Do not say that Hindi Story,यह कहानी भूपेंद्र कुमार दवे जी द्वारा लिखी गयी है। आप मध्यप्रदेश विद्युत् मंडल से सम्बद्ध रहे हैं। आपकी कुछ कहानियाँ व कवितायें आकाशवाणी से भी प्रसारित हो चुकी है। 'बंद दरवाजे और अन्य कहानियाँ', 'बूंद- बूंद आँसू' आदि आपकी प्रकाशित कृतियाँ है।
पानवाले
सड़े-गले पान को काट-छाँटकर उसपर
चाँदी का वरक लगाकर देते हैं,
परन्तु भगवान ने हमारे शास्त्रीजी
के चेहरे पर मुस्कान की वरक
चढ़ाने की कभी नहीं सोची। वैसे
यह भी सच है कि किसी ने भी उनके
चेहरे पर घृणा के विकृत तेवर
या ईष्र्या के बीभत्स मुखौटे
या द्वेष के रंग-रोगन से बने
अश्लील चित्र या क्रोध के नरमुड़
के आवरण को नहीं देखा था।
वैसे
उनके व्यक्तित्व को समझना आइन्सटीन
के सापेक्षवाद को समझने से
अधिक कठिन लगता है। उदासी हर
एक के जीवन में आती है पर शास्त्रीजी
का जीवन जैसे उदासी की पाठ्य
पुस्तक का रूप ले चुका था जिसके
हरेक पाठ के अंत में दिये प्रश्नों
के उत्तर पाने के लिये पिछले
पन्नों को पलटना पड़ता था जहाँ
वर्णित मिलती थी उनकी हताश
जिन्दगी की गाथा।
इस
गाथा का जो पन्ना मेरे सामने
खुला उसमें उनकी उम्र 88 वर्ष
और उनकी पत्नी की उम्र 82 वर्ष
दर्ज थी। इस उम्र तक पहुँचते-
पहुँचते प्रायः सभी वृद्ध अकेले
पड़ जाते हैं। शास्त्री दंपति
तो बेचारी निःसंतान थी अतः
वर्षों से अकेलेपन का अहसास
कर रही थी। पर अकेलेपन में रहने
का कोई आदी नहीं होता। ऊब जरूर
जाता है और यही कारण है कि अकेलापन
की धुंध उदासी की चिपचिपाहट
भरी उमस की सी बनी रहती है। कहते
हैं कि अकेलेपन का अहसास होते
रहना एक रोग है जो न तो साँस
लेने देता है और न ही उखड़ने देता
है। वृद्धावस्था बेचारी इस
बीमारी को पल-पल मृत्यु की तरह
झेलती रहती है।
वे
दोनों प्रायः जल्दी उठ जाते
और बरामदे में आराम-कुर्सी
पर बैठे दरख्तों से आती सूरज
की किरणों की कतरनों का बिखराव
देखते रहते थे। रामू उनकी सेवा
में आता तो चाय का प्याला थमा
जाता। काँपते हाथों में अब
गिरा तब गिरा करता हुआ प्याला
अपने कंपन की आवाज, आँगन में
बँधी गाय के गले की घंटियों
की आवाज से सुर मिलाने की कोशिश
करता। दस बजे पार्वती तौलिया
लाकर शास्त्रीजी को देती, तब
वे जैसे-तैसे उठकर कमर पर हाथ
रखकर एक झटका-सा देते ताकि कमर
सीधी हो जावे और तनकर खड़े होने
का आभास होने लगे। वे गुसलखाने
से फुर्सत पाकर पुनः आराम-कुर्सी
पर बैठ जाते। पूजा-पाठ में उनका
विश्वास जाता रहा था। ‘सब कुछ
करके देख लिया। मिला कुछ नहीं
-- न बेटा, न बेटी।
बेचारी
पार्वती अब भी पूजा-पाठ नियमित
रूप से करती थी। निःसंतान होने
की पीड़ा पत्नी होने के नाते
उसे ज्यादा थी। पत्नी की यह
पीड़ा शास्त्रीजी को कचोटती
रहती थी। वे पार्वती को समझाते
कि ईश्वर की दुनिया में किसी
बात की कमी नहीं है। सुन्दर
प्रकृति है और इस प्रकृति की
गोद में आल्हादित करनेवाली
इठलाती असंख्य शक्तियों के
अनगिनत करिश्मे हैं। समय के
तेज रफ्तार के झोंकों में जीवन
के तराजू के सुख-दुख के पड़ले
स्थिर नहीं रहते -- डोलते रहते
हैं। ये तो मनुष्य का मस्तिष्क
है जो अनुभवों की निरंतर उफनती
बाढ़ में बहते विचारों के तिनकों
को पकड़कर ईश्वर तक पहुँचने
के लिये लालायित रहता है। ईश्वर
को पाकर मनुष्य करेगा भी क्या?
