(1) इक धमाका, इक चीख, इक आह ! लगा जैसे आसपास से कराहने की आवाज़ आहों में तब्दील होकर मेरे कानों से टकरा रही है। कोई तो है जो दु:ख में...
(1)
इक धमाका, इक चीख, इक आह ! लगा जैसे आसपास से कराहने की आवाज़ आहों में तब्दील होकर मेरे कानों से टकरा रही है। कोई तो है जो दु:ख में बे-आवाज़ हुआ है, कोई तो हादसा हुआ है।
हाँ! इस आवाज़ पर परिन्दे फडफ़ड़ाते हुए शाखों से उड़ते रहे और शाखें अपने सूनेपन के साथ, बेमतलब के आसमां को देखती रही। काश वे कुछ कह पातीं तो जड़ और चेतन के अन्तर को ज़रूर व्यक्त करती, अपनी बेबसी का रोना ज़रूर रोतीं। पर यह आवाज़ जो दूर से सिसक-सिसक कर पास में सरकती आ रही है, यह तो चेतना की निशानी थी, फिर उसकी क्या बेबसी, क्या मजबूरी है जो अब वह आवाज़ मौन सी हो गई हैं ? मैंने धीरज के साथ धीरे से उस दिशा में क़दम रखा। मैं कहाँ जानता था कौन उस बस्ती का रहने वाला है, कौन राजा, कौन प्रजा? मैं तो बस घूमते-घूमते यहाँ की सुन्दरता से, उन पेड़-पौधों से सजी हरियाली और फूलों की महक से खिंचता चला आया।
'कौन है वहाँ ? कोई है?" मैंने अंधेरे में शब्दों का तीर फेंका और उस हवेली के आँगन से जुड़े कमरे की चौखट से टकराकर गिरने वाला था, लेकिन पास में रखे गमले की कुंडी को थामते हुए बाल-बाल बचा। अंधेरे में देखने की कोशिश नाकामियों में तब्दील होती रही।
अचानक बदन में सिरहन-सी हुई, लगा किसी के रेंगते हाथ मेरे पावों को टटोल रहे थे। मैं कतराकर पीछे हटा तो एक दर्द भरी कराहना कानों तक पहुँची। अपने आप को अंधेरे में संभाल पाने की कोशिश में खाली दीवार का सहारा लेता रहा। अचानक सारा कमरा रोशनी से नहा उठा, शायद मेरा हाथ स्विच पर पड़ा और उस हड़बड़ाहट के दबाव के कारण अंधेरे का अंत हुआ। अगले पल मेरी आँखों की मुलाक़ात फर्श पर कराहती घायल नारी के लहुलुहान बदन से हुई , जो मौत के शिकंजे से ख़ुद को बचाने के प्रयास में अंधेरों का सहारा लेकर मेरे पावों तक पहुँची। वह अर्धचेतना की अवस्था में थी, इस बात से नावाक़िफ़ कि मैं कौन हूँ, यहाँ क्यों आया हूँ और क्या कर रहा हूँ? मैं खुद भी होश में होते हुए इन्हीं सवालों में उलझ रहा था।
एक समीक्षात्मक नज़र से उस संगमरमरी बदन वाली सुन्दरी का निरीक्षण किया और फिर नज़र उसके आसपास ज़मीन के साथ सने हुए गलीचे पर फिसलती रही, जहाँ कमरे के गुलदान, टेलीफ़ोन, पानी के गिलास, बिखरे से पड़े थे। नज़र ठिठक कर जहां रुकी, वहाँ एक नौजवान की लाश पड़ी थी, उसके हाथ के पास ही एक पिस्तौल थी, उसे इस्तेमाल किया.......!!
एक समीक्षात्मक नज़र से उस संगमरमरी बदन वाली सुन्दरी का निरीक्षण किया और फिर नज़र उसके आसपास ज़मीन के साथ सने हुए गलीचे पर फिसलती रही, जहाँ कमरे के गुलदान, टेलीफ़ोन, पानी के गिलास, बिखरे से पड़े थे। नज़र ठिठक कर जहां रुकी, वहाँ एक नौजवान की लाश पड़ी थी, उसके हाथ के पास ही एक पिस्तौल थी, उसे इस्तेमाल किया.......!!
