वह बच्ची जिसे हम खुशी नाम से जानेंगे जन्म लेते समय अपनी माँ की पीड़ा देख द्रवित हो उठी। उसने ईश्वर से कहा, ‘हे ईश्वर! मुझसे अपनी माँ...
वह
बच्ची जिसे हम खुशी नाम से जानेंगे
जन्म लेते समय अपनी माँ की पीड़ा
देख द्रवित हो उठी। उसने ईश्वर
से कहा, ‘हे ईश्वर! मुझसे अपनी
माँ की पीड़ा देखी नहीं जाती।
देखो, उसे मेरी दादी किस तरह
दुत्कार रही है। कहती है कि
बच्ची को जन्म देना था तो तू
कलमुँही इस घर की बहू बनकर
क्यों आयी? तू इस गठरी को कहीं
और रख लेती तो अच्छा होता।’
जन्म
लेती बच्ची ने देखा कि उसकी
माँ प्रसवपीड़ा तो जैसे-तैसे
सहन कर ही रही थी, पर एक बेटी
को जन्म देने के कारण जो ताने
उसे सुनने पड़ रहे थे, वे असहनीय
थे। फिर भी बेचारी कहने लगी,
‘सासू माँ! सब्र करो। मुझे विश्वास
है कि बेटा ही पैदा होगा।’
यह
सुन सास एकदम भड़क उठी, ‘बदतमीज!
हमें झूठा करार कर रही है। शर्म
नहीं आती। हमने पैसे खिलाकर
डाक्टर से सोनोग्राफी पढ़वा
ली है। उसने बताया है कि तेरी
कोख में तुझ जैसी मुँहजली बच्ची
ही पैदा हो रही है। तेरी इस करतूत
के कारण तो मेरी सारी इच्छाओं
पर पानी फिर गया है। विश्वास
नहीं होता तो मेरे बेटे को देख।
कितना व्यथित चेहरा लिये खड़ा
है।’
तभी
ससुर ने कहा, ‘हमारा कहा मान
लिया होता -- गर्भपात करा लिया
होता तो यह दुर्दिन न तेरे लिये
आता, न ही सारे परिवार के लिये
आता। तब तुझे कोई कुलक्षणी
नहीं कहता।’
बच्ची
का पिता जो सिर झुकाये खड़ा था,
एकदम दहाड़ उठा, ‘मैंने भी तुझसे
कहा था कि इस पाप को जड़ से उखाड़
फेंको। पर तेरी जड़बुद्धि तो
हम सबको तबाह करने पर तुली थी।’
कुछ
रुककर वह पुनः बोला, ‘अभी भी
मौका है, मान जा। डाक्टर आते
ही होंगे। हम उन्हें मना लेंगे।
हाँ! बस एक ही डर है।’ फिर कुछ
कृतिम रुआँसा होकर बोला, ‘सिर्फ
तेरे खो जाने का भय है।’
सास
ने आँखें तरेरते आने बेटे की
तरफ देखा और बोली, ‘तू इसकी फिकर
करता है जिसने हम सबका मुँह
काला करने की ठान रखी है। इसने
तो हम सबका भविष्य ही अंधकारमय
करना का सोच रखा है।’
जन्म
लेती बच्ची ईश्वर को यह सब बताती
थक गई। बेचारी नन्हीं-सी जान
में इतनी शक्ति कहाँ थी कि वह
अपनी बेबस माँ की कहानी ईश्वर
को पूरी तरह सुना पाती। उस बच्ची
के मुख से माँ की इतनी ही करुण
कथा को सुन ईश्वर विचलित हो
उठे। परन्तु धैर्य को धारण
करने में सक्षम व संपूर्ण संसार
के कर्ताधर्ता होने के नाते
उन्होंने बच्ची से बस इतना
कहा, ‘मेरी बेटी! तू चिंता मत
कर। मैं तेरे साथ हूँ। सब ठीक
हो जावेगा।’
नन्ही
बच्ची ने कातर द्दष्टि से ईश्वर
को देखा और फफक-फफककर रोने लगी
