ईश्वर की आत्मा हर मनुष्य में होती है, पर बच्चों में बसी उसकी आत्मा सांसारिक पापों से अछूती - एकदम शुद्ध होती है। अतः जो मनुष्य बच्च...
ईश्वर
की आत्मा हर मनुष्य में होती
है, पर बच्चों में बसी उसकी आत्मा
सांसारिक पापों से अछूती - एकदम
शुद्ध होती है। अतः जो मनुष्य
बच्चों से लगाव रखते हैं - उनमें
घुल-मिल जाते हैं, उन्हें परमेश्वर
के साथ होने जैसा अनुभव होता
है। इस द्दष्टि से यह मानना
होगा कि पृथ्वी पर तीन स्थल
स्वर्गतुल्य होते हैं : बच्चों
के स्कूल, बच्चों के अनाथालय
और बच्चों के अस्पताल। यह मेरे
पूर्वजन्म का संस्कार था जो
मुझे डाक्टरी में विशिष्ठ विषय
के तहत शिशु स्वास्थ को चुनने
प्रेरित कर गया।
फलतः
पढ़ाई के बाद मुझे नन्हें-नन्हें
फरिस्तों के बीच रहने का सौभाग्य
मिला। शिशु स्वास्थ विभाग में
भर्ती बच्चे उपचार के लिये
आते हैं और बदले में अलौकिक
उपहार देकर ही जाते हैं। उनके
उपहारों में शामिल होते हैं
प्यार के गुलदस्ते, आशा व शान्ति
की महक लिये मुस्कान के गुब्बारे,
आँखों में फुदकती चिड़ियों की
टोली, अपनेपन की भाषा को सँवारती,
तुतलाती मीठी मधुर वाणी, अटूट
विश्वास से लबालब भरी खिलखिलाहट
और आत्मा को गुदगुदाकर नवस्फूर्ति
देनेवाले स्पर्श की कुलबुलाहट।
मैंने
यह भी अनुभव किया है कि बच्चों
की तबीयत जितनी जल्दी बिगड़ती
है, उतनी ही तीव्रता से सुधर
भी जाती है, ठीक उसी तरह जैसे
सुबह की प्रथम किरणों के स्पर्श
से ओस की बूँदें कलियों को खिला
जाती हैं। परन्तु कभी-कभी सुधार
होते-होते बच्चों की हालत में
अचानक यूँ गिरावट आ जाती कि
हम डाक्टरों के हाथ-पैर फूल
जाते। खिलौना गिरकर टूट जाने
पर बच्चे जैसे मचल जाते हैं,
उसी तरह हम डाक्टरों का दिल
रो पड़ता है, जब कोई बच्चा हमारे
उपचार की गिरफ्त से छूटकर अपनी
चिर-स्मरणीय यादों को बिखेरता
चिरनिद्रा के अधीन हो जाता
है। तब अंतः की चोट इतनी गहरी
होती है कि कुछ करने का मन ही
नहीं लगता। लेकिन तभी वार्ड
से किसी अन्य बच्चे का क्रन्दन
हमें आकृष्ट करता है -- हमें
अपना कर्तव्य-बोध कराता हुआ
-- और हम दौड़ पड़ते हैं और इतने
व्यस्त हो जाते हैं कि अंतः
की सारी पीड़ा की तबदीली कर्तव्यपालन
में हो जाती है।
मुझे
याद है कि उस समय अस्पताल में
इसी तरह की गहरी खामोशी छाई
हुई थी, जब नर्स गोद में एक तीन
साल की बच्ची को लेकर दौड़ती
हुई मेरे सामने आ खड़ी हुई थी।
उस दर्द का एहसास आज भी ताजा
है, जब फूल-सी सुकुमार उस नन्हीं
बच्ची को सुई मुझे लगानी पड़ी
थी। ऐसा प्रतीत हुआ था जैसे
मैं गुलाब की पंखुडी़ में काँटा
चुभाने की कोशिश कर रहा था और
जब उसकी महीन नसें जल्द नजर
आईं थी तो दो-तीन बार सुई चुभानी
पड़ी थी। टाइफाइड़ के तेज बुखार
से बच्ची सुस्त असहाय-सी पड़ी
थी। फिर भी सुई की चुभन ने उसके
गुलाबी गालों में असह्य वेदना
जगा दी थी। उसकी हालत बता रही
थी कि करीब दो सप्ताह से वह इस
बीमारी से जूझ रही थी। इतनी
नन्हीं बच्ची पर लगे बुखार
के तीक्ष्ण बाण, भीष्म पितामह
को लगे तीर की तरह ही दुखदायी
