आज पड़ोसी राज्य की भाषा को तो रोक नहीं पाते, उसी प्रकार कुछ समय प्रयोग के बाद पड़ोसी देश की भाषा के शब्दों को भी रोक नहीं पाएंगे.
भाषा के लिए प्रवाहमयी होना बहुत जरूरी है क्योंकि प्रवाहमय़ी होना ही भाषा के जीवंतता की निशानी है. यह प्रवाह उत्पन्न होता है उसके दैनं-दिन प्रयोग से. भाषा उस सरिता के समान है जिसमें नित नया जल आता है और पुराना जल भाषा के साहित्य - सागर में समा जाता है. इससे साहित्य भी समृद्ध होता है. यदि भाषा का प्रयोग रुकने लगे तो प्रवाह भी घट कर कमतर हो जाता है और फलस्वरूप भाषा की जीवंतता लुप्त होने लगती है और वह जड़ता को मुखरित होता जाता है.
भाषा की जीवंतता उसके प्रयोग करने वाले पर निर्भर करती है. यदि भाषा का प्रयोग स्थिर हो जाए तो भाषा भी स्थिर हो जाती है. नित नए प्रयोग कर आवश्यकता वश, मजबूरी वश और कभी आदतन नए शब्दों का प्रयोग करते हैं और जब उनका प्रचलन बढने लगता है, तो धीरे धीरे वे शब्द भाषा में समाने लगते हैं. यह किसी पुराने शब्द का कोई नया रूप हो सकता है, या किसी अन्य भाषा के शब्दों का हिंदीकृत रूप हो सकता है. वक्ता के अपने क्षेत्र का कोई प्रचलित श्बद भी हो सकता है या फिर किसी अन्य भाषा का कोई शब्द जो प्रचलन में है, वह भी हो सकता है. रेल्वे स्टेशन, बरसात, टाई कुछ ऐसे ही शब्द हैं. ये शब्द भले ही व्युत्पत्ति के तौर पर परभाषा शब्द हैं लेकिन प्रचलन व प्रयोग के कारण अब हिंदी में समा गए हैं. इनके पर्यायवाची शब्द बहुत से हिंदी भाषियों को पता भी न हो शायद.
भाषा – बोलने व लिखने वाली अलग ही होती है. लिखावटी भाषा ज्यादा सुशील होती है, जबकि बोली में कुछ खुलापन होता है. इसमें क्षेत्रीय लहजा व शब्द दोनों भरपूर समाए होते हैं. शायद इसलिए कि लिखी हुई भाषा का रिकॉर्ड रह जाता है.
कुछ शब्द ऐसे भी है जिनमें ज्य़ादा अर्थ समाया होता है – जैसे फेच (Fetch), जिसका अर्थ होता है - लेकर आना या जाकर ले आना. इसलिए अंग्रेजी के जानकार हिंदी में भी ऐसे शब्दों को जोड़कर अपनी बात कह लेते हैं. वे भाषा की मूलता पर ध्यान नहीं देते बल्कि अपनी बात, आसानी से कहना उनका ध्येय रह जाता है. ऐसे में भाषा नए शब्दों का प्रयोग करती नजर आती है. यदि ऐसे शब्द सुन - सुन कर अन्य भी प्रयोग करने लगे, तो प्रचलन वश वे भाषा का अंग बनते जाते हैं.
यदि इसी तरह विभिन्न भाषा के शब्द हिंदी में समाते रहेंगे तो, हिंदी समृद्ध होती जाएगी. लेकिन यहाँ अड़चनें अलग अलग तरह की हैं. भाषा में अन्य भाषाओं के शब्दों को अपनाना कईयों को ना पसंद है. कुछ तो यह भी कहते हैं कि दूसरी भाषा के शब्दों को कुछ हेर - फेर करके अपनाना चाहिए ताकि उन्हे न लगे कि हिंदी, उनकी भाषा के शब्दों से धनी हो रही है. मुझे यह सोच द्वेशपूर्ण लगती है. कुछ का (मेरा भी) मानना है कि अन्य भाषाई शब्दों को वैसे ही अपनाने से उनके अर्थों में भिन्नता या संशय को स्थान नहीं मिलता और सुचारू रूप से वे भाषा में समा जाती हैं. इससे जहाँ अन्य भाषायी खुश होते हैं कि हिंदी ने हमारी भाषा के शब्दों को अपनाया, हिंदी भी समृद्ध होती रहती है. इससे परस्पर भाषायी मेल - जोल बढ़ता है. दोनों भाषा के लोग उस शब्द को एक ही अर्थ से जानते हैं.