और बोली, ‘हे ईश्वर! अपने इस
संसार को देखो। सारे द्दश्य
टी व्ही पर नजर आ रहे हैं। मैं
तो सिर्फ आवाज सुन पा रही हूँ।
हर जगह बेटियों पर अत्याचार
हो रहे हैं। बलात्कार के वीभत्स्य
द्दश्य भी शायद टी व्ही पर दिखाये
जा रहे होंगे। चलती ट्रेन और
बसों से नाबालिक अधमरी बेटियाँ
वासनापूर्ति के बाद बाहर फेंकी
जा रही हैं। उन्हें अस्पताल
ले जाने का भी साहस किसी में
नहीं है। सब कहते हैं कि वह जीवित
रहने के लायक ही नहीं रही। जिन्दगी
से छुटकारा पाना ही उसके लिये
बेहत्तर है। हे ईश्वर! तुम ही
कहो कि क्या तुम्हारा न्याय
यही कहता है? क्या पाप व पाप
करनेवाले की सजा को सहना ही
मुझ जैसी असंख्य असहाय बेटियों
के भाग्य में है? तुम संसार में
बेटियों को भेजते जाते हो और
बस सांत्वना देने के लिये कहते
जाते हो कि ‘चिन्ता मत करो।’
क्या हम सब इतनी अभागिन हैं
कि चिन्ता से खुद को मुक्त समझकर
अपनी दुर्दशा पर मूक बनी तिलमिलाते
रहें? हे ईश्वर! फिर तुम कहते
हो कि तुम मेरे साथ हो। ठीक है।
पर तुम तो संसार में अकेले हो।
किस-किस के पास रहोगे? कितनी
अभागिन असहाय कन्याओं को यही
आश्वासन देते रहोगे?’
इतना
सब एक साथ कहते-कहते बच्ची थक
गई। ईश्वर मुस्कराते रहे। वे
इस नन्हीं-सी बच्ची को कैसे
समझाते कि मैं वह हूँ जिसको
असंक्ष्य टुकड़ों में विभाजित
करने पर भी पूर्ववत् पूर्ण
बना रहता है। जब एक पढ़ा-लिखा
विचारवान मनुष्य अपने संपूर्ण
जीवन में इस तथ्य को समझ नहीं
पाया है तो यह छोटी-सी गुड़िया
क्या समझ पावेगी? मैं तो इसे
यह भी नहीं समझा सकता कि उसकी
माँ के रूप में मैं ही तो उसके
पास विद्यमान रहनेवाला हूँ।
भूपेन्द्र कुमार दवे |
बच्ची
ने माँ के गर्भ में करवट बदली
और ईश्वर से बोली, ‘हे ईश्वर!
जरा सोचो कि इस विस्तृत संसार
में फैले अहंकारी पापों से
मात्र तुम कैसे लड़ोगे? इन
सारी कन्याओं की रक्षा करने
की शक्ति क्या आप में है?’
ईश्वर
मन ही मन मुस्काये। वे उस बच्ची
से कैसे कहते कि मेरी शक्ति
अनंत है और वह कभी क्षीण होनेवाली
भी नहीं है। सारा मानव-संसार
अपनी सीमित बुद्धि के कारण
स्वयं पर अहंकार करता हुआ मुझे
तुच्छ समझता है। मैं इस नन्हीं
बच्ची को मनुष्य के अज्ञानता
का गुढ़ अर्थ कैसे समझाऊँ। मैं
तो इसे यह भी नहीं समझा सकता
कि मैने अपनी यह शक्ति हर पिता
को दे रखी है और वह यह शक्ति
लिये हमेशा अपनी संतान के पास
विद्यमान रहता है।
बच्ची
ने अपनी सोच के अनुसार कहा, ‘हे
ईश्वर! हमारी रक्षा तो सतत करनी
होती है। इसके लिये अपूर्व
धैर्य की आवश्यकता होती है।
तुममें वह धैर्य है ही कहाँ?