ईश्वर की शिकायत ईश्वर से ही
करने पर क्या मिलेगा?
शास्त्रीजी
सोचते कि मनुष्य व्यर्थ ही
सुख पाने की चिन्ता कर दुखी
होता रहता है। सुख तो बहते समय
की उठती लहरों को दूर से देखने
में है जिसमें असंख्य साँसों
के बुलबुले बनते-बिगड़ते रहते
हैं। ये लहरें जब पास आती हैं
तो साँसों का बनना-बिगड़ना नहीं
दिखता। सब कुछ जीवन के किनारे
से टकराते बुढ़ापे की झाक की
धुंध में विलीन हो जाता है।
तब समय होता है मात्र साँसों
को गिनने का -- कभी अपनी साँसों
को तो कभी पत्नी की साँसों को।
एक होड़-सी लगी होती है। जो हारकर
पहले साँस त्याग दे, उसी की जीत
होती है।’ अपने इन अद्भुत विचारों
पर उन्हें हँसी आने लगी। तभी
सीने में एक दर्द की तीखी लहर
उठी। उन्हें लगा जैसे उनकी
साँसें हार चुकी थी और मृत्यु
जीत का तोहफा लेने आगे बढ़ रही
थी।
तभी
रामू दौड़कर आया और एक ही साँस
में कह गया, ‘मालकिन बेहोश गिर
पड़ी हैं। जल्दी चलिये।’
शास्त्रीजी
ने चश्मे से रामू के चेहरे को
देखा, वह घबराया हुआ था। ‘अरे,
तू तो एकदम घबरा गया। मुझे देख,
इस उम्र में भी....’ तभी उनके स्वतः
के अंदर उठी घबराहट के दौर को
छिपाने खाँसी आ गई। वे बरामदे
से उठकर अंदर चले गये। कुछ देर
बाद पत्नी को सहारा देते हुए
पुनः बरामदे में आ गये। एक लहर
उठी थी जो च चट्टानों से टकराकर
बिखर गई थी और समुद्र पूर्ववत्
शान्त, गंभीर हो गया था। शास्त्रीजी
की शक्तिस्त्रोत पार्वती बरामदे
में बैठ गई थी। दोनों जिन्दा
थे, पर शास्त्रीजी सोचने लगे
कि आखिर यूँ जिन्दा रहने का
मकसद ही क्या है? बिना मकसद के
जिन्दा रहना तो बिजली गुल होने
पर भी टी. व्ही. के सामने बैठे
रहना है या फिर बिजली आने पर
किसी अन्य भाषा का प्रोग्राम
देखना।
उस
दिन हर रोज की तरह सुबह के दस
बज गये थे। रसोईघर से आती खटपट
की आवाज बंद हो चुकी थी। शायद
रामू घर चला गया था। घर के अंदर
की खामोशी बाहरी सन्नाटे की
बाहों में बिंध गई थी। खामोशी
और सन्नाटे के प्रेमालाप के
शब्द भी गूँगे थे। बरामदे पर
बनी रेलिंग पर एक चिड़िया अपने
बच्चे को उड़ने का अभ्यास सिखा
रही थी। बच्चा पँख फड़फड़ाकर
उड़ने का नाटक भर करता और चिड़िया
ताकती रह जाती। किन्तु पशु-पक्षियों
के चेहरे पर कभी कोई भाव नहीं
उतरता -- न खीज का, न क्रोध का,
न हताश होने का। पर क्या उनके
हृदय में साँसें तूफान नहीं
मचाती? शास्त्रीजी चाह रहे
थे कि पार्वती चिड़िया के बच्चे
को देखे और मन बहला ले। पर वे
चुप थे। डर था कि कहीं पार्वती
और उदास न हो जावे। उन्होंने
कनखियों से देखा। ‘अरे, यह तो
पहले से ही उसे देख रही है।’
पार्वती के उदास चेहरे पर वात्सल्य
भाव आँखों में नमी लाकर थिरक
रहे थे। शास्त्रीजी से रहा
न गया और हवा में हाथ घुमाया।
चिड़िया उड़ गई और वह बच्चा जो
अब तक अपनी माँ के कहने पर न
उड़ने की जिद्द पर था, वह भी उड़
गया। चिड़िया चहक उठी। शास्त्रीजी
ने सगर्व सोचा, ‘देखा, जो चिड़िया
न कर सकी, वे कर सके हैं। काश!