विश्व की सबसे समृद्ध कही जाने वाली भाषा अंग्रेजी में भी लेटिन, ग्रीक, फ्रेंच, जर्मन इत्यादि के अलावा हिंदी के शब्द भी समाए हैं. समय - समय पर अंग्रेजी के ऑक्सफोर्ड डिक्शनरी में नए शब्दों के समाहिती की खबरें अखबारों में देखने को मिलते हैं. इसी तरह अन्य भाषाविदों को भी चाहिए कि वे अपनी भाषा की सम्पन्नता बनाए रखने के लिए दूसरी भाषाओं के शब्दों को समय समय पर हालातों के मद्दे नजर समाहित करते रहें. भाषा में नए शब्दों को आत्मसात् होने दें. इसमें किसी तरह का व्यवधान न बनें.. इससे भाषा का प्रवाह व उसकी जीवंतता बनी रहेगी. जब सबसे समृद्ध भाषा ही अन्य भाषा के शब्दों को अपना सकती है तो हम क्यों शरमाएं. इसमें किस प्रकार का नुकसान है – पूरा भला ही भला है. क्या ऐसा समझा जाए कि यह हिंदी भाषियों का गुरूर या घमंड है जो उन्हें अन्य भाषाओं के शब्दों को अपनाने से रोकता है.
कबीरदास ने कहा ही है –
वैसे भी पहले से ही हिंदी में कई भाषा के शब्द तो समाए हुए हैं. – अंग्रेजी, पश्तो, लेटिन, ग्रीक, उर्दू, संस्कृत इत्यदि भाषाओं के शब्द तो हिंदी में नजर आते हैं. हिंदी की इस विधा पर तो कई पुस्तक लिखे जा चुके हैं. शब्दों की तो छोड़ें- पुस्तकों की सूची भी देना यहाँ संभव नहीं है.
कई बार तो भाषा के शब्द उसे बलने वालों के रहन सहन पर भी निर्भर कर जाती है. जैसे माँग – हिंदी मे इसे अंग्रजी के DEMAND से जोड़ा जाता है. इसके अलावा बालों को बाँटने वाली रेखा को भी हिंदी में माँग कहा जाता है. अंग्रेजों में ऐसी आदत नहीं है इसलिए उनकी भाषा में यह शब्द नहीं है. शायद अब अंग्रेजी मे हिंदी के माँग शब्द को अपना लिया है. ऐसे एक नहीं कई उदाहरण मिलेंगे.
अब जब हम पाश्चात्य सभ्यता को धडल्ले से अपना रहे हैं तो अनकी भाषाओं के कई शब्द हिंदी में जुड़ जा रहे हैं. कम्प्यूटर, फेशन व सेक्स संबंधी न जाने कितने शब्द अपने आप हमारी भाषा में समाहित हो गए. वसुधैव कुटुंबकम् का सिद्धाँत यदि सही मायनें में लागू किया गया तो आपस में हिल - मिल कर, मिल - जुल कर कुछ अर्से बाद विश्व में केवल एक ही भाषा रह जाएगी. सारी भाषाएं दूसरी भाषाओं की ओर खिंचती हुई एकीकार होने लगेंगी. अंत में उत्पन्न भाषा न हीं हिंदी होगी और न ही अंग्रेजी या जर्मन.. यह एक नई भाषा होगी - जो सबको समाते हुए भी सबसे अलग होगी.
पर वह दिन अभी दूर है तब तक हम कछुए की,चाल से ही सही भाषा - एतर शब्दों को समाहित व आत्मसात् करते हुए, अपनी भाषा को समृद्ध व प्रवाहमय़ी बनाए ऱखें एवं उसकी सार्थकता और जीवंतता में वृद्धि करते रहे तो हम सबके लिए बेहतर होगा.
आज पड़ोसी राज्य की भाषा को तो रोक नहीं पाते, उसी प्रकार कुछ समय प्रयोग के बाद पड़ोसी देश की भाषा के शब्दों को भी रोक नहीं पाएंगे. इसलिए अच्छा ही होगा कि हम मजबूरी वश नहीं, बल्कि सहर्ष इन्हें स्वीकार करें.
