राजभाषा कार्यान्वयन पर एक नजर (सरकारों/सरकारी कार्यालयों/उपक्रमों में) अक्सर कार्यालयों में राजभाषा कार्यान्वयन की स्थिति वहां...
राजभाषा कार्यान्वयन
पर एक नजर
(सरकारों/सरकारी कार्यालयों/उपक्रमों
में)
अक्सर कार्यालयों
में राजभाषा कार्यान्वयन की
स्थिति वहां के कार्यालयाध्यक्ष
पर निर्भर करती है. हाल ही में
– शायद 17 या 18 जून 2014 को) ओड़िशा
विधानसभा में विधायक द्वारा
हिंदी में सवाल करने पर कहा
गया कि आप सवाल उड़िया में पूछें
या फिर अंग्रेजी मे. हिंदी में
नहीं. यह कितनी शर्मनाक है क्या
बताऊँ. अपने देश में हिंदी को
नकार कर अंग्रेजी को अपनाने
के लिए कहा जा रहा है. जबकि हिंदी
के साथी कभी नहीं कहते कि अंग्रेजी
त्याग दीजिए.
एक
बार सरकारी कार्यालय में भी
लिखित में दिया गया था कि शिफ्ट
के लॉग बुक की रिपोर्ट हिंदी
में न लिखा जाए. खैर समझाईश पर
संबंधित अधिकारी मान गए और
पत्र वापस ले लिया गया.
सीधे
सरकारी उपक्रमों पर आएँ तो
पता लगेगा कि हिंदी के नाम से
लोग हिंदी दिवस, हिंदी सप्ताह
व हिंदी पखवाड़ा को जानते हैं.
अब तक हिंदी माह मनाया नहीं
गया है. सो इसकी जानकारी उनको
नहीं होगी. पता होगा कि हिंदी
दिवस के दिन कार्यालयीन काम
हिंदी में करने की प्रतिज्ञा
ली जाती है. पखवाड़े भर कुछेक
प्रतियोगिताएँ व मीटिंग आयोजित
होते हैं. प्रतियोगियों को
टोकन गिफ्ट भी दिया जाता है.
इसके अलावा हिंदी मे काम करने
वाले अधिकारी – कर्मचारियों
को काम के मात्रा के अनुसार
प्रोत्साहन राशि दी जाती है,
जो समुचित होती है.
सरकार
या सरकारी उपक्रमों के अधिकारी-कर्मचारी
को (खास कर शहरों में नियुक्त)
राजभाषा हिंदी में काम करने
को कहना उसे बहुत बुरा लगता
है. कम ही लोग होंगे, जो बिना
मजबूरी खुशी-खुशी हिंदी मे
काम करते हैं. हिंदी में काम
करने के लिए प्रोत्साहन राशि
भी मिलती है और. दूसरी तरफ अंग्रेजी
- अपनी शख्सियत उजागर करने का
जरिया. शहरी टकराव में अंग्रेजी
ही जीतती है. जनमानस में ऐसी
( सही या4 गलत) अवधारणा है कि हिंदी
में काम करने वाले को अंग्रेजी
में काम करने वाले की अपेक्षा
कम आँका जाता है. सही और गलत
की बात बाद में - यथार्थ यही
है.
सरकारी
व उनके उपक्रम के कर्मचारियों
को हिंदी में प्रवीण बनाने
के लिए उचित ट्रेनिंग व शिक्षा
की सुविधा उपलब्ध करवा कर उन्हें
परीक्षा में सम्मिलित किया
जाता है और उत्तीर्ण होने पर
पुरस्कार राशि भी प्रदान की
जाती है. किंतु इनका प्रयोग
सही ढ़ंग से नहीं किया जा रहा
है. हिंदी साहित्य में हायर
सेकंडरी पास करने के बावजूद
भी अहिंदी भाषी होने के कारण,
एक अधिकारी को हिंदी पढ़ने
व परीक्षाओं में सम्मिलित होने
पर मजबूर किया गया. कार्यालय
के एक अधिकारी ने तो यहाँ तक
कह दिया – आईए न सर, दो दिन शिफ्ट
से तो निजात मिलेगी. आपकी रचनाएं
यहां सेक्शन में टाईप हो जाया
करेंगी. साथ बैठेंगे, चाय-शाय
पिएंगे और गपशप होगी. बाकी पढ़ते
रहेगे. मजबूरी में उसने पढ़कर
सीधे प्राज्ञ की परीक्षा दी
और बताया गया कि सेवेन सिसटर्स
में वह प्रथम आया है पर सर्टिफिकेट
में ऐसा कुछ नहीं लिखा था.