रहे होंगे। बेचारी रह-रहकर
अचेतनावस्था में खुली आँखों
से चारों ओर देखती और कुछ बड़बड़ाती
रही। सुन्दर बच्चों की बीमारी,
उन्हें और भी प्यार व दया का
पात्र बना देती है। उसे देख
सभी डाक्टर ठिठककर एक क्षण
खड़े हो जाते थे और नर्स अपने
रुमाल से आँसू पोंछती नजर आती
थी। अस्पताल में यूँ भावुक
होना शोभा तो नहीं देता -- पर
जब हमें बच्चों को देने कुछ
रहता ही नहीं तो आँसू से छलकता
प्यार देना ही अच्छा लगता है।
पर
शैली तीसरे ही दिन टाईफाइड़
के बुखार को नकारती हुई, अचानक
फुदकने लगी थी। सच है, बच्चे
अतीत का दर्द जल्द भुला देते
हैं और भविष्य की पीड़ा से अनजान
हो बस अपनी खुशी से वर्तमान
में खुशी भर देना जानते हैं।
उसकी मीठी आवाज ने वार्ड के
सारे लोगों को अपना ‘फैन’ बना
लिया था। परन्तु न जाने क्यों
मैं इन फरिश्तों जैसे अस्पताल
में आये बच्चों के प्रति ज्यादा
चिंतित हो जाता हूँ। सोचता
हूँ कि यह डाक्टरी पेशे की दलदल
है जहाँ वहमों के कीड़े कुछ जल्दी
किलबिलाने लगते हैं। शायद इसका
कारण यह है कि यहाँ जीवन व मृत्यु
की कश्मकश सदा कायम रहती है।
और फिर शैली
में एक और विशेषता थी। वह सुबह
उठकर नियमित रूप से ईश्वर का
नमन करती और बीमार बच्चों के
पास जाकर ‘शुभ प्रातः’ कहती
और उनसे दो-चार बातें करती थी।
जिस बच्चे के पास वह किन्ही
कारणों से न पहुँच पाती, उसकी
हालत हमारी चिन्ता का कारण
बन जाती थी। यह बात शनैः शनैः
पूरा वार्ड जान गया था और बच्चों
के सभी पालक चाहते थे कि शैली
उनके बच्चे के पास आये। मैं
भी कठीनतम केस में शैली का हाथ
पकडकर ले जाता और जादुई करिश्मा
देखता। शैली इस बात में सिर्फ
मेरा कहना मानती थी। अन्य डाक्टर
या नर्स के कहने पर वह टस से
मस नहीं होती थी। इस तरह वार्ड
में शैली के साथ मेरा भी महत्व
बढ़ गया था। पर मेरा मन कहता कि
ऐसे अंधविश्वास या जादुई बातों
का अस्पताल में कोई स्थान नहीं
होना चाहिये। लेकिन कभी कभी
सोचता कि आस्था व श्रद्धा भी
दुआ की तरह दवा का काम करती है।
भूपेन्द्र कुमार दवे |
लाचारी
बहुधा आस्था की शरण चाहती है।
पिंटू को ही लीजिये। साल भर
से अस्पताल में भर्ती था और
स्टाफ के बीच खूब घुलमिल गया
था। प्रायः सभी के काम में हाथ
बँटाया करता था। लुकोमिया भी
शायद उसके इस व्यवहार को देख
किश्तों में उसे जिन्दगी देती
जा रही थी। उस पर उपचार सफल तो
दिखता था, पर वास्तव में सभी
जानते थे कि वह कुछ ही दिनों
का मेहमान बना हुआ था। वह हमेशा
प्रसन्नचित्त रहता व सबको हँसाने
की कोशिश करता था। उसे देख अहसास
होता कि बच्चों के चेहरे पर
खिलती एक मंद मुस्कान पूरे
दिन को पवित्र करने काफी होती
है। मनुष्य मृत्यु के पीछे
भागता नजर नहीं आता, मृत्यु
तो उसके सामने आगे की ओर खिसकती
नजर आती है। सच में, पिंटू के
शरीर ने ‘रक्तसेल’ बनाना छोड़
दिया था और उसे गंभीर हालत में
आई.सी.यू. में भेज दिया गया था।
‘वह
कुछ ही दिन का मेहमान है,’ मैंने
शैली से कहा था, ‘क्या तुम उससे
आई.सी.यू. में मिलना चाहोगी?’
