William Wordsworth,वी आर सेवन , यह एक कविता का नाम है, जिसे वर्ड्स्वर्थ कवि ने लिखा है और जो कवि की एक बच्चे से उसके परिवार के विषय मेँ पूछताछ के सिलसिले में हें . यह कविता होने को पांच पंक्तियोँ में समा सकती थी ,लेकिन यह करीब सत्तर शब्दों में हैं .
ऐसा कौन है जो मृत्यु से न डरता हो !
राबर्ट ब्राउनिंग ने तो मृत्यु से प्रोस्पिके कविता में , दो- दो हाथ करने का भी मन बनाया था .
अरेबिक भाषा में मृत्यु का उर्स शब्द मेँ जो अर्थ है, वह अच्छा लगा .उर्स अर्थात सगाई . व्यक्ति का परमेश्वर से मिलन . तब इसमें डर की कोई बात ही नहीं
सीजर ने तो मृत्यु के बारे में कि कायर मृत्यु से पहले कई- कई दफा मर जाते हैं , यह उक्ति एक नए धरातल पर सोचने को बाध्य करती है .
वर्ड्सवर्थ नेचर (प्रकृति) के कवि हैं टिनतर्न एबे , ओड ओन नेटिविटी और डेफोडिल उनकी ये कविताएं क्या भुलाई जा सकती हैं !
साक्षात में, सादृश्य में जो जीवन को पोषित कर रही है , वह प्रकृति ही है .
इस जीवन के अतिरिक्त, किसी और अस्तित्व को कई दर्शनशास्त्रियों ने नकार दिया है.
लेकिन
जैसा एक बार नवाब छतारी साहब ने कहा कि इस प्रकृति में एक डिजाइन है .आप
इस डिजाइन को नष्ट करने वाले नहीं वरन इसे संरक्षण देने और पोषित करने
वाले बनो .
नरोत्तम दास का कवित्त इस समय याद आ रहा है :
“ सिच्छक हो सिगरे जग को ..
औरन को धन चाहिए बावरि ,
. “
यह पीडा पूरे व्यक्तित्व को विद्रोह करने पर मजबूर करती है .
युधिष्ठिर का किमाश्चर्यम भी यही है .
नल और नील को यह पता ही नहीं कि वे इस तरह के इंजीनियर हें , किस तरह का हाथ का हुनर उनको हासिल है ,इस की कोई जानकारी उनको नहीं थी . .
मेरे मित्र का यह कहना था कि इन पंक्तियों का सही भावानुवाद हो जाए . इतनी भाव प्रवणता पता नहीं, आ पाएगी .
“ भाव का संसार अलग ही है, जैसा भूषण ने कहा कि
भाव उमगावे परि कहत न आवे...
बच्चे से कवि ने पूछा कि कितने भाई बहन हैं तो वह मृत और जीवित सब को गिनकर सात बता देती है ,
कवि जब कहता है कि दो भाई तो मर गए उनको क्यों गिन रही हो , तो बेटी अपना तर्क देकर
फिर उनको गिन कर संभाल लेती है .
बच्चों का जगत कोमलतम है .
जो बडे कह नहीं पाते , बच्चे सहज ही कह देते हैं , कोई बनावटीपन की बात नहीं
यह वही उमर है जिसके योवन पर कवि ने कहा था कि “ टू बी यंग वाज वेरी हैवन “
भाषा
और साहित्य हमें संस्कृति से जोडते हैं. स्वजन और संस्कार कभी भी हमारे
ऊपर बोझ नहीं होते. एक बार की बात है कि एक कन्या अपनी मां को कहीं ली जा
रही थी . वाहन उस मार्ग पर था नहीं, इसलिए व हा कंधे पर ही ले जा रही थी . एक सज्जन जो अपने भाई को उसी तरह ले जा रहे थे .कुछ देर बाद जब वे एक पेड के नीचे आराम करने को रुके , तो वह सज्जन उस कन्या से बोले लगता है कि बोझ से थक गई हो ,तब उसने कहा कि ये तुमने क्या कहा ? क्या स्वजन कभी बोझ होते हैं ?
तो ये कन्या जिससे उस कवि का वार्तालाप हुआ वह साक्षात संस्कृति की संवाहक है .
संस्कृति हमें जीवित क्या, मृत हों, सभी से भी जोडती है , चाहे वह भाषा हो साहित्य हो या व्यक्ति .
मुश्किल की बात है कि कुछ चीजें बीच में एसी हैं जो स्वीकार योग्य नहीं हैं .
साहित्यकार या भाषा से जुडे मनीषी , किसी भी राजनीति से प्रेरित नहीं होते वे जन कल्याण को ज्यादा महत्व देते हैं . राष्ट्रीय चिंतन की बात है कि शुद्ध संस्थान से जुडे व्यक्ति जब बिना किसी कारण के त्यागपत्र देने पर मजबूर किए जाते हैं ,
जब एक नई सरकार आती है तो बिना मतलब के उनको भी यह दिन देखना पडता है . यह
राष्ट्र के लिए वांछित नहीं हैं . उनको भी राजनीति की नज़र लग जाती है ,आप को याद आया कि नहीं एक गीत जिसके बोल कुछ इस तरह थे कि
आईना ज़रा निहार लूं मैं ,
खुद अपनी नज़र उतार लूं , मैं,
मजबूरी ये है कि वे अपनी नज़र उतार नहीं सकते और पद से ही उतर कर सांस आती है . मैं जो इशारा कर रहा हूं उसे आप समझ गए होंगे.
उससे
भी ज्यादा महत्व की बात है कि किशोर वय के बच्चों के बर्ताव पर नज़र रखना .
वे ऊपर से कुछ और और अंदर से कुछ और हो जाते हैं या फिर डोन क्वीजोट
और उससे भी बढकर सोचने लग जाते हैं , जो उनके लिए सर्वथा घातक होता है .
क्षेत्रपाल शर्मा |
परिस्थितिवश किए गए काम पर कभी पश्चाताप की नौबत नहीं आती
जीवन
का आनन्द दुख और सुख दोंनों में हैं, और यह प्रतिदिन स्रवित होगा . यह
थोक के भाव नहीं मिलेगा. उस मुर्गी की तरह जो रोज़ सोने का अंडा तो जरूर
देगी परंतु चाकू के वार की कीमत पर नहीं .
यह रचना क्षेत्रपाल शर्मा जी, द्वारा लिखी गयी है। आप वर्त्तमान में राष्ट्रीय बाल भवन में हिंदी विशेषज्ञ का काम कर रहें हैं । आप एक कवि व अनुवादक के रूप में प्रसिद्ध है। आपकी रचनाएँ विभिन्न समाचार पत्रों तथा पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुकी है। आकाशवाणी कोलकाता, मद्रास तथा पुणे से भी आपके आलेख प्रसारित हो चुके है .