तुम जब चाहे जीवन दे देते हो
और जब चाहे अधीर हो मृत्युदंड़
दे देते हो। मैं तो देखती हूँ
कि मुझसा धैर्य भी तुममें नहीं
है। मैंने तो अभी जन्म ही नहीं
लिया। कोई पाप नहीं किया। कोई
कुविचार भी अपने में नहीं आने
दिया। फिर भी अभी तक मेरा धैर्य
सीमित ही है। मैं कैसे मान लूँ
तुम इस संसार के अत्याचार की
पराकाष्ठा को लगातार देख-देखकर
अभी तक धैर्य धारण किये हुए
हो।
ईश्वर
फिर भी मुस्कराते रहे। वे कैसे
बताते कि अनंत धैर्य के ही
कारण वे संसार में घटित विविध
गतिविधियों को संचालित कर रहे
हैं। वे उसे यह भी कैसे बताते
कि उन्होंने अपना अपूर्व धैर्य
हर संतान के माता-पिता के आपसी
प्रेम के साथ उन्हें समर्पित
कर रखा है।
बच्ची
अब शिथिल हो खामोश हो चुकी थी।
शायद डाक्टर आ गये थे। बच्ची
की माँ के गर्भपात कराने पर
मंत्रणा चल रही थी। डाक्टर
बड़ी रकम माँग रहे थे। वे रह-रहकर
कह रहे थे कि काम जोखिम भरा है।
सजा भी मिल सकती है।
चर्चा
गर्माने लगी थी। तभी डाक्टर
ने चर्चा पर पूर्णविराम लगाते
हुए कहा, ‘बच्ची के दहेज में
जो राशि आपको देनी पड़ेगी, उसका
एक अंश ही तो मैं माँग रहा हूँ।
आप इसके लिये भी तैयार नहीं
हैं।’ इतना कह वे चल दिये।
‘दहेज’
शब्द सुन बच्ची भोंचक्की रह
गई। उसने ईश्वर से इसका अर्थ
जानना चाहा। ईश्वर उसे कैसे
बताते कि दहेज माता-पिता के
खून-पसीने की कमाई से बचाया
वह धन है जिसे लड़केवाले मान-मर्यादा
का गला घोंटकर, दया-धर्म की हत्या
कर, बेहया होकर बेटी के माता-पिता
के स्नेह, प्यार, प्रेम व ममता-वात्सल्यता
के आँसुओं की उपेक्षाकर खूँखार
भेड़ियों की तरह उनके जिगर के
टुकड़े को रोते-बिखलते छीनकर
ले जाना चाहते हैं। वे उसे कैसे
बताते कि वास्तविक दहेज वह
अमूल्य निधि है जिसे बेटी माता-पिता
से प्राप्त सुसंस्कारों के
अमूल्य पात्र में रखकर ले जाती
है -- वह पात्र जिसे माता-पिता
प्यार व प्रेम के मिश्रित धातु
को धैर्य व करुणा के ताप में
ढालकर बनाते हैं और उसपर स्वतः
के अनगिनत स्नेह भरे क्षणों
की नक्काशी करते हैं और फिर
आँसुओं की धार से स्वच्छकर
सुसंस्कारों से लबालब भरने
के लिये तैयार करते हैं।
ईश्वर
को चुप देखकर बच्ची ने पूछा,
‘मेरे ईश्वर! तुम किस सोच में
पड़ गये हो?’ अर्धनिद्रा में
जागे सामान्य मनुष्य की तरह
ईश्वर ने कहा, ‘बेटी! तुम सदा
खुश रहो इसी के लिये मैं सदा
प्रयत्नशील रहता हूँ। मैंने
तुम्हारे लिये प्रकृति को सजाकर
रखा है। देखो, पेड़-पौधे तुम्हारे
लिये सोलह श्रंगार से सुसज्जित
हो रहे हैं। पशु -पक्षिगण आनंदित
होकर नृत्य कर रहे हैं। जल, वायु,
अग्नि, अंबर और यह संपूर्ण पृथ्वी
तुम्हारे लिये सुमधुर वाद्यों
को तैयार कर रही है। बेटी! मैं
और यह मेरी सारी सृष्टि तुम्हारा
नाम ‘खुशी’ रखना चाहती है।
बोलो, क्या यह तुम्हें मान्य
है?’ बच्ची ने मुस्कराकर ‘हामी’
भर दी। बेचारी बच्ची क्या समझती
कि दुनिया अपनी बेटियों को
कुछ नाम देती भी है या नहीं।
यदि कुछ नाम दिया भी गया तो वह
सदा बदलता भी जाता है क्या? सच
तो यह है कि वे कभी बेटी तो कभी