क्या
हम हिंदी की ऐसी ही प्रगति
की कल्पना कर रहे हैं ? शायद
नहीं.
जहाँ
तक हिंदी में काम करने का सवाल
है - इसमें दो तरह के लोग शामिल
होते हैं. हिंदी में अच्छी पकड़
रखने वाले वे लोग हिंदी में
काम करते है, जिन्हें अपनी साख
बनानी है, या फिर वे जिन्हें
मजबूरी मे बॉस की फटकार के कारण
या पैसा पाने के लिए काम करना
पड़ता है. ऐसे लोग कम ही हैं
जिन्हें हिंदी में काम करने
में मजा आता है और किसी प्रलोभन
के बिना हिंदी में काम करते
हैं. उन दिनों जब लीप ऑफिस 2 नया
नया आया था, हिंदी विभाग के एक
वरिष्ठ अधिकारी ने हिंदी की
बैठक में कहा था कि अपने पूरे
कार्यालय में एक अहिंदी भाषी
हिंदी में सबसे ज्यादा काम
करता है. मुझे जानकर खुशी तो
हुई कि मेरा जिक्र अब मीटिंगों
में होने लगा है पर दुख भी हुआ
कि मुझे अहिंदी भाषी समझा जाता
है जबकि मैंने हिंदी साहित्य
का विषय लेकर हिंदी भाषी राज्य
से बोर्ड की परीक्षा पास की
है. हाँ पैदाईशी दक्षिण भारतीय,
मैं अहिंदी भाषी हूँ. किसी को
कोई शर्म नहीं आई सुनते हुए
कि एक हिंदी बहुल क्षेत्र में
एक “अहिंदी भाषी” की इस तरह
तारीफ हो रही है.
रंगराज अयंगर |
21 जून
2014 के अखबारों में भाजपा सरकार
पर राजनीतिज्ञों ने आरोप लगाया
है कि वह अहिंदी भाषी राज्यों
पर हिंदी थोप रही है. सरकार का
फरमान था कि कंप्यूटर पर सरकारी
सूचनाएँ – फेसबुक, ट्विटर या
अपने पोर्टल पर सूचनाएँ हिंदी
में दी जाएँ. केवल एक कमी रह
गई थी - कहते हिंदी में भी दी
जाएं. इसी बात पर बखेड़ा खड़ा
कर दिया गया. वैसे मेरी राय होगी
कि पहले संविधान व राजभाषा
अधिनियन का पालन सुनिश्चित
करें फिर नई नीतियाँ अमल में
लाई जाएँ तो विरोध कम होगा. संविधान
के धारा 351 में बहुत सारे अधिकार
हैं और अधिनियम के अंतर्गत
भी काफी प्रावधान है. कोई गौर
तो करे. कम से कम हिंदी भाषी
राज्य अपना अपसी संवाद पत्राचार
हिंदी में करें. जहाँ पत्राचार
गैर हिंदी राज्य से करना हो
वहाँ राजभाषा अधिनियम के अनुसारस
हिंदी के साथ – साथ अंग्रेजी
अनुवाद भेजें. इसके लिए अनुवादकों
की जरूरत होगी जो सरकार से माँगा
जाए. लोगों को नौकरी भी तो मिलेगी.
तामिलनाड़ु
में विरोध तो सबसे ज्यादा होगा
क्योंकि – संविधान की राजभाषा चयन समिति
में बराबर के वोट पड़ने पर –
अध्यक्षीय मत से हिंदी का जीतना
किसी तत्कालीन राजनीतिज्ञों
को रास नहीं आया और वे तब से
अब तक भाषा की राजनीति कर रहे
हैं. अभी इसी वर्ष, इसी हिंदी
पखवाड़े के दौरान ही तमिलनाड़ु
सरकार ने दो विशेष कालेजों
में हिंदी न पढ़ाने के आदेश
दिए हैं जो यू जी सी के परिपत्र
के विरोध में है. यू जी सी ( यूनिवर्सिटी
ग्राँट्स कमिशन) चाहता है कि
कालेजों में अंग्रेजी के साथ
हिंदी भी पढ़ाया जाए. शायद राजभाषा
अधिनियम तमिलनाड़ु में लागू
नहीं होता. लेकिन बाकी राज्यों
में विरोध हिंदी का नहीं, भाजपा
का विरोध लगता है.