अनगिनत सवाल मेरे मस्तिष्क में घूमते रहे पर निशाना एक सवाल का भी सीधे किसी जवाब के क़रीब नहीं ले जा सका। इतना अहसास हुआ कि नौजवान मर्द अब ज़िंदा नहीं रहा, पर..? मुडक़र उस घायल नौजवान युवती पर नज़र डाली तो पलभर को सोच के सागर में डूब गया। क्या यह मेरी आइशा हो सकती है? वही आकार, वही बदन, वही गोरापन, वही क़द , वही बाल ! अपनी सोच के बाहर आकर एक नज़र फिर उस पर डाली। अब चौंकने की बारी मेरी थी। चौंकना भी कैसा? ऊपर की सांस ऊपर, नीचे की नीचे रह गई। धडक़न की रफ़्तार धौंकनी की तरह मेरे सीने की हदों को तोडक़र कानों तक आ रही थी। मेरे चौंकने का कारण आइशा ही थी, आइशा मेरी जान, जिससे आठ साल दूर रहकर भी मैं आज तक उसे भूल नहीं पाया। वही तो मेरे दिल की धडक़न थी, प्यार, मेरी ज़िन्दगी थी और आज वह मेरे सामने बेहोशी की हालत में पड़ी हुई। उसके बायें हाथ की उंगली में वही अंगूठी पड़ी हुई, जो मैंने उसे पहनाई थी। एक बात की राहत हुई कि आइशा अब भी मुझसे उतना ही प्यार करती है जितना मैं उसे करता हूँ।
देवी नागरानी |
कालेज के दिन भी कितने अलबेले दिन थे, शोखियों के परों पर समय बीतता चला गया। अचानक एक दिन वह मेरे सामने आँसुओं से तर चेहरा लिए खड़ी रही, उदासी की चादर ओढ़े सहमे शब्दों में उसने बताया कि उसके पिता ने एक लडक़े के साथ उसका ब्याह तय करने की ठान ली है और बहुत जल्द की उसकी सगाई कर देने वाले हैं। कारण जो उसकी जानकारी में था- वह लडक़ा रईस जमींदार घराने का वारिस था और उसके पिता के अनेकों कर्ज़ जो उसने बेटी को पढ़ाने के लिए उनसे लिये थे, वही चुकाने की ख़ातिर मजबूर था। पिता ने और ख़रीदार ने बहुत ही सस्ती कीमत आँकी थी आइशा के सौन्दर्य की, उसकी जवानी की, उसके अस्तित्व की! बस उसे दांव पर लगा दिया गया।
मैंने एक पल को नहीं सोचा कि मैंने क्या सुना, उसने क्या कहा? अपने हाथ में पड़ी अँगूठी, जिस पर मेरे नाम का पहला अक्षर खुदा हुआ था, उसे पहनाते हुए कहा- ''आइशा एक बात तुम जान लो, तुम मेरी हो और मेरी ही रहोगी, कोई और जो सौदेबाजी का शाइक हो तुम्हें कैसे पा सकता है? मैं तो बस प्यार देना और लेना चाहता हूँ, तुम्हें पाना कोई हार या जीत का मुद्दा नहीं। तुमसे जुडक़र मैंने जीवन जिया है, अगर बिछडऩा पड़ा तो जिन्दगी मुझे जी लेगी। इतना ही कह सकता हूँ कि तुम्हारे बिना मेरी कोई ज़िन्दगी नहीं रहेगी।“ और आज आठ साल बाद उसे इस हालत में देखकर मेरी खुशी नाचने लगी, खास तौर पर उसकी उँगली में मेरे नाम वाली अँगूठी देखकर! इससे एक बात तो ज़ाहिर थी कि वह भी मुझे ज़िंदगी से ज़्यादा चाहती है, तभी तो आज तक अपने प्यार की निशानी को मन से स्वीकार करके अपने तन से जोड़ रखा था।
फिर अचानक उसने कालेज आना बंद कर दिया। सुनने में आया रातों रात उसके पिता उसे साथ लेकर किसी अनजान शहर में जा बसे। अफ़वाह उड़ी कि अमीरी की चौखट पर ग़रीबी घुटने टेकने के बाद जी न पाई। बिना किसी शोर-गुल के आइशा की शादी 'रतन’ नाम के एक अमीरज़ादे से करवा दी और पिता वह शहर छोड़कर खुद किसी अनजान शहर में जा बसा।
