकता।
इसलिये तो मैं भगवान से प्रार्थना
करता हूँ कि मैं तुमसे पहले
मरूँ।’
‘
मैंने भी तुम्हें दिल से चाहा
है और मेरी यही इच्छा है कि मैं
सुहागिन बनी ही इस दुनिया से
कूच करूँ।’ ये जवाब था उनकी
पत्नी जो वहीं बाजू के पलंग
पर पड़ी थी।
तब
दिवाकर पत्नी को याद दिलाता
है, ‘मैं तुमसे उम्र में बड़ा
हूँ।’
श्रीमती
दिवाकर कब चुप रहती, तुरन्त
बोली, ‘होगे बड़े, पर वैवाहिक
जीवन तो हम दोनों का बराबर का
ही है। बल्कि मैं तो कहूँगी
कि तुम्हारे लिये तो मैंने
हर दिन दो दिनों के बराबर जिन्दगी
जी है। कितना कुछ नहीं करना
पड़ा मुझे हर रोज वह भी सिर्फ
तुम्हारे लिये।’
‘ हाँ, मैंने
तो बस साठ बरस की उम्र तक ही
कमाया है। रिटायर होने के बाद
मैं तुम्हारे लिये कुछ कर भी
नहीं पा रहा हूँ। इसलिये तो
कहता हूँ मुझ जैसे निकम्मे
को पहले दुनिया से बिदा लेना
चाहिये।’
‘ ऐसा क्यूँ
कहते हो कि रिटायर होने पर तुमने
कुछ नहीं किया। उसके बाद ही
तो प्रतिदिन, लाखों रूपये की
मुस्कान जो बिखरते हो वो क्या
मेरे लिये कम है।’
‘ पर तुम्हारी
एक मुस्कान की बराबरी तो मेरी
हजार मुस्कानें भी नहीं कर
सकती। आज इस बीमारी हालत में
तो मेरी मुस्कनों का तो जैसे
स्टाक ही खत्म हो गया है।’
‘ और तुम्हारा
स्पर्श ?’
‘ उफ्, उसकी
बात मत करो। आत्मा तो अन्तर्मन
में रो पड़ती है।’ यह कहते समय
दिवाकर की आँखें यकायक नम हो
उठी।
‘ ठीक है,
पर तुम ही हमेशा लेडीस् फस्ट
कह कर मुझे सम्मान देते रहे
हो। अब मरते समय इस सम्मान से
मुझे वंचित कर खुद पहले मरने
की बात क्यूँ कर रहे हो।’
‘ क्योंकि
मैं स्वर्ग में पहले पहुँचकर,
स्वर्ग को तुम्हारे स्वागत
के लिये सजाना चाहता हूँ।’
‘ तुम स्वर्ग
को क्या सजावोगे ? इस पृथ्वी
पर तो तुम्हारे घर को सजाने
की जिम्मेदारी सदा मेरी ही
रही है। देखो, अब मैं बीमार हूँ
तो दीवार पर मकड़ी के जाले हमारी
झुर्रियों की नकल कर हँसी उड़ा
रहे हैं।’
‘ तो फिर
इस बीमार हालत में स्वर्ग पहले
पहुँचकर वहाँ तुम क्या साफ-सफाई
कर पावोगी ?’
‘ तुम भी
तो बीमार पड़े हो। वहाँ पहले
जाकर कौन-सा पहाड़ हिला दोगे
?’
‘ मैं......
मैं वहाँ जाकर भगवान से सिफारिश
करूँगा जिससे तुम्हें नरक न
मिले, स्वर्ग मिले ताकि हम तुम
एक साथ रह सकें।’
‘ यह काम
तो मुझे वहाँ जाकर करना है।’
‘ देखो, मुझे
गुस्सा मत दिलाओ। तुम्हारी
नजरों में क्या मैं नरक के लायक
हूँ।’
‘ तुम्हीं
ने पहले नरक की बात की है ... मैंने
नहीं। मैं बूढ़ी हो गई हूँ
इसलिये अब इस उम्र में मुझे
नरक के लायक तुम समझ रहे हो,’
इतना कहकर मिसेज दिवाकर रोने
लगी। मैं सोचने लगा कि लोग क्यों
मरने पर स्वर्ग पाने के लिये
तड़प उठते हैं ? सारे सुख-दुख
का चक्कर इस शरीर से चिपका होता
है और मरने पर जब शरीर को ही
छूट जाना है तो काहे का स्वर्ग
का सुख और काहे का नरक का दुख।
वहाँ तो बस आत्मा जाती है और
आत्मा को सुख-दुख से क्या लेना-देना
? जब तक यह शरीर इस पृथ्वी पर
बना होता है तब तक सुख पाने लोग
क्यों नहीं इस पृथ्वी को स्वर्ग
बना लेते हैं ?