उनकी भी संतान होती तो वे उसे
क्या क्या नहीं सिखाते।’
चिड़िया
सामने के लोहे के फाटक पर जा
बैठी थी। उन्होंने देखा कि
वह किसी को आता देख उड़ चली थी।
उसकी जगह फाटक के पास दो नन्हें
बच्चे आकर रुक गये थे और अंदर
झाँककर देखने लगे। बच्चों को
देखकर शास्त्रीजी के चेहरे
की उदासी उड़ गई और उसकी जगह गंभीरता
की मुखमुद्रा उन बादलों की
तरह सहमी-सहमी नजर आने लगी जो
बरसने की लालसा लिये हुए बिना
बरसे ही आकाश में मँड़राते रहते
हैं। ऐसे न बरसनेवाले आँसुओं
को हृदय में रखकर मनुष्य गंभीर
हो उठता है।
‘कौन
है,’ शास्त्रीजी ने आवाज लगाई।
पर बच्चों ने जैसे नहीं सुना।
बड़ा बच्चा सात-आठ साल का था फटी
कमीज पहने हुए जो दस-बारह साल
के बच्चे की उतरन रही होगी।
उसके साथ में नन्हीं-सी बच्ची
थी। दोनों बड़े प्यारे लग रहे
थे। भूखे-प्यासे गरीब के बच्चे
तो और भी प्यारे लगते हैं क्योंकि
प्यार के साथ दया के मिश्रण
से ही ममता बनती है। ‘बहते आँसू
ममता के श्रेष्ठ आभूषण होते
हैं।’ ये विचार शास्त्रीजी
के मन में उतरे जब उन्होंने
पार्वती की आँखों को देखा।
चिड़िया के बच्चे को देखकर जो
आँखें नम हो गईं थी, वो इन बच्चों
को देखकर टपटप आँसू गिराने
लगीं थी। पार्वती के आँसू देख
शास्त्रीजी की आँखें भी नम
हो उठीं। कौन कहता है कि पुरुष
पत्थर के होते हैं। हाँ, अगर
उन्हें पत्थर भी मान लिया जावे
तो वे पानी में धुलते नहीं, वे
तो दहकती आग में पिघलना जानते
हैं।
लड़के
के पास एक माऊथ-आर्गन था, जिसमें
उसने फूँका और बच्ची घाघरा
पकड़कर खड़ी हो गई। लड़का बाजा
बजाता रहा और बच्ची थिरकती
नाचती रही। उसकी बड़ी-बड़ी आँखें
थी और वह बड़े लगन व उत्साह से
नाच रही थी। दोनो वृद्ध मंत्र-मुग्ध
हो उन्हें न जाने कितनी देर
देखते रहे। लेकिन अचानक बच्ची
जमीन पर बैठ गई। शास्त्रीजी
ने सोचा कि शायद यूँ बैठना नृत्य
में शामिल था। पर नहीं, वह बिल्कुल
थक चुकी थी। वह कातर आँखों से
अपने भाई की तरफ देख रही थी।
‘भैया, भूख लगी है।’ यह कहते
वह रो पड़ी।
लड़का
बाजा जमीन पर फेंक बहन के पास
बैठ गया ओर उसे अपनी बाहों में
लेकर खुद भी रोने लगा, ‘भूक तो
मुझे भी लगी है।’ इसके आगे वह
कुछ न बोल सका। शास्त्रीजी
उनके पास आ गये और फाटक खोलकर
देखा तो बच्ची का रंग पीला पड़
गया था।
‘क्या
भूख लगी है,’ शास्त्रीजी ने
पूछा। पर दोनों बच्चे चुप रहे।
भूखे बच्चे जब रोते हैं तो कुछ
बोल नहीं पाते। भूख के कारण
रोते बच्चे भीख माँगना भी भूल
जाते हैं। ऐसे समय जिस आदमी
के हाथ में दया का कटोरा भर हो