फिर अचानक उसने कालेज आना बंद कर दिया। सुनने में आया रातों रात उसके पिता उसे साथ लेकर किसी अनजान शहर में जा बसे। अफ़वाह उड़ी कि अमीरी की चौखट पर ग़रीबी घुटने टेकने के बाद जी न पाई। बिना किसी शोर-गुल के आइशा की शादी 'रतन’ नाम के एक अमीरज़ादे से करवा दी और पिता वह शहर छोड़कर खुद किसी अनजान शहर में जा बसा।
मैं बेहाल-सा मारा-मारा फिरता रहा, कालेज में, आसपास के उन स्थानों में जहाँ हम अक्सर मिलते थे, पर कोई निशां बाक़ी नहीं दिखा, और न कहीं दूर तक उसे देखने की आस-उम्मीद ही बची थी। इस तरह कितने ही तड़पते दिन और सुलगती रातें बीतीं।
परीक्षा के तुरन्त बाद मैंने पढ़ाई पूरी करते ही पुलिस ट्रेनिंग में भर्ती हो गया। उसी कठोर ट्रेनिंग ने मुझे एक ऐसे मोड़ पर लाकर खड़ा किया जहाँ मेरे कंधों पर, अपने से ज़्यादा अपने आसपास और देश के तमाम नागरिकों की सुरक्षा का भार डाला गया। इसी एक ख़ास कड़ी ट्रेनिंग के तीन साल पश्चात अपने ओहदे की परंपरा को निभाते हुए अपनी कार्य क्षमता प्रदर्शित करने के कई मौक़े आये और हर मोड़ पर कामयाबी के परचम फहराता हुआ मैं अपने अगले पड़ाव की ओर क़दम बढ़ाता रहा। आज मेरा इस कस्बे में होना भी उसी वजह से है। हक़ीक़त में मैं अपने हर नए पड़ाव पर, अपने साथ अपनी प्रेमिका आइशा की यादें लेकर हर राह पर आहटों को टटोलता हुआ आगे बढ़ता, इस आस पर कि कहीं तो कोई सुराग़ मिलेगा? और आज अचानक ज़ख्मी पर जीती जागती वही आइशा मेरे सामने है।
हैदराबाद की इस महानगरी में तबादला हुआ और मुझे यहाँ इस छोटे से क्षेत्र का इन्चार्ज बनाकर भेजा गया। एक नामी शरीफ़ ख़ानदान के बिगड़े बेटे को तलाशना और उसे सबूतों सहित सलाखों के पीछे पहुँचाना, यही मिशन था। शायद सबूत शक़ की बुनियाद के ज़ामिन होते हैं वर्ना दिन के उजालों में भी वो सब कुछ होता है जो करते हुए रात के अंधेरे शर्मा जाते हैं। यह इन्सानियत का सरगना ऐश की ख़ातिर भले घर की मासूम लड़कियों का सौदा उनके माँ-बाप के साथ कर लिया करता था और अपने अय्याशी के चंगुल से उन्हें तार-तार किए बिना नहीं छोड़ता। इसे एक मजबूत संगठन कहें या गिरोह कह लें, जहाँ नाम वाले बेनाम होकर कुकर्मों की भाषा में एक भद्दा इतिहास रचते हैं।
आइशा भी उसी गिरोह के 'रतन' नाम की कड़ी के कारण घर से बेघर हुई। अपनी समस्त आराधनाओं के पश्चात भी वह अपने पिता को दिलासा न दिला सकी कि वह पढ़ाई पूरी करते ही नौकरी करके अपने पिता की आर्थिक दुर्दशा को दूर करेगी। पिता को बेटी की नाजुक बाहों पर शायद विश्वास न था। अपनी बेबस कमज़ोरियों को पैसे के बल के सामने टिका न पाया और बलि पर चढ़ गई आइशा की मासूमियत, उसकी सलाहियतें, उसकी जवानी और साथ उसके उसकी हर चाहत जो जवानी की चौखट पर पैर रखते ही हर लडक़ी के दिल में अँगड़ाइयाँ लेती हैं।