‘हाँ,’
शैली उत्तर दिया था।
अतः
मैं ड्यूटी पर न होकर भी दूसरे
दिन सुबह अस्पताल पहुँच गया।
शैली मेरे इंतजार में थी। मुझे
देखते ही बोली, ‘अंकल! क्या आपकी
घड़ी धीरे चलती है?’
‘मुझे
माफ करना, बेटी,’ मैंने कहा था।
‘मैं
क्या माफ करू? यदि आपकी सुबह
ही देर से होती है तो।’
जब
मैं शैली के साथ आई.सी.यू. में
पहुँचा तब पिंटू वहाँ नहीं
था। उसकी जगह सुभाष था जिसे
एक शाम पहले ही अस्पताल में
लाया गया था। टिटेनस की अपनी
जान लेवा अंगड़ाईयाँ उसके नाजुक
बदन को ऐंठ रहीं थी। उसके जबड़े
सख्त हो नीले पड़ रहे थे। शरीर
धनुष की तरह ऊपर उठता तो उसकी
साँसें फूलने लगती। रात भर
उसे ऐसे ही दौरे पड़ते रहे थे।
चूंकि पिंटू सुबह गुजर गया
था, इसलिये सुभाष को इसी आई.सी.यू.
में लाकर अंतिम प्रयास किया
जा रहा था। शैली ने मेरी तरफ
हाथ मटकाते हुये बस इतना कहा,
‘अंकल! आज अपनी सुबह तो सच में
देर से हुई।’
मैं
सोचता रहा कि सुबह तो हमेशा
अपने वक्त पर ही होती है। प्रश्न
तो सुबह की प्रथम किरण का होता
है - न जाने किस ओस की बूँद पर
उसे चमकना होता है?
हम सुभाष
के कमरे से वापस उदास लौट आये।
मैं जानता था कि सुभाष की हालत
गंभीर थी और उसे बचाने की उम्मीद
शून्य के लगभग थी। पर जब उसकी
तबीयत में अचानक सुधार देखा
गया तो मैं विस्मित-सा रह गया।
इधर
अस्पताल में मैनिग्जाईटिस
के केस एक के बाद एक आने चालू
हो गये थे और मैं व्यस्तता के
कारण शैली व उससे जुड़ी मान्यताओं
को करीब भूल चुका था। अस्पताल
में आठ बच्चे मैनिग्जाईटिस
के भर्ती हुए जिनमें सातवें
नंबर के बच्चे के दाखिले के
समय मेरी ड्यूटी थी। फार्म
भरते समय जब मैंने ऊपर नजर उठाई
तो सामने स्मिता को देखा। शायद
तब मुझे अहसास हुआ कि हर बच्चे
के अस्पताल में भर्ती के वक्त
बच्चे की माँ भी अस्पताल में
भर्ती होती है।
स्मिता
से मेरा पूर्व परिचय था। वह
मात्र परिचय ही नहीं, बल्कि
एक ऐसा संबंध था, जिसे अतीत के
क्षणों को याद न रखने का स्वाँग
रचकर भी भूल जाने का नाटक ही
कहा जा सकता था। स्मिता चुप
ही रही थी। अतीत के आस्माँ में
प्यार के चहकते पक्षी जब आहत
होकर जमीन पर गिरते हैं तो खामोश
ही रहते हैं। फलतः मैं भी चुप
रहा। परन्तु मैनिग्जाईटिस
का यह सातवाँ बच्चा स्मिता
का है, इस कल्पना मात्र ने मेरे
मनःस्थिति के चिन्ता के अध्याय
में तीव्र पीड़ा के पृष्ठ जोड़
दिया था। मैनिग्जाईटिस किसी
पर रहम जताना नहीं जानती, लेकिन
मैंने नामुमकिन को ही कर दिखाने
की ठान ली थी।
उस
बच्चे को छूते ही उसके रोने
की तीखी आवाज वार्ड की दीवारों
से टकरा कर प्रतिध्वनित हो
मुझे विचलित करने की कोशिश
करती रही। मैनिग्जाईटिस के
बच्चे एक के बाद एक चिरनिद्रा
के अधीन होते जा रहे थे। हर मौत
के साथ वार्ड का वातावरण बोझिल
