अच्छा ही किया, जो जख्म दे दिए तूने ऐ जालिम, बरना जीते किसके सहारे से, पहाड़ सी इस जिंदगी को हम l
अच्छा ही किया,
जो जख्म दे दिए तूने ऐ जालिम,
बरना जीते किसके सहारे से,
पहाड़ सी इस जिंदगी को हम l
दिन बोझिल,रात बोझिल ,
अपनी तो हर सांस बोझिल,
मर चुके हैं अरमां ,
टपकता है खून जज्बातों से ,
अपने ही साये में,
मुझे नज़र आता है एक कातिल l
चौहदवी का चाँद तो,
निकलता है आज भी,
बहारों के मौसम, सुना है ,
आज भी साजगार हैं ,
मगर क्यों फर्क महसूस करता हूँ ,
मैं हर चीज़ में l
क्यों बढ़ गए है फासलें,
क्यूँ सिमट गई है मंजिलें,
भटक रहा हूँ मैं क्यूँ बेसबव,
दुनिया के इस काफिले में l
हर उम्रे दौर गुजरा है अब तलक ,
घुट -2 कर ए - जालिम ,
जिंदगी इक उम्र कैद हो गई हो जैसे l
मैंने ही खता की थी,
तुम्हे चाहकर शायद,
तुमने तो कभी उस नज़र से,
देखा ही नहीं मुझे l
याद आता है आज भी ,
वो गुजरा जमाना ,
रकीबों की गली में ,
मैं दोस्त ढून्ढता था ,
अंधों के शहर में,
मैं बेचता था आईने ,
था हर अंदाज जुदा ,
उस गुजरे ज़माने का,
बेवफा लोगो की महफ़िल में ,
मैं जिक्र करता था वफ़ा का l
जिन्हें करीब पाकर,
मैंने जाना था अपनी हस्ती को ,
वो ही चाँद लोग बदले,
मौसम की तरह,
और मिटा कर रख दिया,
मेरी हस्ती को l
अच्छा ही किया,
जो जख्म दे दिए तूने ,
वरना जीते किसके सहारे,
पहाड़ सी इस जिंदगी को l
जो जख्म दे दिए तूने ऐ जालिम,
बरना जीते किसके सहारे से,
पहाड़ सी इस जिंदगी को हम l
दिन बोझिल,रात बोझिल ,
अपनी तो हर सांस बोझिल,
मर चुके हैं अरमां ,
टपकता है खून जज्बातों से ,
अपने ही साये में,
मुझे नज़र आता है एक कातिल l
चौहदवी का चाँद तो,
निकलता है आज भी,
बहारों के मौसम, सुना है ,
आज भी साजगार हैं ,
मगर क्यों फर्क महसूस करता हूँ ,
मैं हर चीज़ में l
क्यों बढ़ गए है फासलें,
क्यूँ सिमट गई है मंजिलें,
भटक रहा हूँ मैं क्यूँ बेसबव,
दुनिया के इस काफिले में l
हर उम्रे दौर गुजरा है अब तलक ,
घुट -2 कर ए - जालिम ,
जिंदगी इक उम्र कैद हो गई हो जैसे l
मैंने ही खता की थी,
तुम्हे चाहकर शायद,
तुमने तो कभी उस नज़र से,
देखा ही नहीं मुझे l
याद आता है आज भी ,
वो गुजरा जमाना ,
रकीबों की गली में ,
मैं दोस्त ढून्ढता था ,
अंधों के शहर में,
मैं बेचता था आईने ,
था हर अंदाज जुदा ,
उस गुजरे ज़माने का,
बेवफा लोगो की महफ़िल में ,
मैं जिक्र करता था वफ़ा का l
मनोज चौहान |
मैंने जाना था अपनी हस्ती को ,
वो ही चाँद लोग बदले,
मौसम की तरह,
और मिटा कर रख दिया,
मेरी हस्ती को l
अच्छा ही किया,
जो जख्म दे दिए तूने ,
वरना जीते किसके सहारे,
पहाड़ सी इस जिंदगी को l
यह रचना मनोज चौहान जी द्वारा लिखी गयी है . आपकी बिभिन्न पत्र – पत्रिकाओं (समाचार पत्र - दैनिक भास्कर(चंडीगढ़) , दैनिक जागरण,अमर उजाला ,दैनिक ट्रिब्यून , अजीत समाचार(जालंधर), पंजाब केसरी(जालंधर ),दिव्य हिमाचल (धर्मशाला, हि .प्र),हिमाचल दस्तक,आपका फैसला,दैनिक न्याय सेतु(हमीरपुर,हि.प्र.)एवं पत्रिकाएँ – सरोपमा(होशियारपुर,पंजाब),बहती धारा(शिमला ),गिरिराज साप्ताहिक(शिमला) , हिम भारती(शिमला),समाज धर्म(ऊना,हि .प्र.), एसजेवीएन (शिमला) की गृह राजभाषा पत्रिका “हिम शक्ति” आदि l ) में समय – 2 पर कविता , लेख , फीचर , साक्षात्कार ,व्यंग्य , क्षणिकाएं , लघुकथा, निबंध ,पाठकों के पत्र,प्रतिक्रियाएं इत्यादि प्रकाशित एवं अंतर्जाल पर “जय –विजय” , “रचनाकार” आदि पत्रिकाओं में भी रचनाएं प्रकाशित हो चुकी हैं . संपर्क सूत्र - मोबाइल .09418036526,09857616326ई - मेल : mc.mahadev@gmail.com
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