आइशा भी उसी गिरोह के 'रतन' नाम की कड़ी के कारण घर से बेघर हुई। अपनी समस्त आराधनाओं के पश्चात भी वह अपने पिता को दिलासा न दिला सकी कि वह पढ़ाई पूरी करते ही नौकरी करके अपने पिता की आर्थिक दुर्दशा को दूर करेगी। पिता को बेटी की नाजुक बाहों पर शायद विश्वास न था। अपनी बेबस कमज़ोरियों को पैसे के बल के सामने टिका न पाया और बलि पर चढ़ गई आइशा की मासूमियत, उसकी सलाहियतें, उसकी जवानी और साथ उसके उसकी हर चाहत जो जवानी की चौखट पर पैर रखते ही हर लडक़ी के दिल में अँगड़ाइयाँ लेती हैं।
अपने पिता की निर्धनता के कमज़ोर क़िले से बाहर आते ही आइशा अमानुषता के खूँखारपन के नुकीले शिकंजों की मज़बूतियों से परिचित होने लगी। पहले तो रतन उसे एक आलीशान महल जैसे घर में ले आया जहाँ ऐशो-इशरत का सारा सामान था, पर वहाँ मानवता की पदचाप दूर तक सुनाई नहीं देती थी। चार-पाँच दिन तो रतन को पति मानकर, उसकी सहभागिनी बनकर चलती रही। पर जाने क्यों उस सहमे-सहमे वातावरण में वह सोचों के गिर्दाब में डूबी हुई एक हिरणी की तरह चौकनीं आँखें हर तरफ़ घुमाती रहती थी। उसे अजीबो-ग़रीब असुविधा-सी होती और वह शक़ की निगाह से हर क़दम को टटोलती। रतन के बोल-चाल, रहन-सहन में उसे वह महक नहीं मिलती, जो एक पत्नी को अपने पति के दायरे में मिलती है। उसे न जाने क्यों आभास होने लगा कि उसके मन की कली पल्लवित होने की बजाइ दिन- ब- दिन कुम्हलाती जा रही है।
और एक दिन जो सैलाब आया, वह उसकी ज़िन्दगी को तहस-नहस करने के लिए काफ़ी था। रतन के चार दोस्त उसके साथ रहने उसकी कोठी पर आए। छुट्टियों को मनाने और ''आसपास की सुन्दरता का आनंद लेने के लिए”-आईशा ने उनको यही कहते सुना।
(2)
कुछ होश में आते ही आइशा ने आँखें खोलने का प्रयास किया और जो कुछ सामने देखा तो उसे ही विश्वास नहीं हुआ कि मनोज उसके सामने था जो उसकी अवस्था की मुनासिब छानबीन कर रहा था। उसके पहनावे और रवैये से उसे यह समझने में देर न लगी कि मनोज अब पुलिस का अधिकारी बन चुका है और उसे कानूनी हिफाज़त देने और दिलाने में समर्थ है। एक लंबी राहत भरी सांस लेकर आइशा मनोज की हर हरक़त को देखती रही, सराहती रही और अपने मन में उसकी चलती-फिरती तस्वीर को संवारती रही।
''कैसी हो आइशा ?" सुनते ही वह अपनी सोच की दुनिया से बाहर की हक़ीक़त से जुड़ी। मनोज के साथ एक डॉक्टर उसकी जाँच के लिए तैयार खड़ा था, जिसने अपनी कार्यवाई को अंजाम देकर जहाँ-जहाँ घाव थे वहाँ पर मरहम लगाकर एक इन्जेक्शन भी दे दिया और दवाएँ लिखकर मनोज से इज़ाजत लेते हुए बाहर दरवाज़े की ओर बढ़ा। अफ़सर के आगे तैनात पुलिस वाले हर इशारे पर अमल करते रहे, यह आइशा को भली-भांति महसूस हुआ।