होता जा रहा था। मेरे मित्र
डाक्टर के शब्द रह रहकर मेरे
मस्तिष्क में गूँज रहे थे, ‘ओनली
डेथ इज इटरनल’ (सिर्फ मृत्यु
ही अजर अमर होती है)। मैं परेशान
था क्योंकि अब सातवें बच्चे
की बारी थी। मेरी क्षमता की
परीक्षा थी और एक द्वंद था जो
स्मिता के बच्चे को हर हालत
में बचा लेने के मेरे प्रण को
मात देने की कोशिश कर रहा था।
और
निराशा का बोझ चरम बिन्दु पर
जब पहुँचा तो मैं शैली के पलंग
की तरफ लपका -- शायद वही कुछ जादू
कर सकती थी। लेकिन मैंने देखा
कि शैली उस समय डाक्टरों से
घिरी थी। मैं स्मिता के बच्चे
में इतना व्यस्त हो गया था कि
मुझे पता ही नहीं चला कि टाईफाईड
ने अपना दूसरा प्रहार शैली
पर कर दिया था। ‘रिलैप्स्ड
टाईफाईड’ गंभीर रूप का होता
है। मैंने वहीं स्मिता को खड़े
देखा। उसकी आँखें नम थी। क्या
वह भी शैली के जादुई करिश्मे
की तलाश में वहीं आ पहुँची थी?
क्या वह सातवें बच्चे की जिन्दगी
के लिये मेरी ही तरह निराश होकर
उधर आयी थी? क्या उसे मेरी क्षमता
पर शंका थी?
मैं
स्मिता की ओर दो कदम बढ़ा, पर
रुक गया। नहीं! शैली अब भी मेरी
ऊँगली पकड़कर सातवें बच्चे तक
चल सकेगी और मैं स्मिता को यूँ
हताश होने नहीं दूँगा। पर जब
तक ये विचार कुछ सँभलते, तब तक
डाक्टर शैली के पलंग के पास
बिखरे कोहरे की तरह हटने लगे
थे। ‘शैली इज नो मोर’ (शैली अब
नहीं है) सुनकर मैं सिर से पैर
तक सिहर उठा। ‘स्मिता, अब मैं
तुम्हारे उस बच्चे को कैसे
बचा पाऊँगा?’ ये शब्द कंठ तक
आकर रुक गये।
मैं
भारी कदमों से शैली के पलंग
की ओर बढ़ा। उसके चेहरे पर वही
चिरपरिचित मुस्कान तैर रही
थी जो मुझे हर निराशा के वक्त
पर हिम्मत देती रही थी। अभी
तक मुझे लगा था कि बच्चे तभी
मुस्कराते हैं जब वे खुश होते
हैं या फिर दूसरों को खुश करना
चाहते है, पर अब पता चला कि वे
कभी कभी यूँ ही मुस्कराना चाहते
हैं -- अलौकिक मुस्कान बिखेरने
जो उन्हें ईश्वर से तोहफे के
रूप में मिलती है।
‘शैली,
मेरी प्यारी बच्ची’ ये शब्द
अनायास मेरे मुँह से निकल पड़े
और तभी पास खड़ी स्मिता को मैंने
देखा। वह ‘शैली, मेरी प्यारी
बच्ची’ कहकर उससे लिपटी रो
रही थी। मैं उसे ढाढ़स देने आगे
बढ़ा तो मित्र डाक्टर ने मुझे
रोक दिया, ‘शी इज हर मदर, लीव्ह
हर अलोन’ (वह उसकी माँ है, उसे
अकेला छोड़ दो)।
‘और
वह सातवाँ बच्चा ?’ मैंने प्रश्न
किया।
‘वह
मेरा है,’ पास खड़ी एक नर्स ने
कहा।
यह कहानी भूपेंद्र कुमार दवे जी द्वारा लिखी गयी है. आप मध्यप्रदेश विद्युत् मंडल से सम्बद्ध रहे हैं. आपकी कुछ कहानियाँ व कवितायें आकाशवाणी से भी प्रसारित हो चुकी है. 'बंद दरवाजे और अन्य कहानियाँ', 'बूंद- बूंद आँसू' आदि आपकी प्रकाशित कृतियाँ है.
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