चलिये,
अब देखें कि अपनी पत्नी के
आँसू देखकर दिवाकर क्या कह
रहे हैं ?
‘ देखो, रोना
नहीं। इस उम्र में आँसू बहाकर
मुझे दबाने की कोशिश मत करो।’
‘ लो, अब मेरा
रोना भी तुम्हें नहीं सुहाता।
भूल गये कि कभी कहा करते थे कि
ये आँसू मोती हैं और मेरे गालों
पर उसी तरह दमकते हैं जैसे फूल
की पंखुड़ी पर ओस की बूँदें।’
‘ ऐसा मैने
कब कहा था ?’
‘ क्या ये
भी भूल गये ?’
‘ भूलूँगा
नहीं तो क्या ? सारी उम्र तो
तुम आँसू ही तो बहाती रही हो।
कभी-कभार रोई होती तो वह दिन
याद भी रहता। सारी उम्र रोना
ही तो तुम्हारा काम रहा है।’
‘ और सारी
उम्र रुलाते रहना तुम्हारा
काम रहा है,’ उनकी पत्नी तपाक
से बोल पड़ी।
बूढ़े को
शायद यह अच्छा नहीं लगा। कहने
लगा,‘ बस, यों ही झगड़ती रहोगी
तो मुझे अपनी अंतिम साँस के
निकल जाने का भी पता नहीं लगेगा।’
‘ देखो जी,
ये मरने की बात कर मुझे रुलाने
की कोशिश मत करो। मैं ही पहले
मरूँगी, वरना यह कहूँगी की मरने
के बाद भी तुम मुझे रुलाते रहे
हो।’
‘ जब मैं
ही नहीं रहूँगा तो किससे कहोगी
?’
‘ मैं कहूँ
या ना कहूँ, पर सारी दंनिया तो
यही कहेगी।’
‘ मुझे अब
इस दुनिया से कोई मतलब नहीं।’
‘ मुझसे
मतलब तो है ना। या अब वो भी नहीं
रहा।’
‘ तुमसे
मतलब है तब ही तो मैं पहले मरने
की सोच रहा हूँ।’
‘ सोचो, खूब
सोचो अपनी बला से। भगवान तो
मेरी ही सुनेंगे। मैंने उपवास
रखे हैं, पूजा-पाठ भी मैं ही
करती रही हूँ। और यह सब मैंने
तुम्हारे खातिर ही तो किया।
तुम्हारी तबीयत ठीक बनी रहे
इसलिये।’
‘ हूँ, तभी
तो यूँ बिस्तर से लगा हूँ।’
‘ देखो, मुझे
जो कुछ कहना है कह लो, पर मेरे
भगवान के बारे में एक शब्द भी
नहीं कहना।’
‘ तुम्हारे
भगवान क्या मेरे भगवान से अलग
हैं ?’
‘ नहीं, अलग
नहीं हैं। पर भगवान मेरे हैं
और मेरे रहेंगे। तुम चाहो तो
उन्हें अपना भगवान मान सकते
हो। मुझे इससे कोई इतराज नहीं।’
‘ तुम औरतों
के आगे तो मैं हाथ जोड़ता हूँ।
सब कुछ सिर्फ तुम्हारा है।
मेरी तनख्वाह तुम्हारी रही
अब पेंशन भी तुम्हारी है। बचे
एकमात्र भगवान तो उसे भी अपना
बना रही हो।’
‘ नहीं, वो
मेरे हैं।’
‘ अच्छा
बाबा, माना कि तुम्हारे हैं
पर जैसे मेरी तनख्वाह उजाड़ी,
पेंशन उजाड़ी वैसे अब भगवान
को मत उजाड़ देना।’
‘ भगवान
को मैं क्या तुम भी नहीं उजाड़
सकते। समझे।’
‘ समझता
हूँ... सब समझता हूँ। नहीं समझ
सका तो बस तुमको। तुम्हें तो
भगवान भी नहीं समझ सके हैं।’
‘ तुम्हारे
और मेरे बीच अब भगवान को मत घसीटो।’
‘ अच्छा,’
यह कहकर दिवाकर चुप रहना चाह
रहे थे पर पत्नी की आँखों में
आँसू देखकर बोले, ‘ अब तुम क्यों
रो रही हो ?’