बहू, कभी माँ, कभी दादी तो कभी
नानी आदि बन जाती है। उनके इन
अनेकों नामों में यद्यपि स्नेह-प्यार
की सुगंध सदा समान रूप में समाहित
रहती है पर फिर उसका अस्तित्व
यूँ ही ठोकरें खाता विपदाओं
की अनंत खाई में विस्मृत हो
जाता है।
शायद
यही सब कुछ ईश्वर भी सोच रहा
था। पर ईश्वर की सोच अचानक सहम
गई। उन्हें बच्ची की माँ की
असह्य प्रसवपीड़ा के आवेग में
निकली चीख ने किं-कर्तव्य-विमूढ़
कर दिया। वे कुछ क्षण मुक दर्शक
की तरह असहाय से प्रतीत होने
लगे। उन्हें यूँ असहाय देख
बच्ची जन्मते ही अचानक रो पड़ी।
एक
सन्नाटा छा गया, जो शनैः-शनैः
गहराता गया। घर की दीवारें
भी थर-थरा उठीं पर भर-भराकर गिर
न सकीं क्योंकि उनमें उस सन्नाटे
में खलल पैदा करने की शक्ति
ही नहीं थी।
वे खमोशी
में स्तब्ध होकर सब कुछ देखती
रहीं जो वहाँ एक योजनाबद्ध
तरीके से घटित हो रहा था। ईश्वर
स्तब्ध थे। ईश्वर ने हर पिता
को ईश्वरीय शक्ति का प्रतिनिधित्व
करने अपूर्व धैर्य से सुसज्जित
किया है। पर यहाँ एक पिता अपनी
नन्हीं-सी नाजुक बेटी के मुँह
में बेरहमी से कपड़ा ठूँसकर
बोरी में भरकर ले जा रहा था।
जाते-जाते उस पिता ने अपनी पत्नी
की तरफ विद्रुप मुस्कुराहट
फेंकी और बाहर हो गया। माँ अपनी
बच्ची का मुख भी न देख सकी थी
और इस चाह के वेग को छाती पर
पत्थर रख सहती रही -- आँसुओं
को अपने ही अंतः में ऊँड़ेते
हुए -- कंपित ओठों पर आये शब्दों
को खामोश करते हुए -- हृदय की
धड़कन को व्यथा के भार से दबोचते
हुए।
पिता
ने जंगल जाकर उस नन्हीं-सी जान
को पटका और स्वतः को खूँखार
पशुओं से बचाने भाग खड़ा हुआ।
घर पहुँचते तक वह बुरी तरह हाँफता
रहा -- अपने आप से डरा हुआ -- थका
हुआ -- किन्तु युक्तिपूर्ण किये
गये पाप से पूर्णतः संतुष्ट
हुआ सा। उसका मन शायद सोच रहा
था कि वह इस छोटी-सी जिन्दगी
के इतिहास का पन्ना जंगल में
बिखरी असंख्य शुष्क पत्तियों
के ढेर में छोड़ आया है, जहाँ
वह किसी बाघ के मुख का ग्रास
बनने से भयभीत हिरणों के खुरों
के नीचे मसल दिया जावेगा या
फिर मानव-इतिहास में लिखी ईश्वर
की वह सुन्दर इबारत जिसे ईश्वर
ने ‘खुशी’ नाम दिया था उसे जंगली
कुत्तों के भूखे जबड़े नोंच-नोंचकर
चबा लेंगे और तत्पश्चात उसकी
कोमल हड्डियों को बेरहम लगड़बग्गे
अपने भारी जबड़ों से चूर्ण कर
चुके होंगे।
अब
किसे याद है यह सब? शायद ईश्वर
भी इस घटनाचक्र को विस्मृत
कर गये होंगे क्योंकि संसार
को जिसतरह चलना होता है, वह चलता
है -- बेरोकटोक -- बेपरवाह -- संवेदनशीलता
से मुक्त।
नारी
जीवन की दुर्दशा के गाथायें
जन्मते ही लिखी जाने लगती है
और भारी पुस्तक बनते-बनते उसकी
जिल्द भी जल्द खुल जाती है --
पन्ने बिखर जाते हैं -- पीले
पड़ जाते हैं -- मनुष्य के त्यागे
गये शरीर की तरह मिट्टी में
मिल जाते हैं।
संसार
तो इस समय भी चलता रहा -- पर खुशी
गायब थी। सांसारिक दुविधाओं
को पनपाता और पालता मानव समाज
जैसे-तैसे जी रहा है -- अपने संतोष
के लिये अपने किये को समृद्धि
की संज्ञा देते हुए। दुनिया
संकुचित सोच को भी सभ्यता की
नई परिभाषा मानकर इतराती जा