इससे पड़ोसी भी खुश होगा, भाषा भी खुश होगी, भाषा बोलने वाले भी खुश रहेंगे – सबसे बेहतर - भाषा, देश और विश्व हित की ओर - यह एक छोटा सा कदम होगा..
भाषा की समृद्धि बढेगी सो अलग.
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भाषा की जीवंतता उसके प्रयोग करने वाले पर निर्भर करती है. यदि भाषा का प्रयोग स्थिर हो जाए तो भाषा भी स्थिर हो जाती है. नित नए प्रयोग कर आवश्यकता वश, मजबूरी वश और कभी आदतन नए शब्दों का प्रयोग करते हैं और जब उनका प्रचलन बढने लगता है, तो धीरे धीरे वे शब्द भाषा में समाने लगते हैं. यह किसी पुराने शब्द का कोई नया रूप हो सकता है, या किसी अन्य भाषा के शब्दों का हिंदीकृत रूप हो सकता है. वक्ता के अपने क्षेत्र का कोई प्रचलित श्बद भी हो सकता है या फिर किसी अन्य भाषा का कोई शब्द जो प्रचलन में है, वह भी हो सकता है. रेल्वे स्टेशन, बरसात, टाई कुछ ऐसे ही शब्द हैं. ये शब्द भले ही व्युत्पत्ति के तौर पर परभाषा शब्द हैं लेकिन प्रचलन व प्रयोग के कारण अब हिंदी में समा गए हैं. इनके पर्यायवाची शब्द बहुत से हिंदी भाषियों को पता भी न हो शायद.
भाषा – बोलने व लिखने वाली अलग ही होती है. लिखावटी भाषा ज्यादा सुशील होती है, जबकि बोली में कुछ खुलापन होता है. इसमें क्षेत्रीय लहजा व शब्द दोनों भरपूर समाए होते हैं. शायद इसलिए कि लिखी हुई भाषा का रिकॉर्ड रह जाता है.
कुछ शब्द ऐसे भी है जिनमें ज्य़ादा अर्थ समाया होता है – जैसे फेच (Fetch), जिसका अर्थ होता है - लेकर आना या जाकर ले आना. इसलिए अंग्रेजी के जानकार हिंदी में भी ऐसे शब्दों को जोड़कर अपनी बात कह लेते हैं. वे भाषा की मूलता पर ध्यान नहीं देते बल्कि अपनी बात, आसानी से कहना उनका ध्येय रह जाता है. ऐसे में भाषा नए शब्दों का प्रयोग करती नजर आती है. यदि ऐसे शब्द सुन - सुन कर अन्य भी प्रयोग करने लगे, तो प्रचलन वश वे भाषा का अंग बनते जाते हैं.
यदि इसी तरह विभिन्न भाषा के शब्द हिंदी में समाते रहेंगे तो, हिंदी समृद्ध होती जाएगी. लेकिन यहाँ अड़चनें अलग अलग तरह की हैं. भाषा में अन्य भाषाओं के शब्दों को अपनाना कईयों को ना पसंद है. कुछ तो यह भी कहते हैं कि दूसरी भाषा के शब्दों को कुछ हेर - फेर करके अपनाना चाहिए ताकि उन्हे न लगे कि हिंदी, उनकी भाषा के शब्दों से धनी हो रही है. मुझे यह सोच द्वेशपूर्ण लगती है. कुछ का (मेरा भी) मानना है कि अन्य भाषाई शब्दों को वैसे ही अपनाने से उनके अर्थों में भिन्नता या संशय को स्थान नहीं मिलता और सुचारू रूप से वे भाषा में समा जाती हैं. इससे जहाँ अन्य भाषायी खुश होते हैं कि हिंदी ने हमारी भाषा के शब्दों को अपनाया, हिंदी भी समृद्ध होती रहती है. इससे परस्पर भाषायी मेल - जोल बढ़ता है. दोनों भाषा के लोग उस शब्द को एक ही अर्थ से जानते हैं.
