sevasadan by premchand .सेवासदन प्रेमचंद द्वारा रचित उपन्यास है।नारी जीवन की समस्याओं के साथ-साथ समाज के धर्माचार्यों, मठाधीशों, धनपतियों, सुधारकों के आडंबर, दंभ, ढोंग, पाखंड, चरित्रहीनता, दहेज-प्रथा, बेमेल विवाह, पुलिस की घूसखोरी, वेश्यागमन, मनुष्य के दोहरे चरित्र, साम्प्रदायिक द्वेष आदि आदि सामाजिक विकृतियों के घृणित विवरणों से भरा उपन्यास सेवासदन (1916) आज भी समकालीन और प्रासंगिक बना हुआ है।
सामाजिक विकृतियों के घृणित विवरणों से भरा उपन्यास 'सेवासदन'
'अबला हाय जीवन तुम्हारी बस यही कहानी
आँचल में दूध आंखों में पानी '
उपन्यास -सेवासदन लेखक -प्रेमचंद |
मैथिली शरण गुप्त की यह पक्तियां उपन्यास सेवासदन के लिए जैसे लिखी गई हो। कहानी में नारी के जीवन के विभिन्न पहलूओं को इतनी पारदर्शिता से उजागर किया गया है कि आप खुद को नोवल को पढ़ने से नहीं रोक पाएंगे। नारी जाति की परवशता, निस्सहाय अवस्था, आर्थिक एवं शैक्षिक परतंत्रता, अर्थात नारी दुदर्शा पर आज के हिन्दी साहित्य में जितनी मुखर चर्चा हो रही है; बीसवीं सदी के प्रारंभिक चरण में, कथासम्राट प्रेमचंद (1880-1936) के यहाँ कहीं इससे ज्यादा मुखर थी। नारी जीवन की समस्याओं के साथ-साथ समाज के धर्माचार्यों, मठाधीशों, धनपतियों, सुधारकों के आडंबर, दंभ, ढोंग, पाखंड, चरित्रहीनता, दहेज-प्रथा, बेमेल विवाह, पुलिस की घूसखोरी, वेश्यागमन, मनुष्य के दोहरे चरित्र, साम्प्रदायिक द्वेष आदि आदि सामाजिक विकृतियों के घृणित विवरणों से भरा उपन्यास सेवासदन (1916) आज भी प्रासंगिक है। हर दृष्टि से यह उपन्यास एक धरोहर है। कहानी की नायिका समाज के द्वेष का शिकार है।
दहेज का दंश तब भी था और आज भी है
सालों पहले प्रेमचंद ने जिन सामाजिक कलंकों को उजागर किया था वह आज भी मौजूद हैं। सेवासदन
में दहेज प्रथा को मार्मिक रूप से चित्रित किया गया है कि किस प्रकार दहेज
की रमक चुकान में सक्षम न हो पाने के कारण एक ईमानदारी पिता अपनी ईमानदारी
को बेच देता है। कहानी के कुछ अंश इस प्रकार..पश्चाताप के कड़वे फल कभी-न-कभी सभी को चखने पड़ते हैं, लेकिन और लोग बुराईयों पर पछताते हैं, दारोगा कृष्णचन्द्र अपनी भलाइयों पर पछता रहे थे। उन्हें थानेदारी करते हुए पच्चीस वर्ष हो गए, लेकिन उन्होंने अपनी नीयत को कभी बिगड़ने नहीं दिया था। उनकी पत्नी गंगाजली सती-साध्वी पुत्री थी। उसने सदैव अपने पति को कुमार्ग से बचाया था। पर इस समय वह चिंता में डूबी हुई थी। दारोगा के सिवा घर में तीन प्राणी और थे; स्त्री और दो लड़कियाँ। अपनी बेटियों के लिए वर की खोज में दौड़ने लगे, कई जगहों से टिप्पणियां मंगवाईं। वह शिक्षित परिवार चाहते थे। वह समझते थे कि ऐसे घरों में लेन-देन की चर्चा न होगी, पर उन्हें यह देखकर बड़ा आश्चर्य हुआ कि वरों का मोल अनुसार है उनकी शिक्षा के। राशि वर्ण ठीक हो जाने पर जब लेन-देन की बातें होने लगतीं, तब कृष्णचन्द्र की आँखों के सामने अंधेरा छा जाता था। कोई चार हजार सुनाता। कोई पांच हजार और कोई इससे भी आगे बढ़ जाता। बेचारे निराश होकर लौट आते। इसमें संदेह नहीं कि शिक्षित सज्जनों को उनसे सहानुभूति थी; पर वह एक-न एक ऐसी पख निकाल देते थे कि कि दारोगाजी को निरुत्तर हो जाना पड़ता था। एक सज्जन ने कहा- महाशय, मैं स्वयं इस कुप्रथा का जानी दुश्मन हूँ, लेकिन क्या करूँ अभी पिछले साल लड़की का विवाह किया, दो हजार रुपये केवल दहेज में देने पड़े दो हजार और खाने पीने में खर्च करने पडे़, आप ही कहिए यह कमी पूरी हो कैसे? दूसरे महाशय इनसे अधिक नीतिकुशल थे। बोले-दारोगाजी, मैंने लड़के को पाला है, सहस्रों रुपये उसकी पढ़ाई में खर्च किए हैं। आपकी लड़की को इससे उतना ही लाभ होगा, जितना मेरे लड़के को। तो आप ही न्याय कीजिए कि यह सारा भार मैं अकेला कैसे उठा सकता हूँ?