रही है -- कड़े कानून की शब्दावली
बनाती हुई -- संपूर्ण ढाँचे को
बदलने का सुखद स्वप्न दिखाती
हुई। पर कानून बनते हैं उल्लंखन
करने के लिये -- नई युक्तियों
से न्याय को प्रभावित कर सजा
को ठेंगा दिखाते हुए। खंड़हर
में तबदील हुई मानव सभ्यता
बेहया तरीकों से असभ्य सोच
का चुनाव करवाती जाती है -- कहीं
चुनावी हार का मातम दिखता है
तो कहीं जीत के ढोल-नगाड़ों का
शोर होता है -- पर खुशी कहीं नजर
नहीं आती। हर जीत के अंतः में
स्वार्थ-लोभ आदि के किलबिलाते
असंख्य कीड़े किलबिलाते नजर
आते हैं। इन्हीं कीड़ों का बिलबिलाना
समाज के पर्दे पर दिखाकर प्रभुता
का डंका पीटा जाता है क्योंकि
अधिकार उन्हें ही मिलता है
जो अधिकार से जुल्म ढ़ा सकते
हैं। पर खुशी कहीं नजर नहीं
आती।
संसार
में खुशी कहीं नजर नहीं आती
क्योंकि ईश्वर व खुशी की खोज
करने की परवाह किसी को नहीं
है। प्रकृति को इसका आभास होता
है तो वह तिलमिला उठती है। सूखा,
बाढ़, आँधी, तूफान आदि का वीभत्स्य
रूप दिखाकर प्रकृति अपना रोष
जाहिर करती तो है, पर मनुष्य
के मन में क्षणिक देर के लिये
ही ईश्वर का ख्याल आता है और
खुशी की चाहत जाग्रत होती है।
फलतः मनुष्य कुछ देर ईश्वर
व खुशी का स्मरण करता -- तलाशता
अपनी कुंद बुद्धि की कंदराओं
में लौट आता है।
कहते
हैं कि एक छोटा-सा जन समूह किसी
समय ईश्वर व खुशी की खोज में
निकला भी था। उनके पैरों में
छाले पड़ गये थे। वे निराश होकर
लौटने की सोच ही रहे थे कि कहीं
दूर धुंध को चीरती उनकी नजर
ईश्वर जैसी आकृति पर पड़ी। ईश्वर
की ऊँगली पकड़ी नन्हीं खुशी
उनके साथ कदम मिलाकर चलने के
लिये उचक-उचककर चल रही थी। उस
जन समूह में पुनः नव संचार हुआ
और वे आगे बढ़े। पर ईश्वर अपनी
प्यारी बच्ची के साथ दूर -- और
दूर -- बहुत दूर जाते हुए ही देखे
जा सके। यह अनंत की खोज-सा प्रतीत
होने लगा पर वह जन समूह चलता
ही रहा -- आगे बढ़ता ही रहा ----
लेकिन
इधर मानव सभ्यता को उस जन समूह
के खो जाने न आभास हो रहा है
और न ही उन्हें खोज पाने की इच्छा
हो रही है। सच है, किसे समय है
इस सबके लिये?
बस
एक ही संभावना है कि काश! खुशी
की बहनें दया, करुणा, ममता कहीं
जन्म लें और उनके संरक्षण के
लिये वहाँ ईश्वर पुनः आ जावें।
यह रचना भूपेंद्र कुमार दवे जी द्वारा लिखी गयी है. आप मध्यप्रदेश विद्युत् मंडल से सम्बद्ध रहे हैं . आपकी कुछ कहानियाँ व कवितायें आकाशवाणी से भी प्रसारित हो चुकी है . 'बंद दरवाजे और अन्य कहानियाँ' ,'बूंद- बूंद आँसू' आदि आपकी प्रकाशित कृतियाँ है .
बेटी होना आज भी बहुत से घर परिवारों की आँख में खटकता है, जिसमें पढ़े लिखे सभ्य कहलाने वालों भी शामिल हैं ..दुखदायी पीड़ादायी और बिडम्बना को दर्शाता है ...गंभीर चिंतनशील कहानी
जवाब देंहटाएंबेटी होना आज भी बहुत से घर परिवारों की आँख में खटकता है, जिसमें पढ़े लिखे सभ्य कहलाने वालों भी शामिल हैं ..दुखदायी पीड़ादायी और बिडम्बना को दर्शाता है ...गंभीर चिंतनशील कहानी
जवाब देंहटाएंसार्थक प्रस्तुति .
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