''कैसी हो आइशा ?" सुनते ही वह अपनी सोच की दुनिया से बाहर की हक़ीक़त से जुड़ी। मनोज के साथ एक डॉक्टर उसकी जाँच के लिए तैयार खड़ा था, जिसने अपनी कार्यवाई को अंजाम देकर जहाँ-जहाँ घाव थे वहाँ पर मरहम लगाकर एक इन्जेक्शन भी दे दिया और दवाएँ लिखकर मनोज से इज़ाजत लेते हुए बाहर दरवाज़े की ओर बढ़ा। अफ़सर के आगे तैनात पुलिस वाले हर इशारे पर अमल करते रहे, यह आइशा को भली-भांति महसूस हुआ।
बाज़ार से तुरन्त दवा आ गई और पानी के साथ जब मनोज ने ख़ुद अपने हाथ से आइशा को दवा पिलाई तो बीमार ठीक होता हुआ लगा और मनोज ख़ुद बीमार-सा हो गया। अपनी प्रेयसी से आठ साल दूर, पल-पल मन की आँखों से उसे निहारते-निहारते आज अचानक वह उसके सामने! उफ़ ! ख़ुद को रोक न पाया, अपनी मजबूत बाहों के घेराव में आइशा को ले लिया, जो अब भी उसी अवस्था में ज़मीन पर पड़ी हुए थी। ज़मीन की कशिश और आसमाँ का झुकना परस्पर मिलन का एक सुखद नज़ारा रहा ।
घायल आदमी, जो अपना दम तोड़ चुका था उसे पोस्टमार्टम के लिए भेज दिया गया और आइशा को पास ही पुलिस अधिकारियों के नर्सिंग होम में दाख़िल कर दिया गया जहाँ वह निजी देख-रेख से जल्द ही स्वस्थ होती रही। जब वह उठ-बैठ सकने के क़ाबिल हुई तो अपनी आप-बीती मनोज को बताती रही कि ‘रतन के जो चार दोस्त सुन्दरता का आनन्द लेने आए थे’, वे तो दरिंदे थे जो उसे नोच पाने में नाक़ामयाब रहे। जब उनकी एक न चली तब रतन का असली चेहरा सामने आया- एक अमानुष जो मनुष्य का नक़ाब ओढ़े हुए था।
घायल आदमी, जो अपना दम तोड़ चुका था उसे पोस्टमार्टम के लिए भेज दिया गया और आइशा को पास ही पुलिस अधिकारियों के नर्सिंग होम में दाख़िल कर दिया गया जहाँ वह निजी देख-रेख से जल्द ही स्वस्थ होती रही। जब वह उठ-बैठ सकने के क़ाबिल हुई तो अपनी आप-बीती मनोज को बताती रही कि ‘रतन के जो चार दोस्त सुन्दरता का आनन्द लेने आए थे’, वे तो दरिंदे थे जो उसे नोच पाने में नाक़ामयाब रहे। जब उनकी एक न चली तब रतन का असली चेहरा सामने आया- एक अमानुष जो मनुष्य का नक़ाब ओढ़े हुए था।
''मनोज तुम सोच भी नहीं सकते कि इस भँवर से मैं कैसे निकली हूँ,? " कहते हुए आइशा ने अपना सिर मनोज के घुटनों पर रख दिया। मनोज प्यार से उसके बालों को सहलाता रहा, अपनी उंगलियों की पोरों से उसके अंतरमन की पीड़ा को आँसुओं के द्वारा बाहर निकालने के प्रयास में वह बिल्कुल ही चुप रहा। आइशा भी चुप होकर उसकी बौद्धिक खामोशी को पढ़ने लगी।
''आइशा तुम शायद मेरे लिए बाल-बाल बची हो," कहकर मनोज फिर खामोश रहा।
'हाँ मनोज। सच में मैं तो नाउम्मीद होकर हिम्मत हार बैठी थी, और उन दरिंदों की अमानवीय करतूतों से बेहद डरी हुई थी। मैं खुश हूँ कि अब वह दरिंदा इस दुनिया में नहीं है।उसकी मौत का मुझे कोई अफसोस नहीं है, पर उसे इतनी आसान मौत देने वाले ने उसे जो सज़ा दी है वह बहुत कम दी है। जाने कितनी मासूम जवानियों को अपने ऐश की चौखट पर बलि चढ़ाया। तुम अब उन दरिंदों को ऐसी कड़ी सज़ा दिलाओ कि वे दुबारा ऐसी घिनौनी आगे कोई ऐसी हरक़त करने का दुसाहस न कर सके। पर एक बात समझ नहीं आई, रतन तो पिस्तौल लेकर मुझे मारने के लिए बढ़ रहा था, वह खुद शिकार कैसे बन गया?" कहकर आइशा सवाली निगाहों से मनोज की ओर देखती रही।