और देने को कुछ न हो तो वही भिखारी
जैसा लगने लगता है। शास्त्रीजी
ने पलटकर पार्वती की ओर देखा।
‘स्त्रियों के पास जो दया का
कटोरा होता है, वह कभी खाली नहीं
रह पाता,’ शास्त्रीजी अच्छी
तरह जानते थे। वे बच्चों को
अंदर ले आये। पार्वती ने दोनों
बच्चों को सीने से लगा लिया।
गरीब बच्चे कई दिनों से भूखे
थे। मात्र प्यार से पेट नहीं
भरता। लड़के ने कहा, ‘अम्माँ,
गुड़िया को एक रोटी दे दो।’
‘और
तुझे कुछ नहीं?’ पार्वती ने
जानबूझकर पूछा तो लड़के ने अपनी
जेब से एक अधजली बीड़ी दिखाकर
कहा, ‘मेरे पास यह है।’ शास्त्रीजी
स्तब्ध रह गये। ऐसा लगा कि एक
विशालकाय बिजली कोंधी हो जो
अपनी असंख्य शिराओं से कश्मीर
से कन्याकुमारी तक सारे देश
को भस्म करना चाह रही हो और गरीबों
की मजबूरी उस राख की ढेरी में
बीड़ी सुलगाने अंगार ढूँढ़ रही
हो।
तब
तक पार्वती बच्चों को भीतर
ले गई थी। शास्त्रीजी बुढ़ापे
से लदे कदमों को लेकर जब घर के
अंदर पहुँचे तब वे दोनों बच्चे
स्वतंत्रता से सारे घर में
घूम-घूमकर धमाचैकड़ मचा रहे
थे जैसे वसंत खिल उठा हो। पार्वती
की वर्षों पुरानी इच्छा घर
आँगन में किलकारियाँ भर रहीं
थी। शास्त्रीजी के कंधों पर
लदा बुढ़ापे का लबादा भी महीन
गमझे की तरह उनकी आँखों की
नमी को मिटा रहा था। वे बोले,
‘बच्चों, ये सारा घर तुम्हारा
अपना है।’
‘चच्छी,
अब हम यहीं रहेंगे,’ बच्ची ने
तुतलाते हुए कहा।
हाँ,
बेटे हमेशा यहीं रहना। पर यह
बताओं कि तुम्हारे माँ-बापू
कहाँ हैं?’
इस प्रश्न
को सुन दोनों बच्चे उदास हो
गये। उनका इस संसार में कोई।
नहीं था। शास्त्रीजी को लगा
कि नाहक यह प्रश्न किया। स्थिति
हँसते-खेलते-दौड़ते बच्चों को
अचानक काँटे के चुभ जाने जैसी
निर्मित हो गई थी। पर यह पूछना
भी जरूरी था। लेकिन जल्दी क्या
थी और कुछ देर वे हँसते खेलते
रहते तो कितना अच्छा होता? कभी
न मुस्करानेवाले शास्त्रीजी
ने मुस्कराने की कोशिश की।
बच्चे सब कुछ शीघ्र भूल गये।
उनकी मस्ती लौट आयी। शास्त्रीजी
भी उनके साथ खेलते रहे।
और
जब थक गये तो अपने कमरे में चले
गये। पार्वती मूर्तिवत खड़ी
असमंजस में थी कि कहाँ जायें
-- रसोईघर में या आराम करने।
वह शास्त्रीजी के कमरे तरफ
मुड़ी तो देखा कि वे टेबल पर बैठे
कुछ लिख रहे थे। उनके चेहरे
पर संतोष झलक रहा था, जिसे देख
पार्वती बोली, ‘आप तो गुड़िया
के पापा लग रहे हैं।’
शास्त्रीजी
ने सिर उठाकर पार्वती की तरफ
देखा, ‘तुम भी मुन्ने की अम्मा
दिखने लगी हो।’ पार्वती क्षणिक
शर्मायी और फिर दोनों खिलखिलाकर
हँस पड़े।
शास्त्रीजी
बोले, ‘इन बच्चों का इस दुनिया