आज के ढोंगी बाबाओं का प्रतीक मंहत
आज के इस विज्ञान के युग में भी ढोंगी बाबाओं से लोगों का पीछा छूट नहीं पाया है। कहानी का महंत रामदास इसका जीताजागता उदाहरण है। दारोगाजी के हल्के में एक महन्त रामदास रहता था। वह साधुओं की एक
गद्दी का महंत था। उसके यहाँ सारा कारोबार श्री बांकेबिहारीजी के नाम पर होता था। श्री बांकेबिहारीजी लेन-देन करता था। और बत्तीस रुपये प्रति सैकड़े से कम सूद न लेता था। वही मालगुजारी वसूल करते थे, रेहननामे-बैनामे लिखाता था। श्री बांकेबिहारीजी की रकम दबाने का किसी को साहस न होता था और न अपनी रकम के लिए कोई दूसरा आदमी उससे लड़ाई कर सकता था। महंत रामदास के यहाँ दस-बीस मोटे-ताजे साधु स्थायी रूप से रहते थे। वह अखाड़े में दंड पेलते, भैंस का ताजा दूध पीते संध्या को दूधिया भंग छानते और गांजे-चरस की चिलम तो कभी ठंडी न होने पाती थी। ऐसे बलवान जत्थे के विरुद्ध कौन सिर उठाता?
सुमन का चरित्रगद्दी का महंत था। उसके यहाँ सारा कारोबार श्री बांकेबिहारीजी के नाम पर होता था। श्री बांकेबिहारीजी लेन-देन करता था। और बत्तीस रुपये प्रति सैकड़े से कम सूद न लेता था। वही मालगुजारी वसूल करते थे, रेहननामे-बैनामे लिखाता था। श्री बांकेबिहारीजी की रकम दबाने का किसी को साहस न होता था और न अपनी रकम के लिए कोई दूसरा आदमी उससे लड़ाई कर सकता था। महंत रामदास के यहाँ दस-बीस मोटे-ताजे साधु स्थायी रूप से रहते थे। वह अखाड़े में दंड पेलते, भैंस का ताजा दूध पीते संध्या को दूधिया भंग छानते और गांजे-चरस की चिलम तो कभी ठंडी न होने पाती थी। ऐसे बलवान जत्थे के विरुद्ध कौन सिर उठाता?
दरोगाजी अपनी दोनों बेटियों से बहुत प्यार करते थे। बाजार में कोई तहदार कपड़ा देखकर उनका जी नहीं मानता था, लड़कियों के लिए अवश्य ले आते थे। उनकी दोनों लड़कियां कमल के समान खिलती जाती थीं, बड़ी लड़की सुमन सुंदर, चंचल और अभिमानी थी, छोटी लड़की शान्ता भोली, गंभीर, सुशील थी। सुमन दूसरों से बढ़कर रहना चाहती थी। यदि बाजार से दोनों बहनों के लिए एक ही प्रकार की साड़ियाँ आतीं। तो सुमन मुँह फुला लेती थी। शान्ता को जो कुछ मिल जाता, उसी में प्रसन्न रहती। दरोगाजी के जेल जाने तथा दहेज की रकम अदा करने में सक्षम न होने के कारण सुमन का विवाह गरीब गजाधर से कर दिया जाता है। पति द्वारा घर सेबाहर निकालने तथा सुमन की वैश्या वृति को अपना की कथा अत्यंत ही मार्मिक है। कहानी .यहीं खत्म नहीं होती है सुमन की दास्तां। विधवा आश्रम में उसके ठहराव तथा आश्रम से निकलने के बाद आत्यहत्या की कोशिश के समय गजाधर से उसकी भेंट कहानी केमहतपूर्ण अंश हैं। सुमन
कहानी की नायिका इसीलिए नहीं कि कहानी में उसक किरदार सबसे लंबा है लेकिन
वह इसीलिए नायिका है क्योंकि वह राह भटक कर पश्चाताप की जिंदगी अतिवाहित कर
रही हर नारी की वह प्रेरणा है। कहानी के अंत में सुमन सेवादसदन के लिए खुद को समर्पित कर देती है। यह संकेत है कि जिंदगी कांटों से भरे होने के बावजूद नई और खुशहाल जिंदगी की शुरुआत की जा सकती है।
सेवासदन उपन्यास पर इतिश्री सिंह के विचार
सेवासदन की रचना से पहले लेखक प्रेमचंद ने उर्दू में बाजारें-हुश्न की रचना की जिसका हिंदी अनुवाद सेवासदन
है। सेवासदन में सुमन का चरित्र इतना सशक्त है कि किसी और किरदार की तरफ आपका ध्यान कम ही जाएगा। उपन्यास में लगभग सभी समाजिक विकृतियों जिनकी उपस्थिति आज भी समाज में है, को लेखक प्रेमचंद ने भलीभांति उजागर किया है। इस बात से इंकार नहीं किया जाता कि नारी के संघर्ष की गाथा उपन्यास को महाउपन्यास का दर्जा देती है।
इतिश्री सिंह |
यह समीक्षा इतिश्री सिंह राठौर जी द्वारा लिखी गयी है . वर्तमान में आप हिंदी दैनिक नवभारत के साथ जुड़ी हुई हैं. दैनिक हिंदी देशबंधु के लिए कईं लेख लिखे , इसके अलावा इतिश्री जी ने 50 भारतीय प्रख्यात व्यंग्य चित्रकर के तहत 50 कार्टूनिस्टों जीवनी पर लिखे लेखों का अंग्रेजी से हिंदी अनुवाद किया. इतिश्री अमीर खुसरों तथा मंटों की रचनाओं के काफी प्रभावित हैं.