आज
भी सरकारी, अर्धसरकारी कार्यालयों
में ऐसे कर्मचारी हैं जिन्हें
अच्छी हिंदी आती है किंतु वे
अंग्रेजी में ही काम करना पसंद
करते हैं. भले ही अंग्रेजी में
अक्षम्य गलतियाँ हों, मंजूर
है - पर अंग्रेजी उनकी शान है.
उन्हें तो कोई नहीं कहता कि
हिंदी में काम मत करो फिर भी
वे अंग्रेजी में ही काम करते
हैं. इसकी खास वजह तो केवल यही
दिखती है कि उनके विचारों से
- अंग्रेजी शख्सियत प्रदान
करती है. हिंदी भाषा के प्रचारक
ऐसा कुछ क्यों नहीं करते कि
इस तरह के सभी लोग हिंदी को भी
अपनी शान समझें. अंग्रेजी में
उल्टे सीधे लिखे गए पत्र इत्यादि
पर यदि सही सवालात उठाए जाएं
तब कहीं जाकर लोग समझपाएंगे
कि हिंदी में काम करने में
कितनी सुविधाएं हैं. वे जो लिखना
– कहना चाहते हैं बिना किसी
संदेह के सही-सही कह-लिख पाएंगे.
समझाने वाला चाहिए. यदि विभागाध्यक्ष
या कार्यालयाध्यक्ष ही समझाएं,
तो सोने में सुहागा.
सरकार ज्यादातर
नेताओं की राह चलती है. हमारे
नेता भले कहते हिंदी की हैं
किंतु सेवा अंग्रेजी की करते
हैं. उनके परिवार के पुत्र व
पौत्ररत्न अंग्रेजी की सेवा
को ही तैयार होते हैं. शायद ही
कोई हिंदी स्कूलों में पढ़
रहा होगा. अब रही बात देश के
वरिष्ठ अधिकारियों की तो जाँच
लें यदि एक भी पुत्र-पौत्र रत्न
हिंदी में पढ़ता मिल जाए. लेकिन
सभी नेता व अधिकारी हिंदी के
लिए प्रचार करते मिलेंगे. किसी
ने सही कहा है .. नेता कहते हैं
– “जो मैं कह रहा हूँ वही करो...
मैं क्या कर रहा हूँ उस पर ध्यान
मत दो - कोई जरूरत नहीं है”. यह
केवल इसलिए कि उनकी कथनी व करनी
में कोई सामंजस्य होता ही नहीं.
देश
के यही नेता जो संसद में बैठकर
राष्ट्र का पथ प्रदर्शन करते
हैं उनका ही रवैया ऐसा रहा तो
आम आदमी से या देश के किसी दूर
दराज गाँव के मजदूर से आप क्या
उम्मीद करेंगे ?.
सरकार
की ओर से विभिन्न समितियाँ
जाँच के लिए आती हैं लेकिन सब
खानापूर्ति ही होती नजराती
है. नहीं तो मजाल कि हिंदी की
यह हालत हो. सूचना 90 प्रतिशत
हिंदी में काम की और वास्तविकता
10 प्रतिशत भी नहीं. ऐसा कैसे
हो जाता है. लेकिन इस स्तर के
जाँच अधिकारियों से सवाल –
भगवान बचाए.
जब
तक नींव से हिंदी पर जोर नहीं
होगा – इस ढोंग का कोई मतलब नहीं
निकलेगा. लोगों को जोर जबरदस्ती
कर कुछ भी नहीं करवा सकते उस
पर हिंदी में हस्ताक्षर करो,
आज का शब्द, सुविचार रोजाना
के - कोई मतलब रहा इन सबका. नहीं
पसंद तो सामने आकर खड़े हो जाएं
एवं सरकार से अपील करें कि हिंदी
के बदले कोई और भाषा वहाँ रख
दी जाए जिसमें लोग खुशी-खुशी
काम तो करेंगे.
मुझे
तो यह समझ नहीं आ रहा है कि हम
हिंदी के नाम से गलत-सलत रिकार्ड
बनाकर जो बताने की कोशिश कर
रहे हैं कि सरकारी / अर्धसरकारी
दफ्तरों व प्रतिष्ठानों में
हिंदी पनप रही है. इससे हम किसे
धोखा दे रहे हैं ? क्या हम उनमें
से नहीं हैं जिन्हें हम धोखा
देने का कोशिश कर रहे हैं.
फिर
किस बात की खुशी – अपने आप को
धोखा देने की ?