''सच कहूँ आइशा, वह तुम्हारे पिता की गोली से मरा है। शायद उन्हें कहीं से भनक पड़ी थी और वह तुम्हारी हिफ़ाज़त के लिए कुछ वक़्त से तुम्हारी निगरानी करते हुए तुम्हारे पीछे साए की तरह लगा हुआ था। रत्न को खत्म करने के पश्चात वह ख़ुद को भी नहीं बचा पाया।"
'हाँ मनोज। सच में मैं तो नाउम्मीद होकर हिम्मत हार बैठी थी, और उन दरिंदों की अमानवीय करतूतों से बेहद डरी हुई थी। मैं खुश हूँ कि अब वह दरिंदा इस दुनिया में नहीं है।उसकी मौत का मुझे कोई अफसोस नहीं है, पर उसे इतनी आसान मौत देने वाले ने उसे जो सज़ा दी है वह बहुत कम दी है। जाने कितनी मासूम जवानियों को अपने ऐश की चौखट पर बलि चढ़ाया। तुम अब उन दरिंदों को ऐसी कड़ी सज़ा दिलाओ कि वे दुबारा ऐसी घिनौनी आगे कोई ऐसी हरक़त करने का दुसाहस न कर सके। पर एक बात समझ नहीं आई, रतन तो पिस्तौल लेकर मुझे मारने के लिए बढ़ रहा था, वह खुद शिकार कैसे बन गया?" कहकर आइशा सवाली निगाहों से मनोज की ओर देखती रही।
''सच कहूँ आइशा, वह तुम्हारे पिता की गोली से मरा है। शायद उन्हें कहीं से भनक पड़ी थी और वह तुम्हारी हिफ़ाज़त के लिए कुछ वक़्त से तुम्हारी निगरानी करते हुए तुम्हारे पीछे साए की तरह लगा हुआ था। रत्न को खत्म करने के पश्चात वह ख़ुद को भी नहीं बचा पाया।"
“मनोज पिताजी की मजबूरी ने उनसे यह गुनाह करवाया था, जिसका प्रायश्चित उन्होने एक बागबाँ बनाकर किया। कौन अपनी औलाद का.......!!” आइशा बेहाल सी होकर रोने लगी। उसे यह समझ नहीं आ रहा था कि उस के पिता ने उसी रखवाली करते हुए अपनी जान दे दी, उसे वह सज़ा समझे या रिहाई।
मनोज के प्यार ने उसे इस बार भी हर बार की तरह संभाला और सम्पूर्ण सम्मान के साथ अपनी हर कार्यवाही को अन्जाम देने के पश्चात एक समारोह में अग्नि के साक्षी उसे पत्नी का अधिकार दिया। आइशा की समझ में आ गया था 'रिश्ते' कहने और मानने से ज्यादा निभाने की रस्म से मुक़्क़मिल होते हैं।
अनुवाद: देवी नागरानी
जन्म: 1941 कराची, सिंध (पाकिस्तान), 8 ग़ज़ल-व काव्य-संग्रह, एक अंग्रेज़ी, 2 भजन-संग्रह, 2 अनुदित कहानी-संग्रह प्रकाशित। सिंधी, हिन्दी, तथा अंग्रेज़ी में समान अधिकार लेखन, हिन्दी- सिंधी में परस्पर अनुवाद। राष्ट्रीय व अंतराष्ट्रीय संस्थाओं में सम्मानित , न्यू जर्सी, न्यू यॉर्क, ओस्लो, तमिलनाडू अकादमी व अन्य संस्थाओं से सम्मानित। महाराष्ट्र साहित्य अकादमी से सम्मानित / राष्ट्रीय सिंधी विकास परिषद से पुरुसकृत
संपर्क 9-डी, कार्नर व्यू सोसाइटी, 15/33 रोड, बांद्रा, मुम्बई 400050॰ फोन:9987928358
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