‘ अपने बेटे
के बारे में याद कर रही हूँ।
अगर वो आ जाता तो ....।’
‘ वह क्यों
आने चला ? ऐसा लगता है कि उसे
भी तुम्हारे जैसी ही पत्नी
मिल गई है।’
‘ बहू की
तुलना मुझसे करते तुम्हें
शर्म नहीं आती। उतनी उम्र बीत
गई और अब तक मुझे नहीं समझे।’
‘ तुम्हें
समझ चुका हूँ तभी तो ऐसा कह रहा
हूँ।’
‘ क्या मैंने
तुम्हें कभी अपने बापू के पास
जाने से रोका था ?’
‘ नहीं।’
इस छोटे-से उत्तर से दिवाकर
ने बात पर पूर्णविराम लगाने
की कोशिश की पर पत्नी ने तुरंत
कहा, ‘ बस इस छोटे-से ‘नही’ से
काम नहीं चलेगा। याद है तुमने
मुझे अपने बापू के पास एक बार
भी जाने नहीं दिया।’
‘ पर तुम
तो हर साल उनके पास जाया करती
थी।’
‘ हाँ, वो
तो मैं अपनी मर्जी से जाती थी
पर तुमने खुद होकर कभी कहा कि
जा बापू से मिल आ। इतना सुनने
के लिये मैं कितना तड़पती रही।’
‘ उह्, तुम
कभी कहती कि ऐसा कहो तो मैं यह
भी कह देता। मैं तो हमेशा तुम्हारी
बात मानता रहा हूँ।’
‘ लो, जैसे
मैंने कभी कहा भी नहीं। मैं
हर बार मैके जाने के पहले रोई
पर तुम नहीं समझे। बतावो और
कैसे कहा जाता है ?’
‘ हाँ, सब
कुछ रोकर ही कहा जाता है। है
ना ?’
फिर दोनों
चुप हो गये। मैं फिर सोचने पर
मजबूर हो उठा। औरतों के पास
एक ही तो हथियार भगवान ने दिया
है और आदमी उसपर भी एतराज करता
है। आखिर क्यों ? क्योंकि यह
हथियार नहीं, किन्तु एक उपहार
है जो नारित्व के सौंदर्य को
माधुर्य प्रदान करता है। आँसू
में माँ का ममत्व, बहन का स्नेह
और पत्नी के प्रेम का सोमरस
होता है और कोई सभ्य आदमी नहीं
चाहता कि यह अमृत यूँ ही व्यर्थ
बह जावे। इस बहाव को रोकने ही
शायद भगवान ने आदमी को क्रोध-रूपी
हथियार दिया है पर असभ्य आदमी
मूर्खतावश इसका प्रयोग आँसू
रोकने नहीं बल्कि उसे और बहने
पर मजबूर करने के लिये ही इस्तेमाल
करता है।
चलो देखें
अब दिवाकर क्या कुछ कह रहे हैं।
‘ बेटा नहीं
आ सका तो बहू को तो आना था।’
‘ लो, अब बहू
की बिंगें निकालने लगे। मेरी
बहू के बारे में कुछ नहीं कहना।
वह लाखों में एक है। उसे मैंने
चुना है। ये अपना रमे श ही है
जो पूरा तुम पर गया है।’
‘ मेरे पर
गया है तभी तो इतना बड़ा अफसर
बन पाया है। मुझे तो उस पर गर्व
है।’
‘ सिर्फ
तुम्हें गर्व है, मुझे नहीं।
मैंने जो उसे पाल-पोस कर बड़ा
किया वो सब फालतू है। तुमने
तो कभी पूछा तक नहीं कि वह क्या
कर रहा है। क्या खा रहा है। तुम्हें
तो बस अपने दफ्तर से ही छुट्टी
नहीं मिलती थी। सब कुछ मैंने
किया और अब वह कुछ बन गया है
तो गर्व तुमको है, मुझे नहीं।’
‘ तुम ही
तो कह रही थी कि वो हमें देखने
तक नहीं आया। मैं भी सोचता हूँ
कि सच उसे हमारी कोई फिक्र नहीं
है।’
‘ उसे हमारी
फिक्र है। बेचारा हर महिने
पैसे भेजने की बात कह रहा था।’
‘ सिर्फ
कह रहा था पर आज तक एक धेला तक
नहीं भेजा। यह तो डाक्टर अच्छा
मिला है जो हर रोज हमें देखने
आ जाता है।’
‘ हाँ, डाक्टर
आ जाता है पर वह है किस काम का
? तुमने ही कहा था कि डाक्टर
अब हमें नहीं जीना। कुछ ऐसा
करो कि यह जिन्दगी जल्दी खत्म
हो जावे। पर डाक्टर ने कुछ किया