में और कोई नहीं है। मैं चाहता
हूँ कि अब वे यहीं रहें और यह
घर उन्हीं के नाम लिख दूँ। इस
काम में देर न हो जाये इसलिये
तुरंत लिखने बैठ गया हूँ।’
‘मैं
भी ईश्वर से इसी दिन की प्रार्थना
करती रही हूँ। आज उन्होंने
सुन ली।’ यह सुन शास्त्रीजी
ने अपना रहस्य उजागर करते हुए
कहा, ‘अरी मुन्ने की अम्मा! तू
अब तक सोचती थी कि मेरा ईश्वर
पर से विश्वास उठ गया है। मैंने
पूजा-पाठ छोड़ दिया पर सच कहूँ
तो मन में बस उसी का सहारा लिये
जीता रहा हूँ।’ पार्वती ने
गर्व से शास्त्रीजी की तरफ
देखती रही।
भूपेन्द्र कुमार दवे |
बच्चे
खेलते और शोर मचाते रहे और शायद
शास्त्रीजी को खेल में शामिल
करने उनके कमरे में आये। कुछ
देर दरवाजे पर ही ठिठककर खड़े
हो गये। मुन्ना कुछ देर अपलक
उन्हें देखता रहा। फिर आगे
बढ़ा। उसने अम्मा व बापू को छूकर
देखा। एक चीख-सी निकलती पर गुड़िया
को देख उसने अपने आप को सँभाला।
बापू के हाथ में कुछ लिखे कागजात
देख उसने ले लिये और गुड़िया
का हाथ पकड़कर बाहर आ गया।
‘बोलो,
बापू अम्मा को ता हो गया?’ गुड़िया
ने पूछा पर मुन्ना चुप रहा।
‘बोलो,
बापू अम्मा को ता हो गया?’ उसने
फिर पूछा तो मुन्ना अपने आप
को सँभाल न सका। ‘अपने ये बापू
व अम्मा भी चले गये,’ यह कह वह
रो पड़ा।
पड़ोसी
ने रोने की आवाज सुनी तो फेंसिंग
के पास आकर अंदर झाँका। बच्चों
को रोता देख भीड़ जमा हो गई। शास्त्रीजी
व पार्वती के पार्थिव शरीर
जमीन पर रख दिये गये। तभी किसी
की नजर बच्चे व उसके हाथ में
पकड़े कागजात पर पड़ी।
‘अरे,
इसमें तो शास्त्रीजी ने अपना
सब कुछ मुन्ने के नाम लिख दिया
है,’ उसने कहा और बच्चे को सिर
से पैर तक घूरकर देखा और बुदबुदाया,
‘यह तो भीख माँगनेवाला बच्चा
हैं। लगता है इस स्साले ने ही
इन दोनों की हत्या कर दी है और
घर संपत्ति का वारिस बन बैठा
है।’
अपनी
निष्पाप आत्मा को यूँ कलंकित
देख वह अबोध बालक चीख पड़ा, ‘ऐसा
मत कहो। तुम्हारे हाथ में कागज
है, चाहो तो उसे फाड़कर फैक दो।’
यह कहानी भूपेंद्र कुमार दवे जी द्वारा लिखी गयी है। आप मध्यप्रदेश विद्युत् मंडल से सम्बद्ध रहे हैं। आपकी कुछ कहानियाँ व कवितायें आकाशवाणी से भी प्रसारित हो चुकी है। 'बंद दरवाजे और अन्य कहानियाँ', 'बूंद- बूंद आँसू' आदि आपकी प्रकाशित कृतियाँ है।संपर्क सूत्र - भूपेन्द्र कुमार दवे, 43, सहकार नगर, रामपुर,जबलपुर, म.प्र। मोबाइल न. 09893060419.
bahut badhiya
जवाब देंहटाएंbahut badhiya
जवाब देंहटाएंबहुत बढ़िया कहानी
जवाब देंहटाएंअति सुंदर सृजन
जवाब देंहटाएं