अब
भी सब-कुछ बिगड़ा नहीं है.कंप्यूटरों
के आने से और हिंदी के उसमें
समाहित हो जाने से प्रगति की
रफ्तार को गति दोने में बहुत
ही आसानी है. चंद हाथों से यह
काम नहीं हो पाएगा. सबको हाथ
बटाना होगा. पहले देश की व बाद
में विश्व की सभी भाषाओं का
ज्ञान हिंदी में उपलब्ध कराना
होगा. तब ही जाकर हिंदी को विशव
की सबसे समृद्ध भाषा का स्थान
मिलेगा. इस हालत में लोग खुद
ब खुद हिंदी सीखेंगे किसी से
कहना नहीं पड़ेगा कि हिंदी
सीखिए. लोग अंग्रेजी सीखें
न सीखें हिंदी जरूर सीखेंगे..
हम हिंदी को वह स्थान दें तो
सही.
किसी
ने सही कहा है –
किश्तियाँ
बदलने की जरूरत नहीं है,
दिशा
बदलो , मंजिलें खुद ब खुद बदल
जाएंगी.
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यह रचना माड़भूषि रंगराज अयंगर जी द्वारा लिखी गयी है . आप इंडियन ऑइल कार्पोरेशन में कार्यरत है . आप स्वतंत्र रूप से लेखन कार्य में रत है . आप की विभिन्न रचनाओं का प्रकाशन पत्र -पत्रिकाओं में होता रहता है .
संपर्क सूत्र - एम.आर.अयंगर. , इंडियन ऑयल कार्पोरेशन लिमिटेड,जमनीपाली, कोरबा.
मों. 08462021340
उड़ीसा के बहुंत से वासियों को हिंदी बोलनी तो आती है किन्तु लिखनी पढनी नहीं आती कारण कि चूँकि उड़िया की लिपि है अत: वहां बहुंत सी शालाओं में शिक्षा का माध्यम उड़िया एवं अंग्रेजी ही है.….
जवाब देंहटाएंBAHUT SAARTHAK LEKH , AAPKA DHANYAWAAD
जवाब देंहटाएं....SANDEEP SHARMA ...
Sandeep ji,
जवाब देंहटाएंAPKI PRASHANSA BHARI TIPPANI KS LIYE SADHUWAD.
नाम एम. रंगराज अयंगर.
में. 8462021340
मेल laxmirangam@gmail.com
ब्लॉग - laxmirangam.blogspot.in
इन दिनों hindi kunj.com पर राजभाषा दिवस विशेष शृंखला.
जवाब देंहटाएंSADHUWAD.
SADHUWAD.
जवाब देंहटाएंनीतू जी,
जवाब देंहटाएंऐसा आभास हुआ कि उड़ीसा के नाम से आप बाधित हुई. इरादा तो किसी को ठेस पहुंचाने का नहीं था. हिंदी की पीड़ित दशा, उसके प्रति ध्यान में कमी और हिंदी के विरोध को प्रस्तुत करता यह लेख प्रमुखत- हिंदी के कार्यान्वयन की ओर मुखरित है. तकलीफ के लिए क्षमा करें.
अयंगर.
अपने मेल से टिप्पणी में बाधाएं आने की वजह से बेनामी टिप्पणी दे रहा हूँ.
नीतू जी,
जवाब देंहटाएंऐसा आभास हुआ कि उड़ीसा के नाम से आप बाधित हुई. इरादा तो किसी को ठेस पहुंचाने का नहीं था. हिंदी की पीड़ित दशा, उसके प्रति ध्यान में कमी और हिंदी के विरोध को प्रस्तुत करता यह लेख प्रमुखत- हिंदी के कार्यान्वयन की ओर मुखरित है. तकलीफ के लिए क्षमा करें.
अयंगर.
अपने मेल से टिप्पणी में बाधाएं आने की वजह से बेनामी टिप्पणी दे रहा हूँ.
नीतू जी,
जवाब देंहटाएंऐसा आभास हुआ कि उड़ीसा के नाम से आप बाधित हुई. इरादा तो किसी को ठेस पहुंचाने का नहीं था. हिंदी की पीड़ित दशा, उसके प्रति ध्यान में कमी और हिंदी के विरोध को प्रस्तुत करता यह लेख प्रमुखत- हिंदी के कार्यान्वयन की ओर मुखरित है. तकलीफ के लिए क्षमा करें.
अयंगर.
अपने मेल से टिप्पणी में बाधाएं आने की वजह से बेनामी टिप्पणी दे रहा हूँ.