? कुछ नहीं। बस कहता रहा कि यह
उसके पेषे के उसूलों के खिलाफ
है।’
‘ लो, अब तुम
डाक्टर पर उतर आयी। जिस किसी
की मैं तारीफ करता हूँ तुम उसे
ही बुरा कहने लगती हो। अपनी
बहू, अपने होनहार बेटे और अब
डाक्टर को... तुम एक एक कर सबको
दोड्ढ देती जा रही हो।’
‘ अहा ! हमेशा
कहती रही की बेटा चाहिये। और
अब कह रही हो कि बेटी होती तो
अच्छा होता।’
‘ हाँ, मैंने
कहा था कि पहला बेटा हो और यह
भी कहा था कि एक बेटी भी हो पर
तुम ही कहते रहे कि बस एक ही
बहुत है।’
‘ तो क्या
हुआ ! अब कोशिश करते हैं।’
मुझे दिवाकर
के इस मजाक से महसूस हुआ कि मनुष्य
अपनी थकी जिन्दगी में भी हँसी-मजाक
कर सकता है। उधर बुढ़िया इस बात
पर पहले तो शर्मा गई पर थोड़ी
देर बाद दोनों के पोपले मुँह
हँस पड़े। तभी डाक्टर साहब आ
गये और उन दोनों को हँसते देख
कर बोले, ‘ आज आप बड़े खुश दिख
रहे हैं।’
‘ अरे डाक्टर
साहब, अब क्या खुशी और क्या गम।
हमें तो एक-एक पल भारी लगता है।
पर आप हैं कि हमारा कहा सुनते
ही नहीं। ये सारी दुनिया तो
बस बहस करना जानती है ‘मर्सी
डेथ’ पर और कुछ करती-धरती नहीं।
डाक्टर साहब, इस मर्सी डेथ में
आखिर बुराई क्या है ?’
‘ कुछ नहीं।
पर पहले ये बताईये कि आप में
से कौन पहले जाने को तैयार हुआ
है?’ यह प्रष्न डाक्टर ने जान
-बूझकर किया। वे जानते थे कि
इस प्रष्न से इन फालतू की बातों
से बचा जा सकता था। पर .....
‘ मैं’, बुढ़िया
ने तपाक से कहा और दिवाकर अपने
पोपले मुँह में नकली दाँतों
को जमाते ही रह गये। उन्होंने
अपनी पत्नी के तरफ घूर कर देखा
और कहने लगे, ‘ डाक्टर साहब इसकी
मत सुनिये। इसकी मति घूम गई
है। आखिर पुरुष प्रधान दुनिया
में पहला हक पुरुष का ही होता
है।’
‘ इस जमाने
में तो लेडीस् फस्ट का फेशन,
है ना, डाक्टर साहब।’
‘ सो तो है।’
डाक्टर ने कहा। ‘ पहले आप लोग
दवाई ले लें फिर सोचते हैं कि
क्या करना है।’
पर दोनों
ने दवाई लेने से साफ इन्कार
कर दिया। डाक्टर हताश हो उन्हें
देखते रहे। फिर एक ठंडी साँस
लेकर वे उठे और अपने बैग से जहर
की शीशी निकाली। कमरे के एक
कोने पर रखे स्टूल पर जहर की
शीशी रखकर वे बोले, ‘ देखिये,
आपके चाहे अनुसार मैंने यह
जहर वहाँ रख दिया है। पहले आप
निश्चय कर लें कि किसे पहले
मरना है और फिर जिसे पहले मरना
है वह उठकर इस शीशी से जहर पी
ले। मैं दूसरी शीशी कल लेकर
आऊँगा।’ और ‘अलविदा’ कह कर
डाक्टर कमरे के बाहर चल दिये।
मैं देखता
हूँ कि वे दोनों ललचायी आँखों
से जहर की शीशी देख रहे हैं पर
उनमें से कोई एक भी उठकर उस शीशी
तक जाने की हिम्मत नहीं बटोर
रहा क्योंकि वे दोनों पूर्ण
पैरेलिसस् के मरीज हैं।
यह रचना भूपेंद्र कुमार दवे जी द्वारा लिखी गयी है. आप मध्यप्रदेश विद्युत् मंडल से सम्बद्ध रहे हैं . आपकी कुछ कहानियाँ व कवितायें आकाशवाणी से भी प्रसारित हो चुकी है . 'बंद दरवाजे और अन्य कहानियाँ' ,'बूंद- बूंद आँसू' आदि आपकी प्रकाशित कृतियाँ है .
वृद्धावस्था को केंद्र में रखकर लिखी कहानी' थकी जिंदगी ' रोचक लगी .
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