विश्व की सबसे समृद्ध कही जाने वाली भाषा अंग्रेजी में भी लेटिन, ग्रीक, फ्रेंच, जर्मन इत्यादि के अलावा हिंदी के शब्द भी समाए हैं. समय - समय पर अंग्रेजी के ऑक्सफोर्ड डिक्शनरी में नए शब्दों के समाहिती की खबरें अखबारों में देखने को मिलते हैं. इसी तरह अन्य भाषाविदों को भी चाहिए कि वे अपनी भाषा की सम्पन्नता बनाए रखने के लिए दूसरी भाषाओं के शब्दों को समय समय पर हालातों के मद्दे नजर समाहित करते रहें. भाषा में नए शब्दों को आत्मसात् होने दें. इसमें किसी तरह का व्यवधान न बनें.. इससे भाषा का प्रवाह व उसकी जीवंतता बनी रहेगी. जब सबसे समृद्ध भाषा ही अन्य भाषा के शब्दों को अपना सकती है तो हम क्यों शरमाएं. इसमें किस प्रकार का नुकसान है – पूरा भला ही भला है. क्या ऐसा समझा जाए कि यह हिंदी भाषियों का गुरूर या घमंड है जो उन्हें अन्य भाषाओं के शब्दों को अपनाने से रोकता है.
कबीरदास ने कहा ही है –
लघुता से प्रभुता मिले, प्रभुता से प्रभु दूरि,
चींटी ले शक्कर चली, हाथी के सिर धूरि.
इसलिए हमें विनम्र होकर परभाषा शब्दों को अपनाना चाहिए.वैसे भी पहले से ही हिंदी में कई भाषा के शब्द तो समाए हुए हैं. – अंग्रेजी, पश्तो, लेटिन, ग्रीक, उर्दू, संस्कृत इत्यदि भाषाओं के शब्द तो हिंदी में नजर आते हैं. हिंदी की इस विधा पर तो कई पुस्तक लिखे जा चुके हैं. शब्दों की तो छोड़ें- पुस्तकों की सूची भी देना यहाँ संभव नहीं है.
कई बार तो भाषा के शब्द उसे बलने वालों के रहन सहन पर भी निर्भर कर जाती है. जैसे माँग – हिंदी मे इसे अंग्रजी के DEMAND से जोड़ा जाता है. इसके अलावा बालों को बाँटने वाली रेखा को भी हिंदी में माँग कहा जाता है. अंग्रेजों में ऐसी आदत नहीं है इसलिए उनकी भाषा में यह शब्द नहीं है. शायद अब अंग्रेजी मे हिंदी के माँग शब्द को अपना लिया है. ऐसे एक नहीं कई उदाहरण मिलेंगे.
रंगराज अयंगर |
पर वह दिन अभी दूर है तब तक हम कछुए की,चाल से ही सही भाषा - एतर शब्दों को समाहित व आत्मसात् करते हुए, अपनी भाषा को समृद्ध व प्रवाहमय़ी बनाए ऱखें एवं उसकी सार्थकता और जीवंतता में वृद्धि करते रहे तो हम सबके लिए बेहतर होगा.
आज पड़ोसी राज्य की भाषा को तो रोक नहीं पाते, उसी प्रकार कुछ समय प्रयोग के बाद पड़ोसी देश की भाषा के शब्दों को भी रोक नहीं पाएंगे. इसलिए अच्छा ही होगा कि हम मजबूरी वश नहीं, बल्कि सहर्ष इन्हें स्वीकार करें.
इससे पड़ोसी भी खुश होगा, भाषा भी खुश होगी, भाषा बोलने वाले भी खुश रहेंगे – सबसे बेहतर - भाषा, देश और विश्व हित की ओर - यह एक छोटा सा कदम होगा..
भाषा की समृद्धि बढेगी सो अलग.
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यह रचना माड़भूषि रंगराज अयंगर जी द्वारा लिखी गयी है . आप इंडियन ऑइल कार्पोरेशन में कार्यरत है . आप स्वतंत्र रूप से लेखन कार्य में रत है . आप की विभिन्न रचनाओं का प्रकाशन पत्र -पत्रिकाओं में होता रहता है . संपर्क सूत्र - एम.आर.अयंगर. , इंडियन ऑयल कार्पोरेशन लिमिटेड,जमनीपाली, कोरबा. मों. 08462021340
"भाषा भावों को प्रकाशित करने का साधन है,परिभाषा प्रकाशित भावों का संतुलित परिचय देकर उसके स्वरूप को स्पष्ट करती है....."
जवाब देंहटाएंनीतू जी,
हटाएंबहुत सुंदर भाव प्रकट किए हैं आपने,
धन्यवाद...
अयंगर.
भाषा में आवश्यकतानुसार अन्य भाषाओं के शब्दों को समावेशित करना अच्छा हैं पर यह न हो कि इन शब्दों की भरमार हो जाए.लेख अच्छा है.
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